अदिति की आत्मकथा (रचनाकार - श्यामा प्रसाद चौधरी)
(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )नंदिता की मिसेज चटर्जी
वह वहाँ नहीं थीं, और उसकी बातों को नहीं मानने की बहुत इच्छा हो रही थी। नंदिता की सारी छोटी-छोटी बातें। कल कॉन्फ़्रेंस के बाद उसे साँस लेने की फ़ुर्सत नहीं थी, आज मेरे हिसाब से और निहायत ज़िद के अनुरूप पहली बार कलकत्ता देखने की इच्छा थी, मेरे नहीं मानने वाली उस योजना के विशेष अंश के रूप में।
आज सुबह से भारी बारिश होने के कारण वह योजना निरस्त करनी पड़ी थी। वास्तव में काग़ज़ पर अंकित कोई भी चित्र आलू-बालू होकर गीला होने से वह काग़ज़ फटने की स्थिति में आ गया था।
नंदिता ने सूची बनाई थी, आज वह यहाँ क्या-क्या करेगा। कहाँ वह ज़रूर जाएगा और क्या चीज़ अवश्य देखेगा। हावड़ा ब्रिज। उसके ऊपर से गंगा और दूर से दिख रहे विद्यासागर सेतु की धुँधली झलक। कई वर्षों से हावड़ा ब्रिज का नाम बदलकर हो गया है रवींद्र सेतु। इसके अलावा, उस सूची में लिखे हुए थे विक्टोरिया मेमोरियल, नेशनल म्यूजियम, टाउन हॉल, नेशनल लाइब्रेरी। बाहर-बाहर से केवल हाज़री डाली जा सकती है। जबकि विक्टोरिया के बाहर घोडागाड़ी का एक चक्कर लगाना। बॉटनिकल गार्डन, अलीपुर ज़ू का गेट और लंबी क़तार। काली मंदिर के आसपास का बाज़ार। पंडों की दादागिरी, इसलिए माँ काली को बाहर दूर से ही नमन। उसके बजाय दक्षिणेश्वर के काली मंदिर, बेलूर मठ आदि के दर्शन करना बेहतर होगा। फिर ये सब जल्दी-जल्दी देखकर लंच के सही समय पर चाइनीज़ खाना खाकर दवाई लेनी होगी। समय पर होटल लौटकर जल्दी से सो जाने पर सुबह तीन बजे उठकर तैयार होकर, साढ़े चार बजे एयरपोर्ट पहुँचा जा सकता है, बिना किसी तनाव ग्रस्त हुए, सुबह छह बजे की फ़्लाइट पकड़ने के लिए। हाँ, बीच-बीच में नंदिता को फोन करना पड़ेगा या फिर अपने फोन के कैमरे से फोटो खींचकर भेजने होंगे।
मेरे पास थी मेरी गुप्त सूची, जो अब भी है। मेरे मस्तिष्क में। सोचा था कि मैं नंदिता के यहाँ वाले घर जाऊँगा। जब वे लोग इस घर में थे, लगभग चौदह वर्ष तक। यही बात है। देखूँगा, आजकल वहाँ कौन रहता है। देखूँगा, उस घर के पास वाले घर में रहने वाली रोज़ी आंटी, संदीप अंकल और उनका पोमेरियन कुत्ता हैं या नहीं। जब नंदिता के पिता कलकत्ता छोड़कर चले गए थे तब अंकल जॉकी को लेकर आए थे। एक पोमेरियन कितने साल जीवित रहता है? क्या अब भी होगा?
मैंने सोचा था, मैं नंदिता के स्कूल भी जाऊँगा। उसकी पसंदीदा मिठाई की दुकान, आइसक्रीम पार्लर में भी। मैं उस पानीपुरी वाले की तलाश करूँगा, जिससे नंदिता ने ख़ूब पानीपुरी खाई थी। वह बूढ़ा हो गया होगा। नंदिता कह रही थी कि वह उसे चौदह रुपये नहीं दे पाई और न ही उसे बाद में कभी देने का मौक़ा मिला। मैंने उसे ढूँढ़ कर नंदिता की ओर से पाँच सौ रुपए का नोट दे दूँगा। मैं उसके चेहरे की चमक, उसकी ख़ुशी देखूँगा। मैं रसेलस्ट्रीट के उस क्लब में जाऊँगा, जहाँ नंदिता ने तैरना सीखा था। मैं एली, रिनू, वर्तिका और मीनाक्षी की तलाश करूँगा। उनके घर पहले नंदिता कितनी बार जा चुकी थी? किसी के आँगन, किसी के छज्जा, तो किसी के किचन, किसी के ड्राइंग रूम में अड्डा जमाती थी। मैं जानता हूँ कि वे लोग अभी कलकत्ता में नहीं हैं। बाहर कहीं इधर-उधर है। पता नहीं, फिर खोजने में, केवल खोजने पर ऐसी क्या दिक़्क़त है?
सोचा था, मैं उस यूडलैंड अस्पताल जाऊँगा, जहाँ नंदिता महीनों तक भर्ती थी, उधर स्कूल में पढ़ने के दौरान। जाऊँगा मैं, जरीन आंटी की क्लास में, जहाँ नंदिता ने नाटक में पहली बार अभिनय करने का मज़ा लिया था, सीखकर अभिनय किया था। मैं पता करूँगा कि उन लोगों का जिनसे उसका कभी झगड़ा हुआ था। मैं उस बस की तलाश करूँगा, जिससे नंदिता एक बार नीचे उतरते समय पैर फिसलकर गिर गई। उस सिनेमा हॉल में जाऊँगा, जहाँ कभी नंदिता अपनी पसंदीदा फ़िल्में देखा करती थी। हाँ, मैं मिसेज चटर्जी के पास जाऊँगा। नंदिता की मिसेज चटर्जी।
बारिश ने पहले ही सब-कुछ चौपट कर दिया है। अभी भी बारिश हो रही है, फिर भी मैं नंदिता के लिए कुछ ख़रीदने के लिए बाहर निकला हूँ। मैं कुछ खरीदूँगा, उसके कलकत्ता से। मैंने अपने आपको समझा दिया है कि अगली बार मैं जब भी कलकत्ता आऊँगा, नंदिता की सूची के अनुसार घूमूँगा। मैं उसके साथ ही आऊँगा। देखता हूँ, आज की भारी बारिश से बचने के उपरांत जितना समय मिलता है, मुझे लगता है, केवल मिसेज चटर्जी के पास ही जाना हो पाएगा।
मैं टैक्सी से नीचे उतर गया। बारिश कुछ कम हुई थी। पहले मैं नंदिता के लिए एक किताब खरीदूँगा। बाद में सोचता हूँ, नहीं, मैं नंदिता की एक पसंदीदा किताब ख़रीदकर मिसेज चटर्जी को दूँगा। नंदिता के स्कूल के अंतिम वर्ष में वह अंग्रेज़ी पढ़ा रही थी। और नंदिता कह रही थी ऐसे पढ़ाने वाले लोग मिलना मुश्किल है।
मैं आर्केड में भीड़ में हूँ। अचानक तेज़ बारिश से बचने के लिए हम सब यहाँ आकर खड़े हो गए। बारिश के थमने का इंतज़ार कर रहे थे, बारिश छूटने पर हम इधर-उधर चले जाएँगे। मेरे बग़ल में एक प्रौढ़ स्त्री खड़ी थी। हल्के गुलाबी रंग में वह बेहद ख़ूबसूरत लग रही हैं। उसकी कोहनी कभी-कभी मेरे हाथ में लग जा रही थी। चश्मा पहनने से वह गंभीर दिख रही थी, लेकिन उसके चेहरे पर अद्भुत चमक नज़र आ रही थी। उसने अपने सिर के बालों को पोनीटेल की तरह बाँध रखा था। काजल लगाने से आँखें और बड़ी-बड़ी दिख रही थी। माथे पर लगी हुई थी असामान्य रूप से बड़ी लाल बिंदी। उसके शरीर से अचानक आने लगी एक परफ़्यूम की महक, जो जानी-पहचानी-सी लग रही थी। जो नंदिता की प्रिय है। प्रिय होने का कारण, मिसेज चटर्जी की वही फेवरेट थी।
मुझे वह दिन याद है, जब हमने उस परफ़्यूम का नाम मिसेज चटर्जी दिया था। क्योंकि मैं उस परफ़्यूम का नाम नहीं जानता था और नंदिता उसका नाम भूल चुकी थी। एक दिन, जब हम एक मॉल में घूम रहे थे, एक दुकान में सामान देखकर नंदिता अचानक कहने लगी, मिसेज चटर्जी।
“कौन? कहाँ?” मैंने आश्चर्य से पूछा।
“यहीं कहीं मिसेज चटर्जी अवश्य हैं!”
इससे पहले भी उसने मुझे कई बार उस अद्भुत शिक्षिका के बारे में बताया था। मेरे अंदर भी कभी भी उसे नहीं देखने के बावजूद भी एक ऐसा चेहरा उभर आया था, जिससे मैं उसे पहचान सकता था।
“तुम्हारे स्कूल वाली?”
“हाँ, वह अवश्य यहीं है। वही महक, वही अद्भुत परफ़्यूम। उसका नाम क्या है?”
नंदिता परेशान हो गई थी। नहीं, परफ़्यूम के नाम के लिए नहीं, बल्कि मिसेज चटर्जी के उस पल वाले परफ़्यूम ढूँढ़ने के लिए। ओह, क्या कोई किसी को खोजने की ऐसी भी ज़हमत उठाता है?
मैंने भी उस दिन खोजा था। नंदिता के साथ-साथ। एक ऐसी शख़्सियत को, जिसे नंदिता मिसेज चटर्जी कहकर बुलाती थीं। पैर छुएगी। भूल जाएगी कि मैं उसके बग़ल में खड़ा हूँ। मेरा परिचय देना भी भूल जाएगी।
मैंने एक परफ़्यूम से ऐसे शख़्स की तलाश की थी, जो ख़ुद नंदिता से पूछेगी कि यह कौन है? मतलब मैं कौन हूँ? तब मुझे जिस परफ़्यूम की ख़ुश्बू का आभास हुआ, क्या नंदिता उसी ख़ास परफ़्यूम की ख़ुश्बू में मग्न हो गई थी? ख़ुश्बू का वर्णन करना कठिन है, हमेशा शब्दों में।
उस दिन हमें वहाँ कोई मिसेज चटर्जी नहीं मिली। इसलिए मैंने उस ख़ुश्बू का नाम नंदिता की मिसेज चटर्जी रख दिया। जिसे मैंने कभी नहीं देखा था और नंदिता मन ही मन हमेशा से सोचती आ रही थी कि उससे अचानक कहीं न कहीं मुलाक़ात अवश्य होगी।
अब जैसे ही उस परफ़्यूम की महक मुझे घेरने लगी थी कि नंदिता का फोन आ गया। और मुझे याद आ रहा है एक बार सुबह एक-दो मिनट बात करने के बाद मेरा नेटवर्क काम नहीं कर रहा था। उसी दौरान बहुत बारिश भी हो रही थी। दोपहर की धूप ख़त्म होने लगी थी। दिन का उजाला भी कम होने लगा था।
नंदिता पूछती है मुझे कि क्या कर रहा हूँ मैं। क्या कलकत्ता अब बारिश में कदर्य दिख रहा है? मैंने कहा, “नहीं।”
वह अचानक पूछने लगती है, “तुम्हारे पास में कौन खड़ी है?”
“मेरे पास?” मैं आश्चर्य चकित हो गया था।
“वह बूढ़ी दिख रही है।” नंदिता सच में कह रही है या मज़ाक़ में, मुझे समझ नहीं आ रहा है। क्या सच में नंदिता मुझे देख पा रही है? मेरे पास सब-कुछ देख पा रही है? मेरे सामने कलकत्ता को? पूरे कलकत्ता को, जिसे उसने कई सालों से छोड़ दिया था? मैं यहाँ पहले कभी नहीं था, लेकिन अब मैं हूँ! आज हूँ यहाँ!
इतनी बारिश, कुछ भी छुपा नहीं सकती है? क्या बारिश मुझे गीलाकर पूरी तरह से अस्पष्ट, अदृश्य नहीं कर पाएगी? किसलिए नहीं कर पाएगी?
कोई तुम्हें कब से प्यार करना शुरू कर देगा, यह जानना बहुत मुश्किल है। लेकिन मेरे दोस्तों का दावा है कि वे उस शानदार पल के शुभारंभ को जानते हैं। हर कोई कहता है। एक दिन दीपा ने एक प्रसिद्ध लेखक, शायद काम्यू नाम होगा, का एक उपन्यास ख़रीदकर सरोज को दे दिया था। उसका नाम था ‘ए हैप्पी डेथ’। इसके अंदर के पृष्ठ पर उस नाम के ऊपर उसने लिखा था, “तुम्हें इसकी ज़रूरत है, सरोज” और सरोज ज़िद से उसी क्षण समझ गया, उसी समय से दीपा को उससे प्यार हो गया। इसी तरह बाईस ख़ाली काग़ज़ों को बाईस अलग-अलग लिफ़ाफ़ों में रखकर नीतू के द्वारा अविनाश को भेजने के बाद, या सुचित्रा द्वारा गुलाब की सारी पंखुड़ियाँ तोड़कर हज़ार गिनने वाले दिन के बाद, विकास और नीलू कुछ बात पर कॉलेज नहीं आने पर समीर को भी पता चल गया, वर्णन नहीं करने जैसे प्रेम की शुरूआती पलों को।
अब मेरी बात सुनी जाए। एक दिन नंदिता ने मुझे फोन पर कहा, “अचानक आपकी याद आने लगी है।”
“अचानक?”
“मैं कॉफ़ी पी रही हूँ।”
“ओह!”
“क्या ओह?”
“ख़ुश्बू आ रही है।”
“कॉफ़ी की ख़ुश्बू? टेलीफोन पर?”
“नहीं, आपकी ख़ुश्बू। टेलीफोन पर।”
बाद में एक दिन हम दोनों के लिए कॉफ़ी बनाते समय उसने मेरे शरीर से चिपटते हुए कहा था कि मेरी उस ‘टेलीफोन वाली ख़ुश्बू’ ने पहली बार उसे दीवाना बना दिया। पागल कर दिया, मेरे भीतर मेरी ख़ुश्बू खोजने के लिए।
बाद में अतीत की इन सभी छोटी-छोटी बातों को लेकर लंबे समय तक अन्यमनस्क होना चाहने पर भी मैं ऐसा नहीं कर सका था। मेरे आस-पास सब-कुछ धीरे-धीरे बदल रहा है, जबकि कोई भी बात स्पष्ट नहीं हो रही है। सड़क पर ट्रैफ़िक बढ़ रहा है। मानो सभी ने अपने-अपने घर छोड़कर मेरे सामने भीड़ में शामिल होने की क़सम खाई है और यहाँ से कहीं और जाएँगे। अपने घर या किसी और के घर। टैक्सियाँ एक साथ इकट्ठी होकर ऐसे लग रही हैं जैसे सड़क से कुछ ऊँचाई पर पीला कालीन बिछा दिया हो। कुछ छाते ऐसी काली आकृतियाँ बना रही थी, जिनका वर्णन ज्यामिति की किताबों में भी नहीं मिलेगा। मेरे चारों तरफ़ से लोग पता नहीं, कहाँ-किधर भाग रहे हैं। और कितने नए लोगों को रास्ता दे रहे हैं।
मगर चश्मा पहनी वह महिला मेरे बग़ल में खड़ी है। शायद उसे लेकर नंदिता मुझे चिढ़ा रही है क्योंकि वह बूढ़ी मेरे बग़ल में खड़ी है। क्या नंदिता नहीं सोच पा रही है कि वह बूढ़ी मिसेज चटर्जी हो सकती हैं?
वह औरत और मेरे क़रीब आने लगी। सच तो यह है कि हम दोनों एक अजीब भीड़ में हैं। भीड़ कभी-कभी तुम्हें अकेला कर देती है। कभी-कभार दोनों को भी अकेला बना देती है। लेकिन आप वास्तव में अकेले नहीं होते हैं। दो लोग भीड़ नहीं होती है। पहला आदमी दूसरे की ख़ुश्बू से संज्ञाहीन हो जाता है।
अचानक नंदिता कहती है, “आप अभी कहाँ हो?”
“पार्कस्ट्रीट में।”
“तो फिर पार्कस्ट्रीट से क्वीन जाइए।”
“क्वीन?”
“फ्लूरीस को पार्कस्ट्रीट की क्वीन यानी रानी कहा जाता है।”
“केक की दुकान? मैं तो वहीं हूँ। उसके सामने आर्केड है। हम सब यहाँ हैं। हम बारिश थमने का इंतज़ार कर रहे हैं।”
“नहीं, फ्लूरीस के अंदर जाओ। एक ब्लैक फॉरेस्ट केक ख़रीदना।”
“मैं उसे कल तक कहाँ रखूँगा। होटल के कमरे के फ़्रिज में?”
“नहीं, मिसेज चटर्जी के घर जाओ। इसे उसे देना। उसे मेरे बारे में बताना। देखते हैं उन्हें नंदिता याद भी है या नहीं। इतने सालों बाद याद कर पा रही है या नहीं?”
“बारिश में?”
“बारिश रुक जाएगी।”
नंदिता अचानक अपने स्कूल के दिनों वाली नंदिता की तरह उत्तेजित हो गई। शायद तब वह ऐसी थी? हमेशा? वह कभी-कभार कम बोलती है। कभी-कभी अकल्पनीय प्रगल्भता। इसे हर दिन नए-नए तरीक़े से खोजा जा सकता है। विवाह होने के कई दिनों बाद मुझे पता चला कि वह अपने होंठों पर अपनी उँगली दबाकर सीटी बजा सकती है। मैं नहीं बजा सकता। लेकिन वह हुलहूली नहीं कर सकती है, मगर मैं कर सकता हूँ। वह बड़े-बड़े उपन्यास एक रात में ख़त्म कर सकती है। उसके दो-तीन पसंदीदा उपन्यास हैं। उन्हें वह हर साल पढ़ती है। अपने घर में अलग-अलग दोस्तों, अलग-अलग लोगों की नक़ल करके और उनकी आवाज़ में बात करके मुझे हँसा सकती है; नहीं तो, रात भर अपनी माँ की बातों को याद कर वह रो सकती है। एक दिन अचानक मुझे पता चला कि वह स्कूल के सारे नाटकों में खलनायक बनती थी, मगर कॉलेज में किसी भी नाटक में उसने अभिनय नहीं किया।
नंदिता फोन पर कहती है, “मुझे ठीक-ठीक पता है कि तुम कहाँ खड़े हो?”
“मतलब?”
“मुझे अच्छी तरह याद है। हमने वहाँ कितने अड्डे जमाए थे? अच्छा, पास में म्यूज़िक की दुकान है, है ना?”
“नहीं।”
“फुटपाथ पर किताबें और पत्रिकाएँ बेच रहे हैं।
“आपके सामने परदे, कालीन बेचने वाली कोई दुकान है?”
“हाँ।”
“उसके बग़ल में पुराने फ़र्नीचर की दुकान? सामने कोई बड़ा पेड़ है?”
“वहाँ कुछ और दुकानें हैं। पेड़ हैं।”
“एक बड़ा रेस्टोरेंट?”
“यहाँ से नहीं दिख रहा। इसके अलावा, बारिश ने सब-कुछ इधर-उधर चौपट कर दिया है। कौन किस दिशा को देखते हुए खड़ा है, या चल रहा है, कुछ समझ में नहीं आ रहा है।”
मुझे लगता है कि नंदिता एक लंबी साँस लेते हुए नाटकीयता के साथ कहने लगी: “बारिश अब थम गई है, निश्चय ही। यदि आप दाहिनी ओर भीतर होकर चर्च की ओर जाते हैं, तो गली के अंत में मिलेगा हमारा विद्यालय। उस तरफ़ से पहला और दूसरा भवन, डब्ल्यूसीए ऑफ़िस हॉस्टल। तीसरा भवन आयकर कार्यालय। आठ मंज़िला। उससे दो तीन घर छोड़कर एक संकीर्ण गली में मिसेज चटर्जी का एकमात्र घर है।” वह आगे कहती है, “बारिश में भीगते-भीगते उनके पास पहुँचकर मुझसे बात कराना। मैं आपका परिचय दूँगी। मेरे पति, वह न केवल ख़ुश होगी, बल्कि मुझे लगता है, उन्हें आश्चर्य भी होगा।”
नंदिता अपने आप में एक आश्चर्य है। अचानक मेरे फोन का नेटवर्क चला गया। तरह-तरह के निर्देशन के मामले में मैं एक बेहतरीन किरदार हूँ। अब मैं अभिनय करूँगा। क्या कहूँगा, मगर लिखा हुआ नहीं। और मैं जिस किसी से भी कहूँगा, उसे न तो जानता हूँ और न ही पहचानता हूँ। पहले कभी देखा भी नहीं।
बारिश रुक गई थी। नहीं, वह महिला भी नहीं है। न ही पहले जैसी भीड़ है, न ही बेतुका अकेलापन है। मुझे अचानक याद आया कि वह महिला ही मिसेज चटर्जी थी। अभी तक उस परफ़्यूम की ख़ुशबू नहीं गई थी, जिसे हमने—नंदिता और मैंने मिलकर-मिसेज चटर्जी नाम दिया था। मुझे अजीब लग रहा था। इतनी देर पास में खड़े रहने के बाद भी मुझे कुछ पता नहीं चला। और अब केक लेकर उसके पास जाऊँगा! जीवन में ये सब-कुछ बेतरतीब ढंग से क्यों घटता रहता है?
मैं उनके घर जाने के लिए एक लंबा सफ़र तय कर चुका हूँ। मुझे लगता है कि मैंने नंदिता के निर्देशानुसार केक नहीं ख़रीदा! नंदिता ने भी एक बार बताया था कि वह कैसे भूल गई थी केक ख़रीदना, मिसेज चटर्जी के लिए, उनके जन्मदिन पर।
प्रार्थना कक्षा में उनके चेहरे पर अजीब-सी चमक देखकर नंदिता को अचानक याद आया कि वह दिन मिसेज चटर्जी का जन्मदिन था। कितनी मुश्किल से झूठ बोलकर स्कूल के गार्ड को किसी तरह समझा-बुझाकर वह केक ख़रीदकर लाई थी, इस बात को वह अपने जीवन की उपलब्धि मानती है। ब्रेक के बाद ही मिसेज चटर्जी की क्लास थी। जबकि जल्दबाज़ी में केक काटने के लिए चाकू लाना ही भूल गई थी। केक नहीं काटा गया। मिसेज चटर्जी ने ही अपने हाथ से केक का एक टुकड़ा निकालकर किसी दूसरी लड़की के मुँह में डाल दिया था। पता नहीं कैसे, वह दिन उनका भी जन्मदिन था। वह एक छोटे बच्चे की तरह ख़ुश होकर ‘हैप्पी बर्थडे’ कह रही थी। नंदिता एक गंभीर अभिभावक की तरह खड़ी होकर देख रही थी, जबकि कक्षा की सभी लड़कियाँ केक पर टूट पड़ी थी। केक का एक छोटा-सा टुकड़ा भी उसके मुँह में गिरने से पहले ही सारा केक ख़त्म हो गया था, एक अजीब शोरगुल में। वह शोरगुल सुनकर हेडमिस्ट्रेस दौड़कर आई थी, उसने नंदिता की सफ़ाई को सुने बिना ही अपने जीवन की सबसे कठोरतम सज़ा दी। उस दिन सारी कक्षाएँ ख़त्म होने के एक घंटे बाद भी उसे खड़ा रहना पड़ा था। हालाँकि, उसे जादुई परिपूर्णता और अबोध आत्म-संतुष्टि की अद्भुत भावना अनुभव हुई थी। क्योंकि मिसेज चटर्जी की उज्ज्वल आँखों में अटकने के लिए राज़ी नहीं होने वाले आँसू थे।
नंदिता को एकबारगी यक़ीन हो गया था कि मिसेज चटर्जी उस दिन से उसे अलग भाव से देखती थी। उसके प्रत्येक उत्तर को कक्षा में पढ़कर सुनाती थी। शेक्सपियर के नाटक, जो उनके पाठ्यक्रम में थे, उसकी सबसे शानदार पंक्तियों को केवल नंदिता के मुँह से सुनने के लिए मजबूर किया जाता था।
नंदिता ने कितनी बार मुझे यह समझाने की कोशिश की है कि वह अद्वितीय और असामान्य है, लेकिन पता नहीं, मुझे क्यों यह असहज लगता था। क्योंकि मुझे पता है कि वह वास्तव में दूसरों से अलग है। यह बात उसने पहले से ही नंदिता को कई तरह से समझा दी थी या फिर नंदिता ख़ुद यह बात पहले ही समझ चुकी थी। यह बात मिसेज चटर्जी ने अन्य सभी शिक्षिकाओं को पहले से ही बता दिया था। यहाँ तक कि मिस्टर चटर्जी को भी।
“क्या मिस्टर चटर्जी भी तुम्हारे स्कूल में टीचर थे?”
“नहीं, वह एक लेखक हैं। एक बड़े लेखक हैं। एक बार हमारे पुरस्कार वितरण समारोह में मुख्य अतिथि बनकर आए थे। हमारे अंतिम वर्ष के बाद। पुरस्कार देते समय मिसेज चटर्जी से सीधे पूछा, ‘क्या यह वही नंदिता है?’”
“मतलब?”
“इसका मतलब उन दोनों ने मेरे बारे में अवश्य बातचीत की होगी।”
मेरे हाथ में ब्लैक फॉरेस्ट केक और मैं मशहूर लेखक शीर्षेन्दू चटर्जी के घर के सामने खड़ा हूँ। हालाँकि मैं नंदिता की तरह चाकू लाना नहीं भूला था। इस केक के पैकेट में प्लास्टिक का चाकू है। मुझे नहीं पता, मेरी पहली नज़र में पहचान इतनी दूर तक चली जाएगी कि जो केक मैं लाया हूँ, वह मेरे सामने काटा जाएगा और मुझे भी खाने को एक टुकड़ा मिल सकता है। नंदिता के विपरीत, स्वयं केक ख़रीदकर लाने के बावजूद भी उसे बाहर खड़े होने की सज़ा मिली।
शायद घर पर कोई नहीं है। मिसेज चटर्जी भी नहीं है। घर पुराने ज़माने का है। ज़मींदार घराने जैसा। लंबा और पुराना। केवल रंग अभी-अभी लगा है।
जो कोई दरवाज़ा खोल रहा है, धोती और पंजाबी पहनी हुई है। पता नहीं क्यों मैं हमेशा से सोचता आ रहा हूँ कि लेखक ऐसी ही पोशाक क्यों पहनते हैं। वह निश्चित रूप से शीर्षेन्दू चटर्जी होंगे, नंदिता के प्रसिद्ध उपन्यासकार। मैंने उन्हें कभी नहीं पढ़ा। उनकी पुस्तक का अंग्रेज़ी में अवश्य अनुवाद हुआ है। लेकिन कहीं नज़र नहीं आया। नंदिता ने कभी उसकी तलाश नहीं की! वह अपनी 'रेबेका’, ‘जेन एय्यर’ उपन्यासों की वजह से पूरी दुनिया भूल जाती हैं। नहीं तो, दोस्तोवस्की या टॉल्स्टॉय।
लेखक के हाथ में क़लम है। वह सीधे राइटिंग टेबल से उठकर आए हैं। मैं अपने आपको दोषी महसूस कर रहा हूँ। मैंने किसी न किसी उपन्यास की तैयारी में अनैच्छिक रूप से घुसपैठ की है। मैं कौन हूँ?
मैंने नम्रतापूर्वक समझाया, ‘मैं नंदिता का पति जयंत हूँ। नंदिता ने मिसेज चटर्जी के लिए केक भेजा है।’
ठीक से अपने लेखन की दुनिया से वह शायद बाहर नहीं आए होंगे। मुझे अंदर आकर इंतज़ार करने के लिए कहकर भीतर चले गए। जैसे कभी-कभी आपकी नींद सपने देखते-देखते टूट जाती है। कुछ समय बाद आप फिर से सपनों की अनसुलझी और अतार्किक दुनिया में क़दम रखते हो।
लेखक के चेहरे और शरीर पर उम्र लुका-छिपी का अजीब खेल खेल रही थी। कहीं से वे वयस्क नज़र आ रहे थे, तो कहीं से वे जवान। फिर भी, मुझे नाटक में एक ऐसा चरित्र याद आने लगा, जो मंच पर आता है और बिना कुछ कहे भीतर के पर्दे की ओर चलते हुए, अचानक अपने संवाद भूल जाता है।
नंदिता का फोन आता है और वह जानना चाहती है कि मैं कहाँ पर हूँ। मिसेज चटर्जी से कितनी दूर। वह मुझे कहती है, मैं यह बताना भूल गई थी कि आज मिसेज चटर्जी का जन्मदिन है।
मुझे आश्चर्य नहीं लगता है, नंदिता के भूलने के बारे में या जो अब उसे याद आ रहा है, उसके बारे में, मुझे सच में लगता है कि यह एक तरह से असंभव है, लेकिन मेरे अवचेतन मन में मुझे यह याद था। नहीं तो मैं केक वाले को आइसिंग लगाते समय क्यों कहता लिखने के लिए, “हैप्पी बर्थडे, मिसेज चटर्जी” और “फ्रॉम नंदिता?”
क्या-क्या नहीं कर पाता किसी का अवचेतन मन। मुझे लगता है कि सारी चीज़ें वही करता है। वही सपने देखता है, वही सपने दिखाता है। वही कहता है, ऐसा करो, ऐसा मत करो! वही कहता है, यह झूठ है, यह सच है।
ठीक उसी समय, पर्दे के पीछे से आ रही है, मुझे नहीं लगता है कि वह मिसेज चटर्जी थीं। आँखों में काजल भी ढंग से नहीं लगाया है। माथे पर बड़ी लाल बिंदी तक नहीं है। वह नंदिता की उम्र के आसपास लगती है। मैं उनके पैर छूकर प्रणाम करने की सोच रहा था, अगर नंदिता अभी यहाँ होती तो वह कर देती। और ऐसे भी, नंदिता के प्रसिद्ध लेखक को मैं अचानक नमस्ते कहना भूल गया था।
सब कुछ इतनी तेज़ी से हुआ, और ऐसा हो रहा था कि मैं उस चीज़ पर ज़्यादा ध्यान ही नहीं दे पाया। मुझे बड़े ड्राइंग रूम का अँधेरा नज़र नहीं आया। लंबे-लंबे पर्दों को, जो सारे झरोखों को छुपाए हुए है, बारिश के बाद की लजकुली रोशनी को, जो झरोखों से भीतर आना चाहती है। मैंने न तो उनके किताबों के ढेर की ओर ध्यान दिया और न ही उनकी बिना सजी-सँवरी बौद्धिकता की ओर। मैंने पत्र, फोटो की तरफ़ ध्यान नहीं दिया, जो दीवार पर घावों की तरह दिख रहे थे। मैंने कुछ नहीं देखा, मुझे कुछ पता नहीं चला। यहाँ तक कि नंदिता की फोन लाइन कटने के बारे में भी।
फिर उसका फोन आ रहा है, मैं जान रहा हूँ। वह जानना चाहती है, क्या मैंने जन्मदिन वाला केक लाया? वह जानना चाहती है कि मिसेज चटर्जी से मेरी मुलाक़ात हुई या नहीं। वह जानना चाहती है कि क्या मिसेज चटर्जी उसे याद करती हैं या नहीं। इतने सालों बाद बूढ़ी दिख रही हैं? वह उससे फोन पर बात करने के लिए व्याकुल है।
“अच्छा, पहले मैं अपनी पहचान दे देता हूँ,” कहकर फोन काट देता हूँ। ज़्यादा विनीत भाव से समझाता हूँ, मैं जयंत और नंदिता का पति हूँ। मैं यहाँ केवल मिसेज चटर्जी को देखने आया हूँ। नंदिता ने उनके लिए केक भेजा है, चाकू सहित। इतने सालों बाद भी वह अविस्मरणीय जन्मदिन कैसे नहीं भूल पाई।
वह भद्रमहिला अचानक मुझे बड़ी लगने लगी। वही पुरानी अर्द्ध परिचित, मगर अतिपरिचित परफ़्यूम की ख़ुश्बू अचानक आने लगती है। वह अवश्य मिसेज चटर्जी होनी चाहिए। मानो मैं सबसे ऊँची चोटी पर चढ़ गया हूँ। अब ख़ाली नंदिता के झंडे को दफ़नाने का समय आ गया है।
वह धीरे-धीरे चौकी पर बैठने लगी, मानो उसके लिए वह चौकी बनी हुई है। मैं मिसेज चटर्जी हूँ। आज मेरा जन्मदिन है, लेकिन मैं नंदिता की मिसेज चटर्जी नहीं हूँ।
नंदिता का फोन आ रहा है। उसके फोन को रिसीव करते समय वह आगे कहती है—केक के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। हालाँकि नंदिता की मिसेज चटर्जी को दिवंगत हुए कई दिन हो गए हैं। मैं नंदिता की सहपाठी हूँ। वर्तिका।
अचानक मेरी इच्छा होती है कि मैं किसी भी बात पर पूरी तरह से विश्वास न करूँ। यह भी इच्छा हो रही है, नंदिता को इस बारे में नहीं बताऊँ। मैं फोन काट देता हूँ और अपने आप से कहता हूँ कि नंदिता शायद उसे नेटवर्क की दिक़्क़त ही समझेगी।
मुझे पता नहीं, ऐसा क्यों लगता है, मैं नंदिता को यह नहीं कहूँगा कि मिसेज चटर्जी और नहीं रहीं। भले ही, और कोई ख़ुद को मिसेज चटर्जी कहती हो, वह तो नंदिता की वह अद्भुत शिक्षिका नहीं थी! मैं सोचने लगा कि नंदिता को कहूँगा, मिसेज चटर्जी से मुलाक़ात नहीं हो पाई। फिर से तेज़ बारिश होने लगी और मैं वापस होटल लौट आया।
अब नई इस मिसेज चटर्जी ने वाक़ई कुछ अद्भुत बात कही। नंदिता ने बर्थडे का केक भेजा है, कृपया मेरा गिफ़्ट भी उसे दे देना।
“गिफ़्ट?” मुझे आश्चर्य होने लगा था उसके हाथ में पैकेट देखकर। क्या उसे पहले से पता था कि नंदिता केक भेजेगी, लेकिन मिसेज चटर्जी के लिए, बाद में ही सही।
“कृपया, इसे नंदिता को दें और उसके देखने से पहले आप इसे नहीं देखें।”
नंदिता को किताबें बहुत पसंद हैं। वह बहुत ख़ुश होगी। इसमें किताब होनी चाहिए!
और फिर मैं कितने समय वहाँ रहा और हमने किसके बारे में बातचीत की, ये सारी चीज़ें महत्त्वपूर्ण नहीं थी। मैं सोच रहा था कि नंदिता को किताब का पैकेट कैसे दूँगा, अगर मैं कहता हूँ कि मेरी मिसेज चटर्जी के साथ मुलाक़ात नहीं हुई।
हालाँकि, मैं उस पुस्तक को देखने की अपनी जिज्ञासा को शांत नहीं कर सका। मैंने पैकेट को अभद्रतापूर्वक फाड़ दिया। जैसे कि मैं अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ किसी को नग्न कर रहा था।
मेरे लगभग थर्राते हुए हाथों में है शीर्षेन्दू चटर्जी का एक उपन्यास, जिसका अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है वर्तिका चटर्जी ने। लेकिन सबसे आश्चर्यजनक बात है उस उपन्यास के शीर्षक का नाम ‘नंदिता’।
ठीक उसी समय नंदिता का फोन आता है। अच्छा, वर्तिका क्या नंदिता की मिसेज चटर्जी नहीं है? नंदिता को फोन उसके हाथों में थमाते हुए कहता हूँ। “अब बात करो और अनुमान लगाओ, यह कौन है?”
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