अदिति की आत्मकथा

 

“अच्छा, इसे चिड़ियाखाना क्यों कहा जाता है?” 

“किसे?” 

“जिसे चिड़ियाघर या चिड़ियाखाना कहते हैं, उसे।” 

“क्या अजीब सवाल है!” 

“वास्तव में, किसी को ऐसा क्यों कहा जाता है, जैसा जिसे जो भी कहा जाता है।” 

कभी-कभी मैं नंदिता से इस तरह बात करता था। जैसे कि हम दोनों अलग-अलग जगहों, से अलग-अलग भाषाओं में बातचीत कर रहे हैं। या तो वह बेडरूम में होती थी या लूसी के कमरे में और मैं ड्राइंग रूम में होता था। नहीं तो वह किचन में होती थी और पिंटू को रसोई पकाने के बारे में एक हज़ार एक बार बता रही होती थी और मैं बालकनी पर बैठकर दूसरी बालकनियों को देख रहा होता था। 

मैं आपको यह बाद में बताऊँगा कि पिंटू को रसोई बनाना नहीं जानने के बाद भी हमारे घर में किस तरह रसोइये की नौकरी मिल गई। पहले बता देता हूँ कि नंदिता कब और किस प्रकार मेरे पास नहीं होती है। 

कभी-कभी वह लूसी के कमरे में होती है, तो निश्चित रूप से लूसी वहाँ नहीं होती है, कभी-कभी हमारे कमरे में। हमारा मतलब हम दोनों का कमरा। लेकिन मैं भी नहीं होता हूँ। वह होती है बालकनी में, तो मैं होता हूँ स्टडी रूम में। नहीं तो, कहीं मूर्तिवत खड़ी होकर या बैठ कर या बिस्तर पर लेटकर फोन पर किसी से बात कर रही होती है। नहीं तो, जिस कमरे में हमारी सारी किताबें और सारे भगवान एक साथ रखे होते हैं, वहाँ उन्हें किसी नए फॉर्मूले से सजाने लगती है। पुस्तकों के आवरण के रंग, लेखकों के नाम, या उनके छोटे–बड़े आकार, फ़ोटों को अपने मन में याद आए मंत्र के अनुसार अपनी इच्छानुसार इधर-उधर रखती जाती है। अगली सुबह जब मैं किसी देवी-देवता की तस्वीर खोजता हूँ तो नहीं मिलती है। पूजाघर से चिल्लाने लगता हूँ, “यह कहाँ है और वह कहाँ है?” 

क्योंकि कई बार तो मेरे पास नंदिता नहीं होती! 

नंदिता अब मेरे पास आकर मेरी ओर ऐसे देखने लगी, जैसे मैंने उससे जीवन का सबसे कठिन प्रश्न पूछा लिया हो उस चिड़ियाखाने के बारे में। और पूछा भी जैसे बहुत दूर से। मानो मैं उसके जवाब ठीक से नहीं सुन पा रहा था। इसलिए जब वह मेरे पास आई तो मैंने उसे समझाने के लहजे में पूछा, “चिड़िया माने चिड़ी है न?”

“हाँ, लेकिन याद रखें, आपके किसी भी चालाकी भरे सवाल का, मैं आपकी उम्मीद के अनुसार शानदार जवाब नहीं दे सकती हूँ इसका मतलब यह नहीं है कि मैं हार मान लूँगी। और अब एक कप चाय नहीं बना सकती हूँ। माँगना भी मत।” 

मेरे छोटे से प्रश्न का कितना जटिल उत्तर है! 

“हम कितने लोग और कितनी बार हम किसी चिड़ियाघर में गए हैं, सिर्फ़ चिड़ियों को देखने के लिए?” 

“मतलब?” 

“हम सभी शायद गए हैं या जाते है केवल जानवरों को देखने के लिए, चिड़ियाँ तो बोनस होती हैं। वहीं न?” 

नंदिता कहती है, “आजकल चिड़ियाखाना या चिड़ियाघर कौन कहता है? सभी उसे 'ज़ू' कहते हैं। फिर आपकी बात भी सही है। चिड़ियाँ देखने कौन जाता है ‘ज़ू’ में?” 

आपकी बात मानने वाली नंदिता एक बार तो विदेशी तोते की तरह अलग और अद्भुत दिखाई देती है। उसकी आवाज़ भी सूक्ष्म तरीक़े से बदलती जाती है। कुछ और पूछने से पहले तोते की तरह कहने लगती हैं—हाँ, मैंने आपको बताया नहीं। कल लूसी और मैं चिड़ियाघर गए थे। वह पहचान में नहीं आ रहा था। कैसे बीमार-बीमार दिख रहा था। इसके बग़ल में इन दिनों एक अस्पताल है। 'ज़ू' में कुछ ख़ास नहीं है। लूसी बहुत ऊब गई थी। जब हम छोटे थे, तब वहाँ कितने सारे जानवर थे! अपने बचपन में क्या आप वहाँ गए थे? 

मैं कितनी बार वहाँ गया था जब मैं छोटा था, उसे याद करते हुए मन ही मन गिनने लगा। नंदिता ने कहा—वहीं पर तो पहले तुमने मुझे प्रपोज़ किया था। याद है? हम दोनों बड़े हाथी के हौदे पर बैठे थे, और आपने मेरे कान में फुसफुसाते हुए कहा था कि आप इस सारी पृथ्वी के राजा हो। 

उस ‘ज़ू’ में पहली बार मैंने नंदिता को प्रपोज़ किया था, उससे पहले कभी नहीं? उससे पहले कभी यह नहीं कहा कि मैं औरों से अलग हूँ? मैंने पहले कभी नहीं समझाया था, मैं निरंजन, समरेश या जयंत से कैसे बेहतर और योग्य हूँ? भले ही, हम दोनों एक ही शहर में पढ़े-लिखे हों, लेकिन ऐसा लगता है कि हमारे पलने-बढ़ने के दोनों शहर अलग-अलग हैं। यह शायद हम सभी के लिए सच है। हमारे शहर, समय हमेशा अलग होता है। हम ख़ुद भी हमेशा अलग होते हैं। मैं ज़ू के उस हाथी को याद करता हूँ। उसके हौदे को भी। अचानक याद आता है उस हाथी का महावत एक जाना-पहचाना चेहरा है। वह जयंत की तरह दिखता है। 

नंदिता पिंटू को जल्दी से रात का खाना बनाने के लिए अपने तरीक़े से कहती है। पिंटू वैसा ही करता है। यहाँ बल्कि मैं आपको बता देना उचित समझता हूँ कि कैसे वह एक दिन अचानक हमारे घर आया और कहने लगा कि उसे काम चाहिए और वह कोई भी काम करने के लिए तैयार है। नीचे गेट पर तैनात सिक्योरिटी गार्ड ने उसे हमारे घर भेजा था। दरअसल, नंदिता को उस वक़्त रसोइये की भी सख़्त ज़रूरत थी। उसके दाहिने हाथ में एक छोटा-सा हेयरलाइन फ्रैक्चर हुआ था, कुछ दिन पहले ही, जब वह अचानक बाथरूम में गिर गई थी। उसके हाथ में आर्म स्लिंग बैग की पट्टी लगी हुई थी। वह अलग ही अंदाज़ में ख़ूबसूरत लग रही थी। जैसे उसका दाहिना हाथ उसके शरीर का सबसे महत्त्वपूर्ण, नाज़ुक और कोमल अंग हो। 

केंडीडेट था केवल वही। पिंटू। लेकिन इंटरव्यू बोर्ड में हम चार थे। नंदिता, लूसी, मैं। हाँ, जयंत भी। वह कॉलेज के ज़माने से मेरा दोस्त हैं और कई कंपनियों को छोड़ने के बाद अभी उस कंपनी में जॉइन किया हैं, जहाँ मैं वरिष्ठ प्रबंधक हूँ। मैं फ़ाइनेंस में हूँ और वह एचआर में है। हम सहकर्मी हैं। लेकिन मैं एक दृष्टि से मैं उससे थोड़ा ऊपर हूँ। शुरू से मैं इस कंपनी में हूँ! 

उसकी उम्र, घर-परिवार, माता-पिता के बारे में कई सवाल थे नंदिता के मन में। जैसे कि वह एक ग़लत उत्तर से पिंटू को रिजेक्ट कर देगी, जब मैंने उससे पूछा था कि वह उससे पहले क्या कर रहा था, किसके घर में रह रहा था, आदि ऐसे सारे सवाल। पिंटू का उत्तर सरल सहज था—वह पहले कुछ नहीं कर रहा था। लूसी का सवाल था कि पिंटू की उम्र ज़्यादा होने के बावजूद भी इतना छोटा क्यों दिख रहा है। अवश्य, वह प्रश्न नंदिता के लिए था। इसके प्रत्युत्तर में नंदिता के पास या तो कोई जवाब नहीं था, या वह जवाब नहीं देना चाहती थी। 

पिंटू बस हँस पड़ा। उसके चेहरे पर एक अद्भुत नेपाली युवक की स्निग्धता दिखाई दे रही थी। हालाँकि जिस प्रश्न का उत्तर देने के लिए जयंत ने ख़ुद उसे चुना था, वह वास्तव में अद्भुत था। जयंत ने पूछा, “क्या-क्या बनाना जानते हो?” जैसे उसने उत्तर पहले से ही सोच रखा हो, उसी अंदाज़ में पिंटू कहने लगा, “चित्र बनाना आता है, खाना नहीं।” 

उस दिन अचानक चयन वाले नाटक के लिए पिंटू के अलावा और कोई नहीं था, जो इससे अधिक अद्भुत या अधिक उचित उत्तर दे सकता था। 

हम सबने ताली बजाई। फिर थोड़ा-सा सकुचाते हुए पिंटू भी बिना कुछ सोचे-समझे ताली बजाने लगा। अच्छा, तो, हम उसे कैसे अस्वीकार कर देते, जिसने अपने आप सोचा लिया कि वह पास हो गया है; उस परीक्षा में, हमने जो परीक्षा नहीं ली। इंटरव्यू बोर्ड के स्व-घोषित अध्यक्ष की तरह जयंत ने घोषणा की कि खाना बनाना भी एक कला है। 

“द कैंडिडेट इज़ सेलेक्टेड, माय टू फ़ेयर लेडीज़ और द सिंगल ब्राउन जेन्टलमैन”। इस तरह परिणाम की घोषणा करते हुए जयंत के चेहरे पर एक नाटकीय मुस्कान थी। मुझे याद है कि अचानक मैं डार्क दिखने लगा था, ब्राउन नहीं। कुत्सित और कदर्य भी। और मैं कई दिनों तक वैसा ही दिखता रहा शायद। एक अजीब प्राणी की तरह, जिसका नाम मुझे याद नहीं है। 

उस शाम एक और मज़ेदार बात हुई। लूसी को अगले दिन अपने स्कूल में किसी पसंदीदा व्यक्ति या प्रिय जानवर का चित्र बनाकर ले जाना था। तो उसी समय लूसी ने पिंटू से चित्र बनाने के लिए कहा, अपनी ड्राइंग पुस्तिका में। रंग-पेंसिल का डिब्बा लाकर खाने की मेज़ पर रख दिया। और कुछ ही मिनटों में पिंटू ने एक चित्र बना लिया था। जिसके सिर के बालों और फ़्राक से निश्चित तौर पर यह पता चल रहा था कि वह किसी लड़की की तस्वीर है। पिंटू ने लूसी की ओर उँगली से इशारा करते हुए कहा, “यह तस्वीर लूसी की है।” लेकिन लूसी को छोड़कर हममें से किसी को भी वह तस्वीर लूसी जैसी बिल्कुल नहीं दिख रही थी। मुझे लगता है कि लूसी को तस्वीर सिर्फ़ इसलिए पसंद आई क्योंकि वह अचानक किसी अजनबी की पसंदीदा बन गई थी। छोटी लड़की अचानक चतुराई और निष्कपटता के बीच का अंतर नहीं समझ पाया। क्या बड़े होने के बाद भी हम इस चीज़ को समझ पाते हैं? 

लूसी ने कहा, “कल स्कूल में मज़ा आएगा। हमारी मिस जोसफ सोचेगी कि मैं ही अपना सबसे प्रिय इंसान हूँ। जबकि और किसी ने ऐसा नहीं सोचा होगा। सभी ने बनाए होंगे अपने पिता, माता, भाई या बहन के चित्र या फिर बाघ, भालू, हिरण या शेर के चित्र।” 

मैं हैरान था। लूसी वास्तव में एक अद्भुत प्राणी है। वह हमेशा ऐसी अद्भुत नहीं दिखती है। क्योंकि हमेशा अपने जैसा दिखना इतना आसान नहीं होता। 

यह लूसी का सिद्धांत था। अगले दिन लूसी को मिस जोसेफ ने दस में शून्य अंक दिया था। साथ-साथ इस बारे में कड़ी टिप्पणी की थी कि लूसी क्लास का प्रोजेक्ट क्यों ठीक से समझ नहीं पाई थी। और आगे उसे और ज़्यादा सिर खपाना पड़ेगा। विशेष रूप से, उसके माता-पिता या उसकी माँ को अगले दिन मिस जोसेफ का मिलना नितांत आवश्यक है। यह था एक प्रकार का निर्देश। 

नंदिता और मैं परेशान थे। हमने लूसी को और अधिक सीरियस होने के लिए कहा कि उसने हमें समझाया कि हमें किसी बात की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। कक्षा में हर कोई सोचता है और वह ख़ुद भी आश्वस्त है कि मिस जोसेफ का दिमाग़ काम नहीं कर रहा है। क्या आपने उसके बाल देखे हैं? चिड़ियाँ के घोंसले की तरह झंपूरे-झंपूरे। वह तो ख़ुद एक अनोखी चिड़िया है, जो अपने घोंसले से बाहर रहती है। 

जब वह और छोटी थी, तो मैंने लूसी को कहानी सुनाई थी, इस तरह अजीब दिखने के बारे में। एक आदमी ने किस तरह डरावने सपनों से उठकर अचानक एक सुबह देखा कि वह ख़ुद एक बड़ा कीड़ा बन गया है। बहुत बड़ा कीड़ा। मैंने ही उसे बताया था कि एक लड़की किस तरह यज्ञ की आग में से निकली; बिना जले हुए। मैंने कहा था कि किसी का घोड़े का सिर था, और तो दूसरे के पास शेर का। किसी का हाथी का सिर था तो किसी के गले में साँप लटक रहे थे। और किसी की गर्दन में लटक रही थी मुंडमाल। किसी के दस हाथ तो किसी के दस मुँह। मैंने कहा था कि हम सभी के दो सिर होते है। एक से हम प्यार करते हैं और दूसरे से नफ़रत। 

आप किससे नफ़रत करते हैं? मुझे लगता है कि लूसी ने ही पूछा था। और मैंने जयंत को नाम नहीं कहा था। किसी का भी नाम नहीं। 

जयंत एक ऐसा आदमी हैं, जिसकी आप पहली नज़र में भले ही, प्रशंसा कर सकते हैं, लेकिन बाद में अवश्य नफ़रत करेंगे। जैसे मैंने की है, और जो मैं करता आ रहा हूँ। नंदिता को पाने के बाद भी। लूसी को पाकर भी। 
प्रायः मैं हर महीने एक नई सूची बनाता हूँ। किससे प्यार करूँ और किससे नफ़रत, उनके नामों की सूची। अलग-अलग नामों को अलग-अलग सूचियों में रखता हूँ। कभी-कभी दोनों सूचियों में एक ही आदमी का नाम पाकर आश्चर्यचकित हो जाता हूँ। दोनों सूचियों में सबसे ज़्यादा नाम पाता हूँ नंदिता का और घृणा की तालिका में सबसे ज़्यादा जयंत का नाम। 

जयंत से नफ़रत करने की असली वजह नंदिता है। पता नहीं कैसे, कॉलेज के ज़माने से ही हम दोनों के बीच एक अजीब प्रतिद्वंद्विता रही है। मेरे सोचने के हिसाब से, जयंत अद्भुत तरीक़े से नंदिता को नियंत्रित करता आ रहा है और अब भी कर रहा है। 

महिलाओं को अपनी ओर आकर्षित करने का एक पुराना और आज़माया हुआ फ़ॉर्मूला है उसके पास। लेकिन मुझे इस तरह ज़बरदस्ती करना बिल्कुल पसंद नहीं आता है। यह बात नंदिता और जयंत दोनों जानते हैं। और उनका यह जानना मुझे और भी परेशान करता है, असहाय और असहज भी। 

नंदिता क्या पहनेगी या कल क्या पहनने से बेहतर दिखेगी, किस भाषा में अद्भुत तरीक़े से अभिव्यक्त कर सकती है, इसलिए वह केवल उसी भाषा में कहेगी, वह और थोड़ी पतली नहीं होगी, पूर्ण शाकाहारी बन जाएगी या कभी-कभी अंडे और छोटी मछली खाएगी, कब और कितनी बार, इस तरह किसकी पूजा करेगी-सीता के पति या राधा के प्रेमी की, इन सारी बातों का जयंत प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्णय लेना चाहता है। और मुझे लगता है कि उसने वास्तव में निर्णय लिए हैं। केवल मुझे चुनने का नंदिता ने शायद ख़ुद फ़ैसला लिया है। 

सिर्फ़ नंदिता के बारे में ही नहीं, बल्कि जयंत ने हमारी लूसी के सम्बन्ध में भी कई फ़ैसले लिए हैं। जैसे वह कौन-से स्कूल में पढ़ेगी, चोटी रखेगी या पोनीटेल, स्कूल के मिस से ट्यूशन करेगी या बाहर से किसी और का, हल्के गुलाबी रंग की पोशाक पहनेगी या हल्के हल्दी रंग की, अपने जीवन का लक्ष्य क्या रखेगी। किस उम्र में ऊँची एड़ी के जूते पहनेगी, कौन-सी किताब पढ़ेगी, कौन-सी किताब नहीं छूएगी, ओडिसी सीखेगी या कत्थक, सिंथेसाइज़़र बजाएगी या पियानो—हर छोटी-छोटी चीज़ को जयंत तय करता है या करना चाहता है। 
इसलिए मैं उससे बहुत नफ़रत करता हूँ। या फिर, झूठ-मूठ दिखावटी कपट मित्रता के अंदर दबाकर रखा हूँ अकेलेपन की असहनीय भावना। पटाखे के भीतर जैसे ठूँसकर भरे बारूद की तरह। और मैं प्रतीक्षा करने लगता हूँ विस्फोट के किसी भी क्षण की। 

मैं इन सब चीज़ों के बारे में इसलिए सोच रहा हूँ, क्योंकि लूसी अब जिस मोड़ पर है, इसके लिए जयंत ज़िम्मेदार है। मैं सोचता हूँ, मगर जान नहीं पाता हूँ। मुझे लगता है कि जयंत की घुसपैठ अब लूसी को खटकने लगी है। 

लूसी अब बड़ी हो गई है। वह इन दिनों जयंत की बातों का विरोध कर रही हैं। अपनी पसंद के कपड़े पहनती है। किताबें पढ़ती है, गाने सुनती है। अपने कमरे की दीवारों पर फ़्रेम किए हुए कई एब्सट्रेक्ट पेंटिंग लटका कर रखी हैं, जिन्हें जयंत समझ नहीं पाता है। वह अर्थ पूछता है तो लूसी कहती है कि वह एक-दो शब्द में समझ में नहीं पाएगा। मैं पूछता हूँ तो दस मिनट तक तो वह पेंटर और उसकी पेंटिंग के विस्तृत अर्थ भी बताती थी। इन दिनों, उसके पास साल्वाडोर डाली नामक एक इतालवी चित्रकार की कई पेंटिंग हैं, उसकी दीवारों पर सजी हुई। जयंत को ये पेंटिंग्स पसंद नहीं आती है और इसलिए मुझे उन पेंटिंग्स से प्यार है। ख़ासकर उस पेंटिंग में हाथी के दो बड़े सिर होते है, लेकिन जिराफ की पाँव पतली होती है। लूसी को ऐसे अजब-ग़ज़ब संयोजन पसंद है और जयंत को ये सब पसंद नहीं है, केवल इसलिए सल्वाडोर डाली की सारी पेंटिंग मुझे अद्भुत लगती हैं और शायद इसलिए वे सच लगती हैं। 

हर सर्जन की शायद गुप्त इच्छा है अनोखा होने के लिए, असंभव और अभावित दिखने के लिए। 

लूसी वास्तव में बड़ी हो गई है। जब बच्चे बड़े होंगे, तो वे पहले आपकी बातों पर, आपकी कहानी पर अविश्वास करेंगे। वे ऐसे प्रश्न पूछेंगे, जिनका उत्तर आपके पास शायद सामान्य रूप से नहीं होगा। 

नंदिता कह रही थी एक दिन, लूसी अब बड़ी हो गई है। जब कोई लड़की बड़ी होती है तो सबसे पहले उसकी भनक उसकी माँ को लगती है। लेकिन जब लड़का बड़ा हो जाता है तो पड़ोसियों को पता चल जाता है। 

लूसी आजकल मुझसे कहानी सुनना नहीं चाहती है। पता नहीं क्यों, मुझे ऐसा लगता है कि वह ख़ुद किसी अद्भुत कहानी में घुसती जा रही है, किसी अँधेरी सुरंग में ट्रेन की तरह। मुझे पता है कि सुरंग के दूसरी तरफ़ कोई और होगा। 

अचानक मेरे दिमाग़ में चिड़ियाघर की तस्वीर उभर आई, क्योंकि जयंत ने बताया था, कुछ दिन पहले ऑफ़िस में लंच के समय, हमारे शहर के ज़ू में एक अद्भुत जीव लाया गया था। 

अद्भुत? उस जीव का नाम क्या है? यह कहाँ से लाया गया है? केवल जयंत को पता नहीं, कैसे पता चला, जबकि किसी और को कैसे ऐसे सुराग़ नहीं मिले—ऐसे कई सवाल मेरे दिमाग़ में घूमने लगे। लेकिन मैंने कुछ नहीं पूछा। बल्कि मैं किसी और से लंच के मेन्यू के बारे में बात कर रहा था। लेकिन अद्भुत प्राणी पहले से ही मेरे सिर के अंदर घुसा हुआ था, इसके बारे में कुछ भी जानकारी नहीं होने के बावजूद जयंत ख़ुद मुझे एक ऐसे अपरिचित प्राणी की तरह दिख रहा था। देखो तो, किस तरह उसने एक असभ्य और हिंसक जानवर की तरह चिकन के लेग-पीस को चबा लिया। मैंने उसे उस महीने की नफ़रत की सूची में वापस डाल दिया। 

ऐसा लग रहा था कि जयंत की आँखें बड़ी हो गई हैं, मूँछें पतली और नुकीली होकर ऊपर की ओर मुड़ी हुई हैं। वह वाक़ई में अजीब लग रहा था। वह सल्वाडोर डाली के चेहरे की तरह लग रहा था, जिसकी तस्वीर लूसी ने मुझे अपने लैपटॉप स्क्रीन पर दिखाई थी। 

शायद मैंने नंदिता को यह या वह अद्भुत कहानी सुनाई होगी। या जयंत ने ख़ुद उसे बता दिया होगा। जयंत को ऐसे भी अकारण कुछ भी अजीब लगता रहता है। हम दोनों एक कंपनी में काम कर रहे हैं। फिर मैं एक वरिष्ठ पद पर क्यों हूँ, यह बात उसे अजीब लगती है। श्रीमती नायर क्यों मेरी बॉस और पट्टवर्धन उसकी बॉस हैं, यह बात भी उसे अजीब लगती है। इस तरह की कई सारी बातें। श्रीमती नायर का जिराफ़ की तरह लंबा होना उसे अजीबोग़रीब और जंगलीपन लगता है। कोई मधुमक्खी की तरह चंचल और कोई बाघिन की तरह भयंकर बोलकर ऑफ़िसर महिलाओं पर तरह-तरह की टिप्पणी करते हैं। पता नहीं कैसे, मैं चमगादड़ की तरह अंधा, मिश्रा सूअर की तरह मोटा है। मेरी सेक्रेटरी रुबीना ने अभी तक शादी क्यों नहीं की है, वह ख़रगोश की तरह डरपोक है। उसके लिए सब-कुछ अजीब प्राणी है। वह यह भी कहता है कि अत्सी, जेबरा की तरह भूल-भाल है, रोज़लीन साँप की तरह सुंदर है, निरंजन अजगर की तरह बेवुक़ूफ़ है। इमरान मोर की तरह फ़ालतू हमेशा रोज़लीन और निरंजन के पीछे पड़ा रहता है। लूसी स्कूल की मिस जोसेफ भी डोडो की तरह मृतक है। 

दूसरों के सम्बन्ध में इस तरह की तुलनात्मक टिप्पणी करते समय, पता नहीं मैं क्यों विकल भाव से प्रतीक्षा करता हूँ कि नंदिता या लूसी के सम्बन्ध में वह क्या कहता है। उनके बारे में ऐसा कुछ भी नहीं कहना मुझे सबसे ज़्यादा अजीब लगता है। 

दो दिन के लिए मैं दिल्ली गया था। वित्त बैठक से जयंत का कोई लेना-देना नहीं था। अच्छा, क्या उसने कहा था नंदिता को चिड़ियाघर जाने के लिए? क्या उसने लूसी को दूसरे देशों के जीवों के बारे में बताया था? अफ़्रीका के मीरकैट, मेडागास्कर के लेमूर, ऑस्ट्रेलिया के कंगारू या कोआला, चीन के पांडा के बारे में बताया क्या? क्या उसने डायनासोर या ड्रेगन के बारे में नहीं बताया? क्या वे तीनों एक साथ गए थे? 

क्या नंदिता के पास खड़े होकर जयंत ने लूसी को अपने मोबाइल पर तस्वीरें लेने के लिए कहा था? क्या उन तीनों ने एक साथ खड़े होकर किसी और से तस्वीर लेने के लिए कहा? 

और क्या यह बात लूसी को बुरी लगी? पता नहीं कैसे, कभी-कभी लूसी आवश्यकता से बड़ी होती है। नंदिता के लिए, अच्छा और बुरा तब तक अलग नहीं लगता जब तक कि वह ख़ुद-अच्छे और बुरे में—गार नहीं खींच देती है। दूसरों के द्वारा खींची गई गार उसे व्यर्थ और अहंकारी लग सकती है। कभी-कभी तो बिल्कुल नहीं दिखती है। 

मैं लूसी के पास जाता हूँ और पूछता हूँ, “क्या देखा, लूसी, ‘ज़ू’ में?” 

“ तीन कौवे और ख़ूब सारे कबूतर। गिने नहीं।” 

“ऐसी क्या बात कर रही हो, लूसी? केवल चिड़ियाँ? कोई जानवर नहीं?” 

“आदमी-औरत, वे लाइन में खड़े थे।” 

“और?” 

“वे लाइन तोड़ रहे थे। वे खा रहे थे, पी रहे थे, तस्वीरें ले रहे थे।” 

बेरोकटोक जवाब देते समय लूसी बारह साल की लड़की नहीं, बल्कि बासठ साल की महिला बन जाती है। 

“लूसी, मैं एनिमल के बारे में पूछ रहा हूँ। बाघ, भालू, हाथी, जिराफ, ज़ेबरा?” 

उसने एक प्रधानाध्यापिका की तरह कहा, “‘ज़ू’ का मतलब होता है चिड़ियाघर? चिड़िया मतलब चिड़ी तो? इसलिए चिड़ियाँ देखी। उन्हें देखने के बाद और कुछ देखने की इच्छा नहीं हुई। पूरी तरह से बेकार है ‘ज़ू’।” 

ऐसा लग रहा है कि लूसी कुछ छुपा रही है। वह कहना नहीं चाहती है। एक बार रसोई में जाकर फ़्रिज से बोतल लाकर पानी पीने के बहाने मैं नंदिता को देखना चाहता था। दूर से, अलग-अलग दूरियों से। मैं उसे देखूँगा, मगर उसे पता नहीं चलेगा। पता चल जाएगा तो भी उसे समझ में नहीं आएगा कि मैं क्या देख रहा हूँ। मैं क्या देखना चाहता हूँ? 

गले में पानी अटक रहा है। नंदिता कहती है, “क्या आपको आपकी बाघिन याद कर रही है?” वह श्रीमती नायर को बाघिन कहती है। लेकिन मेरे भीतर में मिथ्या और गैर-मौज़ूद ड्रैगन के मुँह की आग मुझे अंदर से जला रही है। 

नंदिता धीरे से मेरी पीठ सहलाती है। कहती है कि ठीक से पानी भी नहीं पीना आता है। मैं अचानक पूछता हूँ: “अच्छा, क्या जयंत आज आया था?” 

“मतलब? आप तो दिल्ली से अभी-अभी लौट रहे हो। वह आपके साथ-साथ लौटा होगा। यहाँ क्यों आएगा, दिल्ली नहीं गया?” 

“नहीं, बजट मीटिंग में उसका कोई काम नहीं था।” 

नंदिता दूसरे काम में व्यस्त होने के लिए किचन में जाती है, फिर दूसरे कमरे में जाती है। मैं फिर से असाधारण बहादुरी से पूछता हूँ 

“क्या वह भी ‘ज़ू’ में गया था?” 

“नहीं, तो। मगर क्यों?” 

“ऐसे ही। हमारे ‘ज़ू’ में एक अद्भुत जीव लाने की बात वही कह रहा था, लंच के दौरान।” 

नंदिता कहती है, “अजीब जीव? वहाँ कौन और क्यों जा रहा है, यह सोचकर हैरानी होती है। वहाँ कुछ भी ऐसा नहीं है। लूसी वास्तव में ऊब गई थी। जबकि उसके ख़ुद का आइडिया था वहाँ जाने के लिए। इतने सालों में हम उसे एक बार भी चिड़ियाघर लेकर नहीं गए थे, इसलिए मैं उसे लेकर गई। साथ ही, किसी भी हायर क्लास की परीक्षाएँ चल रही थी, इसलिए लूसी की कक्षा बंद थी। लूसी इन दिनों थोड़ी बदल गई है न?” 

लगभग किसी षड्यंत्रकारी की तरह नंदिता बात जोड़ते हुए कहती है, “पता नहीं क्यों, लूसी आजकल थोड़ा चिड़चिड़ी हो रही है। अवश्य, इस उम्र में लड़कियाँ ऐसी ही होती हैं। लूसी ने अपनी पसंदीदा डार्क चॉकलेट भी नहीं खाई। और कहीं नहीं जाकर उसने चंद मिनटों में वापस लौटने की ज़िद करने लगी।” 

लेकिन मुझे यह जानने की निहायत ज़रूरत है, कॉकरोच की तरह धूर्त, बंदर की तरह दुष्ट, साँप की तरह डरावना और विषैला और चूहे की तरह शांत, वह जयंत उनके साथ था या नहीं? 

यह बात मैं सोचना नहीं चाहता हूँ, लेकिन सोचे बिना रह भी नहीं पाता हूँ कि जयंत वैसा कुछ भी नहीं है। वह सिंह के समान वीर है। उसके भेजे के अंदर नहीं, बल्कि बाहर है दुष्ट शातिर बुद्धि, उसके आलसीपन में भी राजकीय शैली झलकती है। उसे नज़र-अंदाज़ करने के विचार वास्तव में नंदिता को अब और आश्चर्यचकित नहीं करते है! 

नंदिता कहती है कि मैं नहीं गया, अच्छा हुआ। मुझे याद है कि जब हम छोटे थे तो हम एक जानवर से दूसरे जानवर के पास किस तरह दौड़कर जाते थे। आपके बारे में तो मुझे नहीं पता, लेकिन मैं तो ऐसा ही करती थी। कौन क्या खाता है, कौन-सा जानवर किस देश का है, उन्हें यहाँ कैसे लाया गया—फ़्लाइट से या शिप से—मैं ऐसे बहुत सारे सवाल पूछती थी। मन में तरह-तरह के सवाल उठते थे। किस जानवर को क्या अच्छा लगता था, कौन हँसता था, कौन रोता था, कौन सारी ज़िन्दगी भर खड़ा रहता था, कौन हमेशा सोता रहता है, कैसे-कैसे अजीबोग़रीब सवाल दिमाग़ में आते थे। अब लोग कह रहे हैं कि वे ऐसे ही जा रहे है, वहाँ कुछ भी नहीं है। 

नंदिता मुझे समझा रही थी कि मैंने कुछ भी मिस नहीं किया है। ‘ज़ू’ तो कुछ जानवरों और चिड़ियों के लिए अस्पताल बन गया है। अब कोई हाथी नहीं है, जिसकी पीठ पर हम कभी बैठे थे, आपने भी तो मुझे बिठाया था। अब तो एक छोटा हाथी है, जिसके पैर ज़ंजीरों से बँधे हैं। हम सुनते थे न, वहाँ कितने सफ़ेद बाघ हैं, लेकिन अब बाघ अपनी माँद में रहते हैं। क़िस्मत अच्छी हो तो देखने को मिलेंगे। पता चला, भालू को बुख़ार आ गया था। ठीक, गुरुवार के दिन भालू को बुख़ार आता है! 

कुछ ही समय में लूसी घर वापस आना चाहती थी। पता नहीं, तब से वह शांत थी। चिड़ियाघर जाना उसके स्कूल का प्रोजेक्ट नहीं था तो? 

अचानक नंदिता एक ऐसा सवाल पूछती है, जो मेरे दिमाग़ में गूँजने लगता है: क्या हम जानवरों को देखते हैं या वे हमें देखते हैं? क्या उन्हें हम अद्भुत अजीब नहीं लग रहे होंगे? 

मैं लूसी के कमरे में आता हूँ और देखता हूँ कि वह किस तरह अस्त-व्यस्त है। जैसे किसी अस्वीकार्य वलय में, गुफा के भीतर, एक इंकलोजर के अंदर फँसकर रह गई है वह। उसके पैरों में जैसे एक अदृश्य ज़ंजीर बँधी हुई है। 

वह अद्भुत लग रही है। उसके हाथ-पाँव जिराफ़ के पैरों की तरह लंबे होते जा रहे हैं। उसकी नाक सूँड की तरह बढ़ती जा रही है। उसके सिर पर सींग उग रहे है हिरन के सींगों की तरह। उसका पूरा शरीर मगरमच्छ की तरह काँटेदार होते जा रहा है। अचानक वह पादशून्य होती जा रही है, साँप की तरह। हाथ एक विशाल पक्षी के पंख की तरह खुलते जा रहे हैं। वह पल-पल बदलती जा रही है। अलग-अलग जानवरों में, अलग-अलग पक्षियों में, अलग-अलग सरीसृपों में। 

मैं लूसी से आश्चर्यचकित होकर डर से बेबसी में पूछता हूँ—लूसी, क्या हो रहा है तुम्हें? ऐसा क्यों दिख रही हो? 
शायद वह मुझे सुन नहीं पाई। यह बात मैं नहीं समझ पाया। वह शायद मुझे अपनी आँखों से कहना चाहती है। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है। 

अचानक लूसी कहती है—‘ज़ू’ में मैंने जयंत अंकल को देखा था। वह क़तई अच्छा आदमी नहीं है। बिल्कुल बेकार आदमी है। 

एक ही समय में जीत और हार कैसे लगती होगी, ऐसा महसूस कर रहा था मैं। मुझे जो संदेह था, वह सच निकला। इसलिए मैं जीत गया। फिर जयंत वहाँ था, और यह बात नंदिता मुझसे छुपा रही थी, यह मेरे अंदर एक अजीब-सी हार का अहसास पैदा कर रही थी। 

“तुम तीनों ने बहुत मज़े किए होंगे।” लूसी से मैं ज़्यादा बात निकालना चाहता हूँ। अधिक परेशान होने की इच्छा हो रही है। विव्रत होने के लिए व्याकुल हो रहा हूँ मैं। भीतर से टूटकर नष्ट होने के लिए कंगाल हो रहा हूँ मैं। 

“अंकल हमारे साथ नहीं थे,” अचानक लूसी मुझे पूरी तरह टूटने से बचाने लगी। 

“मतलब?” 

“किसी और के साथ थे। पता नहीं, किसके।” 

ठीक उसी समय पिंटू आता है, यह कहने के लिए कि डिनर तैयार हो गया है। डाइनिंग टेबल पर रख दिया गया है। लूसी ने जवाब नहीं दिया। मैं विरक्त होने लगा था। “आज क्या बनाया है?” मैंने उससे पूछा। 

“सर, आज एक अद्भुत तस्वीर बनाई है, चिड़ियाखाने की।” पिंटू ऐसे कह रहा है, मानो वह कुक नहीं होकर, पेंटर हो। डिनर की बात भूलकर मैं उससे पूछने लगा, “तुम चिड़ियाघर कब गए थे?” 

“मैं नहीं गया सर। लूसी दीदी गई थी। उस दिन।” 

पिंटू लूसी की उम्र से बड़ा होने पर भी उसे लूसी दीदी कहता था। कभी-कभी मैं भी उसे चिढ़ाने के लिए लूसी दीदी कहता हूँ। 

पिंटू भाग कर अपने कमरे में चला गया। उस ड्रॉइंग पुस्तिका को ले आया, जिसमें उसने अपने पहले दिन लूसी की एक तस्वीर खींची थी। बाद में उसने कई पन्नों में अलग-अलग रंग भर दिया था। मुझे सीधे वह पन्ना दिखा रहा था, जिस पर उसने चिड़ियाखाने का चित्र बनाया था। 

एक अजीब आश्चर्य से मैं पूछता हूँ, “यह चिड़ियाघर है?” 

“सर!” 

“कुछ रंग है। कुछ गोल-गोल बनाया हैं गार खींचकर। मगर चिड़ियाघर कहाँ है? जानवर, इंसान कहाँ हैं?” 

“ये तीनों काले रंग वाले कौवे हैं।” 

“और यह राख जैसा रंग?” 

“ये सभी कबूतर। देखिए, उनके पाँव गुलाबी हैं!” 

“और ये अबुरू-जबुरू रंग? रेखाएँ, गोल-गोल धब्बे, छोटे-बड़े निशान?” 

“ये सभी लोग हैं। वह पीले रंग की फ़्रॉक पहने खड़ी है, हमारी लूसी दीदी। और नीली साड़ी पहनी हुई है, हमारी मैडम। उनका काला पर्स देखिए। उस हाथ में लाल रंग का बैग है। हम नहीं देख पा रहे हैं कि उसके अंदर क्या है।” 

वास्तव में मुझे कोई रंग किसी के जैसा नहीं दिख रहा था। मैं केवल पिंटू को देख रहा था। थोड़ा हैरान, थोड़ा लाचार। वाक़ई कितना विव्रत होकर! वह कितनी अजीब ढंग से रंग के कुछ धब्बे बनाता है और उन सभी को मनुष्य के रूप में, वस्तुओं के रूप में पहचानता है। किसी के सिर का आकार उसके शरीर के आकार के अनुरूप नहीं है। शरीर से पैरों का अनुपात मनमाना है। किसी का सिर बड़ा है, किसी का शरीर तो किसी के पैर। वास्तव में कोई भी किसी और की तरह कुछ भी नहीं दिख रहा है। जबकि वह पहचानता है कि वे सभी इंसान हैं। 

पिंटू वास्तव में अद्भुत प्राणी है! 

“तो वह आदमी कौन है?” मैं एक रंग की तरफ़ इशारा करते हुए पिंटू से पूछता हूँ। पता नहीं कैसा है वह रंग-अगर वह मनुष्य है–दूसरे मनुष्यों से थोड़ा दूर खड़ा है, कैसे हो सकता है? मैंने कुछ अपने से जोड़ते हुए कहा कि उसने चश्मा पहना हुआ है, मेरी तरह। 

“नहीं, सर। वह हमारे जयंत सर हैं। काला चश्मा पहने हुए हैं, चिड़ियाघर में बहुत धूप पड़ रही थी, सर।” 

“और उसके बग़ल में खड़ा आदमी?” 

पिंटू ने मुझे यह कहकर चौंका दिया कि वह आदमी नहीं, लूसी दीदी की स्कूल मिस है। मिस जोसेफ। वही है न, लूसी दीदी? 

लूसी भी आकर देख लेती है मिस जोसेफ को। कहने लगी, “मुझे वह बिल्कुल पसंद नहीं है। लेकिन मैंने तो मिस के बारे में पिंटू को कुछ नहीं बताया था।” 

पिंटू जैसे सफ़ाई देते हुए कहने लगा, “मैं जान सकता हूँ सर, कौन किसी से प्यार करता है और कौन किसी से बिल्कुल प्यार नहीं करता।” 

मुझे लगने लगा कि पिंटू को कैसे पता चल गया कि मैं जयंत से नफ़रत करता हूँ। वह जानता है क्या, कैसे? 

नंदिता चिल्ला रही है। डिनर कब-से तैयार रखा हुआ है? आज सब-कुछ पिंटू ने बनाया है। 

पिंटू और विनम्र होकर कहने लगता है: मुझे ठीक से खाना बनाना नहीं आता, सर। मैं केवल चित्र बना सकता हूँ। 

नंदिता, लूसी और मैं-हम तीनों अपनी सबसे पसंदीदा आइटम केसरोल से ढक्कन हटाकर पिंटू की ओर देखने लगते हैं। 

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