और अगर थोड़ी देर होती तो नंदिता को पकड़ लिया जाता। राजीव उसके बारे में क्या सोचेगा? और राजीव से सुनने के बाद रितु को क्या याद आया होगा?
सुना है रितु का फ़्लैट बाहर से नहीं, बल्कि अंदर से बंद था और उसके अंदर थी अधेड़ उम्र की एक महिला। जिसकी आँखें कौतूहल से जगमगा रही थीं। विव्रत बोध से काँप रही थी उसकी छाती, जिसे ठीक तरीक़े से ढक नहीं पा रही थी उसकी साड़ी। सुना है कि रितु की ग़ैरमौजूदगी में भी नंदिता फ़्लैट के अंदर थी, भले ही उसे केवल राजीव को चाबी सौंपने का अनुरोध किया गया था। भीतर से बंद फ़्लैट की चाबी।
दोपहर के दो बजे के आस-पास नंदिता ने कालिंग बेल बजने की आवाज़ सुनी और ख़ुद ने उठकर दरवाज़ा खोला तो सामने दिखाई दी रितु। उसके एक हाथ में ट्रॉली लगेज बैग और दूसरे हाथ में एक छोटा-सा पर्स और उसकी उँगली में झूलता हुआ चाबी का छर्रा। उसके अधरों पर खिली हुई थी मुस्कान। आँखों में आवश्यकता से अधिक अंतरंगता और विश्वास। वह वाक़ई में बहुत ख़ूबसूरत लग रही थी।
“सॉरी, आपको ऐसे समय में डिस्टर्ब कर रही हूँ,” नंदिता को कुछ कहने का मौक़ा दिए बग़ैर वह कहने लगी, “मैं रितु हूँ। मुझे पहले भी आपने देखा होगा। आपके फ़्लैट के सामने वाली फ़्लैट में रहती हूँ।”
नंदिता कहने लगी, “ठीक है। अंदर आइए। तुम्हें बहुत बार देखा है, मगर नाम मालूम नहीं था। नाम अभी मालूम हुआ। पहले नहीं मिली तो क्या हुआ अब तो मैं मिल रही हूँ। आओ।”
“प्लीज़। आज नहीं। और कभी। अभी मैं जल्दी में हूँ। मुझे आपकी थोड़ी मदद की ज़रूरत है। इस चाबी को रखिए। राजीव आएँगे। आपसे ले लेंगे। प्लीज़। आप उसे ठीक से पहचान जाओगी। आपने उसे भी पहले देखा होगा।”
लड़की—माने रितु—अपने हाथ की घड़ी देख रही थी और नंदिता के हाथ में चाबियों का गुच्छा पकड़ाकर दौड़कर चली गई लिफ़्ट की तरफ़। इससे पहले कि वह उससे कुछ ठीक से पूछ पाती, लिफ़्ट आ गई और वह उसमें ऐसे घुस गई जैसे कोई लुका-छिपी खेल रही हो। लिफ़्ट के दरवाज़े बंद हो गए थे। एक पल के लिए नंदिता को लगा कि उसने अपने हाथों से अपनी आँखें बंद कर ली हों। हाथों से नहीं, बल्कि आश्चर्य से। वास्तव में ऐसा लग रहा था जैसे वह एक से दस तक की संख्या गिन रही हो। अवश्य मन ही मन। रितु की फ़्लैट की चाबी अब उसके हाथों में थी और खेल अभी भी शुरू नहीं हुआ था।
नंदिता अंदर आई और अंदर से दरवाज़ा बंद करके डाइनिंग टेबल से कुर्सी खींच कर बैठ गई। उसके मन में आया कि उस लड़की के लिए कुछ और समय चाहिए, छिपने के लिए। फिर जाकर नंदिता खोजेगी।
उसने लड़की को पहले अवश्य कई बार देखा होगा। वह इतनी रहस्यमयी थी कि किसी को भी उसके रिश्ते के बारे में सोचने को विवश करेगा। नंदिता अवश्य उसका नाम नहीं जानती थी। अगर वह सही समय पर माँ बन गई होती तो शायद उसकी बेटी भी इतनी बड़ी हो गई होती। शायद वह भी बिल्कुल इस लड़की की तरह दिख रही होती। शायद सामने वाले फ़्लैट में नहीं, लेकिन उसके पास में, उसके अपने फ़्लैट में, ऐसे चुलबुल कर रही होती। शायद उसे भी बुलाती रितु। शायद ऐसी ही चमक उसकी आँखों में भी होती। और उसके होंठों पर ऐसी ही चपलता निखरती। शायद वह और ज़्यादा अंतरंग, ज़्यादा लापरवाह, ज़्यादा ग़ैरज़िम्मेदार होती। सिर्फ़ फ़्लैट की चाबी ही क्यों, अपनी ज़िन्दगी को भी वह बिना सोचे-समझे सब-कुछ उसके हाथों में दे देती। नंदिता ने अपने हाथ में चाबी का छर्रा देखा और रितु की तरह अपनी दूसरी उँगली में चाबी के छर्रे को डालकर देखने लगी।
वह रितु को ठीक से नहीं जानती थी। तो राजीव कौन है—यह जानने का सवाल ही नहीं उठता था। जबकि अजीब पागलपन देखिए, लड़की ख़ुद अंदाज़ लगा रही थी कि नंदिता के विश्वस्त हाथों से राजीव आकर ही चाबी ले जाएगा। कौन है वह? क्या वह आम दोस्त नहीं है? और पहले ही क़दम रख चुका है अंतरंगता की सीढ़ी पर? रितु की तो शादी नहीं हुई होगी निश्चय ही। पता नहीं, अपने तरीक़े से कर भी ली होगी तो। मंदिर में, चर्च में, कोर्ट में, पार्क में, होटल में और सिनेमा हॉल में। केवल बातचीत टेलीफोन पर, कंप्यूटर पर। बार-बार मिलना या साथ रहना। किसी और को जानने की क्या ज़रूरत है?
पता नहीं क्यों, शायद ऐसा लगा कि रितु और राजीव पहले ही विवाह कर चुके हैं और कभी नष्ट नहीं होने का गुप्त संकेत भ्रूण बनकर उसके गर्भ में पल रहा है। क्या उसके शरीर, उसके चेहरे, उसकी आँखों से ऐसा नहीं लगता है? नहीं, नंदिता को वैसे कुछ ख़ास लक्षण दिखाई नहीं दिए, उसके उन चंद सेकेंडों में मुस्कुराने, बात करने और चाबी देने के दौरान। शायद रितु ख़ुद सोच रही थी कि नंदिता राजीव के रिश्ते को स्वाभाविक रूप से मान लेगी। अगर किसी के फ़्लैट की चाबी किसी और को सौंपी जा रही है, तो इसका एकमात्र मतलब हो सकता है घर के अंदर निभृत विश्वास और सुरक्षा का समर्पण। इसलिए राजीव का रितु के लिए इतना ख़ास होना ज़रूरी है।
अगर जयंत आज ऑफ़िस के काम से दिल्ली नहीं गया होता तो रितु जैसे लिफ़्ट में ग़ायब हो गई, वैसे ही वह दूसरी लिफ़्ट से बाहर निकल आया होता। लंच करते-कराते नंदिता का समय ख़त्म हो गया होता और वह रितु और उसकी चाबी के बारे में शायद कुछ भी नहीं कह पाती।
और फिर अगर कार्यालय लौटने के बाद उसने धीरे से चाबी उठा ली होती, तो प्रश्न पूछ-पूछकर उसकी साँस फूल जाती। कौन है वह लड़की? क्या करती है? फ़्लैट का असली मालिक कौन है? कब से वह वहाँ रह रही है? अकेली है या और कोई साथ में है? तुम्हारी उसके साथ कितनी बार मुलाक़ात हुई है? उसके फ़्लैट में या यहाँ पर? राजीव कौन है? वह चाबी क्यों लेगा? तुम क्यों दोगी? तुम नहीं होती तो वह क्या करता? ऐसे हज़ारों प्रश्न, तरह-तरह की जिज्ञासाएँ। राजीव को कैसे पहचानती हो? नंदिता के पास आसान-सा जवाब होता। जो कोई आकर चाबी माँगेगा, वह होगा राजीव। और किसी को कैसे पता चलेगा कि रितु मेरे पास चाबी छोड़कर गई है? फिर भी जयंत कह देता, जैसे उत्तम उपाय घोषणा करते हुए तुम उसका नाम पूछोगी।
दीवार पर लगी घड़ी की तरफ़ देख रही थी नंदिता। लंच टाइम कब का ख़त्म हो चुका था। उसने कुछ नहीं खाया। ऐसे समय एक कप कॉफ़ी लेकर बैठे-बैठे सोचने लगी कि शाम को जयंत के लौटने पर रसोई में क्या-क्या बनाना है।
राजीव कब आएगा, बता रही थी रितु। अचानक उसे लगा कि चाबी देने से पहले उसके हाथ में अवश्य काफ़ी समय रहा होगा। एक प्रकार से विमोहित हो गई थी वह। वह अपने मन ही मन सोचने लगी, एक बार, बस एक बार, रितु के घर, घर को भीतर से अच्छी तरह देखेगी। ख़ाली देखेगी। और कुछ नहीं।
ऐसा लग रहा था कि वह घर उसके अपने ही घर का एक असंभव हिस्सा है। बाहर ऐसा नहीं था। सामने में एक अकल्पनीय समग्रता का अव्यवस्थित अंश, बिखरा-बिखरा असहज, बंद किया हुआ। बिना आत्मसमर्पण किए निर्भीक भाव से रितु के फ़्लैट को चाबी से खोला और अंदर जाकर फिर अंदर से बंद कर दिया।
यहीं से शुरू होता है लुका-छिपी का खेल। रितु के फ़्लैट में कुछ ख़ास नहीं था। ख़ास का मतलब घर के भीतर के सामान्य साज़ो-सामान। अकेली लड़की के लिए जितना ज़रूरी सामान होता है, बस इतना ही रखा हुआ था। लिविंग रूम में कुर्सी नहीं थी, लेकिन दीवार पर लगी हुई थी टीवी। एक गद्दा पड़ा हुआ था, बिछौने की चादर से ढका। इसे अस्त-व्यस्त ही घर कहा जाएगा।
कुछ ऐसी-वैसी किताबें। पत्रिकाएँ और समाचार पत्र। कुछ चीज़ें पता नहीं क्यों खोज रही थी नंदिता। राजीव के शर्ट, टी-शर्ट, जीन्स, जूतों की जोड़ी, अंडर गारमेंट्स, रूमाल, शेविंग क्रीम, रेज़र, मैचिंग परफ़्यूम। बस यही थे। फिर रितु की पोशाक, जूते, चप्पल, सेंडिल, चूड़ियाँ, शॉर्ट्स, अंडरगारमेंट्स सब बिखरे पड़े हुए थे इधर-उधर। अलमारी में। नीचे बिछे हुए अख़बारों पर। रितु का फ़्लैट वैसा ही है, नंदिता के फ़्लैट की तरह। शायद इसीलिए वह अपने फ़्लैट के हर कमरे की अविकल नक़ल देखना चाहती थी। जबकि यहाँ सब-कुछ बिखरा-बिखरा, अपरिष्कृत, अपरिच्छन्न था। इतनी चकचक स्मार्ट दिखने वाली रितु वास्तव में इतनी असहजता के अंदर! नंदिता को कुछ भी ठीक नहीं लग रहा था। सिर्फ़ ऊपर का कमरा बंद था, एक बड़े ताले से। उसके भीतर नहीं रह पाएँगे, कभी भी आश्चर्यचकित कर देने वाले विचार। बाक़ी दो कमरों और बाथरूम से दुर्गंध आ रही थी, जो केवल ग़लत काम करने के बाद ही आती है। नंदिता पूरे घर को सजाना चाहती थी, उसके कम साज़ो-सामान को सही ढंग से रखकर। बहुत प्यार से, बहुत देखभाल से।
कुछ बात पता नहीं होने पर भी, उसे ही खोजा जाता है। घर को सजाने की इच्छा धीरे-धीरे मन में तैयार कर रही थी खोजने की दुर्वार आकाँक्षा। कुछ समय के लिए वह बालकॉनी में भी गई। वहीं खड़ी होकर दूर-दूर के घरों को देखने लगी। उसे याद आया कि वह उन्हें अपने फ़्लैट की बालकनी से भी देख सकती है।
तभी कुछ खोजना हो गया था उन पलों का अपरिवर्तनीय खेल, नंदिता के लिए। जैसे कोई खोजता है सुख। जैसे कोई खोजता है अपना भविष्य। जैसे कोई खोजता है अधूरा ईश्वर।
फ़र्श पर पड़े गद्दे पर बिछौने की चादर ओढ़कर उसे व्यवस्थित किया और हर गद्दे पर कुछ पल के लिए सोई। अलग-अलग तरीक़ों से। अलग-अलग भाव-भंगिमाओं में। वह सोते हुए सपने देखना चाहती थी। कोशिश कर रही थी। नींद आने पर ही तो सपने आते हैं। लेकिन नींद सपनों का कारण नहीं है, प्रयास करना भी सपनों का उत्स नहीं है। वह अपने पास में अनुभव कर रही थी देहशून्य जयंत को। वह अस्वस्तिकर और अपरिष्कार महसूस कर रही थी। रबर की तरह चेतनाहीन होकर। ऐसा लग रहा था कि अजीब-सी थकान उसके शरीर को कमज़ोर और नग्न कर रही है। वह भाग कर बाथरूम में गई, शॉवर खोला और उसके नीचे खड़ी हो गई। वहाँ से बाहर निकल कर उसने नए कपड़े पहने। और बेसिन के पास जाकर उल्टी करने लगी। पंखे को और भी ज़ोर से चलाकर वह बालकनी में गई, एक नए अलग पवन की खोज में। जहाँ पतंग की तरह उड़ सकती थी इधर-उधर। जहाँ झंडे की तरह लहरा सकती थी। तरह-तरह का भोजन माँग सकती थी। वहाँ पर वह खोज रही थी हरे तोते को, जो उसने अपने फ़्लैट की बालकनी में आकर विकल भाव से माँगता था बिस्कुट। अद्भुत आदत थी उसकी। बिस्कुट के अलावा कुछ नहीं। जिसे वह एक पाँव से पकड़कर रेलिंग पर चोंच से गोल घुमाकर-घुमाकर खाता था। उसके बाद प्रतीक्षा कर रही थी, गुलाबी पैरों वाले नदी के उस पार से आने वाले दो स्लेटी कबूतरों की, छत पर फेंके हुए चावल खूँटने के लिए। वह इंतज़ार कर रही थी एक गहरे काले रंग के कौए का, जो उससे बेजान आवाज़ में माँगता था थोड़ा-सा घी। बस थोड़ा-सा घी।
भय एक दुष्ट पक्षी की तरह संतर्पण और निमंत्रण के बिना आ जाता है। केवल भय ही लग रहा था। अचानक याद आ गया, अगर राजीव इसी समय आ जाए तो! एक पल के लिए वह अंदर से बाहर निकल गई। भीतर से फ़्लैट का दरवाज़ा बंद था और नंदिता चौंक गई कि कहीं उसने फ़्लैट का दरवाज़ा ख़ुद खुला तो नहीं छोड़ दिया है। क्या उसकी अनुपस्थिति में कोई भीतर तो नहीं आ गया? राजीव ने आकर खोजा तो नहीं? खोजकर वापस लौट नहीं गया होगा तो? नंदिता उम्र के उस पड़ाव तक पहुँच चुकी थी, जहाँ कुछ भी सच नहीं लग रहा था। कुछ सत्य होना भी इतना महत्त्वपूर्ण नहीं लग रहा था। जैसे पृथ्वी स्थिर है या घूम रही है। सूर्योदय होगा, सूर्यास्त होगा। सब-कुछ विराट ब्रह्मांड के छोटे-छोटे अंश है। यह जीवन क्षण-भंगुर है या अमर। अपने हिसाब से जीएँगे या दूसरों के हिसाब से। विभिन्न प्रकार के पापों को परिभाषित करेंगे या उन्हें सूचीबद्ध करेंगे। अप्रत्याशित रूप से चाबी मिल गई। जिसके कारण वह सब-कुछ अपने हिसाब से सजाएगी। ऐसी अनेक बातें। नया सत्य जैसा शायद कुछ भी नहीं होता है, सारे सच है, पुराने झूठ की पृथक परिभाषा मात्र।
कभी-कभी ऐसा लगता है, कोई प्राचीन ईश्वर नहीं होता है, लेकिन जो वास्तव में सर्वव्यापी है, वह स्वयं की धारणा है। ख़ासकर भ्रांतियाँ। संभवतः केवल भ्रम ही सर्वनियंता, सर्वशक्तिमान और सर्वकालजयी है।
नंदिता ने अपने फ़्लैट में जाकर देखा, वैसा ही ख़ाली था। फ़र्नीचर या सामान किसी घर को पूरा नहीं करते है। शायद अनुपस्थिति घर में सबसे ज़्यादा जगह घेरती है। दूसरों की। बाक़ी सभी की।
तभी किसी ने कॉलिंग बेल बजाई। कितने समय का फ़ासला था, उसके फ़्लैट से यहाँ आने के दौरान। एक मिनट भी नहीं होगा। थोड़ी और देर हो जाती तो वह पकड़ में आ जाती।
नंदिता के कुछ पूछने से पहले, सामने खड़े युवक ने अभिवादन करते हुए कहा, मैं राजीव। एक यंत्र संचालित मशीन की तरह उसने आगे बढ़ा दी चाबी और राजीव ने भी उसे मशीनवत पकड़ लिया और सामने के फ़्लैट के बजाय दो फ़्लैटों के बीच वाली लिफ़्ट के पास एक पल में अदृश्य हो गया। शायद वह नीचे कुछ सामान छोड़कर आया था। नंदिता ने भीतर आकर दरवाज़ा बंद किया तो महसूस करने लगी अस्वस्तिकर बेचैनी। सीने में भीतर किसी चीज़ के फँस जाने का अहसास, जो न केवल विचित्र था, बल्कि विकृत भी।
क्या राजीव को भीतर बुलाना चाहिए था या नहीं? क्या उससे ज़्यादा जानकारी मिलने से नंदिता के साथ रितु का रिश्ता ज़्यादा अंतरंग हो सकता था? जब रितु एक बार आमने-सामने होने पर दे सकती है अपने घर की चाबी, किसी दूसरे को देने के लिए। राजीव अवश्य थक कर लौट रहा होगा, किसी दूसरी जगह से। क्या वह एक गिलास पानी, एक कप चाय या अपने सत्कार से संबंधित किसी चीज़ की अपेक्षा नहीं कर रहा होगा?
नंदिता अपने फ़्लैट के अंदर इस तरह खड़ी हो गई, मानो अभी वह कुछ करेगी, उसके लिए वह किसी से अनुमति ले लेगी। जैसे कि उसे ठीक से तय करना है, वह सोफ़े पर बैठेगा, सोफ़े पर सोएगा, क्या पीएगा, क्या खाएगा। मानो परवर्ती समय अब उसके क़ाबू में नहीं था। डाइनिंग टेबल पर रखी हुई थी छह कुर्सियाँ। किसे खींचकर बैठेगा वह? सोफ़ा सेट के किस कोने में बैठेगा? बालकनी की रॉकिंग चेयर, उसके बग़ल में दीवान, नीचे बिस्तर के किनारे या किचन काउंटर पर? कहाँ पर बहुत थकान महसूस होगी? फ़र्श पर या बिस्तर पर या ऐसे ही अन्यमनस्क बैठे रहेगा? बालकनी की रेलिंग पर कौन-से नए पक्षी की खोज करेगा? क्या देगा उसे खाने के लिए? टीवी को चालू कर कौन-सी चैनल देखेगा? कौन-सी किताब, पत्रिका या समाचार पत्र पलटेगा। कौन-सी पंक्ति, कौन-सा शब्द ज़्यादा पसंद आएगा और किस पंक्ति या शब्द से ज़्यादा नफ़रत होगी। शब्दकोश में कौन-से शब्द का अर्थ खोजेगा? कौन-से बाथरूम में जाएगा? क्या पहनेगा? कौन-से दर्पण में अपना चेहरा देखेगा? रसोई में अपने लिए क्या बनाऊँगी? कौन-सी रेसिपी?
राजीव को फिर से याद करने की कोशिश की, तो उसे उसका चेहरा ठीक ढंग से याद नहीं आ रहा था और रितु के फ़्लैट की चाबी किसी ग़लत व्यक्ति को देने की बात से वह और अधिक चिंतित और दोषी अनुभव कर रही थी। क्या अनुभूति को दोष में बदलने के अलावा जीवन जीने का कोई और तरीक़ा है? मगर एक पल में उसने ख़ुद को आश्वस्त कर दिया। हो सकता है कि एक बार में कुछ भी याद न रहे। इन सब बातों को कोई भूल सकता है। उसे अपना चेहरा, यहाँ तक कि जयंत का चेहरा भी ठीक ढंग से याद नहीं है। इसके बजाय, उसका चेहरा अलग-अलग दिख रहा था। चाय पीते हुए उसका चेहरा समरेंद्र के चेहरे की तरह लग रहा था। बचपन का मासूम और निष्पाप चेहरा। समरेंद्र स्कूल में नंदिता के साथ पढ़ रहा था। जयंत के दाढ़ी काटते समय का चेहरा याद आते ही निरंजन का चेहरा सामने आ गया। लंबा, स्निग्ध और उज्ज्वल। निरंजन एक डॉक्टर है। कुछ दिनों पहले, शायद हज़ारों साल पहले, असहाय नंदिता को उसने एक बार समझाया कि कोई दुर्घटना किसी और को नष्ट कर देती है—यह सत्य है, अन्य सभी संभावनाओं को चूर-चूर कर देती है, और यह भी सच है कि वह तुम्हें हमेशा के लिए बचा लेती है। एक गर्भपात ने नंदिता के सारे भविष्य को बर्बाद कर दिया था। अनैच्छिक गर्भपात। भोजन करते समय जयंत का चेहरा याद आ गया, मगर लग रहा था अर्द्ध परिचित अविनाश के हमेशा जवाब माँगते चेहरे की तरह। पूरी तरह दाढ़ी से भरा हुआ। कर्कश। रुक्ष। अख़बार पढ़ते समय जयंत का चेहरा देवदास के क्रुद्ध और चश्मीश चेहरे की तरह। अद्भुत कविता लिखने वाला चेहरा। जिसे दिन-प्रतिदिन ऐसे ही नष्ट किया जा सकता है। जो झूठ को अलग-अलग डिज़ाइन की साड़ियों से आवृत्त कर देता है, केवल उसे नंगा करने के लिए एक तुरीय अवस्था में।
धीरे-धीरे चेहरों की भीड़ में जयंत के अलग-अलग समय के चेहरों की शोभायात्रा नंदिता के सामने चुपचाप गुज़रने लगी। उन चेहरों की क्या माँगें हो सकती हैं? लंबे, अंतहीन ऊबड़-खाबड़ रास्ते के सँकरे कोने में घुसती जा रही थी नंदिता। शोभा-यात्रा ख़त्म होने में अभी समय लगेगा।
ऐसी अजीब-ओ-ग़रीब घटनाएँ तभी घट सकती हैं, जब आपकी बालकनी के बाहर हल्की-हल्की बेमौसम बारिश हो रही हो। भीतर में भी हो रही थी, घर के अंदर, छत को नज़रअंदाज़ करते हुए, छाती को असंभव रूप से भिगोते हुए। फिर भी उस समय ऐसा लगता है कि आसमान में बादल नहीं है, फिर बारिश कहाँ से हो रही है। और इस उम्र में भी ठीक तरीक़े से चेहरे याद नहीं आने वाले जयन्त की अनुपस्थिति असहनीय और अबोध लग रही थी। जैसे कि उसे अपना चेहरा तक फिर से याद नहीं आ रहा था। जीवन को अगर आप इस नज़रिए से देखते हैं, तो यह आपको बहुत कम देता है, मगर अधिक से अधिक प्राप्त करने की चाहत पैदा करता है। ज़्यादा सवाल खड़े करता है, जवाब कम देता है। कभी-कभी बारिश ऐसे होती है, जैसे पाप बरस रहे हों किसी अज्ञात ऊँचाई से।
शाम हो चुकी थी। किसी भी कमरे में रोशनी नहीं थी। किसी ग़लती पर पैदा हुई क्लांति जैसे उसे बताती जा रही हो कि कोई भी ग़लत काम करने की वजह से पकड़ा जाता है। जैसे कभी-कभी समय पर याद नहीं आती है, पुराने गीतों की पंक्तियाँ। वैसे ही, जैसे याद नहीं आने वाली पंक्तियों में जुड़ते जाते हैं आपके अपने शब्द। वैसे ही, उस समय एक अबोध आलाप की स्मृति ही पूर्ण कर सकती है उस गीत को।
नहीं, रितु की चाबी लेकर उसकी अनुपस्थिति में उसके घर में प्रवेश करना उसके लिए सही नहीं था। बिल्कुल नहीं। क्या सब-कुछ ठीक से सजाने की दुर्वार और दुर्बोध ज़िद के भीतर अनावश्यक स्वामित्व ज़ाहिर करना कहाँ तक उचित था? पता नहीं, क्या संभवतः वह खोज रही थी कुछ दुष्ट प्रमाण, कुछ परिचित पापों के?
मद्धिम रोशनी में झलक रही थी प्रत्येक वस्तु की अलग-अलग आकार की छाया। जैसे वस्तु की छाया और आकार के बीच वास्तव में कोई सम्बन्ध नहीं होता हैं। जैसे परछाईंं ही वास्तविक जीवन है और उसे घेरे रहते हैं, चारों ओर से, सामानों के प्रहरी। जैसे कि परछाईंं ही बना सकती हैं कोई वस्तु। जबकि वस्तु नहीं बना सकती छाया को।
रितु के पास नहीं था नंदिता का फोन नंबर। रितु के नंबर उसके पास भी नहीं थे। अभी उसे ऐसा लग रहा था, जिस आदमी ने उससे चाबी ली थी, उसने वास्तव में उसे अपना नाम नहीं बताया था। जैसे वह आया था, शायद किसी और चीज़ के लिए। शायद वह सेल्समैन हो, कोई बीमावाला। शायद जयंत के ऑफ़िस से कोई हो, जिसे वह नहीं जानती थी। शायद जयंत के ऑफ़िस के ड्राइवर का दोस्त हो। शायद चौकीदार जिसे हाउसिंग कॉम्प्लेक्स में नई नौकरी मिल गई हो। बिजली मिस्त्री, प्लंबर मिस्त्री। अख़बार वाला, दूधवाला। कोई भी हो सकता है, लेकिन राजीव नहीं। ग़लती से उसने किसी और को दे दी रितु के घर की चाबी?
नंदिता एक के बाद एक लाइट के सारे स्विच दबाते हुए जा रही थी जैसे कि उनसे रोशनी नहीं, बल्कि उसके मन के प्रश्नों का उत्तर जल उठेगा। दीवार से। लंबे लैम्प-स्टेंड से।
कोई साया छुप जा रहा था, किसी साया का आकार बदल रहा था, मगर सारे सामान पहले की तरह वैसे ही रखे हुए थे। कुछ ज़्यादा ही सँभालकर रखे हुए थे, मानो साये की रखवाली कर रहे हों, उनका अवधारित भाग्य। कुछ पल के लिए फ़्लैट का दरवाज़ा खोलकर वह दहलीज़ पर खड़ी हो गई। सामने वाले घर को देखने लगी, ध्यानपूर्वक। जैसे कोई देखता है अपने नहीं चाहने वाले व्यक्ति की ओर। जैसे कोई देखता है किसी दूसरे के भीतर निर्विकार सत्ता को। उसकी अविचलित उपस्थिति को।
कभी भी किसी घर को इस तरह निहारते हुए नहीं देखा था उसने। कभी भी कोई दरवाज़ा इतना दुर्बोध नहीं लगा था। उस नेमप्लेट दरवाज़े का इकलौता दोस्त लग रहा था बग़ल की दीवार पर लगा हुआ एक छोटा-सा स्विच। कॉलिंग बेल का। नंदिता को लगा कि किसी दरवाज़े का सीमित काम होता है, उसका अधिकांश समय तक बंद रहना। थोड़े समय के लिए किसी तरह खुला रहना। हर समय इनकार करना। और कभी किसी तरह कहना, आओ।
धीरे-धीरे उस दरवाज़े की ओर बढ़ी नंदिता। उस घर में क्या कर रहा होगा राजीव अभी? नंदिता ने घर साफ़-सुथरा कर बालकनी, बाथरूम और यहाँ तक कि अलमारी, बिस्तर, किताबें तक जमा दी थीं, ऐसा सजा हुआ घर देखकर वह रितु की प्रशंसा करेगा? वह ख़ुद भी बार-बार आश्चर्यचकित हो रहा होगा? रितु से कह रहा होगा, क्या तुम्हें नहीं लगता कि हम किसी नए फ़्लैट में चले गए हैं? नहा रहा होगा? किचन में अंडे फोड़कर आमलेट बना रहा होगा? नूडल्स? दो मिनट में? थककर सो गया होगा? अर्द्ध नग्न? पूर्ण नग्न? बेसिन में अपना चेहरा धो रहा होगा? दाढ़ी बनाने के लिए खड़ा हो गया होगा? वहाँ पड़ी उल्टी की बदबू से उसका दम घुट रहा होगा? रितु को नाराज़ होकर फोन कर रहा होगा?
नंदिता फिर से ख़ुद को पूछने लगी। क्या उसने वाकई में राजीव को चाबी दी थी? रितु जिस राजीव के बारे में कह रही थी उसी राजीव को ? सोच रही थी उस राजीव को एक बार ठीक से देख लूँगी। वह उससे बात करके समझकर आश्वस्त होगी।
कॉल बेल के स्विच दबाने और छाती में धुकधुकी लिए राजीव के लिए दरवाज़ा खोलकर इंतज़ार करूँगी। वह उसका चेहरा याद करने की कोशिश करने लगी, चाबी लेते समय का चेहरा। जबकि बहुत पुराने, घिसे-पिटे, लंबे समय से खरोंच भरे चेहरों के जुलूस ने उसे धकेल दिया बिना रोशनी वाली गली के किनारे की तरफ़। मौन जुलूस बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रहा था। रास्ते पर कोई और? केवल चेहरे। कौन-सा चेहरा था राजीव का? किस राजीव को उसने दी थी रितु की दी हुई वह चाबी ?
दरवाज़ा खोलते ही लम्बे-लंबे बालों वाली सजी-सँवरी युवती उसके सामने आकर खड़ी हो गई। लगभग रितु के उम्र की। लेकिन रितु नहीं। उसने दाँतों से पकड़ रखा था बाल बाँधने वाला क्लिप। एक क्लिप। उसकी लंबी नाक, बड़ी और गोल आँखें और उद्धत छाती उसे परेशान करने के लिए पर्याप्त थी। जिसे सँभाल नहीं पाने के कारण अस्त-व्यस्त होकर नीचे गिर रहे थे उसे ढीले-ढाले कपड़े।
नंदिता तैयार नहीं थी। क्या कहेगी, भूल गई। क्या यह जयंत-यानी जयंत महापात्र का घर है?
नहीं। क्लिप से बाल बाँधकर युवती कहने लगी, मानो वह कहना चाहती हो उसका मतलब किसी को बेवजह परेशान करना एक निंदनीय अपराध है। भीतर से थकी और निद्रालु स्वर में सुनाई दिया एक शब्द; कौन? नंदिता सोचने लगी, कम से कम उस समय उस शब्द का अर्थ वही था।
धीरे से सॉरी कहते हुए नंदिता लिफ़्ट की ओर आगे बढ़ी और याद करने की कोशिश करने लगी, क्या ठीक उसी आवाज़ में उसने राजीव कहा था उसे राजीव कहकर? नहीं, वह अपने बारे में ऐसा नहीं सोच रही थी। पता नहीं उसे ऐसा क्यों लग रहा था राजीव किसी न किसी तरह से पकड़ा गया है।
जैसे कि वह पहले से ही तैयार हो, एक पल में लिफ़्ट आ गई और वह उसमें तुरंत घुस गई जैसे कि लुकाछिपी के खेल में छिपने की उसकी बारी हो।
लिफ़्ट का दरवाज़ा बंद होते समय उसे याद आया कि उसके फ़्लैट का दरवाज़ा खुला हुआ था। हालाँकि, उसने लिफ़्ट को रोकने के लिए स्विच नहीं दबाया और लिफ़्ट नीचे चली गई। अ
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लेखक की कृतियाँ
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- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
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- प्रवासी लेखक श्री सुमन कुमार घई के कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ से गुज़रते हुए
- प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव की ‘काक-दृष्टि’ पर एक दृष्टि
- वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’
- सपनें, कामुकता और पुरुषों के मनोविज्ञान की टोह लेता दिव्या माथुर का अद्यतन उपन्यास ‘तिलिस्म’
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- अनूदित कहानी
- अनूदित कविता
- यात्रा-संस्मरण
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- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 3
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 5
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 1
- रिपोर्ताज