जिसके बारे में सोचते ही पाप की एक अजीब भावना आपके अस्तित्व को नहीं घेर लेती है, तब तक आपको सुंदरी नहीं कहा जाएगा। अपर्णा उस दृष्टि से सुंदरी है और संभवत: एकमात्र सुंदरी। वह पूरी तरह से अकल्पनीय है। एक बर्फ़िल और कोहरे भरे अगम्य अंटार्कटिका में उससे जुड़ी कुछ छोटी-बड़ी ख़बरों के बंद घर के भीतर अधिकतर रहती है वह। निरंजन की पत्नी के रूप में। एक बेटे और एक बेटी की माँ होने के हिसाब से उससे बहुत दूर रहने वाली अपर्णा निरंजन के माता-पिता, भाइयों-बहनों के लिए एक बहुत ही अंतरंग बहू या भाभी लगती है।
पिछले कुछ वर्षों में मैंने जितनी भी कहानियाँ लिखी हैं, उसमें अपर्णा को किसी न किसी तरह से नायिका के रूप में चित्रित किया गया है। यह दूसरी बात है, मेरी हर कहानी की नायिका का नाम सीमा है, कुछ कहानियों में सीमा अपर्णा की तरह घंटे-दो घंटे बारिश में भीगती है, दूसरी कहानियों में रविवार को बिस्तर से उठती ही नहीं है, एक कहानी में तो अपर्णा की तरह सीमा एक बड़ा सिंदूरी टीका लगाती है, भले ही उस कहानी में सीमा शादीशुदा नहीं है। फिर अपर्णा अपने ललाट पर एक बड़ा सिंदूरी टीका लगाती है, यह मेरी अपनी राय है, किसी ने मुझे यह बात नहीं बताई और न ही मैंने इसे ख़ुद देखा है। एक और कहानी में सीमा के दो-दो पालतू कुत्ते हैं, निरंजन के कहने के मुताबिक़ अपर्णा केवल एक बार उन्हें रखना चाहती थी।
सीमा अपर्णा की तरह बिना चीनी की चाय पीती है। घर की हर बात को दिन में दो-तीन बार बदल देती है। डाकघर जाती है किसी अनजान पत्र के आने की प्रतीक्षा में। फिर सपने भी देखती है अपर्णा की तरह, जिसमें सागर, मरुस्थल, लम्बी पहाड़ियाँ, घने जंगल, सब-कुछ एक साथ होते हैं। आस-पास। कभी-कभी एक-के-बाद एक। सारे सपने तर्कातीत।
एक कहानी में वह अपर्णा की तरह चित्रांकन करना चाहती है, दूसरे में वह अपनी पेंटिंग के लिए निराकार भगवान से प्रार्थना करती है। कहीं वह अपने बच्चों को कष्ट देती है तो कहीं उनके लिए व्यस्त और विकल होती नज़र आती है। कहीं-कहीं तो अपर्णा की तरह रोती रहती है। चुपचाप, किसी को बोले बिना हँसती रहती है। कहीं पापियों को दण्ड देने का आदेश देती है, तो कहीं पाप करने के लिए व्याकुल हो उठती है।
इस तरह सीमा के अंदर अपर्णा इतने कम परिमाण में रहती है, निरंजन भी यह बात नहीं जान पाता है। आख़िरकार मेरी यह सोच है।
निरंजन मेरा ख़ास दोस्त है। इसलिए विशेष सावधानी से प्रत्येक सीमा को अपर्णा से अलग करने की तैयारी की है मैंने। इसलिए तो सीमा इतनी सुंदर नहीं है। इसलिए तो सीमा ने शादी नहीं की है। इसलिए तो उसे कविता पढ़ने का बहुत शौक़ है। इसलिए तो सीमा कॉलेज में पढ़ाती हैं, दार्जिलिंग, शिमला, माउंट आबू, द्वारका, रामेश्वरम कभी कहीं नहीं गई है सीमा। इसलिए उसे मेरी कोई भी कहानी पसंद नहीं आई।
जबकि निरंजन को मेरी हर कहानी पसंद आती है। फिर वह मुझे सहज भाव से बता सकता है कि उसे मेरी कोई कहानी क्यों और कैसे पसंद नहीं आई। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि निरंजन एक बड़े बैंक में प्रबंधक नहीं है, बल्कि एक प्रतिभाशाली और दुष्ट कहानी समालोचक है। वह शायद बैंक में केवल कहानियाँ पढ़ने में समय बिताता है। उसके बाद फिर मेरी कहानियाँ?
दावे के साथ मैं शर्त लगाकर कह सकता हूँ कि निरंजन मेरी कहानियों को बड़े ध्यान से पढ़ता है। नहीं तो, उसे पता नहीं चलता कि मेरी एक कहानी में सीमा एक बार करमंडल एक्सप्रेस में चढ़कर किसी दूसरे ऐसे स्टेशन पर कैसे उतर गई थी, जहाँ पर रेलवे की समय सारिणी के अनुसार ट्रेन रुकती नहीं है। निरंजन ने मुझे फोन पर बताया था कि मेरी कहानी की नायिका ग़लत स्टेशन पर उतर गई है।
लेकिन मैं उसे यह बात सशक्त तरीक़े से नहीं कह सका कि वह सीमा नहीं होने पर भी, परन्तु अपर्णा उतरी थी एक छोटे स्टेशन पर, उसी करमंडल एक्सप्रेस से, मैंने कभी भी अपर्णा को इस बारे में पूछा भी नहीं था। यह बात मुझे तभी पता चली, जब वह मुझसे निरंजन के बारे में बता रही थी।
दरअसल, जो चीज़ें जीवन में जिस क्रम में जैसे घटित होती हैं, ठीक वैसी ही और उसी क्रम में किसी कहानी में घटित नहीं हो सकती हैं। मैंने निरंजन से पूछा था, वह ट्रेन किसी भी हालत में किसी बाहरी स्टेशन पर नहीं रुक सकती? मान लीजिए कि आगे जाने के लिए कोई सिगनल प्राप्त नहीं हुआ हो। मान लीजिए किसी ने ज़ंजीर खींच कर ट्रेन रोक दी हो!
मैं निरंजन को किसी भी तर्क से संतुष्ट करना नहीं चाहता था। पता नहीं क्यों, ऐसा लग रहा था, मेरे अनुचित तर्क केवल सीमा को अपर्णा बनाने और निरंजन को और भयंकर और अंतरंग कष्ट देने के लिए छटपटा रहे थे।
केवल उसके लिए तो, उसकी इच्छा अनुसार ही मैंने अपनी कहानी की नायिका का नाम बदल दिया था। नाम रखा था और हमेशा रखता आ रहा हूँ सीमा। अब मुझे ठीक से याद नहीं है कि उस कहानी में ऐसा क्या था कि उसके प्रकाशित होने के कुछ वर्ष पहले निरंजन ने मेरे हस्तलिखित ड्राफ़्ट को पढ़ा था और इसे पढ़ने के बाद बहुत देर तक चुप रहा, मुझे लगा कि जैसे मैंने उस कहानी में कोई भयानक ग़लती की है। कथानक मुझे याद नहीं है, लेकिन शीर्षक था, “सामने घर वाली अपर्णा।”
निरंजन पत्थर की मूर्ति की तरह स्थिर और निर्जीव हो गया था। मैंने उसे धीरे से छूते हुए पूछा था—तुम्हें शायद कहानी पसंद नहीं आई। उसने मुँह में सिगरेट सुलगाई। शायद वह भूल गया था कि मैं उसके जवाब का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था। सिगरेट का लंबा कस तानते हुए उसने कहा, “नाम बदलने से नहीं होगा?”
आश्वस्त भाव से मैंने पूछा, “कहानी का नाम?”
“नहीं।”
“तो फिर?”
“लड़की के अपर्णा नाम की जगह कोई और कुछ नहीं किया जा सकता?”
“मतलब?” मेरे भीतर एक अजीब-सी बेचैनी पैदा हो गई थी।
“और कोई नाम, जैसे रीमा, नेहा, मीता, जो भी हो।” वह इस तरह कह रहा था जैसे किसी घोषणा पत्र की अंतिम पंक्ति पढ़ रहा हो।
“क्यों?” मैंने धीरे से पूछा।
“मैं जिससे विवाह करने वाला हूँ, उसका नाम है अपर्णा।”
अपर्णा कौन है और क्या वह उस नाम की वह अकेली महिला है? निरंजन समझ गया था कि मैं यह जानने के लिए काफ़ी उत्सुक था। उसने कहा, “मैं थोड़ा ज़्यादा पजेसिव हूँ तो क्या अपर्णा को केवल मेरी ही होने पर कहानीकार को कोई आपत्ति है?”
निरंजन के इस अधिकार जताने वाले पल को मैं कभी नहीं भूल सकता। मुझे वह विकृत और छोटा लग रहा था। लेकिन मुझे लगा कि मेरे अंदर एक अजीब सी इच्छा पैदा हो गई है, नियति की तरह। मैंने अचानक फ़ैसला किया, मेरी अगली कहानी की नायिका चाहे जो भी हो, वह उसमें सूक्ष्म और संतर्पण भाव से अपर्णा ही होगी। कम से कुछ कम अपर्णा। थोड़ी-थोड़ी, मगर अपर्णा।
अपर्णा को मैं नहीं देख सका, बल्कि यह बात अच्छी तरह से समझ पा रहा था कि वह मेरे बचे-खुचे जीवन के लिए केवल मेरी और एकमात्र नारी बन चुकी थी। मैंने तय कर लिया था कि भविष्य में मेरी कहानी की नायिका होगी सीमा। हमेशा-हमेशा के लिए। लेकिन उसमें रहेगी अपर्णा। केवल अपर्णा। बहुत कम होने पर भी।
पहले ही बता चुका हूँ, कुछ वर्ष पहले निरंजन द्वारा पढ़ी गई मेरी उस कहानी का नाम था, “सामने घर वाली अपर्णा”, उस समय वह कहानी प्रकाशित नहीं हुई थी। फिर भी उसके सामने ही अपर्णा का नाम बदलकर सीमा रखने पर उसके चेहरे पर उभरे संतुष्टि के भाव आज भी मुझे याद है। उस कहानी की पांडुलिपि के हर पन्ने पर मुझे कई दिनों तक दो लड़कियाँ दिखाई दीं। धुँधला चेहरा। उस कहानी को मैं कहीं भेज नहीं पाया, किसी पत्रिका में प्रकाशित होने के लिए।
मनुष्य किस तरह कभी-कभी अजीब जादू के अभिभूत होने के लिए विवश हो जाता है, उसके लिए कोई तर्क खोजना सम्भव नहीं है। निरंजन के वहाँ से चले जाने के बाद हर पल मुझे लगने लगा था कि न तो मेरे देखी हुई और न कभी जिसे देखने की इच्छा पैदा हुई, वह अपर्णा केवल मेरी है।
मैंने पहले ही तय कर लिया था कि जो अपर्णा मेरी है, उसे मैं ख़ुद बनाऊँगा। अपनी इच्छानुसार। किसी और की तरह नहीं। इसलिए तो मैं उसकी निरंजन के साथ शादी होने के बाद भी किसी-न-किसी बहाने उसका चेहरा देखने से अपने आपको रोक रहा था।
उसके बाद नौकरी के कारण हम दोनों अलग-अलग शहरों में रह रहे हैं। निरंजन और अब मेरी कहानी की पांडुलिपि को न तो पढ़ सकता था और न ही इसके प्रकाशित होने से पहले मुझसे सुन सकता था। मगर वह मेरी हर प्रकाशित कहानी को खोजता था। वह पढ़ता था और मेरी कहानी की मुख्य पात्र सीमा के भीतर हर तरह की बारीक़ ग़लतियाँ बाहर निकालता था।
एक बार वह मुझसे बहस करने लगा कि सीमा बाएँ हाथ से क्यों लिखेगी या खाएगी या कुछ करेगी। सीमा क्यों प्रतिदिन हनुमान चालीसा का पाठ करेगी? एक कहानी में रात को ग्यारह बजे रिक्शे में अकेले बैठकर जाते समय रास्ते में पैदल चल रहे राहगीर को बुलाया था उसने, उसे स्टेशन तक छोड़ने के लिए। उसे लेकर बड़े झुँझलाहट भरे स्वर में आपत्ति कर रहा था टेलीफोन पर निरंजन। वह भी रात को बारह बजे के बाद!
मेरी प्रत्येक परवर्ती कहानियों में सीमा को मैं असामान्य से असम्भव बनाता जा रहा था और इस सूत्र में एक जादुई शक्ति से केवल मेरे प्रेम में, एकांत प्रेम के लिए तैयार होती जा रही थी। जैसे कि वह मेरी है, अपर्णा कभी वैसी नहीं है। एक ही मंत्र को बार-बार मैं दोहरा रहा था।
मेरी कहानियों के संदर्भ में निरंजन की सारी प्रतिक्रियाएँ फोन पर ही मिलती थीं। और भी बहुत-सी बातें हैं, लेकिन कभी-कभी मुझे लगता है सीमा के माध्यम से मुझे अपर्णा के बारे में बहुत सारी ऐसी बातें जानने को मिल रही हैं, ठीक उसके विपरीत कहानियाँ लिखने के लिए वह मुझे मजबूर कर रही है। हालाँकि, उसने कभी एक ही बात कही थी, किन्तु अवश्य अलग तरीक़े से।
देखने पर आपको लगेगा कि निरंजन की अपर्णा के बारे में ही बात हो रही है और अभी भी मेरी कहानियों का मूल स्रोत है। निरंजन को खोजते-खोजते पता नहीं, मैंने अपर्णा से कभी फोन पर बात नहीं की, ऐसी भी बात नहीं है। सीमा की कुछ अजीबोग़रीब बातों का अन्य स्रोत यह भी है, अपर्णा के साथ टेलीफोन पर मेरी छोटी-छोटी बातें। लेकिन हर बार फोन करने से पहले एक अद्भुत सिहरन उठती थी। पता नहीं, मुझे कैसे पता चल जाता था कि निरंजन नहीं, इस बार अपर्णा ही फोन उठाएगी। उससे कम से कम शब्दों में जवाब सुनना पहले से ही मेरी नियति बन चुकी थी। हालाँकि, उनमें से कुछ शब्द इतने व्यापक होते थे कि उन्हें गुब्बारे की तरह तब तक फुलाया जा सकता है जब तक कि वे अकल्पनीय आनंद के साथ फूट न जाए।
फटा हुआ गुब्बारा और अब पिछले गुब्बारे जैसा नहीं दिखता था। मैं कल्पना करने लगता था अपर्णा के अपने ड्राइंग रूम में, बेडरूम में, डाइनिंग टेबल पर, गाड़ी में, बाज़ार में होने पर। यहाँ, वहाँ, सब जगह। एक बार मैंने निरंजन से सुना कि वह एयरपोर्ट से घर नहीं पहुँची थी, और सीमा को अकेले पहुँचा दिया था एयरपोर्ट, मेरी एक कहानी में, जिसमें वह अपने किसी पुराने ईप्सित पुरुष दोस्त के साथ दिखाई देती है।
मैंने पहले ही मन बना लिया था कि सीमा का कोई ईप्सित पुरुष नहीं होगा। वह कभी प्यार में नहीं पड़ सकती थी। इसलिए किसी और के ईप्सित पुरुष के साथ उसका दिखाई देना ज़्यादा तर्क-संगत लग रहा था।
किसी ज़िद्दी बर्बर कहानीकार की क्रूरता से किसी भी इमेज की मुक्ति कहाँ सम्भव है?
एक हस्ताक्षर देखकर असली या नक़ली पहचानने में माहिर बैंक मैनेजर मेरी कहानी की सीमा को दूसरी अपर्णा नहीं समझ पाएगा, ऐसा मुझे नहीं लगता है। भले ही, मैं अपनी सीमा को यथासम्भव अलग तरीक़े से तैयार करता आ रहा हूँ। कोई भी पाठक अलग पहचान देने के लिए सीमा को एक बार विकृत नहीं कर पाएगा। विकृत करने के लिए उसके चेहरे की मासूमियत नष्ट नहीं करेंगे। एक और सिर, तीसरा नेत्र, छठी अंगुली बना नहीं पाएँगे। उसे अलग बनाने की कोशिश के दौरान मेरी सीमा के भीतर छिपी हुई सुंदरता अपने आप बाहर आने लगती है, मुझे लगता है अपर्णा में भी एक बार ऐसी सुंदरता थी। जबकि अपर्णा को मैंने कभी देखा तक नहीं।
अब मैं अपर्णा और सीमा के बारे में इतना ज़्यादा सोच रहा हूँ, इसकी वजह है ख़ुद निरंजन। कुछ समय पहले वह अचानक फोन पर पूछने लगा, “कहाँ पर हो?”
“क्यों? घर पर हूँ।”
“मैंने कहानी पढ़ी। ‘सामने घर वाली सीमा’।”
एक तरह से डरा हुआ था मैं। मेरी पिछली सभी कहानियों से बिल्कुल अलग तरह की थी यह कहानी। इसमें सीमा को प्यार हो जाता है। इसके अलावा मेरी सारी कहानियों की नायिका सीमा के मुख्य पात्र बनने का कारण है, कहानी ‘सामने घर वाली अपर्णा’। मुझे लगता है कि निरंजन को शायद पसंद नहीं आया सीमा का प्रेम में पड़ना। लेकिन, इसे बदलने का कोई दूसरा तरीक़ा नहीं था। निरंजन ने मेरी पांडुलिपि नहीं पढ़ी थी, पढ़ी थी मेरी प्रकाशित कहानी। अब वह केवल ग़लतियाँ बाहर निकालेगा। मुझे उसके प्रतिवाद का इंतज़ार था, टेलीफोन पर, “आपके शहर में आया हूँ। आपके साथ बहुत सारी बातें करनी है। हाँ, आपकी कहानी की सीमा के बारे में भी। इसके अलावा, पीना भी है। कहाँ बैठेंगे, कहो?”
मन ही मन रात को बारह बजे हम दोनों शराब के नशे में धुत्त होकर एक रेस्टोरेंट से लौटने के बारे में सोचने लगे। मेरे शहर का समुद्र भी दिन-प्रतिदिन एक बड़ी झील की तरह दिखाई देता है। उसे इस तरह देखने के लिए दूर-दूर तक गलियों में खोए हुए घूमने वाला रेस्तराँ भी बहुत अच्छा लग रहा था। उसकी ऊपरी गोल मंज़िल मेरी अनुमानित गति से थोड़ी तेज़ गति से घूम रही थी। वहाँ से दिख रहा था झील की तरह शांत समुद्र। हृदय की तरह धड़कता है मेरा शहर। फ़र्श के घूमने के दौरान शहर के अलग-अलग हिस्से, समुद्र के अलग-अलग किनारे पर मुझे क्लाडियोस्कोप की डिज़ाइन की तरह दिखाई देते हैं। मैंने निरंजन को उस रेस्टोरेंट का नाम बताया। “रात को नौ बजे बैठेंगे। चलेगा?”
“नहीं, मैं आपके घर जाऊँगा। आप चाहो तो वहाँ से चलेंगे, अगर इच्छा हो तो। नहीं तो घर बैठ जाएँगे। बातचीत करनी है। पीएँगे ज़रूर।”
निरंजन के उतावलेपन को मैं जानता हूँ। पीने के ख़ातिर तो वह एक भयंकर बाघ पर भी चढ़ सकता है। मैंने कहा, “ठीक है। जब भी समय मिले, आ जाओ। मैं घर पर हूँ।”
उसने अचानक कहा, “मुझे वह घर भी देखने जाना है।”
“घर?”
“हाँ, जहाँ सीमा रहती है। आपकी कहानी वाली सीमा।”
निरंजन मेरी कहानियों का गंभीर पाठक है। लेकिन वह इतना ज़्यादा गंभीर होगा, मैंने कभी नहीं सोचा था। कहानी को कहानी नहीं समझता है। मैंने अपने आप से कहा, आगे मुझे और भी सावधान रहना होगा।
अब झरोखे से दिख रही टैक्सी से अवश्य बाहर आया होगा निरंजन, जो मेरे घर के सामने है। टैक्सी ड्राइवर के मीटर नीचे कर ड्राइवर की सीट पर बैठ कर गाड़ी स्टार्ट करते समय मेरे घर की कालिंग बेल बजने लगी। बजाने वाला निरंजन ही होना चाहिए।
ऐसे कुछ ख़ास पहचान नहीं होने पर भी बदला नहीं था वह। एक बैंक प्रबंधक की आवश्यक गंभीरता भी उसके पास नहीं थी। निस्संदेह, अधिक गोरा लग रहा था। गंजा हो गया था। पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लग रहा था, निरंजन उससे कहीं अधिक लंबा हो गया था।
घर में क़दम रखते हुए कहने लगा, “अबे, वह घर कहाँ है? सामने वाला घर?”
“सामने वाला घर?” मैंने जानबूझकर नहीं समझने का नाटक किया।
“आपके घर के सामने हज़ारों सालों से अप्रयुक्त जंगल की तरह दिखने वाला पार्क है। यहाँ फिर कौन रहेगा? और सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि यहाँ घर किसने बनाया?”
ड्राइंग रूम में ठीक से बैठेते-बैठते वह कहने लगा, “अगर सामने घर नहीं है, तो वहाँ कोई सीमा भी नहीं है। मतलब पूरी कहानी झूठ है। काल्पनिक और मनगढ़ंत। आपके जैसा कहानीकार केवल कहानियाँ ही लिख सकता है। और हम पाठक, उन कहानियों में फ़ालतू में वास्तविक लोगों, वास्तविक घटनाओं और किसी विशेष अर्थ की तलाश करते हैं।”
निरंजन को पानी और फिर चाय पिलाने की इच्छा से प्याले में पहले से गरम दूध डालकर मैंने टी बैग को प्लेट में रख दिया। लेकिन वह अचानक अविश्वसनीय तरीक़े से असफल होने के लिए तैयार नहीं था। फिर दिखाई देने लगे उसके विरक्ति के भाव।
“यक़ीन मानिए, मैं तो उस सामने वाले घर को देखने के लिए ही आया था। इसलिए जानबूझकर मैंने आपके शहर में मेरे ऑफ़िस का काम रखा था।”
“चीनी कितनी रहेगी?” पूछने पर उसने हाथ से इशारा करते हुए कहा कि बिल्कुल नहीं। मैंने कहा, “कहानी को कहानी रहने दो।” उसकी आपत्ति अभी भी ख़त्म नहीं हुई थी।
कहने लगा, “लेकिन मैं मानने के लिए तैयार नहीं हूँ कि कोई व्हील चेयर पर बैठने वाली साधारण सीमा को क्यों पसंद करेगा? और अगर घर में किसी को कुछ बताए बग़ैर वह भी इस तरह व्हील चेयर पीछे छोड़कर अपने असंभव प्रेमी के साथ क्यों भागेगी? कहानी झूठी है। असंभव भी।”
उसने मेरे चाय बनाने को पसंद नहीं किया।
“आपके पास और कुछ नहीं है,” घर के अंदर घूमकर देखते हुए कहने लगा जैसे मैं घर का मालिक नहीं हूँ, बल्कि एक दलाल हूँ, और वह मेरे कम फ़र्नीचर वाले घर को किराए पर लेगा। प्रश्न को तर्क के स्तर तक ले जाते हुए मैंने चुपचाप पूछा, “मेरी कहानी में क्या असंभव काम हुआ है, सीमा के प्यार में पड़ना या व्हीलचेयर को छोड़कर भाग जाना?”
वह मेरे कमरे में बोतल खोज रहा था। जैसेकि उसे पहले से ही पता था कि कहाँ पर क्या रखा हुआ है, रसोई की शेल्फ़ से दो गिलास और फ़्रिज से ठंडे पानी की एक बोतल लाकर पेग बनाकर एक गिलास को मेरी ओर जैसे धकेलते हुए दिया और ख़ुद एक घूँट पीकर चरम तृप्ति से ड्राइंग रूम की हर चीज़ को निहारने लगा। ऐसा लग रहा था कि वहाँ भी ग़लती खोजेगा। लेकिन अचानक उसके मुँह से अलग विषय पर एक सवाल निकला।
“अबे, तुमने शादी क्यों नहीं की?”
मैं सोचने पर मजबूर हो गया था कि मेरे घर में पत्नी की अनुपस्थिति स्वाभाविक रूप से ड्राइंग रूम की मरीचिका जैसा भ्रम पैदा कर रही थी उसके मन में। उसने प्रश्न बढ़ाते हुए पूछा, “क्या कहानी लिखने के लिए ब्रह्मचर्य नितांत आवश्यक है? मुझे लगता है कि जीवन में एक बार नहीं बल्कि सौ या हज़ार बार विवाह करना ज़रूरी है। ख़ासकर लिखने वालों के लिए।”
निरंजन के बनाए हुए गिलास से घूँट पीते हुए कहने लगा, “बूढ़ा हो गया हूँ, अब क्या शादी करूँगा?”
कुछ समय पहले मेरी कहानी के सम्बन्ध में पूछने पर अचानक उसके सवाल का जवाब मिल गया हो, उसी अंदाज़ में वह कहने लगा, “लेखक महाशय, प्यार में पड़ना कोई असंभव बात नहीं है। लेकिन कभी-कभी यह जानना बेहद ज़रूरी है कि कोई इंसान प्यार में क्यों पड़ता है? जैसे कि तुम्हारे कहानी की सीमा, अपने घर की खिड़की के पास व्हील चेयर पर बैठकर बाहर किसको देखती है? प्यार में पड़ती है। लेकिन पाठक यह सवाल पूछ सकता है कि कोई उसके प्यार में क्यों पड़ेगा?”
और एक घूँट पीते हुए मन में कुछ याद करते हुए कहने लगा, “कारण जानना नितांत आवश्यक होता है। केवल कहानियों में नहीं। जीवन में भी। क्या तुम विश्वास कर पाओगे? मेरे जैसे बुज़ुर्ग को भी मेरे क्लाइंट की पत्नी इन दिनों पागलों की तरह प्यार करती है। अजीब-सा अनुभव है। लेकिन एक इंसान दूसरे से प्यार क्यों करता है, इसका जवाब मिलना नितांत आवश्यक है।”
अपने तर्क से जीतने जैसा अनुभव करते हुए मैं कहने लगा, फिर मेरी कहानी की सीमा किससे प्यार करेगी या सीमा को कोई प्यार करेगा का कथानक ग़लत है? आपने तो ख़ुद अभी कहा कि जीवन में कितनी अजीब चीज़ें घटित होती हैं और इस बुढ़ापे में भी वे आपके अपने जीवन में घटित हो रही हैं।”
एक बड़े पाठक और समालोचक की तरह वह कहने लगा, “जीवन और कहानी में फ़र्क़ होता है। जीवन में अकारण कुछ भी हो सकता है। लेकिन एक कहानी में जो कुछ भी होता है, उसके पीछे कोई न कोई कारण ज़रूर होता है। अन्यथा, वह कहानी असंभव और अयुक्तिकर लगती है।” गिलास पर गिलास उँड़ेलते हुए एक अध्यापक की तरह निरंजन कहने लगा, “प्यार में कुछ भी असंभव नहीं है। मेरे लिए यह सोचना असंभव लगता है कि कोई आदमी सीमा को व्हीलचेयर से उठाकर कैसे ले जा सकता है?” एक घूँट पीते हुए फिर से पूछने लगा, “आपके दिमाग़ में व्हील चेयर का आइडिया आया कैसे?”
“मतलब?”
“अच्छा, अगर आपकी कहानी में सीमा पंगु नहीं होती तो? अगर वह व्हीलचेयर में नहीं बैठती तो? ऐसा क्या हो जाता?”
मैंने धीरे से कहा, “आपको मेरी कहानी ठीक से याद नहीं है। मैंने अपनी कहानी में यह कहीं नहीं लिखा कि सीमा लंगड़ी है। केवल इतना ही लिखा है कि वह व्हील चेयर में बैठकर घंटों-घंटों बाहर देखती थी। किसी को खोजती थी। हाथ बढ़ाकर बारिश को छूती थी। पेड़ों से गिरने वाले पत्तों को देखती थी और सोचती थी पेड़ों से गिरने वाले पत्तों से इतना शोर भी होता है!”
मानो उसे ख़ुद पर विश्वास नहीं हो रहा था, निरंजन ने एक बार अपनी आँखें बंद करते हुए कुछ याद किया। शायद मेरी कहानी। उसने पूछा, “फिर उस घर में व्हील चेयर क्यों थीं? वह साधारण कुर्सी को छोड़कर व्हीलचेयर पर क्यों बैठेगी?”
मैंने उसके हाथ से गिलास लिया और पानी मिलाते हुए समझाने लगा, “जैसे सभी अपंग लोग व्हीलचेयर में नहीं बैठते हैं, वैसे ही व्हील चेयर में बैठने वाले लोग अपंग नहीं होते।”
“लेकिन पता नहीं आपकी कहानी में मुझे व्हील चेयर में बैठने वाली सीमा कमर से नीचे लकवाग्रस्त लग रही थी,” निरंजन ने मुझे फिर से समझाया।
मुझे उसकी ऐसी बात पर आश्चर्य नहीं हुआ। पाठक अपने मन के भीतर के शब्दों को कहानी के शब्दों में मिलाकर पढ़ने से कहानी पुरानी हो जाती है। जैसे कि पाठक के लिए सारी प्रेमिकाएँ सुंदर होती हैं। जैसे पाठक को हर स्टेशन की चाय का स्वाद एक जैसा लगता है। जैसे सभी पत्नियाँ अपने पति को ठीक से समझ नहीं पाती है। मानो सारी घटित होने वाली घटनाएँ व्यर्थ हैं।
निरंजन की बेचैनी अभी ख़त्म नहीं हुई थी। उसने कहा, “लेकिन व्हीलचेयर कहाँ से आएगी?”
मैं कहानी की कहानी सुनाने की तरह कहने लगा, “व्हील चेयर किसी भी तरह से सीमा के घर में लाई जाएगी। मान लीजिए कि उसकी बूढ़ी माँ के लिए ही सही और उस बूढ़ी माँ के बिस्तर पर सोते समय सीमा उसमें बैठकर देखना चाहती होगी कि उसकी बूढ़ी माँ खिड़की के पास व्हील चेयर में बैठकर क्या देखना चाहती इतनी देर तक किसे देखती है।”
“लेकिन आपकी कहानी में बूढ़ी माँ कहाँ है?” उसने एक बच्चे की तरह पूछा।
मैंने जवाब दिया, “क्या सच में किसी कहानी में सब-कुछ लिखना ज़रूरी है?”
अचानक उसका मोबाइल बजने लगा। अपने चश्मा खोलकर वह किसकी कॉल है, देखने लगा तभी मुझे एहसास हो गया था कि वह अपर्णा का फोन है। लेकिन मुझे कैसे पता चला, यह नहीं पता था। पहले ही जवाब देने की मुद्रा में निरंजन ने मोबाइल पर कहा, “हाँ, मैं कल लौटूँगा। यहाँ तुम्हारे प्रिय कहानीकार के पास हूँ। नहीं, केवल एक गिलास ली है। उनकी कहानी पर बहस चल रही है।”
निरंजन के अस्पष्ट आवाज़ में प्रिय कहानीकार के कथन ने मेरे सीने में हलचल मचा दी। एक पल के लिए। सोच रहा था, निरंजन को छोड़कर और कोई भी पढ़ता है मेरी कहानियाँ! क्या सच में अपर्णा मेरी कहानी पढ़ती है? क्या मैं सचमुच उसका प्रिय कहानीकार हूँ?
निरंजन उठकर रसोईघर की ओर चला गया। शायद और ठंडे पानी की एक बोतल लेने के लिए। मैंने खिड़की से बाहर देखा तो निरंजन का घर मेरे घर के सामने उजड़े हुए पार्क में धुँधला-धुँधला दिख रहा था, जिसे मैंने पहले कभी नहीं देखा था।
इससे पहले कि निरंजन ने आपत्ति उठाई कि पार्क के अंदर घर होना असंभव है, मुझे उस धुँधलके में उस घर के भीतर अपर्णा दिखाई देने लगी। मैंने उसे भी पहले कभी नहीं देखा था। अपर्णा बैठी हुई थी। एक कुर्सी पर। एक साधारण कुर्सी पर। खिड़की के पास में। उसके हाथ में था मोबाइल।
निरंजन के पानी की बोतल और प्लेट में कुछ मूँगफली लेकर लौटने के दौरान मैंने देखा, धुँधली तस्वीर साफ़ होने लगी थी। अपर्णा की साधारण कुर्सी पहले की तरह व्हीलचेयर में बदल चुकी थी।
मैंने गिलास उठाकर अपने आप से कहा, ‘इस घटना को मैं किसी कहानी में नहीं लिखूँगा। लिख भी नहीं सकते हैं। क्योंकि सारी सत्य कहानियों को नहीं लिखा जाता। ऐसे भी मेरे कहानी की सीमा पहले जैसी नहीं रही। बदल गई है।’
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- सपनें, कामुकता और पुरुषों के मनोविज्ञान की टोह लेता दिव्या माथुर का अद्यतन उपन्यास ‘तिलिस्म’
- बात-चीत
- ऐतिहासिक
- कार्यक्रम रिपोर्ट
- अनूदित कहानी
- अनूदित कविता
- यात्रा-संस्मरण
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- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 3
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 5
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 1
- रिपोर्ताज