पता नहीं, कितने सैकड़ों वर्ष पहले से सोचकर रखा था, उसी लहजे में नंदिता ने अचानक कहा, “मेरी एक छोटी-सी इच्छा है।” उत्सुकता से उसकी ओर देखा, पढ़ते हुए किताब से चेहरा ऊपर उठाकर।
“आप नाराज़ नहीं होंगे तो?” प्रश्न को और भी व्यक्तिगत बना दिया जैसे कि उस पल के बाद उत्तर मिले या न मिले, वह विस्फोरित हो जाएगी। जल्दी से सुनने के लिए जैसे मैं मुँह खोलकर ‘नहीं’ कहूँगा। उसने इतने धीरे से कहा जैसे कि वास्तव में उसे मेरी अनुमति की आवश्यकता थी।
“मेरी छोटी-सी इच्छा है कम से कम एक बार चेन खींचने की, ट्रेन की। देखते हैं, उसके बाद क्या-क्या होता है।”
“ट्रेन रुकेगी। देखो, वहाँ लिखा है। टू स्टॉप ट्रेन, पुल चेन। वही बात हिंदी में भी लिखी गई है। लेकिन ट्रेन पीछे नहीं जाएगी। अपने बटुए से हज़ार रुपए निकालकर रखिए। कोई आयेगा पेनल्टी लेने के लिए। तुम सुंदर हो, इसलिए ज़्यादा विरक्त नहीं होगा, लेकिन फिर भी चेन खींचने का कारण भी सोचकर रखना चाहिए। एक उचित तर्क-संगत कारण।” मैं फिर से किताब के पन्नों की तरफ़ लौट आया।
हम नंदिता के माता-पिता के घर से लौट रहे थे, एक चेयरकार वाली ट्रेन में। सात घंटे बैठना पड़ता है। इस तरह बैठकर कोई भी अपनी आँखें बंद कर इधर-उधर सोच सकता है। वह सो भी सकता है। सामने वाली सीट के पीछे वाली ट्रे को खोलकर वहाँ अपना सिर भी रख सकते हैं। जैसे नंदिता ने रखा है। किन्तु ट्रे पर खाने के सामान रखे जाते हैं। पानी की बोतल को ट्रे के नीचे झूले में रखी जा सकती है, जिसके बारे में न तो किसी ने बिल्कुल भी सोचा था या न ही उसे पेशेवर ढंग से बनाया गया था। मैंने ट्रे पर किताब रखी थी। हम बहुत दूर आ गए थे। केटरिंग करने वाले लोगों की हर बात अनावश्यक है, तरह-तरह से उन्हें समझा दिया गया था। नंदिता को मैंने छोड़ दिया था, अपनी आँखें बंद कर अपने माता-पिता के बारे में सोचने के लिए। उन्हें कितने वर्षों से अलग घर में छोड़कर आए दो दिनों को और उनसे जुड़ी सारी पुरानी यादें। पुराने चेहरे और घटनाएँ।
हर बार नंदिता अपने माता-पिता के साथ दो-तीन दिन रहकर लौटते समय कैसे अद्भुत दिखती है। जैसे मैं उसे ठीक से पहचानता नहीं हूँ। नहीं, निष्प्रभ नहीं, कुछ खो जाने जैसा कष्ट झलकता है उसके चेहरे पर, नहीं तो चक-चक चेहरा। जैसे कि कभी-कभी साँझ दिखाई देती है, पूरी तरह से अँधेरा होने से पहले।
हमारी शादी के पाँच-छह साल बाद भी नंदिता अपनी निजस्व दुनिया नहीं बना पाई। जैसे हर भीड़-भाड़ वाली जगह का अपना एकांत होता है, वैसे हर एकाकी आदमी के भीतर एक आंतरिक भीड़ होती है। हर बार ऐसे लौटते समय नंदिता अकेली-अकेली लगती है। जैसे मैं आस-पास नहीं हूँ। जैसे हमारा सरकारी घर, हमारे शहर के जाने-पहचाने चेहरे, हमारी दिनचर्या, कुछ भी तो उसके जीवन का एक ख़ास अंश नहीं है।
ठीक से जीवन बचाने के लिए शायद आपको अतीत की ओर जाना पड़ सकता है। आगे की ओर नहीं। हमें अतीत में रहना पड़ सकता है। बहुत दिनों बाद अतीत को अतिक्रम करते हुए आगे जाना आसान नहीं है।
मैंने नंदिता के चेन खींचने के बारे में इतना ज़्यादा सोचा नहीं होता, अगर उसने मुझे कुछ दिन पहले भी यही बात नहीं कही होती। मुझे अब लगता है, शायद हर बार, घर से वापस आते समय, हाँ केवल वापस आते समय ही, तो नंदिता किसी षड्यन्त्रकारी की तरह मुझे अपनी चेन खींचने की छोटी-सी इच्छा के बारे में अवश्य बताती है। मुझे भी वह लटकती चेन बड़ी विस्मयकारी लगने लगती है। चेन से नीचे लटकने वाला हिस्सा लगता है, मानो ग्रेनेड हो। जिससे कभी भी हो सकता है सबसे भयानक विस्फोट।
मैं किताब को ऐसे पढ़ रहा हूँ, जैसे कुछ समय बाद कोई परीक्षा होगी और मुझे वह परीक्षा अच्छी तरह से पास करनी है। हो सकता है, फ़र्स्ट आना है। कुछ पन्ने पढ़ने के बाद बीच-बीच में सामने के लोगों को देखने की इच्छा होने लगती है। जैसे उनमें से कोई या बहुत सारे मेरे द्वारा पढ़ी जा रही किताब के पात्रों की तरह दिखने लगे हैं। या मुझे लगता है कि मेरे सामने वाले लोगों में से कोई कैसे मेरे द्वारा पढ़ी जा रही किताब के पात्र जैसा दिख रहा है।
नंदिता को घेर लेती है, एक अद्भुत नींद, शहद की तरह मीठी और मलीन। कोहरे की तरह धुँधली, मगर चुभने वाली। सपने की तरह सच्ची, लेकिन अधूरी और असंभव। मेरे अंदर उठने लगा है सवालों का बवंडर। ऐसे प्रश्न, जिनका कोई उत्तर नहीं है। मैं जानता हूँ कि नंदिता के पास इसका जवाब है, लेकिन मैं सवाल उठाना नहीं चाहता हूँ। वह सोई है तो सोई है। खुली आँखों से प्रश्न पूछती है। बंद आँखों से शायद उत्तर को ढँक देती है। तो सवाल यह है कि चेन खींचने की इच्छा क्यों हो रही है तुम्हारी? किसलिए? घर से लौटते समय ही क्यों होती है?
नहीं, मैं नंदिता की नींद में ख़लल नहीं डालना चाहता। नींद भी बीच-बीच में चेहरे को आलोकित कर देती है। कभी-कभी सोने वाले के चेहरे से उसका सपना दिखता है। भले ही, वह ऐसा कोई सपना देखता हो या नहीं।
जैसे मुझे दिखते हैं कि दो दिन पहले वाले नंदिता के फ़ुर्तीले चंचल पैर। सारे काम जल्दी से निपटाकर घर का दरवाज़ा बंद करने के लिए तत्पर हाथ। माँ के लिए यह, पिता के लिए वह, सामान ख़रीदने की एक लंबी सूची। मुझे ऐसा लगता है कि हमारे शहर की नित्य नैमित्तिकता से छुटकारा पाने की कोई वजह नहीं है। मानो किसी स्कूल में छुट्टी की घंटी बजी हो। मानो सारी सड़कें घर की ओर जा रही हों।
बीच-बीच में नंदिता अपने माता-पिता के पास जाना चाहती है। यह पता लगाने के लिए कि वे अकेले-अकेले कैसे समय गुज़ार रहे हैं, उनके समय को दीर्घ से दीर्घतर बनाने के लिए।
अकेलापन क्या होता है? मैं उससे पूछता हूँ। माता-पिता दोनों तो एक दूसरे की बात समझकर समय बिता रहे होंगे, जैसे हम दोनों बिता रहे हैं। क्या हम दोनों वाक़ई में अकेले हैं? प्रश्न को इस प्रकार घुमा-घुमाकर कभी-कभी पूछता हूँ, जैसे मैं कौतूहल की मिट्टी में गड्डा खोदकर बीज डालता हूँ और प्रत्युत्तर में नंदिता ना नहीं कह पाए, चाहे वह पानी हो, प्रकाश हो या दोनों, मैं नए जादू से एक स्वीकार्य उत्तर का पेड़ अंकुरित कर सकूँ। लेकिन वह धीरे से समझाती है कि जिसके पास नंदिता नहीं है, वह अकेला है।
जितना अधिक समय हम जीवन जीने में व्यतीत करते हैं, उतनी ही अधिक सम्भावना है कि हम उसे किसी फाजिल फिलॅासफी की सहायता से समझ सकें। जीवन को समझना इतना ज़रूरी क्यों है? जैसे किसी भी कहानी को समझना?
पहले नंदिता के माता-पिता के साथ एक दिन रहने के लिए पाँच दिनों का प्रोग्राम करना पड़ता था। किसी भी दिन दोपहर वाली ट्रेन में बैठकर सो जाओ और अगली सुबह तक पुराने, अपरिच्छन्न और असभ्य शहर में पहुँच जाओगे। वहाँ कुछ घंटों के इंतज़ार के बाद बस पकड़नी पड़ती थी। जहाँ बस कम और भीड़ ज़्यादा कहने से कोई ग़लती नहीं होगी। बस जाते-जाते एक ऐसी छोटी-सी जगह पहुँचती है, जिसका चित्र आँक सकता है केवल कोई अन्यमनस्क चित्रकार। तब तक दूसरे दिन की शाम लगभग ढल चुकी होती है। वहाँ से लौटते समय सुबह-सुबह जल्दी निकलने पर दूसरे दिन लगभग दोपहर समाप्त होने तक हम अपने शहर में पहुँच जाते थे। इसलिए नंदिता उन चार दिनों की गिनती नहीं करती थी, अपने माता-पिता के साथ रहते समय। इस तरह ऑफ़िस की छुट्टियाँ ख़त्म होती जाती थीं और मेरे शरीर में चार दिन की नहीं, बल्कि चार महीने की थकान घर करने लगती थी।
अब इस साल से, माता-पिता ऐसी जगह अपने द्वारा बनाए घर में आ गए हैं कि हमारे शहर से चेयरकार वाली ट्रेन में बैठकर सीधे पहुँच सकते हैं एक छोटे, परन्तु अंतरंग स्टेशन पर। स्टेशन से रिक्शे की अस्पष्ट, अप्रशस्त दुष्टता में बैठकर ऐसे एक दरवाज़े के सामने पहुँच जाओगे, जहाँ कालिंग बेल नहीं है। है पिताजी के अपने हाथों से गूँथे दो-तीन घुँघरू, जिसको खींचने से एक चक-चक दिखने वाला चश्मा पहने चेहरा, अपने शीर्ण कंधों के नीचे दुर्बल हाथों से दरवाज़ा खोलते हैं। हम दोनों शिराल पैरों को नमन करते-करते नंदिता अपनी माँ को खोजती है जैसे कोई आविष्कारक खोज रहा हो किसी ईप्सित द्वीप को और मैं खोजने लगता हूँ हमारे वापसी के टिकटों का सही समय और तारीख़। हमारे वापसी के समय पिताजी के चेहरे पर उभर आती है एक चमक और माँ के मुँह में लौट आते हैं शब्द। हमारी ट्रेन छूटते समय दोनों प्लैटफ़ॉर्म पर ऐसे खड़े होते हैं, जैसे दो कठपुतलियाँ स्थिर खड़ी हो गई हो, नृत्य ख़त्म होने के बाद।
अब नंदिता अपने माता-पिता को सपने में देख रही होगी। किसी एल्बम में फोटो देखने की तरह, इन दो दिनों की व्यस्तता में। किसी निर्दिष्ट समय क्रम में नहीं। देख रही होगी उनकी उत्सुकता, हमें लेकर और आग्रह भी, हमें लेकर। हमारे प्रश्न। हमारे ही उत्तर।
देख रही होगी, घर के प्रत्येक रूम में कैसे कोई दीवारें नहीं हैं। कोई छत नहीं है। केवल है रूम को पहचानने वाली गार, जो किसी भी घर की नक़्शे में खींची होती है। देख रही होगी, नंदिता एक निर्वाक सुरक्षा भी, जो कोई भी वस्तु बनकर हाथ में पकड़ी जाती है। आँखों के सामने आ जाती है।
देख रही होगी, नंदिता अपनी पुरानी किताबें, कपड़े, पेन-पेंसिल, इरेज़र। यहाँ तक कि स्कूल का ज्योमेट्री बॉक्स भी, अपने हाथों से खींचे सारे फ्रेम-मंडित चित्र दीवार पर टँगे हुए। देख रही होगी अपने पुराने सैंडल, चप्पल, जो आज भी उसके पैरों में फ़िट आते हैं। इतने सालों के बाद भी। देख रही होगी, सारी पुरानी चीज़ें किस तरह बिना कुछ बदले नई हो गई हैं।
“माँ, तुम इन सब चीज़ों को इस तरह सजाकर रखती हो?” नंदिता ख़ुश हो जाती है। माँ कह रही है, “मैंने तुम्हारी किताबें तुम्हारे उसी पुराने मेज़ पर रख दी हैं, एक के ऊपर एक जमाकर। पिताजी तो कभी-कभी इन सबको लेकर बहुत देर तक पढ़ते भी हैं।”
“सिरीयसली? क्या मेरी पोलटिकल साइंस और हिस्ट्री की किताब?”
“कभी-कभी तो तुम्हारी सातवीं कक्षा की व्याकरण पढ़ लेते हैं।”
“इसमें क्या है? व्याकरण में? हे भगवान!”
नंदिता अचानक उठकर चली जाती है टेबल के पास। टेबल पर किताबों को वह इधर-उधर करती है। माँ की भाषा में कहती है। पास की अलमारी खोलती है। बंद नहीं होने वाला छोटा ताला लटकता है वहाँ, नाक में नथनी की तरह, ऊपरी आधे हिस्से में दोनों पालों में काँच लगा है। काँच के भीतर से दिखने वाली सारी पुस्तकें माँ को क़ीमती और महत्त्वपूर्ण लगती हैं। नीचे के आधे हिस्से की दो तहों में नंदिता की पुरानी सलवार कमीज़ें रखी हुई है। साथ ही, उसके बचपन की फ़्रॉक भी। बीच में छोटे-छोटे छेदों को जोड़ने के लिए बुना हुआ स्वेटर। स्कूल का कार्डिगन।
उन सभी को बड़े ध्यान से देखती है नंदिता। जैसे उसे प्रत्येक को नंबर देने है। एक बार तो स्कूल का स्वेटर पहनकर मेरे सामने आकर ‘हें, हें’ करने लगी। मज़ाक़ में पूछने लगी, “क्या मुझे पहचानते हो?” मैं उसके मज़ाक़ को उद्भटता के स्तर पर ले जाते हुए कहता हूँ, “नहीं, आप वास्तव में किसे ढूँढ़ रही हो?”
दो बार मिस-कैरिज होने के बाद नंदिता काफ़ी बदल गई हैं। एक बार पहले की तरह नहीं होने पर भी, ऐसे भी माता-पिता के पास आने पर पुरानी नंदिता में धीरे-धीरे बदल जाती है। इसलिए तो मैं आजकल आसानी से राज़ी हो जाता हूँ। इस तरह वह पिछले कुछ वर्षों को मिटा सकती है, जैसे कि ब्लैकबोर्ड पर कुछ लिखे हुए को डस्टर से मिटाया जाता है।
ऐसा लगता है, जैसे वे कुछ साल उसकी ज़िन्दगी में आए ही नहीं। मानो उसका पेट माँ बनने की ख़ुशी से फूल नहीं रहा हो। जैसे कि अच्छी तरह पूरी नहीं हुई स्केच में अपनी इच्छा से रंग नहीं भरे है, ज़िद से। जैसे मेरे साथ कभी बहस ही नहीं की है कि लड़का होगा या लड़की। जैसे कभी बुने नहीं है कोई मोज़े, दो छोटे स्वेटर, एक छोटी टोपी। जैसे दुकान घूम-घूमकर कभी नहीं ख़रीदे हैं टैडी बियर, अलग-अलग भाव-भंगिमा वाले, अलग-अलग आकार के और अलग-अलग क़ीमत वाले! जैसे कभी खिलौनों की सूची नहीं बनाई है, केवल एक छोटी अँगूठी दुकान से ख़रीदकर लाई है हमारे घर। जैसे कभी ख़ुशी से फटे नहीं बेबी ड्रेस या सूट को कभी देखा नहीं।
इस बार अवश्य नंदिता के मन में वैसा उल्लास नहीं था। फिर भी था उसके मन में, बहुत दिनों बाद माता-पिता को देखने का पुराना आवेग। फिर भी, उनके सामने छोटे होने का जादू समाप्त नहीं हुआ था। भले ही, समाप्त नहीं हुआ था, उनके सामने बड़े होने का मुग्ध मुरवीपण। जो कहता है कि वे सही समय पर दवा लेंगे। सुबह कम से कम 45 मिनट ज़रूर पैदल चलेंगे। प्राणायाम करेंगे और सूर्य नमस्कार करने का प्रयास करेंगे।
बहुत समय से नंदिता का चेहरा एक पराजित खिलाड़ी की तरह थका हुआ और धूसर दिख रहा था। चेहरे पर झलक रही थी, बीते दिन की फीकी रोशनी। प्रकाश में थी निथर निष्प्रभता।
इस बार हमेशा की तरह वह अपनी टेबल ढूँढ़ने लगी। उसकी अलमारी में कोई निर्दिष्ट चीज़ थी बहुत ज़रूरी। मानो वहाँ अवश्य वह चीज़ होगी, अन्यथा कहीं नहीं। शायद मेरी माँ ने इसे नहीं रखा होगा। शायद पापा ने कहीं और रख दी होगी। या किसी और को दे दी होगी और फिर भूल गए होंगे। वह इतनी बेसब्री से खोजने लगी कि उसे संतर्पण भाव से खोजने की इच्छा को नहीं छिपा पा रही थी। सिर्फ़ माता-पिता ने ही नहीं, मैंने भी पूछा, “क्या खोज रही हो? इतनी परेशान होकर!”
“कुछ भी तो नहीं।”
“क्या मैं खोजने मदद कर सकता हूँ?”
“नहीं, आप उसे कैसे ढूँढ़ सकते हैं?”
“कहो तो सही, क्या ढूँढ़ रही हो?”
“कुछ भी तो नहीं। ऐसे ही देख रही हूँ।”
“आश्चर्य है, कुछ भी नहीं कह रही हो, मगर खोज रही हो?”
“एक किताब।” हमारे सारे कौतूहल को एक बार में संतुष्ट करने के मूड में उसने कहा।
“कौन सी पुस्तक?”
“मुझे याद नहीं है।”
“याद नहीं? स्कूल या कॉलेज की? किस विषय की?”
“स्कूल कॉलेज की नहीं है।”
“फिर?”
“एक कविता-संग्रह। मुझे कुछ भी याद नहीं है। न कवि का नाम, न पुस्तक का नाम।” हम सब लगभग एक ही समय पर चिल्लाए। कविता-संग्रह?
माता-पिता को कविता की कोई ऐसी किताब देखने या बेचने की याद नहीं आ रही थी। मैंने पूछा, “तुम और कविता-संग्रह?”
नंदिता ने मेरे चेहरे की तरफ़ इस तरह देखा कि जो केवल अपने दुख से ही झलक सकता था। जैसे कि वह कहना चाह रही हो, कविता वैसी नहीं होती है, जैसा आप सोचते हो। जिसके बारे में आप सोच नहीं सकते है, वही शायद कविता है।
माता-पिता ने विभिन्न पुराने पैकेट, अलग रखे गए बक्से और पुरानी पेटियों से छोटी-बड़ी बहुत सारी चीज़ें निकाली थीं, जिन्हें किसी भी हालत में किताबें नहीं कहा जा सकता था। नंदिता की कविता की किताब तो बहुत दूर की बात थी! मैंने ऐसे दो दुकानदारों को देखा था हताश होते हुए, जो उस दिन कुछ भी बेचने के लिए तैयार थे, बाऊनी की ज़िद कर रहे थे, जैसे छोटा लड़का, जो नहीं जानता है कि उसे क्या ख़रीदना है।
अवश्य, पिताजी एक पुराने बॉक्स से कुछ किताबें खोजने में कामयाब रहे, मगर उसमें भी कविता की कोई किताब नहीं थी। मैंने अकारण उनके हाथ से कहानी की किताब लाई, जिसे मैं अब पढ़ रहा हूँ।
नंदिता ने उस दिन मुझे कहा था, “क्या यह किताब दो दिन में पूरी कर सकते हैं? पिताजी की यह पसंदीदा किताब हो सकती है। आपने कितनी बार पढ़ी है?”
लेकिन पिताजी ने बड़ी सहजता से मुझे कहा था, “आप इसे ले सकते हो। मैं आजकल कहानी की किताबें नहीं पढ़ता।” पिताजी को समझाने के लिए नहीं या उनकी बात का समर्थन करने के लिए भी नहीं, मैंने कुछ इस तरह बात को आगे बढ़ाया, “कहानी पढ़ना ज़रूरी नहीं है। मैंने भी कुछ ज़्यादा नहीं पढ़ी है।” तो क्या जीवन और कहानी में कोई विशेष अंतर है?
मुझे उस समय पिताजी ने उस तरह से घूरा, जैसे अब मैं नंदिता को उसी नज़रों से घूर रहा हूँ। केवल नंदिता इस चीज़ को जान नहीं पा रही थी और न ही देख पा रही थी।
इस ट्रेन में तीन एसी चेयरकार डिब्बे हैं। सारी सीटें थोड़ा अलग तरीक़े से सजी हुई है। हमारे केबिन के आधे यात्री लगभग दूसरे आधे की तरफ़ मुँह किए बैठे हैं। प्रत्येक पंक्ति में दो और तीन सीटें हैं। बीच में जाने का रास्ता है। पूरी बोगी में इस दरवाज़े से उस दरवाज़े तक। बोगी के दोनों ओर ऊपर की ओर लगेज रैक लगे हुए हैं। उसके नीचे बड़े-बड़े आयताकार पारदर्शी शीशे वाली खिड़की, जिसके काँच के पास वाली सीट पर बैठा व्यक्ति बाहर तो देख सकता है, लेकिन बाहर से कोई भी आदमी गाड़ी के अंदर या किसी को भी नहीं देख सकता है।
आधे लोगों का बाक़ी आधे लोगों का सामना करने हुए बैठना एक अद्भुत अनुभव है। आधे लोग सोचते हैं, अचानक कुछ पल के लिए कि ट्रेन आगे बढ़ रही है। दूसरों को पीछे की ओर जाते हुए लगती है। इन दो दलों के बैठकी के बीच टेबल है, जिसे आमने-सामने बैठे हुए केवल दस लोग ही इस्तेमाल कर सकते हैं। खाने के लिए। कोई बेचने वाला कभी-कभी अपने सामान को कुछ समय के लिए वहाँ रख सकता है। हम बैठे हुए है उन टेबल वाली सीटों से बहुत पीछे वाली पंक्ति में।
कोई छोटा लड़का आकर उस टेबल से खेलना शुरू कर देता है। उसके ऊपरी हिस्से को पकड़कर झूलने की कोशिश करता है। उसे मना करने के लिए वहाँ जाकर कोई उसकी माँ का नाम तो कोई उसके पिता का नाम पूछ रहा है। अलग-अलग लोग तरह-तरह के पुराने प्रश्न पूछ रहे हैं जैसे कहाँ रहते हो, कौन से स्कूल में पढ़ते हो आदि। बच्चा बहुत छोटा, थोड़ा नटखट, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से चंचल है। उसके आसपास के लोगों से अगर कोई सवाल नहीं पूछ रहा है तो वह है एक बूढ़ा आदमी, वह अपने अख़बार पढ़ने में व्यस्त है।
अचानक बच्चा उसीसे पूछता है, “अंकल, हमारी सीट के पास ऐसी टेबल क्यों नहीं है?”
उत्तर जैसे उस अख़बार में ही था, बूढ़ा एक-दो बार पन्ने पलटने के बाद कहता है, “हर किसी के पास सब-कुछ नहीं होता। जाओ, अच्छे बच्चे की तरह अपनी सीट पर बैठ जाओ। जाओ, अपनी मम्मी के पास बैठ जाओ।”
“मम्मी नहीं डैडी है,” कहते हुए वह छोटा लड़का दरवाज़े की तरफ़ ज़ोर से दौड़ जाता है। उसकी तेज आवाज़ से नींद टूटने के कारण नंदिता भी उसकी तरफ़ देखती है। वह बूढ़ा आदमी मुझे नंदिता के पिताजी की तरह दिखता है। उनके चेहरे का ऊपरी हिस्सा मोटे चश्मे की फ़्रेम के साथ ऐसे कुछ राख के रंग की तरह दिखता है, मानो चेहरा दाढ़ी कटवाने के बाद कुछ रह जाने जैसा। उसके कंधे दिखाई दे रहे हैं शीर्ण और हाथ कमज़ोर। उसके पास बैठी महिला धीरे-धीरे नंदिता की माँ की तरह लग रही है। असली चीज़ को कुछ और किसी की तरह दिखने के लिए किसी प्रकार की समानता की आवश्यकता नहीं होती है। केवल ज़रूरत होती है, केवल आपके, कुछ पलों का भ्रम।
नंदिता निश्चय उस छोटे लड़के की तलाश कर रही होगी, जो अब उसे दिखाई नहीं दे रहा है। वह डोर से निश्चय बाहर चला गया होगा। नंदिता एक प्रकार से घबरा रही है। बोगी का मेन गेट खुला नहीं है तो? इस डिब्बे से दूसरे डिब्बे में जाते समय कहीं उसका पैर वेस्टिबुल से फिसल तो नहीं गया? क्या वह ग़लती से दूसरी बोगी में नहीं चला गया तो? कहीं अपनी सीट तो नहीं भूल गया? उसे कोई डाकू तो नहीं ले गया?
मैं दूसरों की तरफ़ देखता हूँ। कई यात्री सो रहे हैं। कुछ लैपटॉप में व्यस्त हैं तो कुछ खा रहे हैं। उनमें से कुछ झरोखे के उस पार अँधेरे को देख रहे हैं। कुछ लोग ऐसी निर्निमेष नेत्रों से देख रहे हैं कि क्या कहना है या क्या करना है, वे भूल गए हैं।
ट्रेन अचानक रुक जाती है। नंदिता अपनी खिड़की से झाँककर उस पार किसी प्लैटफ़ॉर्म पर खोज रही है। वहाँ पर खोज रही है उस स्टेशन का नाम। नहीं, यह कोई स्टेशन नहीं है। किसी ने निश्चय चेन खींची होगी। लेकिन कोई क्यों नहीं आ रहा है फ़ाइन लगाने के लिए! मैं नंदिता को समझाता हूँ कि कोई भी किसी भी बोगी से चेन खींच सकता है, जो भी इसे खींचेगा, फ़ाइन वही भरेगा। नहीं तो, हो सकता है वह बच भी जाए। शायद टिकट ही नहीं बनाया होगा। शायद उसका घर स्टेशन से बहुत दूर होगा। यहाँ से नज़दीक। मैं नंदिता को समझाता हूँ कि चेन खींचने पर ही नहीं, बल्कि सिगनल नहीं मिलने पर भी ट्रेन रुक सकती है। मतलब ड्राइवर रोक सकता है।
“और सीटी?” नंदिता छोटे बच्चे की तरह पूछती है। “आपने तो कहा था कि अगर कोई चेन खींचता है तो ड्राइवर कई बार सीटी बजाकर ट्रेन के कंडक्टर या गार्ड को इसकी सूचना देता है। लेकिन अभी तक तो सीटी नहीं बजी है। आपने सुनी है?”
मैं ख़ुद सीट से उठकर शीशे के दरवाज़े तक चला जाता हूँ। उसे पार करते हुए मुख्य द्वार तक पहुँच जाता हूँ। नीचे उतर जाता हूँ। मैं ही नहीं, बहुत सारे लोग नीचे उतरे हैं। मेरे उतरने की दिशा के विपरीत में ट्रेन का इंजन मुड़ जाता है। इसलिए मुझे दिखाई नहीं दिया। कुछ लोग अपना सामान लेकर पास की पटरियों को पार करते हुए उधर के गहरे अँधेरे में जा रहे हैं। दूर में, निश्चित रूप से, कुछ प्रकाश झिलमिला रहा है।
अचानक ट्रेन चलने लगती है। हम सब अचानक अलग-अलग बोगी के दरवाज़ों की ओर एक साथ दौड़ने लगते हैं। मैं अंदर जाता हूँ और भीतर के दरवाज़े के शीशे से बाहर देखता हूँ। अराजक भीड़ में नंदिता मुझे साफ़ नहीं दिखाई दे रही थी। क्या नंदिता को इस बात की चिंता हो रही होगी कि ट्रेन चलने के बाद मैं अपनी सीट पर नहीं लौटा?
नंदिता की आँखें अचानक विव्रत दिखने लगी। मेरे पढ़ने वाली किताब उसकी सीट के सामने वाली ट्रे पर रखी हुई है। वह मुझे अचानक पूछने लगी, “क्या अब चेन खींचना ठीक रहेगा?”
“लेकिन किसलिए?”
“वह छोटा बच्चा नहीं दिख रहा है!”
उसे एक पल नज़र नहीं आने पर और जैसे पहले से सोचकर रखे हुए उत्तर देने की तरह मैं कहता हूँ, “चिंता मत करो, वह दूसरे डिब्बे में है।”
“क्या आप दूसरे डिब्बे में गए थे? मुझे लगा कि आप नीचे उतरे हैं।”
कोई ख़ास वजह नहीं, केवल नंदिता को आश्चर्यचकित करने के लिए मैं कहता हूँ, “तुम विश्वास कर सकती हो कि ट्रेन क्यों रुकी थी।” ऐसे भी उसकी आँखें बहुत बड़ी हैं। उन्हें वह और ज़्यादा बड़ी कर देती है। मैं बात बढ़ाते हुए कहता हूँ, “उस छोटे लड़के ने ही चेन खींची थी।”
नंदिता को विश्वास नहीं हुआ। “क्या इतना छोटा लड़का चेन खींच सकता है? क्या उसका हाथ वहाँ तक पहुँचा होगा?”
मैं लगभग ऐसे कहता हूँ, जैसे मैं पहले से ही सब-कुछ जानता हूँ, “कर सकता है। बच्चा स्मार्ट है। अपने पिता को अचानक खोज नहीं पाया। इसलिए चेन खींच ली।”
नंदिता चेन देखती है। निश्चित अंतराल पर चेन लगी हुई हैं। उसके नीचे जानकारी दी गई है कि जब चेन खींची जाती है तो क्या होता है और जब बिना उचित कारण के चेन खींची जाती है तो क्या होता है। अपराध और सज़ा दोनों यहाँ लिखे गए हैं। मैं नंदिता को किसी भी तरह से विश्वास दिलाने के लिए कहता हूँ कि कोई भी इसे खींच सकता है। लेकिन छोटे लड़के ने ख़ुद स्वीकार किया कि उसीने चेन खींची है।
मेरी सीट पर आराम से बैठी हुई नंदिता के ट्रे पर रखी हुई अपनी किताब को उठाता हूँ और खोजता हूँ किस पात्र या घटना पर रुक गया था मैं। किस पन्ने से आगे पढ़ना है।
मैं एक ऐसे पृष्ठ खोलता हूँ, मैं देखता हूँ कि क़लम से लिखे गए कुछ शब्दों को काटकर विकृत कर दिया गया है। ऐसा लगता है कि तीन-चार शब्द नंदिता ने अपनी क़लम से बार-बार काटकर पूरी तरह से अपाठ्य बना दिया है। मुझे यह भी लग रहा है कि नंदिता को कविता-किताब की ज़रूरत नहीं थी, इसी किताब को खोज रही थी वह अपने घर में।
ट्रेन चल रही है। लेकिन हमें इस स्टेशन पर उतरने की ज़रूरत नहीं है।
चेन खींचो या न खींचो, ट्रेन आगे की ओर जाए या पीछे की ओर, अतीत की यह ख़ास विशेषता है, कि अपने किसी निर्वाचित क्षण में आपको आसानी से ले जाया जा सकता है, जहाँ गद्य और पद्य में कोई विशेष अंतर नहीं है।
<< पीछे : और कोई दूसरा होना समाप्तविषय सूची
लेखक की कृतियाँ
अनुवादक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
-
- अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
- पुस्तक समीक्षा
-
- उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’
- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
- डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि
- नारी-विमर्श और नारी उद्यमिता के नए आयाम गढ़ता उपन्यास: ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’
- प्रवासी लेखक श्री सुमन कुमार घई के कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ से गुज़रते हुए
- प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव की ‘काक-दृष्टि’ पर एक दृष्टि
- वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’
- सपनें, कामुकता और पुरुषों के मनोविज्ञान की टोह लेता दिव्या माथुर का अद्यतन उपन्यास ‘तिलिस्म’
- बात-चीत
- ऐतिहासिक
- कार्यक्रम रिपोर्ट
- अनूदित कहानी
- अनूदित कविता
- यात्रा-संस्मरण
-
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 3
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 5
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 1
- रिपोर्ताज