सारी कहानियाँ मनगढ़ंत हैं। मेरे हिसाब से सब-कुछ मनगढ़ंत है। सब-कुछ काल्पनिक है। सारी अंतर्वस्तु काल्पनिक है। किसी की कल्पना से बाहर कुछ नहीं होता है और कुछ रहना सम्भव भी नहीं है। यदि कोई सोच नहीं सकता है, तो उसके लिए कहानी की स्थिति निश्चित नहीं है। एक व्यक्ति के लिए कुछ और दूसरे व्यक्ति के लिए कुछ और होना असम्भव नहीं है। वस्तु हो या धारणा हो, उसके आकार में हो या प्रकार में हो, शब्दों में हो या रंगों में हो, पहचानना हो और समझना हो, सारी चीज़ें तो केवल एक मानवीय कल्पना है।
पिछले कई सालों से मेरी ऐसी धारणा बन रही है। और एक बात, जो समय-समय पर मुझे आंदोलित कर रही है, वह है मृत्यु। मेरे विचार से जीने की सही परिभाषा मरना ही है। नहीं मरना नहीं, मर नहीं सकना। फिर हमेशा यह मन में आता है कि एक जन्म पूरी तरह से मरने के लिए पर्याप्त नहीं है। यह सोचकर मुझे आश्चर्य होता है कि प्रतिपल मरने या पूरे होने की बात को क्यों हम अपना जीवन समझते हैं।
इसलिए मुझे यह सोचना अच्छा लगता है कि कहानी का एकमात्र कार्य अपनी रक्षा करना है। कभी-कभी तो लगता है कि कहानी कुछ अन्य लोगों की भी रक्षा करती है। तैरना नहीं जानने वाले लोग कभी-कभी दूसरे व्यक्ति को डूबने से बचा लेते हैं। कभी-कभी नाव या जहाज़ को भी नष्ट होने से बचा लेते हैं। खो जाने से भी।
मनुष्य शायद चाहता है, सच में और संतर्पण में, खुले तरीक़े से और गुप्त रूप से, कभी भी नहीं मरना। कहानी यही काम करती है।
जो कहानी ख़त्म नहीं होती, या ख़त्म होने के लिए राज़ी नहीं होती, जो कहानी अचानक कोई मोड़ ले लेती है, एक बारगी आख़िरी वक़्त में, क्या उसे ही हम कहानी कहते हैं? कविता के ख़ूबसूरत पैर चारों तरफ़ फैल जाते हैं, जबकि कहानी के पैर पीछे की ओर लंबे होते जाते हैं। और ज़्यादा पीछे। शायद फिर से शुरूआती पल की ओर।
कविताएँ चंद शब्दों में बहुत कुछ बड़ी-बड़ी बातें कह जाती हैं। लेकिन बहुत छोटी-सी बात को कहानी इधर-उधर बहुत घुमा देती है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि इस तरह घुमाना भी किसी भी सर्जन की एकमात्र गुप्त इच्छा होती है। संपूर्णता से और थोड़ा ज़्यादा, अलग तरीक़े से अधिक। जैसे कॉफ़ी मग के ऊपर फेन की तरह, जो कॉफ़ी नहीं है। जैसे प्रेम के बाद अकेलेपन के अनुभव की तरह, जो सही प्यार नहीं है। जैसे मृत्यु के बाद दाह संस्कार की तरह, जो मृत्यु नहीं है।
शब्द मुझे घेरते आ रहे हैं और घेर रहे हैं। मैं शब्द को मनुष्य का सबसे अद्भुत आविष्कार मानता हूँ। इस आविष्कार के बिना मनुष्य न तो जीवित रह पाता और न ही मर पाता। मुझे पता है कि शब्द न तो वस्तुओं को दर्शाते हैं और न ही धारणा को। केवल समझाने की कोशिश करते हैं। शब्द एक संकेत है। शब्द केवल इंगित करता है। शब्द ही कहते हैं कि वस्तु से परे, धारणा से कुछ अलग होता है। भले ही, कुछ भी हो। अबोध हो। अबाध हो। अनजान हो। अजन्मा हो। शब्द स्वयं ही विक्रम है। हमारे ‘समझने की इच्छा’ होती है उसके कंधों पर लटकता हुआ वेताल। वह वेताल ही कहानी सुनाता है। प्रश्न पूछता है। उत्तर देने पर शब्द बोलता है। नहीं तो, वह विदीर्ण हो जाता है। लेकिन इतना कहकर वेताल भाग जाता है। फिर से लटकने के लिए। फिर से कहानी सुनाने के लिए। नए उत्तर खोजने के लिए।
मुझे हमेशा ऐसा ही लग रहा है कि कहानी कहने या लिखने वाला वेताल है, व्याध है, एक शिकारी है। वह शब्दों का जाल बिछाता है एक अद्भुत पक्षी को पकड़ने के लिए। मगर एक नहीं, कई पक्षी जाल में फँसकर उस जाल को लेकर उड़ जाते हैं। ऊपर की ओर। किसी अन्य अनजान इलाक़े में . . .
श्यामाप्रसाद चौधरी
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