अदिति की आत्मकथा

अदिति की आत्मकथा  (रचनाकार - श्यामा प्रसाद चौधरी)

(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )
भूमिका

 

प्रख्यात ओड़िया लेखक जगदीश मोहंती जी की आकस्मिक मृत्यु पर ओड़िया साहित्य जगत ने श्रद्धांजलि स्वरूप ओड़िया समाचार पत्र ‘संवाद (5 जनवरी 2014)’ में अपने हृदयोद्गार प्रस्तुत किए थे, जिनमें से कुछ पंक्तियों ने मेरा ध्यान आकर्षित किया था और वे थीं साहित्यकार श्यामा प्रसाद जी की। हिन्दी पाठकों के लिए मैं उन पंक्तियों को उद्धृत करना चाहूँगा: 

“ओड़िया कहानियों का ईश्वर: जगदीश को मैं अत्यंत नज़दीकी से जानता हूँ। वह ओड़िया कहानियों के ईश्वर थे। उनमें एक भीषण ज्वाला थी, जिसमें आस-पास के सभी को जला देने की क्षमता थी। वह बहुत ही सज्जन इंसान थे . . . मैं नहीं समझ पा रहा हूँ, किस प्रकार अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करूँ। दुनिया में किसी भी स्थान पर न लेवल क्रॉसिंग हो और न ही रेल पटरी। मुझे आज से उस ट्रेन आविष्कारकर्ता से घृणा हो गई है।” 

उन्हीं पंक्तियों से प्रेरित होकर मैंने एक आलेख लिखा था ‘जगदीश मोहंती कभी नहीं मरते!” मेरा यह आलेख बोधि प्रकाशन, जयपुर की साहित्यिक पत्रिका ‘उत्पल’ में प्रकाशित हुआ था। मुझे आज भी आश्चर्य होता है कि एक लेखक दूसरे लेखक के प्रति इतनी अगाध श्रद्धा से नतमस्तक हो सकता है। दूसरा विचार मेरे मन में उस समय उठना स्वाभाविक था कि हो न हो, टिप्पणीकर्ता लेखक अवश्य ही अति संवेदनशील चेतना के स्तर पर रहे होंगे। उस समय से श्यामा प्रसाद चौधरी जी मेरे लिए एक अबूझ पहेली बने हुए थे और मन ही मन उनसे मिलने के लिए अद्भुत उत्कंठा जागृत हुई थी। बार-बार सोच रहा था, क्या मेरे नसीब में उनसे मिलना लिखा होगा भी या नहीं। लेकिन कहते हैं, सच्चे मन से माँगी हुई मुराद पूरी हो जाती है यानी जहाँ चाह, वहाँ राह। समय का चक्र घूमता रहा और आठ साल के बाद जून 2022 में अंगुल में प्रोफ़ेसर शांतनु सर की अध्यक्षता में ‘संवाद साहित्य घर’ द्वारा आयोजित एक साहित्यिक संगोष्ठी में उनका मुख्य अतिथि के रूप में पधारना मेरे लिए किसी दैविक अनुकंपा से कम नहीं था, क्योंकि यह वे पल थे, जब मुझे अपने सपने साकार होते हुए नज़र आ रहे थे। वे प्रोफ़ेसर शांतनु सर के मित्र भी थे, इस तरह यह आयोजन अपने आप में अनुपम था। मैंने उस आयोजन में ‘उत्पल’ पत्रिका में छपी उनकी टिप्पणी को दिखाया था और उन्होंने देखकर न केवल हार्दिक आभार व्यक्त किया था, बल्कि मेरे साहित्यिक गतिविधियों की उन्मुक्त मन से तारीफ़ भी की थी, यह कहते हुए कि आप जो कर रहे है, आपको भी मालूम नहीं होगा कि आप कितना महत्त्वपूर्ण काम कर रहे है, यह आने वाला समय बताएगा। मुझे उनके शब्दों में एक प्रकार से अभय मुद्रा में आशीर्वाद की झलक महसूस हुई। 

उस आयोजन के दौरान उन्होंने मुझे अपना अद्यतन ओड़िया कहानी-संग्रह ‘चिड़ियाखानार चित्र’ उपहारस्वरूप भेंट की थी। इस संग्रह की कुछ कहानियाँ पढ़ने के बाद मुझे हिंदी के किंवदंती लेखकद्वय सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की कालजयी कहानी ‘गैंग्रीन’ तथा निर्मल वर्मा की प्रसिद्ध कहानी ‘परिंदे’ याद आने लगी। 

जिस तरह अज्ञेय और निर्मल वर्मा अपनी हिन्दी कहानियों की बनावट को सूक्ष्मता से मनोवैज्ञानिक स्तर पर कसते हैं तथा अलग-अलग स्तर पर मानवीय संवेदनाओं में हो रहे परिवर्तन को बारीक़ी से खंगालते हैं, ठीक उसी तरह श्यामा प्रसाद चौधरी जी भी मानव मन में छिपी रहस्यमयी अनुभूतियों को ओड़िया भाषा में उसी तरह प्रकट करते जाते हैं, अपनी सशक्त और पैनी लेखनी के माध्यम से, कि जब तक पाठक उस कहानी को पूरी तरह पढ़ नहीं लेता, तब तक न तो वह किसी ठोस नतीजे पर पहुँच पाता है और न ही अपने मानसिक झँझावात को थाम सकता हैं। कहने का अर्थ यह है कि श्यामा प्रसाद जी की कहानियाँ पाठक को पूरी तरह से बाँध कर रखती हैं। कभी-कभी तो कहानी का परिणाम पाठक की कल्पना से परे होता है। कहानी का चरम बिंदु कहाँ होगा और कहानी का अंत कहाँ होगा—उसे खोजने के लिए पाठक को अपने भीतर उतरना पड़ता है। उसके बावजूद भी कई अनसुलझे सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं। वे सवाल पाठक को यह सोचने पर विवश करते हैं कि शायद कहानीकार अपनी कहानी को दूसरी तरह से भी अंजाम दे सकता था। इस कहानी-संग्रह में उनकी दस कहानियों का अनुवाद संकलित है। 

‘अदिति की आत्मकथा’ कहानी मुझे जगदीश मोहंती के कहानी-संग्रह ‘सुंदरतम पाप’ की कहानी ‘अदिति के तीन प्रेमी’ के विषय-वस्तु की याद दिलाती है। यद्यपि इन दोनों की तुलना नहीं है, मगर मेरे ज़ेहन में एक सवाल अवश्य उठा था कि क्या यह वही अदिति है, जो मोहंती जी की कहानी की मुख्यपात्र थी या कहानीकार ने उन्हें सम्मान देने की दृष्टि से अपनी कहानी में विस्तार दिया है। कोई मनुष्य अपने अस्तित्व को कहाँ-कहाँ खोज सकता है, या उसकी अस्तित्वहीनता उसे किस क़द्र असहाय और अकेला बना देती है कि वह अपनी सोच से परे किसी जान-पहचान वाले की आत्मकथा में भी अपनी उपस्थिति को खोजने के लिए लालायित रहता है और वहाँ पर भी अपनी उपस्थिति न पाकर जिस मानसिक अंतर्द्वंद्व से गुज़रते हुए जितनी प्रताड़ना अनुभव करता है, उतनी ही प्रताड़ना पाठक भी पढ़ते समय अपने भीतर अनुभव करता है, कहानीकार के शब्द-जाल की भूलभुलैया में फँसकर। प्रश्न के बाद प्रश्न उठने लगते हैं उसके मन में और आधे-अधूरे उत्तर मिलने पर वह फिर से उन्हीं प्रश्नों के चक्रव्यूह में फँसकर तड़पने लगता है। 

‘चिड़ियाखाना का चित्र’, ‘चेन खींचना’, ‘जादूगर के अपने आदमी’ कहानियों के कथानक भले ही अलग-अलग प्रतीत होते हों, मगर तीनों में नंदिता को मात खानी पड़ती है और वह शक के घेरे में कहीं-न-कहीं आ जाती है किसी अन्य के साथ अपने आत्मीय सम्बन्ध को लेकर। यद्यपि कहानीकार की लेखनी इस दिशा में पूरी तरह शांत रहती है, मगर पाठक को उनकी भाषा-शैली, बिम्ब और वाक्य-संरचना से नंदिता के संदिग्ध होने का अंदेशा स्वतः ही लग जाता है। 

‘चिड़ियाघर के चित्र’ कहानी में रसोईया नंदिता के साथ चिड़ियाघर देखने गए हुए लोगों के चित्र बनाकर, ‘जादूगर के अपने आदमी’ कहानी में वह स्वयं बहाना बनाकर जादूगर के ताश के खेल की तरह अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाने वाला खेल खेलते-खेलते नंदिता के भीतर छुपे हुए रहस्य को उजागर करने का प्रयास करता है, वही ‘चेन खींचना’ कहानी में चेन खींचने के बहाने उसकी किताब में लिखे हुए कुछ संदिग्ध शब्दों को विकृत कर मिटा देने का प्रयास उसे संदेहास्पद बना देता है। इन कहानियों के अनुवाद के दौरान मेरे मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक था कि तीनों की पात्र नंदिता कॉमन है और उसे अपने पति के शक के घेरे में आना ही पड़ता है। इसका मतलब कहानीकार मनोवैज्ञानिक तौर पर कुछ घटनावलियों का सहारा लेते हुए स्त्री-मन के भीतर छिपी ग्रंथियों की टोह लेने का भरसक प्रयास करता है या फिर उसे अपने अतीत में झाँकने का पूरा मौक़ा देता है और उसे पूरी तरह मिटाने का भी। 

‘बचपन के बाद का दोस्त’ मनुष्य के छद्म अहंकार पर गहरी चोट पहुँचाता है। बचपन के दोस्त होने पर भी जब आदमी एक-दूसरे के काम नहीं आता है तो फिर बचपन के दोस्त का क्या मायने रह जाता है! हमेशा एक उम्मीद बनी रहती है कि मेरे बचपन का दोस्त यानी लंगोटिया यार आज नहीं तो, कल आपके कुछ-न-कुछ काम आ ही जाएगा, ख़ासकर विपरीत परिस्थितियों में। मगर यह कहानी संदेश देती है कि कोई ज़रूरी नहीं है कि वह आपके बचपन का दोस्त कृष्ण सुदामा की तरह दोस्ती निभाएगा, मगर यह हो सकता है वह कृष्ण विपदा-काल में द्रौपदी या राधा की मदद अवश्य करें। 

‘नंदिता की मिसेज चटर्जी’ में लेखक ने अपने प्रवास-स्थल कोलकाता का सजीव वर्णन प्रस्तुत करने के बाद भी मिसेज चटर्जी की तलाश की प्रक्रिया में नंदिता की मिसेज चटर्जी की जगह किसी और को पाता है, यह उसकी कल्पना से परे होता है और अंत तक किताब को लेकर रहस्य बना रहता है। ‘नंदिता’ पर लिखी हुई किताब में क्या होगा-इस सवाल का आख़िर तक पाठक उत्तर नहीं खोज पाता है। 

‘पकड़ा जाना’, ‘डूब जाना’, ‘और कोई दूसरा होना’ आदि कहानियों के शीर्षक हिंदी की संज्ञा पर आधारित न होकर क्रियाओं पर आधारित है, यह भी तो एक प्रकार का अभिनव प्रयोग है। किसी के घर में अकेले घुसकर उस घर में रहने वाले के बारे में सोचना, किसी दूसरे की जगह अपने आप को स्थापित कर सोचने की कला विकसित करना और डूबने के रहस्य को अंत तक बनाकर रखने की भाषा-शैली लेखक को साहित्य में मौलिकता के साथ-साथ एक विशिष्ट स्थान प्रदान करती है। 

‘हार की वापसी’ कहानी में मानव मन की पुरानी घटनाओं को लेकर संदेह उत्पन्न होना जहाँ स्वाभाविक है, वहाँ मगर हर अवस्था में यह सत्य ही हो, ज़रूरी नहीं है। घर के नौकर द्वारा कभी हार की चोरी हो जाने की घटना को लेकर अपने दोस्त के घर हुई चोरी में उस पर मन-ही-मन इल्ज़ाम लगाते हुए इस निर्णय पर पहुँचना कि एक बार चोरी करने वाला बार-बार चोरी करेगा ही, यह उक्ति सही चरितार्थ नहीं होती है। 

इस कहानी-संग्रह को पढ़ते समय कहीं-कहीं आपको लगेगा कि कोई अदृश्य शक्ति आपके दिलों-दिमाग़ पर हथौड़े चला रही है तो कहीं-कहीं आपको लगेगा आपके दिमाग़ ने काम करना बंद कर दिया तो कहीं-कहीं आपको लगेगा कि लेखक को इतनी ज़्यादा गुत्थियाँ बाँधकर रखने की ज़रूरत क्या थी? ज़्यादा सवाल नहीं पूछ कर कुछ कम सवाल पूछने से भी तो कहानीकार का काम चल सकता था और कहानी आगे बढ़ती हुई अपने साधारण विकास क्रम के तुंग पर पहुँचकर धीरे-धीरे समापन की ओर अग्रसर हो सकती थी, मगर ऐसा न होना ही कहानीकार की सर्जनशीलता के अद्भुत शिल्प का अनोखा उदाहरण है। 

मुझे आशा ही नहीं, बल्कि पूर्ण विश्वास है सुविख्यात ओड़िया कहानीकार श्यामा प्रसाद चौधरी की कहानियों का हिंदी अनुवाद हिंदी जगत में अवश्य विशिष्ट स्थान दर्ज करेगा और पाठकों को अलग रसास्वादन प्राप्त होगा। ईश्वर से यही प्रार्थना करते हुए इस कहानी-संग्रह के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ। 

इन्हीं शब्दों के साथ . . . 

दिनेश कुमार माली 
तालचेर

<< पीछे : वेताल कथा आगे : अदिति की आत्मकथा >>

लेखक की कृतियाँ

विडियो
ऑडियो

अनुवादक की कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
साहित्यिक आलेख
ऐतिहासिक
कार्यक्रम रिपोर्ट
अनूदित कहानी
अनूदित कविता
यात्रा-संस्मरण
रिपोर्ताज

विशेषांक में