उसका जाना

22-02-2014

बेला हैरान थी, माँ को यूँ जार-जार रोते उसने कभी नहीं देखा था। कभी-कभी घर के कोनों में छुप कर माँ सुबक तो लेती थी पर इस तरह किसी अजनबी के सामने ऐसे जार-जार रोना? बेला कुछ घबरा गई थी और शर्मिन्दा भी थी। डाक्टर नैंसी माँ के कंधे पर हाथ रखे साथ रखी कुर्सी पर चुपचाप बैठी हुईं थी। उसने प्रश्नवाचक निगाहों से डाक्टर की ओर देखा और अंग्रज़ी में पूछा, व्हाट हैप्प्न्ड"(क्या हुआ)?" डाक्टर हल्के से सिर हिला कर कुछ बुदबुदाईं जो उसे समझ नहीं आया। फिर डाक्टर ने उस से कहा, "कैन यू गैट हर ए ग्लास ऑफ वाटर (क्या तुम इनके लिये एक गिलास पानी ला सकती हो?)" वह माँ की ओर देखती हुई उठ खड़ी हुई। सही बात है, इस तरह माँ को रोते हुए देखते रहने से तो कुछ होगा नहीं, माँ बता भी नहीं रहीं कि बात क्या है? वह इसी उधेड़बुन में कमरे के बाहर आ गई। पानी का कूलर अगली मंज़िल पर है, यह उसे पता था। पता नहीं इस मंज़िल पर है कि नहीं, किसी से कुछ पूछने की कोई इच्छा उसमें नहीं थी सो गलियारे से घूम कर वह सीढ़ियों की ओर बढ़ने लगी।

बात क्या हो गई माँ के साथ, मन वहीं भटक रहा था। उसके कदम आगे बढ़ रहे थे और मन घटनाओं की लंबी कड़ी में एकदम पीछे जाकर माँ के रोने का कारण ढूँढ लाना चाहता था।

जब से वे लोग अपना गाँव छोड़ कर यहाँ कनाडा में मामा के पास रहने आये हैं, तब से बेला एक दम बड़ी हो गई है। तीन साल पहले की ही तो बात है, वे, उसके दो छोटे भाई और पिताजी सब चहकते हुए पीयरसन एयरपोर्ट उतरे थे, माँ बार-बार एयरपोर्ट का नाम भूल कर कहती, "तो चन्दर का घर पीहर से कितनी दूर है", शुरू में तो पिताजी ने एकाध बार समझाया, "पीहर नहीं, पियरसन, ठीक से बोल, विदेस जा रही है और बोलने का शऊर नहीं" माँ एक सैकंड को तो झि़ड़की खा कर चुप रह गई फिर इठला कर बोली थी पीहर ही तो जा रही हूँ तो सही तो बोला"।

मामा जब पिछ्ली बार गाँव आया था तो सब पर अपने रुपयों का खूब रुआब डाल गया था, यूँ तो कोई ख़ास चीज़ें नहीं लाया था पर गाँव में तो विदेश की छोटी-मोटी चीज़ें ही बड़ी बन जाती हैं, फिर आया भी तो पहली बार था, सात साल बाद। नानी के गुज़रने पर। नानी हर समय "मेरा चंदर, चंदरिया रे...." ही करती रहतीं। माँ तब तो मामा को खूब गालियाँ निकालती कि कब का गया, लौट के माँ, बहनों की खबर भी नहीं ली पर जब मामा ने गाँव आ कर नानी के कारज के लिये माँ के हाथ पर मोटी गड्डी रख कर कहा कि "बहना तू ही सब संभाल, मैं तो अनाड़ी हूँ इन कामों मे", तो माँ गदगद हो गई। जो मिला, उसी को सुनाती फिरी कि भाई को कितना विश्वास है उस पर। माँ चार भाई-बहनों में सब से बड़ी, मामा सबसे छोटा बीच में दो मौसियाँ जो कुछ दूर के गाँवों में ब्याही थीं। माँ अपने ही गाँव में ब्याह गई और इससे नानी-नाना को सहारा हो गया। सात साल पहले जब नाना चल बसे तब मामा २१ साल का था, जाने कहाँ से खबर लाया कि उसके दोस्त की बड़ी कंपनी है कनाडा में, वो वहीं जाकर चार पैसे कमा कर लायेगा। नाना के जाने के बाद घर में परेशानी तो थी ही, मामा भी नौकरी ढूँढ- ढूँढ कर थक गया था। थोड़ी ना नुकुर के बाद नानी मान गई पर मामा के जाने के तुरंत बाद से ही नानी ने उसे याद करना शुरू कर दिया था। जब मामा गया था तब वह पाँच साल की थी, बड़े होते में उसने मामा के बहुत से कहानी किस्से नानी से सुने और बहुत कुछ माँ से, माँ का कहा नानी के कहे से अलग होता था। उसके मन में मामा की तस्वीर विरोधी रंगों से बनी, इसलिये जब मामा आया तो वह तय नहीं कर पाई कि उसे वह नीना, बिन्दी और चमेली की तरह अपना "मामा" मान सकती है या नहीं। उसकी ये बाकी की सहेलियाँ तो मामा की साइकिल पर चढ़ कर मेले हो आतीं, चाट-पकौड़ी के लिये ज़िद्द करतीं और राखी पर तो माँ के साथ उनके मामा उनके लिये भी नई फ्रॉकें ले आते। यूँ कहने को तो उसके मामा ने भी उसे रुपये दिये थे कि जाकर वह अपने लिये खिलौना ले ले पर वह कहाँ अब खिलौंनो से खेलती है। जब से चुन्नू और बंटी आये हैं, उसके पास जो दो चार खिलौने थे, वे भी उनके हो गये थे और जब से वे लोग यहाँ कनाडा आये, तब से तो पूछो ही नहीं, चुन्नू और बंटी भी अपने खिलौने भूल कर सारा-सारा दिन बस टी.वी. से ही चिपके रहते थे।

गाँव से वापस लौटने से पहले पता नहीं पिताजी और मामा में क्या खिचड़ी पकी कि वे लोग साल बीतते न बीतते अपना बोरिया-बिस्तर बाँधते नज़र आये। माँ पिताजी के इस निर्णय से पहले तो घबराईं थी, कम से कम गाँव में सब पहचान के तो लोग हैं और वहाँ इतनी दूर, अनजान जगह में किसके साथ बात करेगी, किसके साथ मंडी जायेगी खरीदारी करने, किसके साथ त्योहार, व्रत पूजेगी? माँ बार-बार घबरा जाती थी। इसी गाँव में पली-बढ़ी, इसी गाँव में शादी हुई, यहाँ से बस एक बार बाहर गई थी, किसी दूर जगह रेल में, समुद्र देखने, माँ बताती है उसे, पर माँ की उस कहानी में न वो जगहों के नाम ठीक से जान पाती है न समय बस यह जानती है कि माँ को बहुत अच्छा लगा था जब समुद्र से उठती हवा ने माँ के गाल सहला दिये थे और माँ, पिताजी के दसियों बार चलने को कहने के बाद भी कई घंटे बालू में धँसी बैठी रह गई थी। माँ उसे साल में एक-दो बार तो यह किस्सा सुना ही देती थी कि पिताजी कहते रहे "अब चलो लीला, देर हो रही है" पर माँ जब उठती, पैर बालू में ऐसे धँसते कि उसे लगता कि समुंदर उसके पैर पकड़ कर रोक रहा है कि "लीला न जा, अब की गई न जाने कब आयेगी" और माँ वहीं धम से बैठ जाती। ऐसा दो तीन बार हुआ, पिताजी गुस्साने लगे कि तुम बार-बार बैठ क्यों जाती हो तो माँ बताती हैं कि माँ को बड़ी लाज आई पर माँ ने धीरे से पिताजी से कहा "समुंदर जाने नहीं दे रहा जी, पैर पकड़ता है"। पिताजी खूब हो-हो करके हँसे और माँ को हाथ पकड़ कर खींच कर ले जाते हुए बोले थे "कह दे समुंदर से, लीला को वंशीधर ले गया"। ऐसे ही तो हाथ पकड़ कर लगभग खींचते हुए माँ को हवाई जहाज तक लाना पड़ा था और फिर एयरपोर्ट पर भी पिताजी माँ का हाथ पकड़े रहे थे और बेला, चुन्नू और बंटी का। सब कुछ नया और अनजान। वे बच्चे तो खूब हैरान थे सब कुछ देख कर पर माँ लगभग रुँआसी थी बस एक बार पीहर एयरपोर्ट का नाम सुन कर चहकी थी फिर चुप। माँ तब भी चुप रही थी जब उनके आने के बाद महीना बीतते न बीतते मामी ने उनसे अलग घर लेने को कहा था। यह बात भी बहुत प्यार से कही थी मामी ने। मामी से वे लोग यहीं आकर मिले थे। माँ जहाज में बैठी मंसूबे बना रही थी कि अपने भाई को कौन से पराँठे खिलाऊँगी, बिचारा घर के बने खाने को तरस गया होगा। नानी बिचारी मामा के ब्याह को तरसती चली गई। माँ ने भी कहा था उससे कि अब जल्दी लौट के आ तो तेरा ब्याह कर दें, यह न सोच कि माँ नहीं है, बड़ी बहन भी तो माँ जैसी होती है, उस हिसाब से तो तेरी तीन माँएँ बैठी हैं मामा फीकी सी हँसी हँस दिया था। एयरपोर्ट पर मामा उनसे खुश हो कर मिला था पर कुछ चुप भी था। माँ ने पूछा था "चंदर, परेशान लग रहे हो, सब ठीक तो है न" मामा ने बोला था, काम पर कुछ गड़बड़ चल रही है सो इसी मारे, उनको घर छोड़ कर थोड़ी देर में ही उसे जाना पड़ेगा। घर पहुँचने पर जब उस औरत ने दरवाज़ा खोला था तो माँ हैरान, पलट कर पूछने पर मामा ने बोला "तेरी बहू है" और उनका समान लेकर सीधा अंदर चला गया था। मामी "पैरी पौना जी" कर रही थी और माँ आसमान से गिरी वाली हालत में खड़ी थी। सब अंदर आ गये तो मामी ने हम बच्चों से खूब प्यार से बातें करनी शुरू कर दी थीं। मेज़ पर गरम-गरम पूड़ियाँ, छोले, पनीर सजा हुआ था। माँ ने कैसे खाना खाया, उसे पता नहीं पर वो, चुन्नू और बंटी तो खाने पर टूट पड़े थे और फिर नरम-नरम बिस्तरों पर गिरे और झट सो गये थे।

पर वो बात तो पहले दिन की थी अब तो तीन साल होने को आये, अब तो सोना, जगना, उसे पता ही नहीं चलता। मामी यूँ तो ठीक थी पर माँ को कभी पसंद नहीं आई। माँ तब से बहुत चुप रहने लगी थी। नई जगह, सब गिटपिट अंग्रेज़ी में बोलते दिखते, उन पाँचों को भी समझ नहीं आता कि किसी से क्या बात करें। मामा-मामी सुबह से काम पर चले जाते और वे सारे पीछे दिन भर घर पर रह जाते। माँ को कुछ समझ न आता कि वो यहाँ क्या करे। बेला को तो फिर भी कुछ शब्द अंग्रेज़ी के बोलने आते थे सो वह टी.वी के प्रोग्राम थोड़े-बहुत समझ लेती पर माँ को कुछ समझ न आता बार-बार पूछती अब क्या हो रहा है, इसने क्या कहा, वो गुस्सा क्यों दिखा रहा है, माँ इतने सवाल पूछती कि टी.वी. देखने का सारा मज़ा ही खत्म कर देती, चुन्नू-बंटी का भी वही हाल था। खैर हफ्ते बाद, मामा ने पिताजी को एक ड्राइविंग स्कूल में दाखिल करा दिया और छ: महीनों में पिताजी एक ट्रक ड्राइवर के क्लीनर या असिस्टेंट ड्राइवर हो गये।

गाँव में पिताजी की गिनती कुछ पढ़े-लिखे लोगों में होती थी, पास के शहर की एक दवाई बनाने वाली कम्पनी में पिताजी दफ्तर में काम करते थे। क्या करते थे, यह तो उसे पता नहीं पर वह सुनती थी कि इतने सालों की नौकरी के बाद पिताजी की तरक्की हो गई थी और उनके नीचे आठ लोग काम करते थे। पिताजी इस्त्री करी हुई कमीज़-पैंट पहन के जाते, माँ बहुत प्यार और गर्व से उनके कपड़े संभाला करती, उनका खाने डिब्बा बनाती। उसे याद है कि उन बच्चों को कोई चीज़ मिले या न मिले, माँ पिताजी के लिये ज़रूर बचा कर रखती। यहाँ आकर पिताजी ट्रक ड्राइवर के क्लीनर या कह लो असिस्टेंट हो गये। वे हरे रंग की वर्दी पहनते और अक्सर ५-६ दिन को ड्राइवर के साथ दूर-दूर चले जाते। वे गुस्से वाले तो पहले से ही थे, अब यहाँ के नये जीवन के आदी होने में उन्हें समय लग रहा था सो और चिढ़े रहते थे। दर असल वे जो भी करने की कोशिश करते उसमें या तो पैसों की कमी आड़े आ जाती या फिर उनकी अंग्रेज़ी की जानकारी की कमी। किसी से कुछ पूछें तो वो ऐसी दसियों चीज़े बताने लगता कि पिताजी घबरा ही जाते कि वो स्कूल कैसे जायेंगे, एक तो उम्र की बात और फिर हर कोर्स में पैसा लगता है, वो स्कूल जायें तो पीछे कमायेगा कौन? सो बस यही करते-सोचते-सुनते उनकी हालत यह हो गई थी कि कोई कुछ बोले तो जैसे खाने को दौड़ते। माँ नौकरी या जगह के बारे में कुछ पूछ भर ले तो उसकी आफत ही आ जाती, तुरंत ताने और गालियाँ शुरू कर देते, "तेरा भाई है, सपने दिखा कर लाया था, यहाँ ट्रक का क्लीनर हूँ मैं, वहाँ आठ-आठ लोग सलाम ठोंकते थे, यहाँ मैं उस ड्राइवर की बातें सुनता हूँ। क्या साली ज़िंदगी बनाई है मेरे साले ने?" कभी हो-हो कर के हँसने लगते- "साले की साली ज़िंदगी, पूछ, क्या पूछ रही थी?" माँ तो घबरा कर और भी चुप हो जाती कि कहीं भाई के बारे में और कुछ उल्टा-पुल्टा न सुनना पड़े पर बेला का मन करता था कि पूछे कि आप ही तो घसीट कर लाये हो माँ को, उसने कब कहा था कि आओ यहाँ, वो बिचारी तो पहले ही डरती रहती थी, जब माँ आने के लिये मना कर रही थी तो पिताजी कहते, "क्यों भाई की चिन्ता है तुझे कि कहीं उसके पैसे न खर्च न हो जायें या तुझे यह लगता है कि कहीं मैं भी तेरे भाई के जैसे अमीर न हो जाऊँ"। बेला पिताजी को समझ नहीं पाती थी, कभी इतना प्यार दिखाएँगे कि त्यौहार न होने पर भी सबकी पसंद की चीज़ें ले आते थे तो कभी इतना गुस्सा कि उनके सामने आने पर भी डर लगता था। माँ कहती थी कि बुआ-दादी उन्हें तंग करे रखती हैं। बड़ों की बातें तो बड़े ही जाने पर बेला को तो नहीं लगा कि बुआ-दादी पिताजी को तंग कर रही हैं, वो तो पिताजी को उनकी मन पसंद ची़ज़ें बना कर देतीं थीं, माँ कहती थी, यही तो चाल है उनकी ! पैसे माँगने की चाल !! पता नहीं सच क्या था पर पिताजी वहाँ पर ज़्यादा अच्छे लगते थे, यहाँ आने के बाद तो कभी ठीक से हँसे भी नहीं, चुन्नू और बंटी के साथ भी नहीं। माँ को कहीं साथ ले कर भी नहीं जाते, बेला को ही माँ के साथ बाज़ार जाना पड़ता है, डॉक्टर के यहाँ लाना पड़ता है। बेला को ही माँ की बातों को अंग्रेज़ी में और लोगों की अंग्रेज़ी की बातों को हिन्दी में बताना पड़ता है। बेला बहुत झुँझलाती है जब उसे अपना होमवर्क छोड़ कर जाना पड़ता है। वह भी सीख रही है सब, उसे भी बहुत पढ़ना पड़ता है ऊपर से ई.एस.एल की क्लासें, फिर चुन्नू-बंटी को पढ़ाना। पिताजी कहाँ कुछ करते हैं, जब ट्रक पर नहीं होते तो सोते हैं या पीते हैं। आज भी तो घर पर बैठे पी रहे थे बेला ने डरते-डरते कहा था, "माँ को डाक्टर के पास ले कर जाना है, आप ले जायेंगे?" 

रूखी आवाज़ में पूछा था उन्होंने, "क्या बात है?"

"बुखार आ रहा है दस दिन से?"

"तो पहले क्यों नहीं दिखाया, सब काम क्या मैं ही आकर करूँगा, तब होंगे? तुम लोग घर पर बैठे हो तब भी कुछ नहीं होता, बाप तो साला नौकर है, बाहर की गाड़ी भी खींचे और घर का कोल्हू भी चलाये?..."

वे और कुछ और बोलते कि बेला ने चट से कहा था, "ठीक है मैं ले जाती हूँ"।

पिताजी कुछ शान्त पड़े पर चलते-चलते एक जुमला तो जोड़ ही दिया था "तेरी माँ खुद कुछ क्यों नहीं करती, यहाँ भाई के देश में आकर साली रानी बनी फिरती है, न काम की न काज की, ढाई मन अनाज की"।

बेला चाहती थी कि माँ न सुने पर माँ ने यह बात सुन ही ली थी। आँखें भर आईं थीं उसकी, बुखार में तपता मुँह लाल हो गया था, बस इतना ही बेला से कहा था उसने रास्ते में, "तू सुनती नहीं हैं न, मैंने मना किया था कि मुझे डाक्टर के पास नहीं जाना" फिर हाँफती हुई सी चुप हो गई थी और अब यहाँ आकर रोई जा रही है।

पानी लेकर बेला लौटी तो माँ का रोना सुबकियों में बदल गया था। पानी पीकर माँ कुछ शान्त हुई और डाक्टर की ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखने लगी। डाक्टर का हाथ अभी भी उसके कंधे पर था। डाक्टर ने कहा कि बेला अगले हफ्ते माँ को फिर लेकर आये क्यों कि कुछ टैस्ट करने हैं पर अगली बार डाक्टर ट्रांसलेटर का का प्रबंध कर के रखेगी। बेला ने जानना चाहा कि ऐसा क्या हो गया कि वह माँ के लिये अनुवादक का काम नहीं कर सकती। पर डॉक्टर का कहना था कि बेला अभी केवल १५ साल की है और नाबालिग होने के कारण वह माँ की बीमारी के बारे में उस से बात नहीं कर सकती। यह सुनकर बेला घबरा गई थी। डॉक्टर से उसने लगभग फुसफुसा कर रुँधी आवाज़ में पूछा, "माँ को क्या हुआ है डॉक्टर?" डॉक्टर ने मुस्कुरा कर कहा था, "डोन्ट वरी, वी हैव टू डू सम टैस्ट एंड आस्क हर सम कोश्चन्स (चिन्ता मत करो, हमें केवल कुछ टैस्ट करने है और कुछ सवाल पूछने हैं?"। बेला ने पूछा था, "क्या वह अपने पिताजी को साथ लेकर आये?" इससे पहले कि डॉक्टर कुछ जबाब दे लीला ने सिर हिला कर मना करना शुरू कर दिया था।

घर लौट कर आने पर पिताजी ने बस इतना पूछा, "क्या कहा डॉक्टर ने?" 

"अगले हफ्ते बुलाया है कुछ टैस्ट करने को" बेला ने इतना ही कहा था, माँ दरवाज़े की आड़ से जाते-जाते मना कर रही थी कि वह और कुछ न बोले।

"इन डॉक्टरों को अपना कोटा पूरा करना होता है और क्या, कोई न कोई बात बना कर बस मरीज़ को लटकाये रखो, समय देकर बुलायेंगे और फिर घंटा भर बाहर बैठायेंगे, साले इतना पैसा लेते हैं सरकार से और काम ऐसे करेंगे.." पिताजी के भाषण को और नहीं सुन पा रही थी बेला, झट बीच में ही बोली, "चाय पियेंगे आप, माँ के लिये बना रही हूँ।"

पिताजी चाय का नाम सुन कर बोलते-बोलते रुक गये, बोले, "खाने को क्या है?"

बेला का मन आया, चीख कर कहे "हमारा सिर, जो आप जब-तब खाते ही रहते हो" पर वह कुछ बुदबुदा के रह गयी। पिताजी ज़ोर से गरजते हुए बोले, "इस घर में कुछ खाने को मिलेगा या नहीं? साला मैं कमा-कमा कर यहाँ मरा जा रहा हूँ और मुझे ही दो रोटी खिलाने में तुम्हें मौत आती है।"

माँ इस बीच झपटती हुई आई थी रसोई की तरफ, "अभी देती हूँ जी।"

बेला को यह देख कर गुस्सा चढ़ रहा था। माँ का बुखार आने-जाने से बढ़ गया था। बस स्टैंड से घर तक चल कर आने में तो उसे चक्कर आ रहे थे, और अब वह रसोई में खड़ी होगी। बेला से बर्दाश्त नहीं हो रहा था, उससे पहले कि वह कुछ बोले, माँ उसका हाथ पकड़ कर लगभग खींचते हुए रसोई में ले आई।

"क्या है माँ, तुम क्या मर जाना चाहती हो? बुखार पता है कितना है," बेला ज़ोर से झुँझला उठी।

माँ का चेहरा रुँआसा था, लगभग हाथ जोड़ते हुए बोली, "बेला मैं तेरे सामने हाथ जोडूँ जो इस समय अपने बापू से कुछ बोली। मैं इनका चिल्लाना नहीं बर्दाश्त कर सकती। मेरा बुखार इनके चिल्लाने से और बढ़ जायेगा। जा, फ्रिज से आटा ले आ, मैं इनके लिये परौंठी बना देती हूँ, रात की सब्जी भी रखी होगी। जा मेरी बच्ची," माँ चुमकारते हुए. मनौवल के से स्वर में बोली।

बेला अपनी उमर से कितनी बड़ी हो गई है, वह शायद खुद भी नहीं जानती । जब से इस किराये के बेसमेंट में आये हैं तब से तो उसकी ज़िम्मेदारियाँ और भी बढ़ गईं हैं । मामा का घर छोड़े दो साल होने को आये, यूँ तो मामी ने एक महीने के बाद ही कहना शुरू कर दिया था पर मामा शायद आँख की लाज के चलते अपने बेरोज़गार जीजा, बहन और उनके तीन बच्चों को तुरंत बाहर नहीं कर पाया था। जैसे ही बापू की यह क्लीनर की नौकरी लगी, उन्होंने दो कमरे का यह छोटा सा बेसमेंट किराये पर ले लिया था। मामा पिछले दो साल में पाँच बार यहाँ आया और मामी दो बार, एक बार जिस दिन वे लोग इस घर में आये थे और दूसरा राखी पर। माँ ने बुलाया था, अच्छा था कि पिताजी ट्रक ले कर हफ्ते भर को गये हुए थे, वे लोग आये और चुपचाप राखी बँधा कर, थोड़ा मीठा खा कर चले गये थे। माँ ने कितना खाना बना कर रखा था, वह छुआ भी नहीं, कह दिया उन्हें किसी और के घर भी जाना है, मामा की मुँहबोली बहन के घर। माँ फूट-फूट के रो दी थीं, इतने सालों में पहली बार वे भाई को राखी बाँध पाईं थीं पर भाई ने क्या किया था? बेला ने जब पूछा था, "क्या हुआ" तो माँ बेला को चिपटा के रो पड़ी थीं और बोली थीं, "बेला बता मैं क्या करूँ, मैं तो दोनों तरफ से गई। सुसराल भी छूटी और मायका भी नहीं मिला। तेरे पिताजी का जो हाल है, वह तू जानती है और तेरा मामा जैसा है, तू वो भी देख रहीं है। बस भगवान से यही मनाती हूँ कि तेरी ज़िंदगी ऐसी न हो"। वह माँ को क्या समझाती, वह भी बात की गहराई कहाँ समझ पाई थी, बस इतना ही कहा था, "मामा ने नहीं खाया खाना तो क्या, माँ, मेरे दोनों भाई तो तैयार बैठे हैं खाने पर टूट पड़ने को, हमें खिलाओ न?" माँ ने उन तीनों को देखा था और आँसू पोंछ लिये। चुन्नू और बंटी उदास से खड़े माँ को देखा रहे थे। माँ ने मुस्कुरा कर उन दोनों को भी खींच कर गले से लगा लिया था और वे चारों एक दूसरे से बँधे कुछ देर तक खड़े रहे थे। उस दिन कुछ ऐसा घटा था जिसने उन चारों को बहुत पास ला दिया था। कनाडा आने और बापू के ऐसे हो जाने से उन सब के मनों में जो कुछ अकेले-अकेले घट रहा था, बिना शब्दों के ही उन्होंने आपस में साँझा कर लिया था। बेला तो मानो माँ का दाहिना हाथ बन गई थी, काम तो वह पहले भी करती थी घर के पर ठुनठुनाती ज़्यादा थी पर अब वह चुपचाप सब काम कर देती और ध्यान देती कि माँ को कोई तकलीफ न हो, उसने चुपचाप माँ को ई.ऐस.एल. (ईंग्लिश..लर्निंग) क्लासों में भी डाल दिया था ताकि माँ अपने आप भी लोगों से बात कर सके। उधर चुन्नू और बंटी भी अब पहले के जैसे ज़िद्द नहीं करते और बेला और माँ की बात जल्दी मान जाते। उस दिन चारों ने एकसाथ बैठ कर खाना खाया था। माँ ने मामा के लिये खास चीज़ें बनाईं थीं सो सबने बढ़िया खाना बहुत दिनों के बाद खाया था। माँ कभी-कभी किलस जाती थी, "वहाँ तो कभी ध्यान नहीं रखा कि कौन कितना दूध पी रहा है और कितने फल खा रहा है, यहाँ एक-एक पैसे का हिसाब लगाते रहो, खाने-पीने का सारा शौक ही मर गया है।" खैर, उस दिन खाने के बाद माँ ने उनसे वादा किया था कि वह कोशिश करेगी कि उनको अच्छा खाना खिलाया करे और डाँटा न करे पर उन लोगों को भी ध्यान रखना पड़ेगा कि वो कभी फेल न हों, और मेहनत करें, साथ ही माँ का, घर का ध्यान रख कर चलें। 

कितना अच्छा चलने लगा था पिछले तीन महीनों से सब। घर में शाँति रहती, बस जब बापू आते तभी चिल्लाने, चीखने की आवाज़ें आने लगती। बापू पीने भी लगे थे और माँ को मारने भी। उसे याद है कि एक महीने पहले जब वे लौटे थे तो ज़्यादा खुश नज़र आ रहे थे, उन तीनों को बुला कर उनके स्कूल के बारे में पूछा था, ऐसा बहुत महीनों के बाद हुआ था। वे लोग भी खुश थे, शाम को पहली बार वो सब को टिम-हार्टन ले कर गये थे और सबको डोनट खिलाये थे, माँ को ज़बरदस्ती कर के कॉफी पिलाई थी। माँ को कॉफी पसंद नहीं पर बापू मानें नहीं, माँ हर घूँट पर मुँह बनाती और बापू हँसते, कितने दिनों बाद बापू को हँसते देखा था, कितना अच्छा लग रहा था। पर उसी रात को बापू की गरज़दार आवाज़ सुन कर वो उठ गई थी, माँ, बापू के कमरे से आवाज़ें आ रहीं थी, वो कुछ समझ पाती कि धाड़ से आवाज़ आई जैसे कुछ ज़ोर से गिरा हो। वो बिस्तर से कूद कर माँ के कमरे की तरफ भागी, दरवाज़ा बंद नहीं था। "माँ! बापू!" कहती वो कमरे में घुस गई। देखा, माँ मेज़ के पास नीचे ज़मीन पर पड़ी है, बापू पास खड़े लाल आँखें किये, उसे पैर से मार रहे हैं। "माँ" चिल्ला कर वो माँ के ऊपर झुक जाना चाहती थी कि बापू ने उसे बालों से पकड़ कर सीधा खड़ा सा कर दिया और चिल्ला कर बोले, "सीधे अपने कमरे में चली जा वरना तेरा भी वही हाल करूँगा"। माँ झपटती सी उठ खड़ी हुई और उसके बालों को बापू के हाथों से छुड़ाती हुई बोली, "जा बेटी, तुरंत चली जा", वह माँ की हालत देख कर सकते में आ गयी थी। माँ ब्लाउज़-पेटिकोट में आधी उघड़ी सी खड़ी थी। उसने आहत नज़रों से माँ को देखा, "और माँ, तुम?" माँ जैसे कुछ सुनने, समझाने को तैयार नहीं थीं, तेज़ आवाज़ में बोली, "तू जा, कहा न!" वह माँ को देखती हुई कमरे से बाहर भाग आई थी। पीछे बापू की आवाज़ आई थी, "और किसी को बुला ले अपनी पैरवी करने को, कहाँ छुपा बैठा है तेरा यार, उसे भी बुला ले, साली, हरामज़ादी मुझे मना करती है" और फिर एक धाड़ की आवाज़। बेला ने अपने कमरे का दरवाज़ा धड़ाक से बंद कर लिया था। उसका दिल इतनी ज़ोर से धड़क रहा था कि लगता था उछल कर बाहर ही आ जायेगा। बापू का यह रूप तो उसने कभी नहीं देखा था, चिल्लाते तो थे वो पर मारते तो उसने आज पहली बार देखा था, "क्यों आये वो यहाँ", अपने गाँव में अच्छे खासे चैन से थे, हाँ, वहाँ रुपये-पैसे की कुछ तंगी ज़रूर थी पर वो क्या यहाँ आकर ठीक हो गई है? वहाँ माँ को बापू ने कभी नहीं मारा था, शराब भी इतनी कभी नहीं पी थी, कभी-कभार ही बापू पीते थे पर यहाँ आकर तो जैसे बापू बिल्कुल ही बदल गये हैं। एक-एक पैसे को गिनते हैं, माँ से एक-एक पैसे का हिसाब लेते हैं, कितनी बार तो माँ के पास डबलरोटी खरीदने के लिये पैसे नहीं होते, जबकि वहाँ पास के जग्गू के बेकरी से पाँच रुपये में इतनी बड़ी डबलरोटी ले आते थे वे लोग, "क्यों आये हैं वो यहाँ?" बेला तकिये में मुँह डाल कर फफक कर रो दी थी। उसके बाद से तो यह सिलसिला बन गया था कि जब बापू आते तो माँ की पिटाई एक–दो बार होती ही थी। एक दो बार तो चुन्नू-बंटी भी उठ बैठे, बंटी ने अगले दिन माँ के नील पड़े गाल को देख कर कहा था "बापू से कह दो माँ कि वो यहाँ न आया करे।" एक बार मकान मालिक ने भी आकर पूछा था कि रात को आवाज़ें क्यों आ रहीं थीं, माँ ने बेला के माध्यम से ही बहाना कर दिया था कि वह अँधेरे मे गिर पड़ी थी, कि उसकी नज़र कमज़ोर हो गई है।

उस दिन डॉक्टर की बातचीत ने बेला को बहुत गंभीर कर दिया था। माँ को क्या हुआ है कि वह डॉक्टर से बात नहीं कर सकती, कोई अजनबी आदमी आकर माँ से बात करेगा। आज तक तो बेला ही माँ के सब काम करती आई है, सब्जी लाने से लेकर सैनिटरी नैपकिन खरीदने तक में माँ को उसका साथ चाहिये। वह पंद्रह की है, दसवीं क्लास में, "हैल्थ एजुकेशन" पढ़ कर वह ऐसी काफी बातें जान चुकी है जिसके बारे में उसे पहले कुछ पता नहीं था बस गाँव की बड़ी लड़कियों के हँसी-ठठ्ठे के कारण कौतुहल ज़रूर था। वह डॉक्टर से उस दिन कहना चाहती थी कि उसे बहुत कुछ पता है, वे उसे छोटा न समझें पर वह कह नहीं सकी और अब चिन्ता, दुविधा, जिज्ञासा के कारण वह किसी काम में ठीक से मन नहीं लगा पा रही है। दो-चार बार उसने माँ से भी पूछा कि "क्या बात है, तुम्हें क्या हुआ है?" पर माँ खुद बहुत अनमनी थी, परेशान थी कि डॉक्टर ने दुबारा क्यों बुलाया है और बेला की जगह कोई और उसकी बात डॉक्टर से कहेगा पर उसे यह भी लगता था कि वह बेला को अपनी तकलीफ कैसे कहेगी। बुखार चार दिन में बिल्कुल टूटा नहीं। बापू ऐसी हालत में ही उन सब को छोड़ कर चला गये थे, माँ ने कहा कि यह अच्छा ही हुआ कि वह चले गये नही तो माँ को और बहुत कुछ अपनी बीमारी को लेकर सुनना पड़ता। शुक्रवार को माँ को डॉक्टर के पास लेकर जाना था, बेला ने छुट्टी ले ली थी। माँ बहुत मना करती रही कि वह बस लेकर चली जायेगी पर बेला को पता था कि माँ अब भी किसी से कुछ पूछ नहीं पाती, कह नहीं पाती। माँ को बुरा लगता कि बेला पर कम उम्र में ही बहुत सी ज़िम्मेदारियाँ पड़ गई हैं और उसके बच्चे इन हालातों से गुज़र रहे हैं, लोग तो कहते थे कि तुम्हारे बच्चों के तो भाग खुल गये कि वो कनाडा जा रहे हैं, उनकी ज़िंदगी बन जायेगी, क्या यही ज़िंदगी बनाने के लिये वे बच्चों को लेकर यहाँ आये हैं? पर क्या करे लीला भी, किसी के सामने कुछ बोलने की हिम्मत ही नहीं पड़ती, ऐसा नहीं कि वो हमेशा से ऐसी है पर यहाँ जिस दिन से चंदर की उस बीबी को देखा, फिर चंदर का व्यवहार, उसकी बीबी की बातें, इनकी नौकरी की मुश्किल और अब इनका ऐसा बर्ताव, मारना-पीटना, लीला पिछले दो साल में चुप होती चली गई है। ई.ऐस.ऐल. की क्लासें भी पढ़ीं, समझ भी लेती है पर कुछ बोल नहीं पाती। लोग समझते हैं कि भाषा की समस्या है पर वह जानती है कि यह भाषा की नहीं उसकी मन की परेशानी है जिसे वह किसी से नहीं बाँट सकती। न कोई सहेली, न कोई हमदर्द, एक भाई था वह भी पराया हो गया, अच्छा-खासा पति था, वह हैवान हो गया, वो जाये तो कहाँ जाये, करे तो क्या करे? उसे अपनी जिज्जी की बहुत याद आती। जिज्जी उसकी जेठानी थी और बड़ी बहन भी। लोग कहते थे कि बहुओं में आपस में लड़ाई होती है पर उसके और जिज्जी के बीच कभी ऐसा नहीं हुआ। यहाँ आते समय उसे अपनी बहनों से भी ज़्यादा दुख जिज्जी से बिछड़ने का था, किस से वह मन की बात कहेगी और कौन उसे हिम्मत बँधायेगा। उसके यहाँ आते समय हिम्मती जिज्जी भी रो पड़ी थी, "छोटी, अपना ध्यान रखियो"। उन की याद करके लीला का दिल में अक्सर हौल सा उठता "हाय, जिज्जी मैं किस से कहूँ कि मेरी गृहस्थी कैसे बिगड़ गई है और मेरा ही क्या हाल हो गया है।" हर रात लीला के आँखों में नींद से पहले आँसू आते।

डॉक्टर के यहाँ पहुँचने पर उसे सब से पहले बुला लिया गया। खून की जाँच के लिये परचा देकर डॉक्टर ने नीचे की लैब में भेज दिया और दो घंटे बाद फिर आने को कहा। इन दो घंटों में वे बाहर घूमते रहे। लीला को बुखार था पर चिन्ता उस से कहीं ज़्यादा थी। बेला ने दो-तीन बार कहा, "चलो टिम हार्टन में बैठते हैं तुम चाय पी लेना, पर लीला इच्छा होने पर भी नहीं जाना चाहती थी। वंशीधर उसे केवल २० डॉलर देकर गया था, यह भी पता नहीं था कि कब आयेगा और वह जानती है कि आने पर एक-एक पाई का हिसाब वह करता था और फिर चिल्लाता था। कौन यह सब झेले? बेला को गुस्सा भी आया "तो तुम ऐसे ही तबियत ख्रराब में रहो, और तबियत बिगड़ जायेगी तो मर जाओगी, फिर हमें कौन देखेगा? बस बापू से डरती रहना।" बेला पहली बार की उसकी पिटाई के बाद से लीला से जब-तब नाराज़ हो जाती, उसे बुरा लगा था कि जब वह माँ को बचाने जा रही थी तो माँ ने उसका साथ देने के बजाय उसे ही चले जाने को कहा था। खैर, जैसे तैसे दो घंटे बीते और वो लोग वापस डॉक्टर के पास पहुँचे। वहाँ अपनी सी दिखने वाली एक भारतीय महिला और भी खड़ी थीं। बेला को बाहर बैठना पड़ा। माँ उसे कातर आँखों से देखते हुए अंदर चली गई थीं। भीतर क्या चल रहा था, बेला को बहुत देर तक तो सुनाई नहीं दिया, फिर एकदम माँ के बुक्का फाड़ के रोने की आवाज़ आई, बेला घबरा के खड़ी हो गई । माँ कह रही थी, "नहीं, नहीं मैं किसी और के साथ नहीं सोई, ये ही हैं जो....." और फिर रोना....। हिन्दी भाषी महिला की धीर आवाज़ गूँजी, "इलाज तो हो जायेगा इस बीमारी का पर समय लगेगा और इस बीच तुम किसी को हाथ नहीं लगाने दोगी, समझीं, तुम्हारे पति से बात करें, किया-धरा जब उसका है तो उसे भी तो पता चले... जाने और कितनों को बीमार बनाता घूम रहा होगा?" माँ का कातर स्वर उसे रुला गया था, "नहीं, वे तो मुझे मार ही डालेंगे।" बेला हतप्रभ सी खड़ी रह गयी थी।

उस के बाद जो आवाज़ें आई, वह बेला के समझ में नहीं आई। इसके बाद जितने भी मिनट बीते, वह उसे बहुत लंबे लगे। दरवाज़ा खुला तो जिस हिन्दी भाषी महिला ने उसे अन्दर आने को कहा, उसने अपना नाम बताया, "मिसेज़ खुल्लर"। वह अंदर आई तो देखा माँ ज़मीन पर नज़रें गड़ाये कुर्सी पर बैठी है। माँ ने नज़र उठा कर लीला को भी नहीं देखा। डॉक्टर चुप बैठी थीं। उन्होंने बेला को बैठने को कहा। बेला घबराई सी माँ की तरफ देखती हुई बैठ गई। माँ ऐसे बैठी थी जैसे उसने कोई भारी अपराध कर दिया हो। मिसेज़ खुल्लर बोलीं, "तुम्हारी माँ कुछ बोल नहीं रहीं हैं, न ही वे तुम्हारे पिताजी को बुलाना चाहती हैं, न उन्हें अपनी तबियत के बारे में बताना चाहती हैं। हमें लगता है कि यह "घरेलू शोषण" का केस है, हम तो तुम्हारी माँ की मदद करना चाहते हैं, पर यह कुछ बोलती ही नहीं तो क्या किया जा सकता है। पता नहीं हम औरतों को कब समझ आयेगी और कब हम अपने और अपने बच्चों के भविष्य के बारे में सोचेंगे?"

फिर उसकी माँ की तरफ देख कर बोलीं, "मैं तो इन्हें समझा-समझा कर थक गई हूँ, अगर तुम कुछ इन्हें समझा सको और अपने और अपने भाई-बहनों के भविष्य के बारे में चेता सको तो अच्छा है। कुछ कहना चाहें ये, तो मुझे फोन कर देना, फिलहाल तो वापस ही ले जाओ घर और इनका ध्यान रखना"।

बेला बौखलाई सी हो गई, कातर आवाज़ में बोली, "मेरी माँ बच तो जायेंगी न?"

"हाँ, अगर अपना पूरा ध्यान रखें तो, ठीक हो जायेंगी पर यह सब इन पर ही है, कोई और तो इन की जगह इनका ध्यान रख नहीं सकता।"

माँ अभी भी पत्थर के जैसे बैठी थी, बेला असमंजस में कुछ क्षण खड़ी रही फिर पास आ कर कंधे पर हाथ रखती हुई बोली, "उठो माँ, घर चलो"। लीला को उस के हाथ के स्पर्श से जैसे झुरझुरी आ गई। आँखों के कोरों मे दबे दो आँसू जाने कैसे बाहर आ गये, बेला को ऐसी नज़रों से देखती उठकर खड़ी हो गईं, मानों सो कर उठी हो। उठ कर मिसेज़ खुल्लर से बोली, "आप क्या कह रहीं थीं कि मुझॆ कहाँ जगह मिल जायेगी?" 

मिसेज़ खुल्लर जाने के लिये अपना पर्स उठा रहीं थीं, पल भर को ठिठक कर खड़ी हो गईं।

लीला लगभग फुसफुसा कर बोली, "मैं उनसे कुछ नहीं कह पाऊँगी......उन्हें हाथ लगाने से रोक नहीं पाऊँगी।"

मिसेज़ खुल्लर कुछ न समझते हुए बोली, "किसे?"

"बेला के बापू को, और अगर मैं मर गई तो बच्चे सड़क पर आ जायेंगे।" कहते-कहते लीला का गला रुँध गया। फिर पता नहीं किस जोश में आकर वह सिर हिलाने लगी, "नहीं, अब उस घर में तो नहीं रह पाऊँगी, वो कौन सी जगह आप बता रहीं थी जहाँ मैं बिना पैसे दिये भी रह सकती हूँ?"

बेला एकदम हैरान रह गई, बस इतना ही कहा, "माँ!" लीला बेला की तरफ देखते हुए बोली, "बेला, मेरा इतना सा काम कर, कुछ समय अपने भाइयों के साथ उस घर में निकाल ले, मैं बहुत जल्दी आकर तुम तीनों को ले जाऊँगी।" 

बेला "नहीं माँ" कह कर उस से लिपट गई। मिसेज़ खुल्लर ने हैरान खड़ी डॉक्टर को नई स्थिति के बारे में बताया और फिर लीला से कहा, "हम नाबालिग बच्चों को उस घर में अकेले नहीं छोड़ सकते। तुम इस समय तो घर जाओ और अपना सामान तैयार कर लो, मैं तुम सब का इंतज़ाम करती हूँ। तुम्हारा पति क्या इस समय घर पर है? उसका सामना कर पाओगी?"

लीला के कदम उठने को थे, वहीं ठिठक गये। एक क्षण की स्तब्धता के बाद बोली, "जब घर से चले थे तो वो घर पर नहीं थे, पर अगर अब आ भी गये होंगे तो भी वहाँ तो मेरा रहना नहीं ही हो सकता न? आप जगह का इंतज़ाम करके हमें लेने आ जाना। मैं इंतज़ार करूँगी।"

मिसेज़ खुल्लर के मुँह हैरानी से खुला रह गया था, फिर वे खुल कर मुस्कुरा दीं। माँ की तरफ खुशी से लपक कर आधी कौली देते हुए वे बोली, "चूल्हे की आग अब दिल में जला ले लीला, रास्ते के अँधेरे आप ही हट जायेंगे, बस हिम्मत से चली चल आगे।"

बेला अभी भी हैरान थी। डाक्टर माँ को अगली बार आने की तारीख बता आगे निकल आई तो बेला भी माँ को थाम कर चलने को हुई पर लीला ने फीकी मुस्कुराहट के साथ उसका हाथ रोक दिया और उसका हाथ ऐसे पकड़ लिया जैसे वो उसके बचपन में उसका हाथ थामती थी। लीला का हाथ बुखार से जल रहा था पर उसकी चाल में दृढ़ता आ गयी थी।

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