अदिति की आत्मकथा

 

यहाँ उस व्यक्ति के नाम का उल्लेख करना कोई ज़रूरी नहीं है जिसने कहा था कि संभोग और समाधि में कोई अंतर नहीं होता है, क्योंकि मेरे विचार से एक तल्लीन अवस्था और एक अज्ञात अनुभव को याद करते हुए उनकी पारस्परिक तुलना कर तरह-तरह के तर्क-वितर्क करना व्यर्थ है। 

इसके अतिरिक्त, थका देने वाले भी। इसलिए कि उनमें अंतर नहीं होने वाली युक्ति से सहमत होना ज़्यादा बुद्धिमानी का काम है। मैंने अपने आप से कहा कि संभोग के बाद सुख की नींद सोना एक तरह की समाधि ही तो है। अब मैं समाधिस्थ हो जाऊँगा। 

कभी-कभी शारीरिक संतुष्टि ही अँधेरे में भी एक अजीब तरह की रोशनी पैदा करती है। सुनंदा उसी रोशनी की चमक लिए सोई हुई पड़ी थी। हमारे बिस्तर पर। मेरे पास। उसके पास राहुल है। राहुल के बग़ल में तकिया। उसके दोनों तरफ़ हम दोनों के होने का भ्रम उसे सुख की नींद में सुलाकर रखा है। 

मुझे सुनंदा का चेहरा, उसकी बंद आँखें, एक आधी तैयार मूर्ति के हिस्से की तरह लग रही हैं। जैसा मैं देख रहा हूँ, उसे और किसी तरह सुंदर और पूर्ण बना दूँ। मैं बिस्तर के अपने भाग में ऐसे लेटा हुआ हूँ, जैसे मैं वहाँ नहीं हूँ। थोड़ा-सा पसीना उसके चेहरे की ज़्यादा थकान को छिपाने की कोशिश कर रहा है। सिर के खुले बाल काली पृष्ठभूमि बना रहे हैं। एक हाथ उसके सिर पर है। 

ऐसा लग रहा है कि सुनंदा अभी भी जादू का वह शो देख रही है, भले ही अपनी बंद आँखों से। और एक बार। जिसे आज हम शाम को देखने के लिए सिटी हॉल में गए थे। शहर में कभी-कभी तरह-तरह के जादू के शो आते रहते हैं। मुझे निश्चित रूप से ऐसी चीज़ें देखना पसंद नहीं है, जहाँ आश्चर्य चकित होना भी पूर्वनिर्धारित भाग्य की तरह लगता है। अविश्वसनीय तरीक़े से। तभी तो राहुल को सुनंदा एक बार फिर ले जाना चाहती थी, जो हम दोनों की असली इच्छा थी। 

दो दिन बाद सुनंदा राहुल को ख़ुद ले गई, जादू के उस शो में। तमाम तैयारियों और कोशिशों के बावजूद मैं ऑफ़िस से घर वापस नहीं आ सका, उस शाम 6:30 बजे तक। इतना कि सात बजे तक भी सीधे जाकर सिटी हॉल तक नहीं पहुँच पाया था। सुनंदा परेशान हो गई थी और कुछ-कुछ विरक्त भी। राहुल भी मुझ पर बहुत नाराज़ हो गया था। राहुल को ऐसा विश्वास नहीं था कि मैं उसकी सामान्य इच्छाओं को पूरा करने में इतनी आसानी से असमर्थ साबित होऊँगा। अवश्य, यह बात सुनंदा कहती है। 

सुनंदा के पास तीन टिकट थे। दूसरी पंक्ति के। जबकि उस दिन शो के अंत तक मैं ऑफ़िस से वहाँ नहीं जा पाया था। मैंने ही सुनंदा को मोबाइल पर कहा था: राहुल को बस बड़ी चॉकलेट दो और मेरा इंतज़ार किए बिना अंदर जाकर जादू देखो। जब मैं आऊँगा तो उसके लिए आइसक्रीम ले आऊँगा। उस दिन राहुल का परीक्षा परिणाम निकला था, इसलिए उसे जादू दिखाकर और ज़्यादा ख़ुश करना हमारा नैतिक कर्त्तव्य था। 

परीक्षा में प्रथम आने वाले छात्र को उसके माता-पिता इतनी ख़ुशी भी नहीं दे सकते! 

ऑफ़िस से लौटते समय मैं आइसक्रीम ख़रीदना भूल जाऊँगा, यह बात शायद सुनंदा को पहले से ही पता थी। शो से लौटते समय राहुल के लिए एक ताश का पैकेट और हम तीनों के लिए आइसक्रीम ख़रीद ली थी। राहुल को वहाँ ताश का जादू सबसे ज़्यादा पसंद आया था। देर रात को, एक प्रसिद्ध जादूगर हो गया था राहुल। हमें ताश फेंटकर एक-एक पत्ता बाहर निकालकर नाटकीय अंदाज़ में दिखाने लगा, जिसे देखकर मन ही मन हम एक जैसा या अलग-अलग ढंग से सोचने लगे थे। 

राहुल का जादू बहुत आसान था। ताश के पत्ते दिखाने के बाद मैं और सुनंदा मन ही मन जिस पत्ते के बारे में सोच रहे थे, जैसा कि मैंने कहा था, उन्हीं पत्तों को वह ताश के पैक से खोलकर दिखा रहा था। अविश्वास का नाटक करते हुए हमने केवल यही पत्ता सोचा था, कहकर बार-बार उसे श्रेष्ठ जादूगर घोषित कर रहे थे। 

मुझे राहुल ने कई सवाल किए। उसके देखे हुए, मगर मेरे नहीं देखे हुए उस शो के दूसरे बाक़ी जादू के बारे में। खाने की मेज़ पर खाने की थाली को रखते हुए, टीवी का रिमोट ढूँढ़ते हुए, रसोई के सिंक में बरतन रखते हुए, बेसिन के टावेल हाथ पोंछते हुए, दूध गर्म करते हुए, मोबाइल पर किसी से बात करते हुए भी सुनंदा बार-बार मेरी तरफ़ से जवाब दे रही थी। डैडी ने देखा नहीं है, राहुल। कैसे कहेंगे, उस पगड़ी पहने जादूगर ने किस तरह उस लड़की के दो टुकड़े कर दिए थे। उस जग से कैसे पानी निकाल रहा था, जो कभी ख़त्म ही नहीं हो रहा था। किस तरह टोपी के अंदर से निकाल रहा था ख़रगोश? किस तरह वह अपने मुँह से ख़त्म नहीं होने वाली धारदार ब्लेड की चेन बाहर निकाल रहा था? 

राहुल की ज़िद थी: डैडी ही बताएँगे। वह उसकी असहज ज़िद थी। नहीं तो, मैं खाना नहीं खाऊँगा। नहीं तो, मैं अपना मुँह नहीं धोऊंगा। नहीं तो, मैं बालकनी से आइसक्रीम नीचे फेंक दूँगा। नहीं तो, मैं सारी राइम्स भूल जाऊँगा। फिर कभी स्कूल नहीं जाऊँगा। और जब घर में कोई आंटी आएगी, तो मैं उनके पाँव भी नहीं छूऊँगा। 

अपनी इच्छानुसार, टीवी देखते हुए, अपने बॉस से अपने मोबाइल पर बात करते हुए, अपने चेहरे को तौलिये से पोंछते हुए, जो भी मेरे दिमाग़ में सूझा, मैंने उसके उत्तर दिए। 

अब मुझे लगता है कि शायद असली जादू तो वही है। मेरी बताई सारी तरकीबों को मानते हुए राहुल कहने लगा—पापा, आप सबसे बड़े जादूगर हैं। आप शो में नहीं गए, अच्छा ही किया। ऐसा क्या है जो आप नहीं जानते है? 

नींद लगने तक तरह-तरह से मैं दुनिया का सबसे महान जादूगर नहीं तो कम से कम एक अच्छा जादूगर हूँ, उसने घोषणा की थी। उसके सो जाने के बाद उसके बग़ल में दो बड़े तकिये रखना मेरा काम था। हर दिन का काम। संभवतः अद्भुत यज्ञ की प्रारंभिक तैयारी के रूप में मैंने सोए हुए राहुल के सिर को चूमा। सुनंदा भी बीच-बीच में ऐसा ही करती थी। उसे चुंबन देती थी। शायद ठीक उसी जगह पर। उसके बाद घर की सारी बत्तियाँ बुझाना मेरा काम। लेकिन बेडरूम की लाइट बंद करना सुनंदा का काम। राहुल के दाहिने ओर के तकिए और मेरे तरफ़ के सँकरे बिस्तर वाले हिस्से में एक तरह से घुटनों के बल पर घुसने का काम भी सुनंदा का। 

उस दिन मेरे बग़ल में लेटी हुई सुनंदा मुझसे पूछने लगी: जादूगर, क्या सो रहे हो? 

हम दोनों ने सोचा नहीं था, लेकिन अचानक राहुल उठकर पूछने लगा: अच्छा, आपने और मम्मी ने मन ही मन सोचा था, उन पत्तों को मैंने ताश के पैक में से कैसे बाहर निकाला? 

असली जादू तो उसकी जिज्ञासा में छुपा हुआ था। सामान्य तौर पर किसी भी बात पर विश्वास नहीं करना। सुनंदा को उस पर भरोसा नहीं था। सुनंदा उसकी तरफ़ खिसककर पीठ थपथपाते हुए कहने लगी—राहुल ही सबसे बड़ा जादूगर है। अब जादू के बारे में सोचे बिना हमारा राहुल सो जाएगा। वह सचमुच सो गया था। 

यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि हम दोनों चाह रहे थे, सही उत्तर मिले या नहीं, राहुल जल्दी सो जाए। सोने के कुछ समय बाद अचानक उठकर उसी तरह के प्रश्न पूछना और युक्ति-संगत उत्तर मिले बिना अचानक उसका वापस सो जाना हमारे लिए श्रेष्ठ जादू था, सोचकर हमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ। 

हम दोनों के चेहरों पर उस अँधेरे में बिजली की तरह अचानक एक रहस्यमय मुस्कान उभर आई, वह मुस्कान ही कह रही थी, जिज्ञासा ही जादू का मूल आधार है। यह भले ही, वैज्ञानिक या तार्किक उत्तर नहीं था। उसके बाद अगले दिन से राहुल की जिज्ञासा के नए-नए रूप विकसित होते गए। उसके साथ-साथ मेरे भीतर भी। उसकी पूछताछ कई गुना बढ़ती जा रही थी और मेरी नीरवता में आश्चर्यचकित होने की असहायता। 

सुनंदा अब राहुल की ओर देखने लगी और मुझे अचानक आश्चर्य होने लगा यह सोचकर कि केवल दो दिन बाद जादूगर के उसी शो को दुबारा देखने की सुनंदा के मन में इच्छा कैसे पैदा हुई। अत्यंत ही वफ़ादार आदमी की तरह मैं सहमत हो गया और शाम के शो के लिए मैंने तीन पहली पंक्ति के टिकट ख़रीद लिए। ऑफ़िस समय समाप्त होने से बहुत पहले ही मैंने वहाँ से छुटकारा पा लिया था। हालाँकि सुनंदा कह रही थी कि राहुल फिर से वह शो देखना चाहता हैं, मगर पता नहीं, क्यों मुझे ऐसा लग रहा था कि राहुल की नहीं, सुनंदा की उस शो को देखने की इच्छा ज़्यादा थी। और मैं सुनंदा को ख़ुश करने के इतने सहज और सस्ते उपाय को हाथ से निकलने नहीं देना चाहता था। 

घर से सिटी हॉल तक मेरे ड्राइव करने के दौरान सुनंदा अलग-अलग अंदाज़ में बता रही थी, जादू शो के हर जादू के बारे में। यद्यपि वह सभी राहुल के लिए दोहरा रही थी, लेकिन मुझे ऐसा लग रहा था कि वे सारे कमेन्ट वास्तव में मेरे लिए ही थे। ओह, ठीक है, चलो शो में ही देखते हैं, राहुल पीछे बैठकर अपने हाथ बाहर निकाल रहा था, तुम ठीक से बैठो, राहुल! एफ़.एम. बंद करो, अच्छा दाएँ या बाएँ, हॉल के पास पार्किंग है?-तरह-तरह के प्रश्न और उत्तर के दौरान मैंने लगभग पूरा शो देख लिया था। 

उस शो के शुरू होने के समय केवल हम तीनों दूसरी बार देखने के लिए प्रवेश द्वार के सामने लंबी लाइन में लगे हुए थे। अचानक सुनंदा ने मुझसे एक अजीब-सा सवाल पूछा: अच्छा, जादू के दौरान वह जादूगर कहीं अपने लोगों से तो नहीं पूछता होगा? पूछता नहीं होगा, अपने ख़ास व्यक्तियों से, ताश के निर्धारित पत्तों के बारे में सोचने के लिए? 

“मतलब?” मैंने अन्यमनस्क होकर जिज्ञासावश पूछा था। 

“अगर जादूगर केवल अपने लोगों को मुट्ठी में रखे पत्तों के बारे में सोचने के लिए कहता होगा तो!” 

हम हॉल में प्रवेश कर चुके थे और सीट पर बैठेते हुए सुनंदा के कान में कोई रहस्यमयी बात बताने की तरह कहने लगा: वह ऐसा नहीं करेगा। नहीं तो पकड़ा जाएगा। 

“कैसे?” सुनंदा ने पूछा। 

“अगर कोई व्यक्ति भी एक से अधिक बार देखने आया होगा तो, जैसे तुम दोनों आए हो।” 

वह चुप रही और राहुल को एक छोटी खिलौना कार को अपने मुँह में डालते देखकर नाराज़ हो रही थी। लेकिन राहुल पूछने लगा, “क्या इस कार को जादूगर अंकल बड़ा कर सकते हैं? मैं ड्राइव करूँगा। डैडी की तरह।” 

अचानक सुनंदा ने मेरा हाथ कसकर पकड़ लिया। मैं उत्साह से उसे देखने लगा। वह कहने लगी, “मेरा अनुमान सही है। जादूगर हॉल में अपने ही लोगों को रखता है, दर्शकों के भीतर।” 

“ठीक है। चुप रहो,” मैंने कहा। 

पर्दा खुल गया था और एक सुंदरी ने, जैसे कि उसने कुछ भी नहीं पहना हो, वैसी ड्रेस पहनकर मंच पर अपनी इच्छा अनुसार नृत्य करना शुरू कर दिया था। बाद में उसके जैसी कई नर्तकियाँ उस नृत्य में शामिल हो गईं। अवश्य, अगर उसे नृत्य कहा जाए तो। फिर जादूगर के आने की घोषणा करने वाले ऐसे तरीक़े से कई लोगों को ताली बजाने के लिए उकसा रहे थे। 

सुनंदा थोड़ा मेरी ओर सरकते हुए धीरे से कहने लगी: जादूगर ने उस दिन जिन तीन लोगों को अपने हाथ से ताश के पत्ते लेने के लिए कहा था, वे आज भी इस हॉल में हैं। सुनंदा की निगाहें मंच या जादूगर को नहीं देखकर उसके ख़ास लोगों को उस हॉल की मंद रोशनी में खोज रहीं थीं, उसके इस काम ने मुझे एक पल के लिए चौंका दिया। 

“लेकिन वे लोग भी तो दूसरी बार देखने आ सकते हैं। तुम और राहुल तो दुबारा आए हो,” मैंने एक बार फिर से समझाने की कोशिश की। 

“ठीक है। देखते हैं।” 

कुछ समय बाद सुनंदा फिर से मुझे अपने आविष्कृत रहस्य से अवगत कराने लगी: उसे देखो। नीली चेक शर्ट वाला, फ़्रैंच कट दाढ़ी वाला सौ प्रतिशत जादूगर का आदमी है। दूसरे दो भी यहीं-कहीं है। 

“हाँ,” मैंने मंच की ओर देखा। फ़्रैंच कट दाढ़ी वाले आदमी की तरफ़ देखने की मेरी उत्सुकता नहीं थी। 

अब जब कभी मैं इसके बारे में सोचता हूँ, वास्तव में मुझे आश्चर्य होने लगता है। राहुल ने अपना जादू दिखाने के लिए अपने दो आदमी रखे थे। सुनंदा के दिमाग़ में यह बात आना स्वाभाविक था कि जादूगर अपने हर जादू प्रदर्शन के लिए अपने आदमी रखता है। जादू केवल युक्ति के बाहर एक युक्ति है। वहाँ कोई चमत्कार नहीं है। असली जादू इस तथ्य में निहित है कि दर्शक कुछ पल के लिए उसकी युक्ति को पूरी तरह से नहीं समझ पाए। मेरी तरफ़ सिर कर सुनंदा ऐसे सो गई जैसे कि वह बिस्तर पर अकेली सो रही हो। और कोई नहीं, नहीं राहुल, नहीं मैं, अँधेरे की अजीब रोशनी में मैं उसकी तरफ़ ऐसे देखने लगा, जैसे मैं उसे ठीक से पहचानने की कोशिश कर रहा था। क्या वह सच में जादूगर का आदमी है? 

आज शाम के शो के दौरान सुनंदा ने फ़्रैंचकट दाढ़ी वाले आदमी को ही नहीं, बल्कि जादूगर ने पहली बार जिस बूढ़े आदमी को और फिर जिस छोटी चुलबुली लड़की को अपने मन मुताबिक़ ताश के पत्ते को खींचने के लिए कहा था, उन्हें भी पहचान लिया था। जादूगर की ताश सामान्य ताश जितनी छोटी नहीं थी। बहुत बड़े आकार की, विशेष रूप से बनाई गई, मुझे लगता है ताकि शायद हॉल के अंतिम पंक्ति वाले दर्शक भी देख सकें। जादूगर में ताश के सारे पत्ते दिखाने की अद्भुत क्षमता थी। एक प्रकार की चपलता भी। फिर भी, सुनंदा सोच रही थी ताश फेंटने के नाटकीयता के कुछ ही क्षणों बाद, बड़े ताश के भीतर से कोई पत्ता बाहर निकालकर चिल्लाते हुए कहा—इसी पत्ते के बारे में सोच रही थी न, मैडम। क्या मैं ग़लत कह रहा हूँ? सुनंदा के हाँ का इंतज़ार किए बिना ही दर्शकों की तालियों से हॉल गूँज उठा। 

राहुल ने तो ऐसे तालियाँ बजाईं, अपनी सीट से उठकर खड़े होते हुए, जैसे कि ठीक ताश के पत्ते निकालकर देने वाला आदमी जादूगर नहीं है, बल्कि ताश के पत्ते निकालने से पहले उसके बारे में जानने वाला आदमी ही असली जादूगर है। चक्राकार में बदलने वाली रोशनी बार-बार सुनंदा और राहुल को केंद्रित कर रहे थे। वे रंगीन दिखाई दे रहे थे। और वे दोनों बदल गए थे। सुनंदा की पहले जैसी प्रगल्भता नहीं रही और न ही राहुल के सवाल पूछने की इच्छा। आज के जादू शो के बाद हम तीनों ऐसे ही घर पहुँचे। हमने रात का खाना खाया और टीवी देखा, जैसे हमने कभी कोई जादू देखा ही नहीं था। राहुल के सिर से भी ताश बाँटने वाले जादूगर का भूत उतर चुका था, यद्यपि उस दिन ख़रीदा हुआ ताश का पैकेट सभी के देखने के लिए डाइनिंग टेबल पर ऐसे ही पड़ा हुआ था। 

राहुल सो गया था। मैं सुनंदा की ओर ऐसे देखने लगा, जैसे मैं उसके पत्नी में बदलने वाले पल की प्रतीक्षा कर रहा था। पहले से सोचकर रखा हो, उसी अंदाज़ में मैंने अचानक पूछा—क्या तुम सोच रही थी इतनी बड़े ताश के पैकेट में से उसी पत्ते को जादूगर कैसे पहचान ले रहा था? 

मुझे अचरज में डालने की तरह सुनंदा समझाते हुए कहने लगी कि जादू ऐसा नहीं होता है, मुझे लगा कि वह उस पत्ते को ताश के पैकेट से ढूँढ़ सकता है। बल्कि मुझे आश्चर्य हो रहा है कि उस ताश के पत्ते को नहीं निकालने पर मैं दर्शकों के सामने आपत्ति क्यों नहीं कर सकी। नहीं, वह मेरा सोचा हुआ ताश का पत्ता नहीं था। लेकिन मेरा यह नहीं कह पाना ही शायद असली जादू है। 

“मतलब?” आश्चर्यचकित होकर मैंने ज़ोर से कहा। कहीं राहुल उठ न जाए, कहकर उसने मेरे होंठों को अपने गाल से दबाया और राहुल की ओर देखने लगी। सुनंदा के पास यही आसान तरीक़ा था मुझे विस्फुरित होने से बचाने के लिए। 

सुनंदा, जादूगर की कोई ख़ास आदमी नहीं है, मानो यह बात इसे पहली बार पता चली हो, मैं अद्भुत ख़ुशी से कहने लगा, लगभग उसी जादूगर के कहने के अंदाज़ में; “ताश के इस ढेर से कोई भी पत्ता अपनी मन पसंद का चयन करो, अभी मैडम।” 

“अवश्य,” सुनंदा की पहले जैसी प्रगल्भता लौट आई थी। जैसा मैंने सोचा था, वैसे ही वह पूछने लगी, “फिर से यह कौन-सा खेल है?” 

“खेल नहीं, मैडम। जादू। मैं अब एक जादूगर हूँ। किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में सोचें, जिसके बारे में आप सोच सकती हैं, मेरा मतलब कोई भी। पिताजी, माँ, राहुल। मीरा आंटी, मेरे पापा, मेरी माँ, यहाँ तक कि मेरे बॉस भी। भारत के प्रधानमंत्रियों में से कोई भी। संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति भी। पसंदीदा गायक, पसंदीदा अभिनेता, चित्रकार, लेखक, खिलाड़ी, पड़ोसी। पिछले जन्म से भी कोई। ऋषि, रूसी, देवता, पौराणिक चरित्र। दुकानदार, भिखारी, बदमाश, अच्छे लोग। कोई भी। मैं बता दूँगा कि वह व्यक्ति कौन है जिसके बारे में आपने मन ही मन सोचा था।” 

सुनंदा ने कहा, ”ताश के पैकेट में एक जोकर भी होता है। भले ही, वह ख़ाली पत्ता हो। कहीं-कहीं छपा भी होता है एक तरफ़, एक या दो ताश के पत्तों पर।” 

“मैडम, आपके पास बहुत कम समय है। किसी के बारे में जल्दी से सोचो। अच्छी तरह से सोचो। मन ही मन आंतरिक भाव से,” मैं जादूगर के भाषण की नक़ल कर रहा था। 

“आप सच में नहीं बता सकते हो।” सुनंदा ने अपनी आँखें बंद कर लीं और मेरे गाल को चूम लिया। 

मैंने जादूगर की तरह हाथ बढ़ाते हुए उस शो के नाटकीय अंदाज़ में कहा: हालाँकि मैं इस जादू का जादूगर हूँ, लेकिन आप वास्तव में उस जादूगर के बारे में सोच रही हो, जिसने आज एक सुंदर लड़की के दो टुकड़े कर फिर से जोड़ दिया। 

ताली मारने ही जा रही थी, कि कहीं राहुल नींद से अचानक उठ न जाए, सोचकर उसे ताली मारने की जगह धीरे-धीरे ताली बजाने का अभिनय करने लगी। कहा, “ग़लत। मैं केवल तुम्हारे बारे में ही सोच रही थी। हे मेरे जादूगर। तुम्हारे पास न तो कोई पगड़ी है और न ही कोई जादू की छड़ी। कोई जादू भी नहीं है।” 

मैंने चौंक कर पूछा, “सच? क्या तुम मेरे बारे में सोच रही थी? सिर्फ़ मेरे बारे में?” मुझे लगा कि यह मेरी विफलता है फिर अद्भुत संपूर्णता अनुभव हो रही थी। फिर पहले जैसे नाटकीय अंदाज़ में कहने लगा, “मैडम! लेकिन मैंने आपको असली ताश तो नहीं दिखाई। वह दिखाता तो आप यह नहीं कह सकती थी कि वह ग़लत था। क्योंकि उसी ताश के बारे में मैं वास्तव में सोच रहा था।” 

सुनंदा मेरे सीने पर हल्के से हाथ लगाते हुए शब्दहीन इशारा करते हुए कहने लगी, “नहीं, मेरे इतना कहने के बाद ऐसा कहना ठीक नहीं है। यह जादू नहीं है, यह चीटिंग है। धोखा है।” 

अब, जादूगर के स्वर में नहीं, बल्कि अपनी आवाज़ में कहने लगा, आवश्यकता से अधिक गंभीर होते हुए, “पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है कि तुम वास्तव में उस नीले रंग के चेक शर्ट पहने हुए, फ्रेंचकट दाढ़ी वाले आदमी के बारे में सोच रही थी और सोच रही हो। उसका चेहरा राजीव से कितना मिलता-जुलता है!” 

मैं सही कह रहा था, यह सुनिश्चित करने के लिए कहने लगा, “तुम्हारे पुराने घर के सामने का फ़्लैट वाला राजीव। जिसके बारे में कितनी बार तुमने कहा था मुझे, कि मेरे साथ शादी होने से पहले वह तुम्हारे पीछे हाथ धोकर पड़ा था, निर्लज्जों की तरह।” 

अँधेरे में भी मैंने सुनंदा को आश्चर्यचकित होते हुए देखा। कुछ देर तक पूरे घर में शब्दहीन तालियों की गूँज सुनाई दी। सुनंदा के चेहरे के दोनों तरफ़ मैंने अपने दोनों हाथों से उसके गालों और कानों को इस तरह दबाकर रखा, क्योंकि मैं दिल से नहीं चाहता था कि उसे तालियों की कोई भी आवाज़ सुनाई पड़े। 

उसके बाद शायद हम समाधिस्थ हो गए थे। 

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