अदिति की आत्मकथा

अदिति की आत्मकथा  (रचनाकार - श्यामा प्रसाद चौधरी)

(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )
अदिति की आत्मकथा

 

अदिति की आत्मकथा में, मैं नहीं हूँ। बिल्कुल भी नहीं। किसी पृष्ठ पर मेरा नाम तक नहीं है। हाल ही में प्रकाशित सबसे चर्चित पुस्तक अदिति की आत्मकथा है। तीन सौ से अधिक पृष्ठ। अभी-अभी पढ़कर पूरी कर रहा हूँ, लग रहा है सुबह होने में ज़्यादा समय नहीं है। 

मैं किताब में नहीं हूँ, यहाँ तक कि औपचारिक कृतज्ञता ज्ञापित करने वाले अंतिम पृष्ठ के दो-चार पैराग्राफ में भी नहीं हूँ। शुरूआती समर्पण पृष्ठ की पंक्तियों के मंत्रोच्चारण में भी नहीं हूँ। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मुझसे जुड़ी किसी भी बात का ज़रा-सा सांकेतिक उल्लेख तक नहीं है। 

इस तरह मैं अपने को तो समझा सकता हूँ और मैंने समझा भी लिया है, मगर इस कहानी के पीछे या किनारे पर मैं अवश्य हूँ। अगर कोई किसी न किसी प्रकार मेरे बारे में, हम दोनों के बारे में, हम सभी के बारे में इतनी कहानियाँ लिखता है और जब वह अपने बारे में सच लिखता है तो वह मुझे अकेले कैसे छोड़ सकता है! 

फिर भी मैं नहीं हूँ। हमारे समय की सबसे प्रसिद्ध कहानीकार हैं अदिति। पिछले पैतीस-चालीस वर्षों से वह अद्भुत कहानियाँ लिख रही हैं। उनकी कहानियों के अनगिनत पाठक हैं। शायद ऐसा कोई पाठक नहीं होगा, जिसे कहानी पढ़ना पसंद हो और जिसने अदिति को नहीं पढ़ा हो और उसका सम्मान नहीं करता हो। मुझे छोड़कर। 

अदिति की सारी कहानियाँ पढ़ने वाली अगर कोई है तो वह है नंदिता। एक बार नहीं कई बार पढ़ चुकी है। अभी भी पढ़ रही है। इस आत्मकथा को पढ़ने के लिए कहने वाली हैं तो वह है नंदिता, मेरी पत्नी अदिति की मुग्ध पाठिका है। कहती है, अदिति की कहानियाँ जितनी बार पढ़ने से अलग लगती हैं। मुझे ऐसा कुछ भी नहीं लगता है। लगता है, जो कभी घटा नहीं और जो कभी घटेगा नहीं, वह वैसा लिखती है। 

मैं कहानियों से बहुत दूर रहता हूँ। इसके विपरीत कभी-कभी अदिति जिस तरह लिखती है, नंदिता उसकी प्रशंसा करती है, और कहीं और से उसकी कहानियों के विवादों के बारे में पढ़ना या सुनना है, वह मुझे वास्तव में अच्छा लगता है, न कि उसकी कहानियाँ। यह सत्य है। मैं पिछले पैंतीस वर्षों से या उससे ज़्यादा होंगे, बैंक में काम कर रहा हूँ। पाने और देने का हिसाब करता हूँ। उधार देता हूँ, जमा करता हूँ। झूठ सुनता हूँ, झूठ बोलता हूँ। घर, खेत, वाहन के लिए पैसे देता हूँ। ये सब कुछ नहीं है, इसलिए अपने से कह रहा हूँ। नंदिता को कहता हूँ, दूसरों को कहता हूँ। लुसी को कहता हूँ, विक्रम को कहता हूँ। लुसी हमारी बेटी है और विक्रम उसके पति। दोनों विदेश में रहते हैं। वहाँ काम करते हैं। कभी-कभी हम दोनों को याद कर लेते हैं। नंदिता और मुझे। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि हम उनके जीवन में बहुत कम होते हैं। और किसके जीवन में भी। 

हमारे शयनकक्ष में अजीब और असहज तरीक़े से अँधेरा दिखता है। वह तेज़ रोशनी, जिसमें मैं अब तक पढ़ रहा था, इतनी रात तक, वह भी ज़िद्दी और अनुपस्थित अँधेरे और दूर नहीं कर सकी। बिस्तर पर सो रही है नंदिता, रंगीन कंबल ओढ़कर। उसके चेहरे पर अजीब-सी मुस्कान है। सब कुछ जानने पर जो भाव चेहरे पर प्रकट होते हैं, उनसे एक तरह की रोशनी पैदा होती हैं और ठीक वैसा ही उसके चेहरे पर हो रहा है। 

लेकिन मुझे लगता है कि मैं अँधेरे में सोया हूँ। मैं दिख नहीं रहा हूँ या सही ढंग से नहीं दिख रहा हूँ। जैसे नंदिता को मेरे बारे में बहुत सारी जानकारी नहीं है। वह आँखें बंद करके सो रही है। निरीह, निष्पाप सपने देख रही है। जो सपना याद नहीं रहता है। जिस सपने का अर्थ खोजने की ज़रूरत नहीं है। फिर भी मैं खोजता हूँ, क्योंकि किसी के मन में नहीं रहता हूँ, उसका कारण। मैं खोज नहीं पाता हूँ ख़ुद को, किसी और के जीवन में, उसका कारण। 

अदिति पटनायक अद्भुत कहानियाँ लिखती हैं। जब हम कुछ ख़ास दोस्त एक ही साथ एक कॉलेज में पढ़ते थे, तब से मैं उसे अच्छी से जानता था। बैंक में मेरी नौकरी लगने से पहले। अमरेश, पिंटू, जयंत और अदिति-हम सब कविताएँ और कहानियाँ लिख रहे थे। शब्दों के साथ खेल रहे थे। शब्दों से कुछ भी किया जा सकता है—ऐसा हम मानते थे। अदिति की कहानियों का एक संकलन प्रकाशित हो चुका था। वह हमसे कई क़दम आगे थी। 

उस समय हम सभी कुछ-कुछ लिख रहे थे क्योंकि अदिति के साथ अंतरंगता के अदृश्य जाल को उड़ाने की क्षमता थी कहानी में, कविता की उड़ान शक्ति में। वह अवश्य कुछ दूर तक दौड़ती थी और हमारे साथ दौड़ती थी अपनी जाल के साथ। 

उस समय हम सोचते थे कि कहानी और सत्य कथा में कोई विशेष अंतर नहीं होता है। ये भी सोचते थे कि कहानियाँ झूठी नहीं होती है, बल्कि एक प्रकार की सच्ची कहानी होती है। फिर भी पता नहीं, क्यों ऐसा लग रहा था कि केवल अदिति ही यथार्थ कहानियाँ लिखती है और हम सभी इधर-उधर की झूठी-मूठी कहानियाँ। झूठी-मूठी कविताएँ। 

अदिति की कहानियाँ सच्चाई को इस तरह ढकती थीं, जैसे कोहरा पहाड़ियों, नदियों और जंगलों को ढक लेता है। हम सभी अदिति की कहानियों से आच्छादित थे। सार्वजनिक रूप से उसकी कहानियाँ पसंद करते थे, लेकिन गुप्त रूप से शायद हम उससे प्यार करते थे। 

लेकिन अपनी आत्मकथा में अदिति अमरेश, पिंटू और जयंत के बारे में लिखती है। लेकिन उसे मेरे बारे में कुछ याद नहीं आया था। क्या केवल इन तीन लोगों और कई अन्य छोटी-छोटी बातों को उसके जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा कहा जा सकता है? 

अदिति अपनी किताब अमरेश से शुरू करती है। अमरेश से उसकी पहली कहानी सुनने की घटना को लेकर। हैरानी की बात यह है कि अमरेश से पहले क्या अदिति ने कभी किसी और से कहानी नहीं सुनी? आत्मकथा लिखने के दुस्साहस ने शायद उसे अतीत को कहीं से भी शुरू करने का एक नया रास्ता प्रदान किया है। 

दबे पाँवों अदिति अतीत में घुस जाती है। जैसे कोई गुफा अचानक सामने आती है तो हम उसमें क़दम रखने के लिए विवश होते है। पहली बार के लिए। धीरे-धीरे, मगर डरते-डरते। 

बिल्कुल याद नहीं आने वाली जन्मतिथि से लेकर किसी के द्वारा बनाई गई जन्मपत्री तक, बचपन से लेकर बचपन के खेलों तक, एक किशोर के रूप में जीवन में अचानक असंयत और असंरचित होने से लेकर अचानक वयस्क होने तक, अदिति ने कालानुक्रमिक क्रम में नहीं लिखा है। तब हमें आश्चर्य होता है कि समय केवल एक ही दिशा में क्यों बढ़ता है, केवल आगे-आगे। जबकि अदिति कहती थी, समय बिल्कुल भी गति नहीं करता है। हम केवल जिसे याद करते हैं और अनुमान लगाकर छटपटाते हैं, उसी को हम समय मानते हैं। मानने के लिए अच्छा लगता है। समय को एक प्रकार से जानना। दूसरे प्रकार से समझना। 

इधर-उधर अड्डा जमाते समय कितनी बार हमने उसकी कहानी को अद्भुत कहा है और कितने हज़ारों बार निशब्द उच्चारण करते हुए कहा है कि वह ईश्वरी है। हमने उसे कितने प्रकार से समझाया। वह ही अकेली कहानीकार है। उसे कहानीकार कहने से वह अपने आप को अकहानीकार मानती थी। 

एक दिन हम सभी को आश्चर्यचकित करके क्या उसने कहानी का सही अर्थ समझाया था? कहानी छुपाती ज़्यादा है, दिखाती कम है। कहा जाता है कि कहानी वास्तव में ख़त्म होती है, पढ़ने या सुनने वाले कम से कम और किसी अन्य व्यक्ति को कहने के बाद। 

हम सभी अदिति से प्यार करते थे। पिंटू, अमरेश, जयंत और मैं। इस पुस्तक में तीनों के नाम है, मगर छोड़ दिया गया है मुझे। पिंटू का खल्वाट सिर, अमरेश की मोटी मूँछें, जयंत का कमज़ोर चेहरा। सब-कुछ लिखा है अदिति ने। एक तरह से पिंटू उनके पहले पति हैं। बल्कि अमरेश था पहला प्रेमी। किसी शब्द में नहीं, किसी आवेग में नहीं, जबकि अदिति ने वैसा ही लिखा है। जयंत के प्रति उसकी कमज़ोरी भी। जयंत अदिति की उँगली के नोक को छूने वाला पहला पुरुष था। अंगुली की नोक ऐसे पकड़ा था जैसे किसी ने शरीर का तापमान नापने से पहले और बाद में थर्मामीटर पकड़ा हो। 

अपनी किताब में अदिति ने इस तरह की कई छोटी-छोटी घटनाओं का ज़िक्र किया है, जिसमें उसने दूसरों के बारे में कहानियाँ लिखी हैं और इसी तरह उसमें अपने सारे गोपनीय सच को भी उजागर किया है। इस पुस्तक की शुरूआत होती है अमरेश से कहानी सुनने से और अंत होता है अपने ठोकर खाने की घटना के वर्णन पर। उसके हाथ से बहुत सारी किताबें गिर जाती हैं और कोई उसे कोई नीचे से उठाकर दे देता है। क्या ऐसे कोई कहानी ख़त्म करता है? भले ही, केवल उसके जीवन का पहला अंश मात्र है! 

कोई नाटकीयता नहीं है। मगर एक अजीब-सी बेचैनी ज़रूर पैदा होती है। शायद हर पाठक के मन में यह सवाल अवश्य उठेगा कि वह कौन है? 

अदिति को याद न करने की भरसक कोशिशों से अब मुझे यह याद नहीं आता कि अदिति से मेरी पहली मुलाक़ात कब और कहाँ हुई थी। इतना मुझे याद आता है कि उसके पहले की भी कोई कहानी है। अदिति हमेशा अमरेश के रिश्ते के बारे में सोचती रहती है कि वह किसी ख़ास तस्वीर की पेंटिंग किए बिना भी पिकासो लग रहा था, जयंत के पास तरह-तरह, पता नहीं कहाँ-कहाँ के, छोटे–बड़े हज़ारों ताले थे, मगर चाबी एक की भी नहीं। पिंटू के पास कुछ भी बातें करने का अद्भुत जादू था। 

अदिति लिख रही है कि उसे किस तरह अचानक फकीर मोहन की रेवती याद आने पर वह ख़ुद पर कहानी लिखना चाहती थी। यह भी लिखा है कि पहले-पहले उसे कैसा लग रहा था, उसका असली नाम रेवती नहीं है, शारदा; जिसे अपने पास बुलाने के लिए फकीर मोहन स्कूल के पंडित विश्वनाथ शतपथी को एक छोटा-सी पर्ची भेजी थी। अदिति ने यह भी लिखा है, रेवती कहानी के वासुमास्टर शायद मिशन स्कूल के दूसरे मास्टर गोविंद चंद्र पटनायक हैं। 

मैं इन बातों के बारे में कुछ नहीं जानता। लेकिन अदिति शब्दों की जादूगरनी थी किसी घटना को उपाख्यान के रूप में प्रस्तुत करने में। यह जादू अभी भी है। वह किसी भी इंसान को कहानी का पात्र बना सकती है! 

मुझे लगता है कि उसने ख़ासकर मुझे बहुत सारी कहानियाँ सुनाईं। उसकी कहानियों से ही मुझे एहसास हुआ कि हमारे बीच एक अंतरंग रिश्ता था, या फिर बन रहा था। 

मैंने हमारे इस दुर्बोध्य सम्बन्ध के बारे में किसी को नहीं बताया था। अभी तक किसी को नहीं बताया है। यहाँ तक कि नंदिता को भी नहीं। 

लगभग जितने लोग हमें जानते हैं, शायद उतने ही चेहरे हैं हमारे। इतने सारे चेहरे। परन्तु सब अलग-अलग। निःसंदेह एक कम है, क्योंकि हम अपने आप को नहीं जानते है। इसलिए वह चेहरा हमारे लिए सबसे अपरिचित होता है। सारा जीवन उसे खोजते हैं। 

अदिति की आत्मकथा पढ़ने के बाद अब मैं छटपटा रहा हूँ, जैसे नंदिता मेरे बग़ल में सोकर मुझे देख रही है कि वह उसके दुर्बोध्य सपने में है या नहीं, यह बात मुझे समझ में नहीं आती है। यह बात भी मुझे समझ में नहीं आ रही है कि मैं क्यों खोजना चाहता हूँ ख़ुद को किसी और की किताब में, किसी और की आत्मकथा में, किसी और की ज़िन्दगी में? क्या हम सभी के साथ ऐसा ही होता है? हम अपने आप को कहीं और खोजते है? 

जो किसी की आत्मकथा में नहीं है, क्या वह सच में नहीं है उस लेखक के जीवन में? क्या मैं वास्तव में अदिति के जीवन में कभी नहीं था? अल्प समय के लिए ही सही, क्या मैं कभी नहीं था? 

क्या मैंने या हम दोनों ने कुछ ऐसा नहीं किया, जिसे हम दूसरों से छिपाएँ? अदिति लिखती हैं, हम जो कहते हैं, जो हम सुनते हैं, वे सब कहानी है। और जो कुछ हम छिपाना चाहते हैं, वही सब सच है। 

अदिति ने मुझे याद नहीं रखा। याद रखने की कोशिश भी नहीं की। याद रखने की इच्छा भी नहीं थी। मैं उसे बिल्कुल भी याद नहीं आया, विगत पिछले तीस या चालीस वर्षों में। उसे याद नहीं आया यह किताब लिखते समय। लिखी कहानी को काटते समय। काटे हुए जगह पर या फिर से लिखते समय। पता नहीं, हम दोनों एक-दूसरे से प्यार करते थे या नहीं, पिछले कुछ सालों में हम एक-दूसरे को निश्चय भूल ही गए होंगे। 

निस्संदेह, अदिति सही कह रही है कि मुझे उसकी आत्मकथा में किसी भी तरह नहीं होना चाहिए। मैं शायद एक काल्पनिक व्यक्ति हूँ। मैं शायद पिंटू नहीं, अमरेश नहीं, जयंत नहीं। मैं शायद वासु मास्टर हूँ। मुझे लगता है कि फकीर मोहन ने गोविंद चंद्र और शारदा के प्यार की अद्भुत तरीक़े से झूठी घोषणा की है, सत्य घटना को कहानी बताकर। 

नंदिता सो रही है। मैंने रोशनी बुझा दी है। असली रहस्य का सच में अँधेरे में ही पता लगता है। वास्तविक प्रकाश जानने की इच्छा बलवती हुई है। अदिति एक दिन शाम के समय पूरी की हुई उस कहानी को सुनाना चाहती थी। एक शाम अदिति कहती है। उसके कहने के अनुसार गीत के स्वर की तरह कहानी का भी एक छंद होता है और उसे कहीं से मैंने ही ठीक ठंग से पकड़ रखा है। ख़ासकर अदिति के कहानी के छंद। अचानक अदिति ने कहा कि आज मैं तुम्हें कहानी नहीं सुनाऊँगी। 

पता नहीं, उसके मन में मेरे प्रति कैसे अविश्वास पैदा हो गया। जैसे तुम्हारे ऊपर प्रसन्न होने वाली देवी अचानक तुम्हारी सारी इच्छाओं को पूरा करने का निर्णय लेती हैं। 

“आज मैं तुम्हें सच्ची कहानी सुनाऊँगी,” अदिति ने कहा। 

“सच्ची कहानी?” आश्चर्य प्रकट करना—मुझे मालूम है कि किसी भी सच्ची कहानी को सुनने की पूर्व आवश्यकता है। 

“एक नहीं, दो,” अदिति वाक़ई में दिखाई दे रही थी अद्वितीया, अनन्या। 

शायद मैं अनंतकाल से इसका इंतज़ार कर रहा था। अचानक उसने कहा, “बहुतों को पता नहीं है कि मेरी एक जुड़वाँ बहन भी है!” 

“जुड़वाँ? मतलब ट्विन्स?” 

अदिति ने सिर हिलाते हुए कहा, “मगर वह अब नहीं है।” 

मेरे उत्तर का इंतज़ार किए बग़ैर अदिति ने कहना जारी रखा, “अचानक एक दिन वह कहाँ चली गई। किसके साथ गई और कहाँ गई, हमें कहीं से भी यह जानकारी नहीं मिली।” 

अदिति का चेहरा कितना उदास लग रहा था। कहने लगी, “उसी ने कहानी कहना आरंभ किया था, हमारे घर में मैंने कभी नहीं सोचा था कि वह सब सच कह रही है। घर में भी ऐसा किसी ने नहीं सोचा था। लेकिन उसके अचानक जाने के बाद मन में आया कि वह जो-जो करेगी, उसी के बारे में कह रही थी। जो भविष्य में घट सकता है, उसी के बारे में। हम मूर्खों की तरह उसे कहानी समझ रहे थे।” 

अदिति ने अपनी जुड़वाँ बहन का नाम ज़रूर बताया होगा। मैं शायद भूल गया हूँ। मुझे याद नहीं है। मैं शायद याद करना भी नहीं चाहता हूँ। मेरे विभिन्न निर्बोध प्रश्नों के बाद, मेरी ख़त्म नहीं होने वाली उत्कंठा के बाद, उसने जो अद्भुत बात कही थी, वही इस किताब में लिखी है, “हम सभी वास्तव में दो-दो जन है। एक हाँ कहता है, दूसरा ना कहता है। एक जैसा दिखने के कारण लोग एक समझते हैं मगर करते हम उल्टा हैं। हम दोनों फिर भी अलग-अलग दिख रहे थे। वह सुंदर है।” 

अदिति अचानक अलग दिखने लगी। जैसे कि वह अपनी कहानी कह रही हो। वह वाक़ई में अवर्णनीय ख़ूबसूरत लग रही थी। 

मैं जैसे किसी पिंजरे से छुटकारा पाना चाहता था। सुंदरता धीरे-धीरे तुम्हें चारों ओर से घेर लेती है और तुम्हारा दम घोंट देती है। मैंने पूछा, “तुमने दो सत्यकथा सुनाने के लिए कहा था, दूसरी सत्यकथा . . .”

“मैं तुमसे प्यार करती हूँ,” उसने कहा। 

आगे क्या हुआ, हमने क्या-क्या किया। सच कहूँ तो मुझे कुछ भी याद नहीं है। मुझे सच में याद नहीं आ रहा है। 

मैं अदिति की इन दोनों सत्य कहानियों को वास्तव में किसी को नहीं कह पाया। तमाम अविश्वासों के बावजूद मैंने बार-बार ख़ुद को समझाया है, अविश्वास में भी एक तरह का सुख है, जो किसी भी अन्य प्रश्न या प्रत्युत्तर को अवान्तरित कर देता है। 

अगले दिन अदिति कहीं चली गई। कब और किसके साथ, मुझे मालूम नहीं। हमने एक पल के लिए भी नहीं सोचा था कि अदिति हमारे पास कभी नहीं लौटेगी, की तरह कहाँ चली गई। हम बस अपने-अपने तरीक़े से अदिति के लौट आने का इंतज़ार कर रहे थे। बाद में पता चला कि किसी के साथ उसकी शादी हो गई और वह अपने घर-संसार में व्यस्त हो गई थी। और आजकल कहानी नहीं लिख रही है। हम भी उसे अपने अपने तरीक़े से झूठा समझने लगे और नहीं चाहते हुए भी उसे भूलने लगे। हमारे अपने-अपने जगत कब अदिति अनुपस्थिति वाले जगत बन गए, उसका आभास तक नहीं मिला। 

हम सभी जो अदिति के सान्निध्य में एक साथ मोहित थे, हमने कई दिनों तक उसकी बात को कभी नहीं उठाया। हमने पहले से ही यह तय कर लिया था। अदिति अचानक अपने सांसारिक जीवन अपने पति, बेटे और बेटी के जंजाल के भीतर फिर से लिखना शुरू करती है और देखते-देखते यह सबसे लोकप्रिय और सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली लेखिका बन जाती है। बन गई। 

क्या मैंने पिछले कई सालों में कभी अदिति की तलाश की है? क्या आपने उसकी कहानी, उसकी किताब पढ़ी है? क्या ख़बर भी रखता हूँ कि वह कहाँ पर है, कैसी है? सोचा है क्या वह अच्छी है या बुरी? क्या सोचा है कि मेरा उसके साथ कोई सम्बन्ध है? अब जो मन में आ रहा है, क्या वह सच है या झूठ? क्या वह अभी भी ऐसी ही दिखती है या एक नज़र में पहचानी नहीं जाएगी? क्या कभी सोचा है कि उसकी तबीयत कैसी है? शुगर, बीपी नॉर्मल है? गठिया? हार्ट? वह सुखी है या दुखी? 

अदिति ने एक बार कहा था और उसे अपनी आत्मकथा में लिखा भी हैं कि सुख के विपरीत अनुभूति दुख नहीं है। सुख के ठीक विपरीत होता है ज़्यादा सुख या कम सुख। किसी और का सुख। दुख वास्तव में एक अलग अनुभूति है। ठीक वैसा ही इसके विपरीत भी, कम दुख या अधिक दुख। या किसी और का दुख। 

मुझे पता है कि मैं अदिति से एक प्रकार से नफ़रत करता आ रहा हूँ। इतने सालों से। इससे पहले कि वह अचानक मुझे छोड़कर चली गई। इसलिए मैं उससे नफ़रत करता हूँ, क्योंकि नफ़रत गुप्त रूप से की जाती है। इसलिए मैंने उसकी एक भी कहानी नहीं पढ़ी। एक भी कहानी को आदर नहीं दिया। अगर कोई उसकी प्रशंसा करता तो वह उस व्यक्ति की बौद्धिकता की मन ही मन हँसी उड़ाता और संदेह करता, नंदिता भी अदिति की प्रशंसा करती है। अदिति की कहानियों की। मैं कहता हूँ कि हर किसी के टाइम पास करने का तरीक़ा अलग-अलग होता है। 

ख़ैर, अगर नंदिता कभी अपनी आत्मकथा लिखेगी, तो वह क्या-क्या लिखेगी? और अगर लुसी लिखेगी तो? यदि मेरा आख़िरी बॉस रंगराजन अपनी आत्मकथा लिखेगा तो? अगर वह चिड़ियाँ बेचने वाला लिखेगा, जिससे मैंने बहुत सारी चिड़ियाँ ख़रीदीं और एक बार अदिति को भेंट की थी और अदिति ने पिंजरा खोलकर सारी चिड़ियों को उड़ा दिया था? अगर वह कार मैकेनिक लिखेगा जिसने कल मेरी कार ठीक की? अगर हमारे घर में काम करने वाले पति-पत्नी अपनी आत्मजीवनी लिखेंगे तो? क्या मैं उन सभी में रहूँगा? 

सारी आत्मजीवनियाँ झूठी कहानियाँ हैं। जैसे सभी कहानियों में कहीं-न-कहीं आत्म-चर्चा होती है। अदिति जो कुछ लिख रही है वह सब सच है। जो मनुष्य की कल्पना में आता है वही सच है। नंदिता को भी ऐसा ही लगता है, नंदिता को पसंद आता हैं कोइन्सिडेन्स। दो घटनाएँ अप्रत्याशित एक ही समय में घटेगी, यह उसे सबसे ज़्यादा आश्चर्यजनक बात लगती है। क्योंकि ऐसा बहुत कम ही कहीं होता है। लेकिन नंदिता मुझे यह समझाने की कोशिश करती है, अदिति की कहानियों में तो हमेशा ऐसा ही होता है। यही कारण है कि पाठक उसकी कहानी की पहली पंक्ति से अप्रत्याशित अंत की प्रतीक्षा करने को मजबूर हो जाते हैं। अदिति की कहानी में ऐसा ट्विस्ट आता है जो कहानी ख़त्म होने के बाद एक पल के लिए पाठक को सोचने के लिए मजबूर कर देता है। आख़िरकार, जो सबसे ज़्यादा स्पष्ट है, वह हमें सबसे ज़्यादा हैरान कर देता है। 

पता नहीं, मुझे ऐसा क्यों लगता है कि नंदिता लंबे समय से मुझ पर और अदिति के अद्भुत बल्कि अंतरंग सम्बन्धों पर शक कर रही है। हो सकता है इसलिए वह उसकी हर कहानी को इतने ध्यान से पढ़ती हो, कि कहीं उसमें वह कोई ऐसी बात ढूँढ़ ले, जो अदिति को मुझसे जोड़ेगी। एक दिन नंदिता ने कहा, फ़्लाइट में कभी अकेले आते-जाते वह अदिति की कहानियाँ पढ़ रही थी। वह खिड़की के पास वाली सीट पर बैठी हुई थी। बीच वाली सीट ख़ाली थी। उस समय गलियारे के दूसरी सीट पर बैठा आदमी वही किताब पढ़ रहा था। 

आश्चर्यचकित हुए बिना मैंने तर्क दिया, “इसमें आश्चर्य करने की क्या बात है? यह कोई अजीब बात नहीं है कि दो लोग एक ही किताब की अलग-अलग प्रतियाँ नहीं पढ़ सकते हैं।” 

नंदिता ने तर्क दिया, “लेकिन एक ही किताब के एक ही पन्ने को एक ही समय पर पढ़ना क्या निश्चय संयोग नहीं है। अद्भुत संयोग! फ़्लाइट के भीतर तो अवश्य कोई क्लासरूम नहीं है।” 

“क्या तुम्हें वहीं पेज नंबर नज़र आ रहा था? 

“चैप्टर नंबर बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था और मैंने सही-सही देखा।” 

“किताब पढ़ते समय व्यक्ति के सामने दो पृष्ठ होते हैं। आपको कैसे पता चला कि वह आदमी वही पृष्ठ पढ़ रहा था?” 

“लेकिन वह आदमी अपनी किताब को मोड़कर पढ़ रहा था और वह वही पेज था, जिसे मैं पढ़ रही थी।” 

“क्या कोई ऐसे किताबें पढ़ता है?”

“मैं पढ़ रही थी। वह भी पढ़ रहा था।” 

दरअसल, मैं नंदिता के अद्भुत संयोग वाली घटना को चमत्कार मानते हुए उसके तर्कों से हार गया था। लेकिन इतना ही काफ़ी नहीं था, अदिति की और किसी किताब, किसी कहानी में इससे ज़्यादा अद्भुत संयोग वाली घटना ही नहीं बल्कि और कुछ अद्भुत सच होगा। 

मुझे याद आ रहा है कि मैं किस कुछ पलों के लिए छटपटा गया था। अजीब-सी बेचैनी में। ख़ैर, नंदिता के कोइन्सिडेन्स वाले मामले में क्या वास्तव में बीच वाली सीट ख़ाली थी। वह आदमी क्या पिंटू था? अमरेश या जयंत? या कोई दूसरा आदमी, जिसे मैं बिल्कुल नहीं जानता? नहीं, क्या नहीं जानता हूँ या इसके बारे में सोच नहीं पा रहा हूँ? 

नंदिता भी क्या कहानी कह सकती है? झूठ बोल सकती है? नंदिता क्या सच कह सकती है? कभी भी सच कह पाएगी? नंदिता मुझे अदिति की कहानी की ओर आकर्षित कर रही थी, या अपने सच की तरफ़? फिर भी, क्या कोई अपने बारे में या दूसरों के बारे में बात करता है? क्या लेखक या वक्ता अपनी बातों को छिपाते हैं या दूसरों की बातों को दिखाते हैं? 

हर व्यक्ति की अपनी-अपनी माइथोलोजी होती है। अपनी-अपनी किंवदंती होती है। अदिति लिखती हैं फकीर मोहन ने अपनी आत्मकथा में अपनी पहली पत्नी लीलावती के बारे में बिल्कुल नहीं लिखा है। बल्कि लिखा है कि ओझा लोग लीलावती सूत्र में पारंगम होते थे। लीलावती सूत्र की सहायता से पेड़ों पर पत्तों की संख्या और आकाश में उड़ने वाले पक्षियों की संख्या जानी जा सकती है। लीलावती सूत्र है। जबकि लीलावती नाम की पत्नी नहीं है! 

मुझे पता है कि फकीर मोहन अदिति के पसंदीदा लेखक हैं। लेकिन उसे उनसे क्या सीखना था। किसकी कहानी वह लिखेगी और किसके नाम का उच्चारण तक नहीं करेगी? 

अदिति वास्तव में अनन्या है। 

देखता हूँ कि नंदिता अपनी आँखें खोलकर मुझे घूर रही है। तीक्ष्ण निगाहों से। ऐसी आँखों से देख रही है, जिसे उसे किसी पर शक हो रहा हो। मगर उसका चेहरा झिलमिला रहा है एक प्रकार की विजय की चमक से। 
जैसे वह मेरे सम्बन्धों के बारे में सब-कुछ जानती है। मेरे सम्बन्ध के पीछे की कहानी। एक पुरानी, एक प्राचीन नदी के भीतर एक बार फिर पाँव डालने की कहानी। तो वह एक ही समय में झूठ और असंभव बातें बताते हुए कहती है—अदिति की आत्मकथा समाप्त पूरी पढ़ ली है। तुम्हारी अदिति। अच्छा लिखती है। 

नंदिता मुझे घूर रही है। मेरे शब्द फिर से सुनकर। मैं अपनी बात को अपने तरीक़े से दोहरा रहा हूँ। किसी ने नहीं कहा था, “एक ही नदी में दूसरी बार पाँव नहीं डालने चाहिएँ। क्योंकि नदी अब वैसी नदी नहीं रही।” लेकिन अदिति बख़ूबी जानती है। दूसरी बार पाँव डालने से क्या वह वही व्यक्ति होता है! 

अँधेरा कभी इतना प्रगाढ़ नहीं हो सकता, दो लोग किसी जाने-पहचाने आदमी के चेहरे और उसकी मौजूदगी छुपाने के लिए। मेरी बात से राज़ी नहीं होने से नंदिता सोचती है कि मैं उससे प्यार करता हूँ। उसे आश्चर्य होता है। मैंने अदिति की आत्मकथा को इतने ध्यान से पढ़ा, इतनी रातों तक जागकर, उसे विश्वास नहीं हो रहा है। वह कहती है, मैं शायद अपने पसंदीदा लेखक की किताब पढ़ रहा था। अर्थशास्त्र, नहीं तो बैंकिंग, या फिर राजनीति या दर्शन से सम्बन्धित पुस्तकें। कहती है—बहुत कुछ छिपाई है, लेकिन अदिति, अपनी किताब में। 

जिसे कभी देखा नहीं केवल उसकी कहानियाँ पढ़कर कोई इतने विश्वास के साथ कह सकता है कि वह क्या छुपा रही है? क्या नहीं। पता नहीं, मैं कैसे निष्पक्ष विचारक की तरह कहता हूँ, “अगर छुपाने योग्य नहीं होता तो कोई आत्मजीवनी क्यों लिखेगा?” 

नंदिता ज़रूर बहस करेगी। जैसे कई बार हम बातों को बातों से काटते है। हो सकता है कि अपने तरफ़ की बेडसाइड लाइट को ऑन करेगी और साइड टेबल पर रखे पानी के गिलास से घूँट-घूँट पीने लगे। शायद आगे से घोषणा भी कर देगी कि रात ख़त्म हो गई है। मेरे तर्क को काटेगी अपने वितर्क की छुरी से। उसे ले जाएगी ब्रेकफ़ास्ट और लंच तक। पता नहीं कल के या आने वाले कई डिनरों तक। 

मगर ऐसा कुछ नहीं करके वह मेरे पास सरकती-सरकती और क़रीब आ रही है। और कहने लगी, “कहीं किताब में उसने नहीं लिखा कि कुछ दिनों के लिए कहीं चली गई। घर छोड़कर। सब-कुछ छोड़कर। लिखना-पढ़ना छोड़कर।” 

शायद अदिति ने लिखा होगा। मैंने ठीक ढंग से ध्यान नहीं दिया। ऐसा लगता है कि नंदिता एक भयानक कहानी बताना चाहती है। जो बहुत दिनों के बाद कौन लौटी, वह कोई और है? 

मैं भी विश्वास करना चाहता हूँ। असंभव कहानी पर विश्वास करने में एक अजीब-सी आत्म-संतुष्टि मिलती है। 

अदिति की आत्मजीवनी हम दोनों के आत्म-संघर्ष की तरह है। जैसे हम दोनों अपने भीतर खोजते हैं, किसी किताब में नहीं, हमने जो खो दिया है और जो नहीं पाया है। 

मुझे लगता है कि मुझे नंदिता से कह देना उचित होगा, “अदित इन दो महत्त्वपूर्ण बातों के बारे में और आगे बिल्कुल नहीं लिख रही है।” 

“दो बातें?” नंदिता अजीब उत्साह से मेरी ओर बढ़ रही है। 

मैं उसकी ओर बढ़ रहा हूँ। जैसे षड्यन्त्रकारी बढ़ता है। 

“अदिति ने अपनी जुड़वाँ बहन के बारे में नहीं लिखा है। वे दोनों अलग-अलग दिखती हैं। एक जैसी नहीं।” 

नंदिता उठकर बिस्तर पर बैठ जाती है, कहते हुए, “तुमने अवश्य उसकी वह कहानी नहीं पढ़ी है। जहाँ तक जुड़वाँ बहन की कहानी है, वह तो बहुत दिन पहले लिख चुकी है।” 

मुझे उस पर विश्वास नहीं हो रहा था। लेकिन उसके सवाल ख़त्म नहीं हो रहे हैं। 

“तुम कह रहे थे उन दो बातें के बारे में, उसने और क्या नहीं लिखा?” 

वैसे ही सोते-सोते उसे हराने की ज़िद पकड़कर कहता हूँ, “अदिति ने अपने बारे में कुछ भी नहीं लिखा है। कुछ भी तो नहीं।” 

नंदिता बेडसाइड वाले टेबल की ओर मुड़ी। गिलास उठाया पानी पीने के लिए। किन्तु एकदम धीरे-धीरे। सुबह भी होने लगी है। वैसे ही एकदम धीरे-धीरे। 

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