अदिति की आत्मकथा

 

मेरे शरीर से कोई अद्भुत ख़ुश्बू आ रही है? 

अख़बार पढ़ते हुए मैंने नंदिता से पूछा और उसने सोचा कि शायद मैं किसी विज्ञापन की कुछ ख़ास पंक्ति दोहरा रहा हूँ। इसलिए वह चाय बनाने में लगी रही। शाम की चाय पर कभी-कभी लगता है, केवल वह और मैं रहूँ। यहाँ तक कि न कोई कप, न कोई प्लेट और न ही कोई चाय रहे। 

सच में, मैं कोई मज़ाक़ नहीं कर रहा हूँ। मेरे शरीर से वास्तव में कोई अद्भुत ख़ुश्बू आ रही है। इसलिए मेरे पास कोई भी पाँच मिनट बैठता है या खड़ा रहता है तो वह आसानी से सुवासित हो सकता है और मैं उसे किसी क़रीबी रिश्तेदार की नौकरी दिलाने में किस तरह अद्भुत रूप से उपयोगी हो सकता हूँ, यह बात वह समझने लगता है। 

अगर कोई मुझे समझाता है कि मेरा काम क्या है तो मुझे बहुत आसानी से ग़ुस्सा आ जाता है। ऐसा लगता है कि इस तरह समझाने के द्वारा वह परोक्ष रूप से मुझसे कह रहा है कि ठीक तरीक़े से मैं न तो कुछ समझ सकता हूँ और न ही कुछ कर सकता हूँ। हालाँकि, मुझे नहीं लगता कि यह आम विचार है। 

जिस प्रकार कुछ निर्दिष्ट फूलों के खिलने का निश्चित समय होता है, उसी प्रकार मेरे भीतर किसी और के लिए उपयोगी होने की मेरी ख़ुश्बू के चारों ओर प्रसारित होने के शायद कुछ निर्दिष्ट पल होते हैं। इन्हीं कुछ ही दिनों के दौरान बहुत से लोगों ने मुझे विभिन्न प्रकार की नौकरियों के बारे में बताया कि मेरे फोन के एक अनुरोध पर वे उन्हें नौकरी कैसे दे सकते हैं। जैसे, यह एक सरल गणितीय सूत्र है, निर्भूल और निरपेक्ष। 

कुछ लोगों ने मुझे याद दिलाया है कि मैं वास्तव में अपने अनुमान से कहीं अधिक प्रभावशाली हूँ। मैं ख़ुद को जितना जानता हूँ, उससे कहीं ज़्यादा बड़ा और व्यापक हूँ। मैं कोई भी चमत्कार कर सकता हूँ। ख़ासकर उनके जीवन में। केवल मेरे कामना करने मात्र से। किसी के जीवन में नौकरी पाने के अलावा और क्या चमत्कारिक घटना घट सकती है! 
नंदिता ने ख़ुद चाय लाकर मेरे सामने बनाई। मैं प्रतीक्षा करने लगा कि पुराने तर्क, पुराने उद्धरण एक तरह के दार्शनिक दुर्बोध ऊँचाइयों तक पहुँचकर धुँधला दिखाई दें। 

नंदिता जब मुझे कुछ भी समझाने लगती है तो बहुत आकर्षक लगने लगती है। वह कहती है, मेरे चारों ओर निजस्व अनावश्यक अहंकार का घेरा बना हुआ है। जिसे लाँघकर मैं बाहर नहीं जा पा रहा हूँ। मैंने सोचा, इतना मूर्ख और कौन होगा जो मेरे सिर्फ़ टेलीफोन पर अनुरोध करने से नौकरी दे देता है, मेरे पास इतनी मूर्खता नहीं है। इसके अलावा, किसी के लिए बोलने का मतलब किसी और के प्राप्य की अवहेलना करना नहीं है? 

चाय पीना पूरा हो गया। एक षड्यंत्रकारी की तरह मैंने नंदिता से कहा, “मैं अभी घर पर नहीं हूँ। मैं कहाँ पर हूँ, तुम्हें मालूम नहीं कि मैं कब वापस लौटूँगा, यह भी तुम्हें बताया नहीं और मेरा मोबाइल स्विच ऑफ़ है।” 

“अच्छा, अगर दिल्ली से कोई खोज रहा होगा तो?” 

“खोजने वाले लोग विदेश चले गए हैं। वे मुझे नहीं खोजेंगे, अगर कोई फोन करता है तुम यही बताना।” 
“ओह, समझ गई। सुनयना तो? लेकिन उसकी बेटी की नौकरी के लिए आप कहोगे ऐसा तो मैंने नहीं कहा था। उन्होंने उसकी बेटी को निहायत अन्यायपूर्ण तरीक़े से निष्कासित कर दिया है। रंजना ऐसा कुछ नहीं कर सकती है, जिससे कंपनी उसे नौकरी से निकाल देगी। रंजना को मैं जानती हूँ और उसकी माँ सुनयना मेरे बचपन की सहेली हैं।” 

एक बार मैंने नंदिता को देखा। सहेली के लिए वकालत करते समय मेरे जैसा निष्ठुर और निरपेक्ष विचारक भी उसके युक्ति-तर्क में बह जाने के लिए ललचाता है। हे भगवान, स्त्री की सुंदरता के बिना पुरुष का जीवन कितना व्यर्थ होता! 
मैंने नंदिता से कहा:

“मैं सदानंद की बात कर रहा हूँ। तुम उसे नहीं जानती हो। मैंने उसके बारे में कभी तुम्हें नहीं बताया। मैं भी उसे कई सालों बाद मिला था। मतलब, वह मेरे पास आया था।” 

“क्या वह फोन करेगा? उसे तुम्हारे घर का नंबर कैसे पता चलेगा? आपने ज़रूर दे दिए होंगे।” 

“नहीं, वह यहाँ आ सकता है। अपने बेटे के साथ।” 

“आने दो।” 

“उसके बेटे को नौकरी चाहिए। सदानंद मेरे बचपन के दोस्त हैं।” 

“जहाँ जिसको जो कहना है, कह दो। आपको अपने दोस्त के लिए इतना तो ज़रूर करना चाहिए।” 

मैंने विरोध करने के लहजे में कहा, “कौन सा दोस्त है? हम स्कूल में पढ़ते समय एक ही कक्षा में पढ़ते थे। बस, इतना ही तो।” 

नंदिता ने पूछा, “फिर आप उसे क्यों दोस्त कह रहे हो?” 

मैंने समझाने के स्वर में बात आगे बढ़ाई, “तुम उसके बारे में कुछ नहीं जानती हो। बचपन से ही वह धूर्त है। पाठ का 'प' अक्षर नहीं है उसके पास। हमारे साथ उसकी स्कूली शिक्षा भी पूरी नहीं हुई। उसके बाद उसने क्या किया और अब क्या कर रहा है, इसकी जानकारी भी मुझे नहीं है। मुझे सारी बुरी बातें उसीने सिखाईं थी।” 

नंदिता अगर मास्टरनी होती तो मैं फ़ेल हो जाता। वह पूछने लगी, “सारी बुरी बातें उससे सीखीं, जबकि वह आपका दोस्त नहीं था? क्या वह आपका गुरु था? अच्छा, क्या-क्या बुरी बातें सीखी थी? फिर कौन सी क्लास में? ठीक है, उसे आने दो। मैं उससे पूछूँगी।” 

बड़ी मुश्किल से मुझे याद आया कि सदानंद ने मुझे कब और क्या-क्या बुरी बातें सिखाई थीं। ऐसी बातें, जो किसी और ने मुझे कभी नहीं सिखाई थीं, या जो बातें मैं ख़ुद नहीं सीख पाता, अगर सदानंद मेरा दोस्त नहीं बनता। ऐसे भी, मुझे लगता है कि पुरुष महिलाओं की तुलना में ज़्यादा बदतर चीज़ें जानते हैं और करते भी हैं। कभी-कभी तो पुरुष हर शब्द का ग़लत अर्थ निकालते हैं। 

बचपन में, मेरे पास बुरी बातों के लिए एक आसान फ़ॉर्मूला था। जो बातें अपने माता-पिता को नहीं बताई जा सकती हैं, वे बुरी बातें हैं। वयस्क होने पर मैंने वह फ़ॉर्मूला बदल दिया। जो बातें बच्चों को नहीं कही जा सकती है, वे बातें बुरी हैं। 

मुझे कुछ याद नहीं आ रहा है। नंदिता के बताने लायक़। लेकिन सदानंद के साथ मिलकर ख़राब होने का कुछ अद्भुत और रहस्यमय अनुभूति अवश्य थी। सदानंद ने मुझसे कहा था कि लोग शादी क्यों करते हैं? कहा था कि लड़के और लड़की में क्या अंतर होता है? कहा था कि कोई-कोई लड़की इतनी प्यारी क्यों लगती हैं? उसने समझाया था कि कोई वयस्क कब और क्यों बनता है? क्या ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें जाने बिना या किए बिना कोई वास्तव में वयस्क नहीं होता है? 
मैं क्या ऐसे सब सोच रहा हूँ? क्या एक दोस्त के बारे में ऐसा सोच रहा हूँ? बचपन के दोस्त के बारे में। जो कई वर्षों के बाद मेरे पास आया है, केवल एक अनुरोध किया है। लेकिन सदानंद को घेरे हुए हैं एक अबोध अविवशता। जैसे कि उसने अपने जीवन में कभी कुछ सही नहीं किया है और न ही कभी कर पाएगा। 

मुझे हँसी आने लगी, उसके विनती करने की शैली को याद करते हुए। उसके अनुरोध में न तो निरीहता थी और न ही निश्चितता। वह बहुत मोटा हो गया था और गंजा भी। उसके कपाल पर लगा हुआ था एक मोटा सिंदूरी तिलक। बात-बात में वह ज़ोर-ज़ोर से हँस रहा था। पान खाने से उसके दाँत काले और ख़राब हो गए थे। मेरी सेक्रेटरी रोज़ी माथुर को सुंदरी और सेक्सी भी कह दिया था। इसलिए यह कहना कि उसे अपने बेटे के लिए नौकरी की ज़रूरत है, मुझे निहायत गौण और साधारण लग रहा था। निःसंदेह उसका पुत्र साथ में नहीं था, लेकिन सदानंद के अनुरोध में प्रचुर दादागिरी झलक रही थी। एक तरह से तात्सल्य भाव। जैसे कि मेरे अपने नरक से बाहर निकलने का एकमात्र उपाय था किसी निर्दिष्ट कंपनी के व्यवसायिक प्रमुख से बात कर उसके बेटे के लिए नौकरी का अनुरोध करना। 

मैंने देखा कि सदानंद अपनी ही दुनिया और अपनी कल्पनाप्रसूत धरती पर दीर्घ समय से रह रहा है। मेरी राय में अगर वह बुरा है, तो उसकी राय में मैं अच्छा होऊँगा, उसके कहे अनुसार अनुरोध करने पर। नहीं तो मैं उसके लिए ऐसा कुछ ख़ास अच्छा नहीं हूँ। 

अचानक नंदिता ने सीधे-सलख कहा, “आपको जो ठीक लगे, वही करो। किसी से इतना छुपने की क्या ज़रूरत है? जो सारी बुरी बातों को जानते हुए भी उसके साथ रहता है, वही तो मित्र है।” 

“मैं छिप नहीं रहा हूँ। उसे अवॉइड कर रहा हूँ। इसके अलावा, ऐसी परिस्थिति में छिपना क्या सही बात नहीं है? कभी-कभी किसी से छिपना ठीक नहीं है?” 

“नहीं, इसके अलावा, क्यों उसे अवॉइड करोगे? अगर आपकी राय में कोई आपसे कुछ ग़लत करने के लिए कह रहा है, तो आप सीधे तौर पर बोलकर कह सकते हैं कि आप ऐसा काम नहीं कर पाएँगे। हालाँकि सुनयना की बेटी की कहानी कुछ और ही है। सच में रंजना को झूठे अभियोग और दंड से केवल बचाना है। रंजना जहाँ वह थी और जिस पद से उसे झूठे तरीक़े से बरख़ास्त किया गया है, उसे फिर से उसी जगह पद-स्थापित करना है। सुनयना की तरफ़ देखिए। आपको केवल सही बात को वास्तव में सही कहकर प्रमाणित करना है।” 

फोन की घंटी बजने लगी। घर का लैंड लाइन फोन। मैं जैसे दौड़कर अपने घर के अंदर गया। मैंने नंदिता को याद दिलाया: “मैं नहीं हूँ।” 

बचपन के दोस्त के लिए कुछ न कर पाने से बड़ा कष्ट शायद जीवन में और कोई नहीं हो सकता। तो क्या सच में सदानंद मेरे बचपन का दोस्त है? क्या हमें कभी एक ही ग़लती के लिए समान दंड मिला था? क्या वास्तव में स्कूल के बरामदे पर खड़े होकर प्रार्थना गाना बंद कर एक ही साथ लड़कियों की छातियों को देख रहे थे? क्या हमने वास्तव में अन्य दोस्तों की साइकिल की चेन खोल दी थी? क्या हमने वास्तव में रीता पटनायक, या वीनू मिश्रा या अर्चना सामंतराय से एक ही समय में विवाह करने के बारे में मन ही मन सोचा था? लाइब्रेरी में हमने एक विषय की किताब को दूसरे विषय की किताबों के थोक के पीछे छुपा दिया था? क्या हमने पूजा-पर्व पर एक ही रंग की शर्ट पहनी थी, भले ही, एक ही डिज़ाइन की न हो? क्या हमारे पेंटों के मोहरी की साइज़ एक ही थी? क्या संस्कृत पंडित पर ग़ुस्सा करते थे और गणित सर से डरते थे? एक साथ हम पेड़ों पर चढ़े थे, नदी में तैरना सीखे थे और डूबे थे? 

शायद इतने सालों बाद सब-कुछ धुँधला-धुँधला लगने लगा था। अतीत की चीज़ें कभी भी सही ढंग से नहीं दिखती हैं। कब किसी के साथ क्या किया, अच्छी तरह याद नहीं आ रहा था मुझे। सभी चेहरे भी ठीक ढंग से याद नहीं हैं। जैसे कि पहली बार सदानंद अचानक कैसे अपरिचित लग रहा था? फिर भी बचपन का ढाँचा बचा हुआ था। उसके गंजे सिर, बड़े पेट और किसी शराबी की तरह आँखों के नीचे काले धब्बे रहने के बावजूद मैं उसे पहचान पा रहा था। 

मेरे घर के अंदर मेरा एक छोटा-सा ऑफ़िस भी है। मेरी निभृत गुफा। वहाँ टेबल के पास एक कुर्सी पर बैठने का मतलब मुझे किसी फ़ाइल पर कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय लेना है। यह बात केवल नंदिता ही नहीं, घर के लगभग सभी लोग जानते हैं और वे मुझे अकेले रहने का हर सम्भव मौक़ा देते हैं। मैं अभी उसी कुर्सी में बैठा हुआ हूँ, टेबल के ऊपर कुछ फ़ाइलें हैं जिनमें सबसे ऊपर पीले रंग की फ़ाइल है। वह रंग मुझे अँधेरी संकीर्ण गली की ओर धकेल रहा है। मैं अपने आप को दोषी महसूस कर रहा हूँ। एक नर्म-मुलायम चेहरा मेरी आँखों के सामने आ रहा है। सच में जैसे वह काफ़ी देर से कोठरी में खड़ा है। एक अजीब-सी चमक उसे घेरे हुए है। केवल मैं उसे देखूँगा, इसलिए। मैंने उसे कभी नहीं देखा था, बल्कि वह ही सुनयना थी। नंदिता के बचपन की दोस्त। 

लेकिन वे दोनों एक साथ नहीं पढ़ रही थीं। हमउम्र भी नहीं थी। जबकि दोनों का परिवार जमशेदपुर में रहता था और उनके फ़्लैट एक-दूसरे के क़रीब थे। इतने क़रीब कि दूसरे लोग दोनों परिवारों को एक मानते थे और मज़ाक़ में कहते थे कि दोनों फ़्लैटों को अलग करने वाली कोई दीवार नहीं बनी थी। उनके एक समान सुख से ईर्ष्या और उनके मन में समान दुख का केवल अनुमान कर ख़ुशी होती थी। 

सुनयना पता नहीं कैसे, उस समय बिल्कुल नंदिता की तरह लग रही थी। हालाँकि वह उससे तीन साल छोटी थी, फिर भी कदकाठी, शरीर के रंग और बनावट में दोनों एक जैसी दिखती थीं। दोनों एक जैसी पोशाक पहनती थीं और एक जैसी पोनीटेल चोटी रखती थी। सुनयना या नंदिता की माँ जब भी शॉपिंग करने जाती थीं तो पता नहीं क्यों, दो ड्रेस या खिलौने या किताबें ख़रीदती थीं। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक सोचा कि दोनों लड़कियाँ जुड़वाँ थीं। कॉलेज में पढ़ते समय वे दोनों अलग-अलग दिखने लगीं, क्योंकि उनके पिताओं के बदली हो जाने के कारण उनके परिवार अलग-अलग शहरों में चले गए थे। वह बदली हुई सुनयना अब मेरे सामने, मेरे घर के अंदर खड़ी है। जहाँ मैं अकेला हूँ। हम दोनों के बीच एक हल्के पीले रंग की फ़ाइल है। 

एक की समय में दो नारियाँ आपको अगर मन ही मन आकर्षक लगती हैं, यदि आप आवश्यकता से अधिक समय बिताते हैं, उन दोनों के सम्बन्ध को एक जैसा अनुभव करने के लिए, तो आप देखेंगे कि वे बिल्कुल भी एक समान नहीं हैं। इस तरह की चमत्कारिक बात से मैंने ख़ुद को कई बार समझाया है और मेरे कई दोस्तों ने इस धारणा को अपने-अपने जीवन का सबसे बड़ा दर्शन माना है। 

इसलिए मेरे लिए सुनयना की कल्पना करना आसान है। जैसी नंदिता नहीं दिखती है, वैसी ही सुनयना दिखती है। दोनों अलग हैं, मगर दोनों आकर्षक हैं। वे दोनों आपको खींच सकती हैं। अब देखिए, वही काल्पनिक सुनयना मुझे धन्यवाद दे रही है। क्योंकि मैं उस पीली फ़ाइल के मुख्य आदमी को पहले ही बता चुका हूँ कि रंजना को फिर से लाने के लिए। जैसे कि मैंने पहले से ही समझा दिया है, रंजना को उसके वरिष्ठ कर्मचारियों द्वारा अनावश्यक और अनुचित रूप से दंडित किया जा रहा है। नहीं तो, सुनयना की बेटी कभी कुछ ख़राब काम नहीं कर सकती है। मैं पहले ही हर जगह यह कह चुका हूँ, रंजना ने कई साल पहले अपने पिता को खो दिया था और रंजना की नौकरी छूटने से सुनयना और रंजना का दो सदस्यीय परिवार नष्ट हो जाएगा। 

रंजना को उसकी नौकरी वापस मिल जाएगी, यह पक्का है। इसलिए उसकी माँ मेरा शुक्रिया अदा कर रही है। नंदिता के बचपन की सहेली। सुनयना की कृतज्ञता इतनी व्यक्तिगत थी कि इसे केवल मैं ही समझ सकता हूँ। और दूसरा कोई नहीं। केवल मैं ही उसे देख सकता हूँ। और दूसरा कोई नहीं। 

अचानक बाहर घंटी बजती है। कोई दौड़ रहा है। नंदिता उस धावक से मेरे नहीं होने की बात कहती है। मुझे अकेला छोड़ देती है, नहीं दिखने वाली सुनयना के साथ। 

ऐसा लग रहा था कि घंटी बजाने वाली सच में सुनयना नहीं थी तो? वास्तव में धन्यवाद देने के लिए, थोड़ी और आंतरिकता दिखाने के लिए, स्वयं आ नहीं गई तो सुनयना! मैं अपनी निभृत गुफा से बाहर आऊँ तो क्या मैं उसे देखूँ एकबार? देखते हैं, मेरे अनुमान कितने सच हो सकते हैं। देखते हैं सुनयना के वैधव्य ने उसके सिर से सिंदूर, हाथों से चूड़ियाँ और साड़ी से गहरे रंग के अलावा सच में और क्या-क्या छीन लिया? क्या सारी ख़ुशियाँ छीन ली हैं? सारी चमक? सारी अन्यमनस्कता? 

लेकिन, मैं ऐसे ही बैठा रहा, मानो हर परवर्ती पल मेरे द्वारा निर्देशित हो रहा हो। हुआ भी वैसा ही। 

नंदिता ख़ुद अंदर आकर ऐसे खड़ी हो गई, मानो वह सुनयना की भूमिका निभाने जा रही है। लेकिन मुझे ग़लत साबित करते हुए कहने लगी: 

“कोई आया है जयंत, उसके डैडी ने एक पैकेट भेजा है।” 

“जयंत?” मैं चौंक गया। वह सदानंद का पुत्र हैं। उसका नाम जयंत है लेकिन पैकेट? वह किसलिए लाया है? 

“बहुत बड़ा मिठाई का पैकेट। बड़ा पैकेट मतलब सच में बड़ा।” 

“किसलिए?” 

“कहता है कि उसकी नौकरी लग गई, सिर्फ़ तुम्हारी वजह से।” 

“लेकिन मैंने तो किसी को नहीं कहा।” 

नंदिता ने मेरी क्षमताओं पर अद्भुत अधिकार जताते हुए कहा: 

“अवश्य कहा होगा आपने। शायद अभी आपको याद न हो। इसलिए तो वह आपको धन्यवाद देने आया है, एक बार उससे मिल लीजिए।” इससे पहले कि नंदिता और कुछ बोल पाती, वह युवक मेरे ऑफ़िस के कमरे में सीधे घुस आया। मैंने पहले से ही सोच लिया था कि वह सदानंद का पुत्र ही होगा। मुझे याद आ गया कि मैं और वह एक ही शहर से अलग-अलग जगहों पर जाते समय शायद ऐसा ही कुछ दिख रहा था सदानंद ख़ुद। बहुत वर्ष पहले की बात है। 

किसी युवक में जो-जो चीज़ें मुझे पसंद नहीं आती है, वे सारी चीज़ें इस युवक के पास थी। बिना धुली जींस पैंट, ऊपर के खुले दो बटनों वाली ढीली शर्ट, पैरों में नुकीले जूते, छिदे हुए कान, गले में एक मोटी चेन, एक हाथ में ब्रेसलेट और दूसरे हाथ में महँगी घड़ी। सब तरीक़ों से सदानंद की तरह लग रहा था। 

ज़्यादा विरक्ति भी कभी-कभी अलग-अलग लोगों को एक जैसे दिखने का कारण बन सकती है। मेरी राय में वह किसी भी कंपनी में नौकरी पाने के लिए पूरी तरह से अयोग्य था। मैंने ख़ुद को समझाया; उसके लिए सदानंद की चहेती कंपनी में किसी से सिफ़ारिश नहीं कर वास्तव में कुछ भी ग़लत नहीं किया। बल्कि अगर पुण्य नाम की कोई चीज़ है तो मैंने वही किया है। वैसे भी सदानंद के पुत्र ने हाई डोनेशन वाली किसी संस्थान से पढ़ाई पूरी की है। सदानंद के पास पैसों की कोई कमी नहीं है। उसके बेटे के लिए नौकरी की क्या ज़रूरत है? 

अपनी झुँझलाहट को शब्दों में बयान करने के लिए एक पल का इंतज़ार किए बिना मैंने कहना शुरू किया, “सच कहूँ तो मैंने तुम्हारी नौकरी के लिए किसी को नहीं कहा है।” 

“अंकल जी। मैं जयंत हूँ। लेकिन मुझे नौकरी मिल गई है।” 

“लेकिन . . .” 

“आपकी सिफ़ारिश के अनुसार, मेरा नाम फ़ाइनल एपॉइंटमेंट लिस्ट में है, अंकल। थैंक यू।” 

मैंने ज़ोर देते हुए कहा, “मगर मेरा विश्वास करो, तुम्हारे लिए, मैंने वास्तव में किसी से कुछ नहीं कहा।” वह आसानी से हार मानने वाला युवक नहीं था। कहने लगा, अंकल, इस मिहिदाना के पैकेट को डैडी ने विशेष रूप से आपके लिए भेजा है। यह ख़ास वर्धमान का मिहिदाना है। डैडी ने कहा, यह मिठाई आपको सबसे ज़्यादा पसंद आती है। 

जयंत ने आगे कहा, डैडी मज़ाक़ में कह रहे थे कि बचपन में आप दोनों ने कभी किसी मिठाई की दुकान से मिहिदाना खाने के बाद पैसा नहीं दिया। उस समय आप लोगों के पास मिहिदाना की आधी प्लेट खाने के लिए पैसे नहीं थे। डैडी बहुत मज़ाक़िया हैं, वे कह रहे थे, आप दोनों ने पैसे दिए बिना वहाँ से अचानक भाग खड़े हुए और दुकानदार ने बहुत दूर तक आप लोगों का पीछा किया। अवश्य, पकड़ नहीं पाया था। 
जयंत की यह कहानी मुझे मेरे बचपन में खींचकर ले गई। क्या बचपन में कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जो मरते दम तक रहती हैं? 

मुझे पता है, उस दिन मिहिदाना खाने का आइडिया मेरा था। मैंने सोचा कि सदानंद के पास पैसे होने चाहिए। उस समय वह बहुत पैसा इधर-उधर ख़र्च करता था। सिगरेट पीना भी शुरू कर दिया था, बहुत महँगा ब्रांड। फिर उस दिन मिहिदाना खाने के बाद हम दोनों को उसी समय अहसास हुआ कि हमारे पास पैसे नहीं हैं। हमने तब तक कोई बहसबाज़ी नहीं की और न ही हमने यह कहा कि हम कल पैसे दे देंगे। अगला आइडिया भी मेरा ही था। हम दोनों दौड़कर वहाँ से भाग गए। पता नहीं, हमारे पीछे दुकानदार था या नहीं, लेकिन कुछ दूर दौड़ने के बाद सदानंद मुझसे बहुत आगे निकल गया था। 

बात में गंभीरता लाने के लिए मैंने कहा, “अगर तुम यह पैकेट वापस ले जाओ तो मुझे अच्छा लगेगा।” 

उसने कहा, “अंकल, मैं जानता हूँ कि आपने किसी से मेरी सिफ़ारिश नहीं की है। क्योंकि ऐसा ही है, आपने ऐसा बिल्कुल नहीं किया होगा। फिर भी डैडी को विश्वास है, चूँकि आप उनके बचपन के दोस्त हैं, इसलिए आपने मेरे लिए हर सम्भव प्रयास किया होगा।” 

पता नहीं कैसे, मुझे सब-कुछ अविश्वसनीय लग रहा था। समझाने के लहजे में मैंने कहा, “जयंत, तुम बैठो। उस कुर्सी पर बैठो। मेरा विश्वास करो, मैंने तुम्हारे बारे में किसी को कुछ नहीं कहा। सदानंद ने अवश्य बताया था, एक निर्दिष्ट कंपनी का नाम। उस फ़ाइल को देखो, अभी भी वहीं पड़ी हुई है। मुझे पता है कि उस कंपनी का एक बहुत बड़ा काम मेरे पास है। लेकिन उसके डायरेक्टर से मैंने कुछ नहीं कहा। तुम्हें अपने से मिल गई है तुम्हारी नौकरी।” 

जयंत नहीं बैठा। कहने लगा, “मुझे सच में कोई नौकरी नहीं मिली है, अंकल।”

“मतलब?” मैंने आश्चर्य से पूछा। 

“डैडी को यक़ीन था कि मुझे नौकरी मिलेगी, आप उनके दोस्त हैं, और फिर बचपन के दोस्त हैं, इसलिए मैंने ही उन्हें उनका विश्वास बनाए रखने के लिए ऐसे ही कह दिया कि मेरा नाम एपॉइंटमेंट लिस्ट में है। मुझे वास्तव में किसी नौकरी की ज़रूरत नहीं है। डैडी की अजब ज़िद, मुझे उस कंपनी में काम करना है। उसी तरह डैडी की ज़बरदस्त इच्छा थी, मुझे किसी बड़े संस्थान में पढ़ाने की।” 

बच गए, हमारे सिवा यहाँ और कोई नहीं है, हम दोनों को छोड़कर। एक अजीब दर्द मुझे चारों ओर से खींचने लगा। शरीर के बाहर, शरीर के भीतर। जयंत ने मुझे और कष्ट देते हुए कहा, “हाँ, मिहिदाना पैकेट आपका है। कृपया मना न करें। डैडी सोचते हैं कि आप वाक़ई महान और अच्छे इंसान हैं।” 

वह अचानक कमरे से बाहर चला गया, पैकेट को टेबल पर रखते हुए। हमारे घर के गेट से निकल कर हमारे कंपाउंड के गेट तक तेज़ क़दमों से चला गया। लंबे-लंबे डग भरते हुए। गेट के बाहर उसकी महँगी सफ़ेद कार उसका इंतज़ार कर रही थी। अब वह और ज़्यादा सफ़ेद और अधिक महँगी लग रही थी। मेरा दरबान भी उसे सलाम कर रहा था। 

अचानक वह पीछे मुड़ जाता है, धीरे-धीरे वापस आता है। जैसे कि सड़क नहीं, किसी दूरी को खोज रहा है, मापते-मापते। उसे अचानक क्या हुआ? क्या कुछ छूट गया? कार की चाबियाँ? या उसका मन बदल गया है? क्या अब वह इस पैकेट को ले जाएगा? वह पैकेट मुझे और भी बड़ा लगने लगा है। उसके भीतर मिहिदाना भी नज़र आ रहे थे। एक चमकीला पीला रंग पूरे घर और पूरी दुनिया में फैल गया। 

एक प्रकार की अजीब उत्सुकता से मैं भी अपने घर के गेट के बाहर तक जाकर पोर्टिको में खड़ा हो गया। अपने भूले-बिसरे डायलॉग को याद करते हुए वह अचानक कहने लगा: “अंकल, मैंने डैडी से कहा है कि मेरी बैंगलोर ऑफ़िस में पोस्टिंग हुई है, आजकल नियम के मुताबिक़ कंपनी ने सिक्योरिटी डिपॉज़िट माँगा है। डैडी से दो लाख रुपये ले चुका हूँ। प्लीज़, आप और कुछ मत कहिएगा। निस्संदेह, अगर वे कभी इस बात को उठाते हैं, तो आप मना मत करना। एक ज़रूरी काम से वे आज सुबह दिल्ली गए हैं।” 

वास्तव में जयंत कितना अद्भुत है! वह मुझसे कह रहा है कि वह झूठ बोल रहा है और पैसे लेने में मैं झूठ बोलकर उसका सहयोग करूँ? वह क्या चाहता है? मगर आगे बात बढ़ाते हुए वह कहता है:

“ठीक सात दिन बाद मैं ख़ुद अपनी नौकरी छोड़ दूँगा।” 

“मतलब?” 

“मतलब मुझे वह नौकरी अच्छी नहीं लगी। मुझे बैंगलोर भी पसंद नहीं आया। कंपनी अच्छी नहीं लगी। मेरा कोई भी दोस्त और बॉस मुझे पसंद नहीं आएगा। मैं बीमार हो जाऊँगा, मैं इस्तीफ़ा दे दूँगा।” 

“लेकिन क्यों?” 

“तभी जाकर मेरी जमा राशि मुझे वापस नहीं मिलेगी।” 

लेकिन तुम कोई डिपॉज़िट क्यों करोगे? तुम तो कह रहे थे, तुम्हें नौकरी नहीं मिली है।” 

“मेरे एक दोस्त को उन पैसों की ज़रूरत है, अंकल, और मुझे कल उसकी सख़्त ज़रूरत है। उसे झूठमूठ नौकरी से निकाल दिया गया है। वह कभी धोखा नहीं दे सकती है। फिर दो लाख रुपये के लिए। वह भूलकर भी किसी से पैसे नहीं लेगी। 

“उसे वास्तव में उस नौकरी की बहुत ज़रूरत है। उसके लिए मैं वे पैसे उसकी कंपनी को लौटा दूँगा। उसे सच में नौकरी की ज़रूरत है।” 

जयंत वापस कंपाउंड के गेट की तरफ़ जा रहा है। दरबान उसे एक बार फिर सलाम करता है। मुझे यह समझने में कोई दिक़्क़त नहीं हुई कि जयंत की दोस्त कौन है। फिर भी मैं वास्तव में यह जानना चाहता हूँ—क्या रंजना और जयंत वास्तव में बचपन के दोस्त हैं या बचपन के बाद के दोस्त हैं? और क्या कोई मुझे यह बात बताएगा—बचपन के बाद की दोस्ती बचपन की दोस्ती से ज़्यादा अंतरंग होती है? ज़्यादा घनिष्ठ? 

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