अदिति की आत्मकथा

अदिति की आत्मकथा  (रचनाकार - श्यामा प्रसाद चौधरी)

(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )
डूब जाना

 

दो चीज़ें जानने योग्य हैं, जिस सत्य को नहीं जाना जा सकता है, वह वास्तव में झूठ है और जिस झूठ को बोला जा सकता है, वही वास्तविक सत्य है। झूठ बोलना इतना आसान नहीं है। हर किसी को ठीक ढंग से झूठ बोलना नहीं आता है। ख़ासतौर पर पत्नी से झूठ बोलना सबसे मुश्किल काम है। 

पता नहीं क्यों, मैंने रमेश के बारे में नंदिता से झूठ बोला, मैं इस बारे में सोच ही नहीं पाया। मुझे कोई सही जवाब नहीं मिला। शायद मुझे सच बोलने से डर लग रहा था। या फिर, मैं सही बात कहकर नंदिता के मन को ठेस नहीं पहुँचाना चाहता था। फिर भी, मैं अपनी बात कहने से अपने आपको रोक नहीं पाया। 
नंदिता को विश्वास नहीं हो पा रहा था। कल से लेकर आज पर्यंत पता नहीं उसने मुझे कितनी बार पूछा होगा? एक ही सवाल को अलग-अलग तरीक़ों से: इतने मोटे व्यक्ति को आपने पानी के भीतर से बाहर खींचा कैसे? 
ऑफ़िस इंस्पेक्शन में, शहर से बहुत दूर जाकर कल वापस आने के बाद मैंने नंदिता को बताया कि इंस्पेक्शन बँगले से दूर स्थित किसी नदी में रमेश को डूबने से मैंने किस तरह बचाया था, अचानक एक अजीब शक्ति ने मुझे विवश कर दिया उसे पानी से बाहर निकालने के लिए। 

अच्छा, उपग्रह को? आपने इतने मोटे आदमी को खींच कैसे लिया?—नंदिता ने मुझसे पूछा। 

वास्तव में रमेश बहुत स्थूलकाय है, किन्तु आपके प्रत्येक काम को किसी भी समय और किसी भी तरह से सफल बनाने के लिए उसके पास सूक्ष्म बुद्धि है। एक बार मैंने नंदिता के सामने उसके शरीर को पृथ्वी कहा और मैंने मज़ाक़ में उसके सिर को आपाततः उपग्रह बताया था। तब से, रमेश उपाध्याय धीरे-धीरे हमारी निजी बातचीत में रमेश उपग्रह और फिर केवल उपग्रह में तब्दील हो गया था। 

रमेश ने ठीक ही समझा कि मेरे चाहने पर भी मैं आत्म-निर्भर नहीं बन सकता था। कभी नहीं। और हर चीज़ के लिए मैं उसके ऊपर निर्भर रहूँगा। जैसे कि कल मेरे वापस लौटने के बाद मेरे भीतर की उथल-पुथल को ठीक ढंग से नंदिता को नहीं बताना चाहते हुए भी अनजाने में मुझे उसी रमेश की मदद लेनी पड़ी। मेरे झूठ सच के वर्णन में रमेश प्रवेश कर चुका था। रमेश का नाम। 

नदी के गहरे पानी से जिसे मैं सही मायने में अविश्वसनीय तरीक़े से खींचने में कामयाब हुआ था, उस समय तक मुझे पता नहीं था मेरे जादुई साहस के पीछे इप्सिता थी। जबकि नंदिता को वह नाम बताने का साहस नहीं था मेरे पास। 

इप्सिता कौन है? 

बस, केवल इसी वजह से उसका नाम मेरे मुँह पर नहीं आ रहा था। उच्चारण के लिए। कुछ पल के लिए ही सही उसके गीले कपड़े और शरीर को भींचकर रखने के बारे में अगर मैंने नंदिता को बताया होता, तो वह अवश्य पूछती कि वह कौन है? वह वहाँ क्या कर रही थी? आप इंस्पेक्शन पर गए थे या किसी को नदी में डूबने से बचाने के लिए? 

इप्सिता को पकड़कर रखने की अकल्पनीय और अप्रत्याशित अनुभूति इतनी ज़्यादा सपनों की तरह असंभव और अयुक्तिकर थी कि नदी के किनारे से बँगले तक, फिर वापस कार से मेरे शहर लौटने तक, नंदिता के साथ एकांत पल बिताने के बाद भी, वह मेरे मानस-पटल से हटने के लिए तैयार नहीं थी। 

ऐसे भी किसी भी असंभव घटना के घटित होने के लिए कोई निश्चित नियम नहीं हैं, इसलिए इसके घटित होने के पीछे कोई विज्ञान-सम्मत तर्क नहीं है। 

घटना शायद शुरू हुई थी जब मैंने इप्सिता को अचानक देखा था, उसे आधा जानने या पूरी तरह से भूल जाने या चाहने से बहुत पहले से। मेरी अनावश्यक गंभीरता, ज़्यादा बात नहीं करने का औपचारिक अहंकारबोध ने उसके बारे में अधिक से अधिक जानने की इच्छा पैदा की थी, लेकिन कोई ख़ास जवाब नहीं मिला था। 

इप्सिता के पास थी एक असंभव द्युति। वह सामने न होते हुए भी सतेज उपस्थिति दर्ज करवाती थी। अपनी। जैसे कभी-कभी नींद में आने वाले सपने। उत्तेजना में इच्छा। जैसी कभी-कभी तुम्हारी दुर्वार कामना। 

इंस्पेक्शन बँगले में सब-कुछ लाया था मेरे लिए रमेश, सुबह की चाय से लेकर, मेरे पसंदीदा बिस्कुट, अख़बार, तौलिया, पुष्प-गुच्छ, पसंदीदा लिक्विड साबुन, शैम्पू आदि। मेरे उठने, बैठने की समय सूची रमेश ने भेजी थी, और उसके अनुसार व्यवस्था की थी। इच्छा और उपलब्धि में केवल रमेश ही था। दिक़्क़त यही थी कि इतना स्थूलकाय रमेश। जो बड़ी सूक्ष्मता से मेरी हर इच्छा पूरी कर रहा था। 

जैसे शायद इप्सिता का भी आना हुआ था, रमेश के माध्यम से। मेरे नाश्ते की टेबल पर वह इतनी अचानक आ गई कि मैं कुछ भी कहने या करने को तैयार नहीं था। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मैं कुछ देर तक ठीक से साँस तक नहीं ले पाया। लेकिन उसे मेरे आश्चर्यचकित होने की अपनी कमज़ोरी दिखाने के लिए मैं राज़ी नहीं था। 
अप्रत्याशित रूप से, मैंने अधिक संभ्रम और संभवतः अधिक सतर्क रहने की कोशिश की। उसने अपना परिचय दिया। जिसे याद रखना मुझे सही नहीं लगा। मैंने उसे लगभग अवाक्‌ होकर सुना। मैंने जो महसूस किया वह यह था कि उसका सौन्दर्य, निश्चल सौन्दर्य। उसकी मौजूदगी को नज़र-अंदाज़ करने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था। 

मैंने उसे मन ही मन कई बार सुंदरी कहा था। मेरे सामने पड़ी कुर्सी पर बैठकर उसने कहा, “ब्रेड पर बटर अच्छा नहीं लगेगा, लेकिन मुझे जैम अच्छा लगेगा।” मैंने आश्चर्यचकित होकर रमेश को देखा, जो हम दोनों के बीच वाले टेबल से कुछ दूरी पर खड़ा था, जैसे कि उसने पहली नज़र में मुझे मंत्र-मुग्ध करने के लिए मेरी पसंद-नापसंद की एक लंबी सूची उस महिला को दे दी थी। और जो कभी भी सही नहीं थी। 

इप्सिता कहने लगी, जैसे वह समझ गई हो, “नहीं, रमेश ने मुझे कुछ नहीं कहा है। ब्रेड प्लेट में है। न तो बटर पैकेट खुला था और न ही जैम की बोतल। इसलिए मेरे कहने पर कोई भी अंदाज़ लगा सकता है।” 

एक सुंदर महिला की हर बात सुंदर लगती है। बाद में इप्सिता अपनी तरफ़ से कुछ-न-कुछ कहती रही। जिसने मेरे आश्चर्य की सीमा रेखा को न केवल बदल दिया, बल्कि मेरे मन में किसी तरह का संग्रहणीय अंतर्विरोध भी पैदा नहीं किया। वह गपती जा रही थी, एक प्रकार से अंतहीन। 

शायद मैं अपनी मर्ज़ी से किसी अँधेरे इलाक़े में खो गया था, अचानक नाश्ते की टेबल पर लौट आया, उस समय वह कह रही थी, “आप सच में इंस्पेक्शन करने आए हो। फ़ाइलों, ऑफ़िसों में व्यस्त रहोगे। लेकिन यहाँ कुछ चीज़ें ऐसी भी हैं, जिन्हें देखे बिना आप कभी भी नहीं जाइएगा।” 

तब तक बँगले की वर्दी पहनकर बेहरा जाम लेकर आ चुका था। रमेश नज़रों से ओझल हो गया था, शायद किचन के नैपथ्य में निर्देशक बन गया था। 

मैं इप्सिता को ऐसे देख रहा था जैसे मेरा चेहरा मेरे प्रश्न का अनूदित रूप हो। अप्रत्याशित आकार। 

वह कह रही थी, “लेकिन मेरी सूची पूरी तरह से अलग है। किसी नक़्शे पर नहीं। गाइड बुक में नहीं। दर्शनीय स्थानों में भी नहीं। यहाँ से कुछ दूर पर एक छोटा-सा जंगल है। वहाँ पहुँचने के कई रास्ते हैं। और हैरानी की बात यह है कि जिस किसी रास्ते से आप जाएँगे, मगर पहुँचेंगे एक गुफा के पास ही।” 

एक पल के लिए ऐसा लग रहा था कि इप्सिता एक असंभव प्रगल्भ महिला है, जो अपनी बातचीत में वाक् चातुर्य से इसे सुखद उपभोग्य बना सकती है। उसने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, “कहा जाता है कि अगर कोई साहस जुटाकर उस गुफा में प्रवेशकर दूसरी तरफ़ निकल जाता है तो उसका पुनर्जन्म नहीं होता है।” 

अचानक मैंने पूछा, “क्या कभी कोई उसके भीतर गया है?” 

उसने ब्रेड पर बटर लगाकर इस तरह खाया जैसे उसके कामोत्तेजक शरीर पर इस तरह खाने से कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, यह उसे किसी देवी-देवता का वरदान मिला हो। वह कहने लगी, “निर्वाण की ज़रूरत किसे है? यह जन्म, यह जीवन कितना सुंदर है! 

“फिर मैं उस गुफा के भीतर जाकर दूसरी तरफ़ से बाहर निकलने का प्रयास क्यों करूँ?” 

“नहीं, दूसरी तरफ़ से बाहर निकलने के लिए नहीं। बल्कि गुफा के अँधेरे रास्ते में कुछ दूर जाकर फिर वापस आने के लिए।” 


इप्सिता के शब्दों में झलक रहा था कुछ मिथ्यापन। जैसी वह थी, वैसी नहीं थी। जैसे मैं अपने आप से ही कह रहा था। अकेले में। इतने सारे रास्ते, गुफाएँ, अँधेरा, जन्म, जीवन, पुनर्जन्म के भीतर समाई हुई थी इतनी अशालीन विचारधारा, जो केवल अपने भीतर ही कभी-कभी पैदा हो सकती हैं। जो कभी भी दूसरों पर लागू नहीं होती है। 

वास्तव में, कोई भी किसी को विस्फोरित नहीं कर सकता जब तक कि उसमें विस्फोरित होने की अपनी ख़ास इच्छा न हो। 

मन ही मन मैं रमेश को खोज रहा था। यह पूछने के लिए कि मेरे सामने बैठकर कभी मुस्कुराते हुए तो कभी आवश्यकता से अधिक गंभीर होते हुए तो कभी अनावश्यक रूप से अंतरंग बनते हुए अप्रत्याशित रूप से अलग कहानी बना रही थी वह महिला, सच्ची या काल्पनिक। 

ऐसी और भी कुछ जगहें हैं, जहाँ आपको निर्वस्त्र जाना पड़ता है। इप्सिता ने अपनी तरफ़ से जोड़ा। एक गुलाब का उपवन। निडरता ही सफलता का पहला मीठा स्वाद प्रदान करती है। निर्वस्त्र होकर अपनी आँखें बंदकर अपने इच्छानुसार जिस रंग को आप चाहते हैं, उसके बारे में सोचना होगा। अगर उस रंग का गुलाब खिल जाए, आपकी आँखों के सामने, तो पलक झपकते ही आपकी मनोकामना ज़रूर पूरी होगी। गहरे बैंगनी रंग की साड़ी में इप्सिता बेहद ख़ूबसूरत लग रही थीं। 

“आपकी क्या इच्छा है?” मैंने पूछ लिया। 

“ऊँ-हूँ। किसी को बता देने से इच्छा पूरी नहीं होगी,” चाय का कप उठाकर एक घूँट पीते हुए उसने कहा। 

“क्या तुम्हारी यह पहली इच्छा पैदा नहीं हुई तो क्या तुमने अपने गुलाब के बग़ीचे में गुलाब को खिलते हुए देखा?” 

“मतलब?” उसने पूछा। 

“मैं सोच रहा था आँखें खोलते ही उस रंग का गुलाब खिल जाएगा। यह इच्छा करने के लिए किसी को भी बाध्य नहीं करना चाहिए? 

“लेकिन मैं तुम्हारी दूसरी इच्छा की बात कर रहा हूँ। आपकी मनोकामना पूर्ण करने के लिए आपके इच्छित रंग वाले गुलाब फूल का खिलना निहायत ज़रूरी है।” 

क्षण भर के लिए इप्सिता अश्लील लग रही थी। लेकिन मैं हमेशा से सोचता आ रहा हूँ कि तमाम अश्लीलताओं के पीछे सिर्फ़ अपनी ही मानसिकता हावी होती है। इप्सिता की कुर्सी के पिछले हिस्से और उसके पीछे की दीवार और दीवार पर टँगी पेंटिंग, जिस पर मैंने अभी तक ध्यान नहीं दिया था, उसे देखने लगा। 

मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ। वह पेंटिंग में विवस्त्र महिला और एक गहरे बैंगनी रंग का गुलाब। 

इप्सिता ने अपनी पसंद का ब्रेकफ़ास्ट खाकर या खाने का अभिनय करते हुए टेबल छोड़कर बाहर जाते समय बताया था अपने तीसरे स्थान का पता। यहाँ से कुछ दूर जाने के बाद जंगल के किनारे एक नदी है, जो कभी-कभी महिला की तरह दिखती है। उसे इस रूप में देखने के लिए जंगल के किनारे बड़ी चट्टान पर कुछ देर बैठना पड़ता है। ध्यान की मुद्रा में। प्रचंड उच्छल नदी बदल जाती है नारी में। ऐसा अवश्य सूर्योदय से पहले होता है। कहा जाता है कि गंगा में स्नान करने से जितने पुण्य मिलते हैं और नर्मदा को देखने से जितने पाप नष्ट होते हैं, उस नदी का चिंतन मात्र करने से उससे ज़्यादा पुण्य और उससे ज़्यादा पाप क्षय होते हैं। 

अचानक कहना चाह रहा था—इस जीवन में पुण्य की ज़रूरत किसे है? पाप क्षय किसे चाहिए? पाप, केवल पाप, ही मुझे चाहिए। हमें। हम सभी को। पूर्व जन्म के पापों के कारण ही तो जन्म मिलता है यहाँ। यह सुंदर और लुभावना जीवन है। सिर्फ़ पाप करने के लिए। मुझे इस पृथ्वी की ज़रूरत है। इस पार्थिव नर्क की। शायद हम सभी को इसकी ज़रूरत है। नर्क में पहुँचने के लिए किसी भी तरह के अवतार की ज़रूरत नहीं है। वह शायद हम सभी का अवशिष्ट भाग्य है। 

इप्सिता मेरे सामने नहीं थी। पाप की मेरी अपनी परिभाषा के गहरे अँधेरे में वह ग़ायब हो गई थी। अन्यथा, मैं उसे इस बात पर ज़ोर देते हुए समझा देता कि जिसको मजबूरन करना पड़ता है, लेकिन किसी को सूचित करने की आवश्यकता नहीं होती है, वह संभवतः पुण्य है, और जिसे ऐसे ही करते है, और किसी को बता नहीं पाते है, वह अवश्य पाप है। 

पुराने ज़माने के बँगले में नाश्ते की टेबल और आज के मेरे घर में, ख़ासकर नंदिता और मेरे द्वारा सजाई गई डाइनिंग टेबल में बहुत अंतर हैं। जैसे कि आज के टेबल के ऊपर रखी होती है लाल सेबों से भरी एक ट्रे। प्रत्येक सेब मेरी तरफ़ देखता है। जैसे मुझे पहचानने की कोशिश कर रहा हो। हरेक सेब इतना ज़्यादा लाल दिखता है मानो आदिम फल की तरह निषिद्ध लग रहा हो। चिंतित और मौन भी। कटलरी होल्डर से काँटे, चाकू और सामान्य चम्मच बाहर छिटकना चाहते हो। प्लेट सफ़ेद दिखती है। सबसे बढ़कर, ग़लती करने पर जैसे दिखता है किसी का चेहरा। जैसे मेरे पाप के दाग़ उस पर लगने के लिए किसी निश्चित क्षण की प्रतीक्षा कर रहे हो। जाम पहले से ही प्रगाढ़ रक्तिम रंग में बदल चुका था। बटर दिख रहा था कभी इप्सिता के तो कभी नंदिता के असंयत और अनावृत शरीर के रंग की तरह हल्के पीले रंग की। 

नंदिता ने परीक्षा लेनी शुरू कर दी है। उसके चेहरे पर सारे प्रश्न व्यस्तता, कौतूहल, आग्रह में बदलकर लटकते जा रहे हैं कैलेंडर के पन्नों की तरह। दूसरे दिनों के चेहरे से अलग। बल्कि मुझ पर आरोप लगाते हुए पूछने लगी, “आप कितने अलग लग रहे हो!” 

“मैं?” बिना किसी तैयारी के मैंने प्रश्न पूछा। हाथ में अख़बार। जबकि किसी पन्ने पर अपना चेहरा लगाना भूल जाता हूँ। 

“आप इतने शांत दिख रहे हैं! कल रात में भी, कितना अलग-अलग लग रहे थे।” 

ऐसा लग रहा है कि मैं कुछ ग़लत नहीं करूँगा, ख़ासकर एक अभियुक्त के रूप में हुआ है मेरा यह जन्म। जैसे हम सभी का जीवन। मैं क्या आरोप लगाऊँगा नंदिता पर? 

“तुम इतनी देर क्यों कर रही हो?” बॉस की तरह बात कर रहा हूँ मैं। उस आरोप में कोई गंभीरता नहीं है। 

नंदिता बार-बार रसोई के भीतर जाकर बाहर आ रही है। पता नहीं, भीतर में खाना बनाने वाली महिला क्या कर रही है? लेकिन मुझसे लड़ने-झगड़ने के लिए नंदिता को अच्छा लगता है। उसे मेरे इर्द-गिर्द रहना पसंद है। आधा भोजन करते समय मेरे पहने हुए क़मीज़ को बदलने के लिए कहना उसे अच्छा लगता है। किसके बाद क्या पूछेगी, उसके क्रम को भूलना उसे पसंद है। 

आज, लेकिन ऐसा लग रहा है कि वह केवल सवाल पूछ रही है। लग रहा है कौतूहल का टोस्ट देते-देते अविश्वास परोस रही है। आग्रह की सब्ज़ी न देकर संदेह की तरकारी परोस रही है। सेब शब्द नहीं कहकर वह अपने दाँत किटकिटाते हुए कहती है, “यह खा लो।” 

मैं नहीं, बल्कि नंदिता बदल गई है। प्रश्न पूछने की मशीन बदल गई है; “आपको तो तैरना नहीं आता है। रमेश बहुत मोटा है। आपने उसे पानी से खींचकर बाहर कैसे निकाला? पानी में जाने से तो आप बहुत डरते थे!” 

कहने की इच्छा हो रही थी, ‘पानी में भारी वस्तुएँ भी कुछ हल्की हो जाती हैं, नंदिता। जल के उच्च दबाव की वजह से।’ लेकिन इतना कह कर, विज्ञान के तर्क से वज़न कम होने की बात नहीं करना चाहता था मैं नंदिता के सामने। मुझे ख़ुद ठीक से याद नहीं है कि कैसे इप्सिता अचानक पानी में डूबने लगी और मेरे जैसा आदमी, जो पानी में जाने से डरता था, नदी को महिला के रूप में बदलते देखने की इच्छा से मुक्त होकर अचानक कैसे इप्सिता को कसकर पकड़ लिया। मुझे ठीक से याद नहीं है कि जब हम पानी से बाहर निकल रहे थे उस समय सूरज उगा भी था या नहीं। सही ढंग से। लाल रंग से धुल रहे काले अँधेरे में दिखाई दे रही थी इप्सिता। असम्भव लुभावनी, जो केवल किसी तस्वीर के रंगों में ही सम्भव है। 

नदी के किनारे चट्टान के पास से मेरी गाड़ी के पास पहुँचते मेरे विश्वस्त ड्राइवर ने दौड़कर डिक्की खोलकर एक छोटे से हैंडबैग से मेरे लिए बाहर निकाला मेरा पसंदीदा सफ़ेद तौलिया। उस समय मुझे इस बात का एहसास हुआ कि मैं पूरी तरह से भीग गया था और मेरा ड्राइवर ही केवल मुझे देख सकता था। वह गाड़ी के भीतर बैठ गया केवल मेरे पहुँचने के लिए उस रास्ते को छोड़कर और गाड़ी के बाहर किसी और को नहीं देखने के लिए शायद वह था अभिशप्त। 

सूर्योदय के बाद का समय अलग था। ब्रेकफ़ास्ट टेबल पर इप्सिता नहीं थी। मन ही मन उसका इंतज़ार करते समय, खाने में कोई विशेष संतुष्टि नहीं हुई, उसे अनुभव करना भी भूल गया था। हैरानी की बात यह है कि दीवार पर लगी पेंटिंग को भी हटा दिया गया था। मेरी गंभीरता ने मुझे कोई भी सवाल पूछने से रोक दिया। किसी से भी। रमेश, वर्दी पहने बेहरा, अन्य कर्मचारी या ड्राइवर से। मेरे शहर लौटने का समय हो गया था। कई अनसुलझे सवाल पीछे छूट गए। उनके संभावित उत्तर केवल रमेश दे सकता था। अगले दिन उसने ख़ुद मेरे लौटने की व्यवस्था की थी और मेरे साथ केवल औपचारिकता ही निभाई। 

कभी-कभी ऐसा लगता है कि कुछ झूठ सच हो जाते हैं। जैसे कोई एक बार फिर से सोचना चाहता है, जैसे कोई सत्य घटना वास्तव में घटी नहीं हो। मैं अब ऐसी अस्वस्तिकर परिस्थिति में हूँ, ऐसे संदिग्ध वर्तमान में हूँ, जिसे मैं वास्तव में चाहता हूँ। सच में, इप्सिता नामक कोई भी महिला कभी भी कहीं नहीं थी। दरअसल, वह इंस्पेकशन बँगले में नहीं आई होती, जहाँ मैंने लगभग दो दिन बिताकर कल शाम अपने घर लौट आया। मैं ईमानदारी से चाहता हूँ कि उस बँगले से कुछ मील दूर न कोई जंगल हो, न कोई गुफा। दरअसल, उसके हज़ारों किलोमीटर के दायरे में न कोई नदी हो। सच तो यह है कि न कोई भी नदी किसी नारी में रूपांतरित हो, यहाँ-वहाँ, कहीं पर भी, जंगल के किनारे चट्टान पर बैठकर ध्यान-मग्न होने पर। 

अन्यमनस्क होकर मैं ब्रेकफ़ास्ट कर रहा हूँ। ऑफ़िस जाने के लिए गाड़ी में बैठ गया हूँ। ड्राइवर के गाड़ी स्टार्ट कर नंदिता के बाय-बाय करने वाले हाथों से बहुत दूर जाकर मैं याद करने की कोशिश कर रहा हूँ। मैंने आज सेब खाया है या नहीं? नंदिता की चाकू लेकर किसी सेब काटने वाली बात याद नहीं आ रही है। तभी मेरे मोबाइल की घंटी बज उठती है जैसे वह उस पल का इंतज़ार कर रहा हो। अनजान नंबर देखकर और वह नंबर इप्सिता का नंबर हो सकता है, अपने व्यक्तिगत और उसी समय भगवान से प्रार्थना करते हुए कॉल रिसीव करता हूँ। 

“आपको मैं धन्यवाद देना भूल गई थी,” अचानक मेरे दिल की धड़कन बढ़ाते हुए इप्सिता कहने लगी। 

“किसलिए?” मैंने झूठा आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा। 

“आपने मुझे डूबने से बचाया।” 

इप्सिता के डूबने और मेरे उसे अचानक बचाने के बारे में और किसी को कैसे पता नहीं चला, सोचकर मुझे सच में आश्चर्य हो रहा है। बात बढ़ाते हुए वह आगे कहने लगी, “शायद मैं ख़ुद डूबना चाहती थी। हालाँकि ऐसा कहा जाता है कि जो तैरना जानता है, कभी भी वह जानकर डूब नहीं सकता।” 

“लेकिन मैं तो बिल्कुल तैरना नहीं जानता था। मैं ख़ुद विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ कि क्या हुआ था या क्या नहीं हुआ।” 

“अगर आप ग़ुस्सा नहीं करेंगे तो एक सच बात कहूँ।” 

“मतलब?” 

मुझे एक प्रकार से आश्चर्य में डालते हुए इप्सिता कहने लगी, “उस बँगले के पास वास्तव में कोई जंगल नहीं है। कोई गुफा या गुलाब का उपवन नहीं हैं।” मैं प्रतीक्षा करने के लिए तैयार नहीं था, इसलिए पूछने लगा, “और वह नदी?” 

“कभी हुआ करती थी। शायद हज़ारों या लाखों वर्षों पहले। अभी केवल वह पत्थर है, जहाँ बैठकर ध्यान किया जा सकता है। इच्छा की जा सकती है। नदी में तैरने या नदी में डूबने की।” 

इससे पहले कि मुझे अचरज होता, फोन कट जाता है और सच्चाई जानने के लिए मैं ख़ुद को चुटकी काटता हूँ, ड्राइवर से पूछते हुए, “क्या हम ऑफ़िस जा रहे हैं?” फिर पूछता हूँ, “क्या आज सोमवार है?” 

“हाँ, सर,” वह बिना पीछे देखे मुस्कुराने लगा। अचानक फिर से मेरे मोबाइल की घंटी बजती है। इप्सिता का कॉल न हो, सोचकर भगवान से प्रार्थना कर रहा हूँ। 

नंदिता का कॉल। मेरे रिसीव करते ही वह नाराज़गी से कहती है, “कब से आपको फोन लगा रही हूँ। लेकिन लग ही नहीं रहा है। फोन को स्विच ऑफ़ करके क्यों रखा है? ऑफ़िस पहुँचे नहीं होंगे अभी तक।” 

जैसे कि मैं मन की सामान्य स्थिति में हूँ और यह दिखाने के लिए, धीरे-धीरे, एक बार हल्के स्वर में कहता हूँ, “’तुम इतनी उत्तेजित क्यों हो? क्या हुआ?” 
 
नंदिता ऐसी बातें कहती है, जो मेरे लिए आश्चर्य की बात है, उसे किसी गुफा या जंगल या नदी में धकेलने के लिए पर्याप्त है। 

“न्‍यूज़ चैनल की ब्रेकिंग न्‍यूज़ में किसी रमेश का नाम बताया जा रहा है।” 

“मतलब? हमारा रमेश?” 

“हाँ, बाबा, हाँ। आपके ऑफ़िस का रमेश। रमेश उपाध्याय। उपग्रह।” 

“क्या हो रहा है?” 

“क्या वह कल आपके साथ वापस नहीं आया?” 

फ़िलहाल तो ऐसा लगता है कि रमेश के बारे में मेरा झूठ किसी तरह पकड़ा गया है। लेकिन रमेश? फिर ब्रेकिंग न्यूज़ में। अचानक मुझे लगता है कि रमेश का उस बँगले में एक और दिन रहना बल्कि मेरे झूठ को ठीक सिद्ध करना है। इतने मोटे आदमी को नदी में डूबने से बचने पर एक दिन का रेस्ट लेना तो नितांत आवश्यक था। लेकिन अब वह ख़बरों में क्यों है? 

“शायद कल रात रमेश नदी में डूब गया,” नंदिता उत्तेजना के अजीब शिखर पर पहुँचकर कह रही है, जैसे वह ख़ुद ब्रेकिंग न्यूज़ रिपोर्टर हो। 

“डूब गया?” मैं नंदिता से पूछ रहा हूँ। 

“हाँ, आज सुबह मिला है उसका शव, उसके पर्स में मिले पहचान-पत्र से पता चला उसका नाम और ऑफ़िस का ठिकाना। उसके साथ एक और लाश मिली है।” 

“और एक?” 

“हाँ। एक युवती की।” 

“युवती की?” 

नंदिता एक तरह से घृणा भरे स्वर में कहती है, “चैनल वालों को उस युवती का नाम और परिचय पता नहीं चला है? आपके ऑफ़िस से तो कोई नहीं हैं?” 

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