इसी बहाने से - 08 कविता, तू कहाँ-कहाँ रहती है? - 2

31-01-2016

इसी बहाने से - 08 कविता, तू कहाँ-कहाँ रहती है? - 2

डॉ. शैलजा सक्सेना

(विदेशों में हिन्दी)

 

पिछले लेख में मैंने समाज की आधुनिक स्थिति की चर्चा करते हुये प्रश्न उठाये थे कि क्या कविता समाज के प्रगतिशील रूप को सकारात्मक तर्ज़ पर प्रस्तुत कर सकी है? प्राय: कविता पर सत्य से दूर रहने के आरोप लगे हैं; इस आरोप की विवेचना आज की कविताओं की विस्तृत चर्चा द्वारा ही संभव है।

आज हिन्दी कविता केवल भारत की ही नहीं है। वह विदेशों में भी फल-फूल रही है। अनेक देशों में यह कविता अलग-अलग स्वरों में बह रही है और ये स्वर भारत की कविता के स्वर से भिन्न हैं। अत: "कविता के कथ्य" की चर्चा विदेशों में लिखी जाने वाली कविताओं के स्वर की चर्चा के बिना पूर्ण नहीं होगी। दूसरी बात यह भी है कि भारत में हिन्दी की कविता के स्वरूप पर बात करने और उनका विश्लेषण करने वाले बहुत से लेख और बहुत सी पुस्तकें हैं, भले ही इस विश्लेषण का दृष्टिकोण भिन्न है, अत: मेरे लेखों में यह विश्लेषण कुछ समय बाद में भी आये तो कोई परेशानी नहीं है, पर पहले में उन समाजों और उन कवियों की चर्चा करना चाहूँगी जो भारतीय आलोचक और विचारकों की चर्चा के केन्द्र में नहीं हैं पर "आज की हिन्दी कविता" की चर्चा में उनका भी महत्त्वपूर्ण योगदान है और जिनके बिना विश्व हिन्दी साहित्य की चर्चा अधूरी रहेगी।

"हिन्दी राइटर्स गिल्ड" (टोरोंटो, कनाडा में स्थित हिन्दी साहित्य का प्रचार-प्रसार करने वाली संस्था) की पिछली मासिक गोष्ठी में एक नये लेखक भाग लेने आये। उन्होंने जो कविता पढ़ी, उसमें कनाडा में जीवन यापन करने के उनके संघर्ष की कथा थी। कविता में शिल्प की चिंता नहीं थी, स्थिति की विषमता को भावावेग से कहा गया था। कनाडा में आकर नौकरी और घर चलाने की चिंताओं को व्यक्त करने वाली कवितायें पहले भी बहुत से कवियों ने लिखी हैं। विदेशों में जब भारतीय लोग जा कर बसते हैं तो अपने-अपने स्तर पर इस संघर्ष को झेलते हैं। इसके साथ ही इन समाजों की स्थानीय संस्कृति और बहुदेशीय संस्कृति का प्रभाव भी उनके जीवन और विचारों पर पड़ता है पर यह प्रभाव और संघर्ष हर देश में अलग-अलग होता है।

भारत के बाहर लिखॆ जाने वाले साहित्य को भारतीय आलोचकों ने "प्रवासी साहित्य" का नाम दिया है। पर "प्रवासी साहित्य" शब्द भारत से बाहर रचे जा रहे सारे साहित्य को पूरी तरह से व्याख्यायित नहीं करता। हर देश की जीवन शैली, राजनैतिक स्थितियाँ, सामाजिक संदर्भ अलग-अलग होते हैं, अत: वहाँ का साहित्य भी अलग ही होता है। यदि हम विदेशों में रचे जा रहे हिन्दी साहित्य की सही विवेचना करना चाहते हैं तो हमें इस साहित्य को देशों के आधार पर ही देखना चाहिये जैसे, "कनाडा का हिन्दी साहित्य", "अमरीका का हिन्दी साहित्य", "इंग्लैंड का हिन्दी साहित्य" आदि। इसे यदि हम एक शीर्षक के अंतर्गत रखना चाहते हैं तो इसे " भारतेतर हिन्दी साहित्य" कहना अधिक उचित होगा। इस के बाद देशों के अनुसार इसका उपशीर्षक विभाजन हो सकता है। इस विभाजन से इन रचनाओं का विश्लेषण करने में भी आसानी होगी और उस देश विशेष की संस्कृति से इन रचनाओं के संबंध को समझने में भी सहायता मिलेगी। एक न्याय इन कवियों/ साहित्यकारों को भी मिलेगा क्योंकि उनके साहित्य का विश्लेषण अलग-अलग संदर्भों से किया जायेगा।

आज "प्रवासी साहित्य" में उन देशों के नाम ही उभर कर आते हैं जहाँ भारतीय या तो बहुत समय से रह रहे हैं या जहाँ भारतीयों की बहुलता है जैसे मॉरीशस, इंग्लैंड या अमरीका। उन देशों में जहाँ हिन्दी भाषी कम संख्या में हैं या जहाँ उनका इतना लंबा इतिहास नहीं है या जहाँ वे अभी आर्थिक संघर्ष से उबर नहीं पाये हैं जैसे कनाडा, फीजी,नार्वे, आदि-आदि, वहाँ के हिन्दी साहित्यकारों के नाम अधिक नहीं सुनाई देते क्योंकि संभवत: उनका साहित्य भारत के आलोचकों के मापदंडों पर उच्च कोटि का नहीं माना जाता।

भारत का हिन्दी आलोचक स्तर की चर्चा करते हुये इस सत्य को अनदेखा करता है कि ये हिन्दी-प्रेमी विदेशी भाषा के बीच हिन्दी से जुड़े हुए हैं और अपने भारतीय समाज को हिन्दी भाषा, साहित्य और संस्कृति से जोड़े रखने के कठिन कार्य में संलग्न हैं। उनके इस संघर्ष की बात भारत में बैठा हिन्दी का आलोचक नहीं समझ सकता। इनकी कविताओं का नॉस्टेलिजिया, नौकरी का संघर्ष, अपने को स्थापित और प्रमाणित करने की मशक्कत को हिन्दी का आलोचक कैसे समझेगा? उसका साबका कभी इन स्थितियों से पड़ा ही नहीं है! अनुभव की भिन्नता हमारी समझ पर इतना अधिक प्रभाव डालती है कि फीजी में आर्थिक और सामाजिक स्तर पर होने वाले भेदभाव को अमरीका में रहने वाला व्यक्ति नहीं समझ सकता। वह इसे सुन सकता है, आंकड़ों के आधार पर जान सकता है पर समझने के लिये अनुभव की जो संवेदना चाहिये होती है, वह उसके पास नहीं हो सकती। अत: इस संवेदना के अभाव में आलोचक विश्लेषण का आधार प्राय: काव्य-शैली को बना लेते हैं।

यह निश्चित है कि जो कवि इन संघर्षों से गुज़रते हुये कविता कर रहा है, वह हिन्दी साहित्य में पारंगत होने की तो सोच नहीं रहा। भारत में हिन्दी का लेखक प्राय: वो है जो विश्वविद्यालय स्तर तक हिन्दी पढ़ कर निकला है या हिन्दी का अध्यापक/ प्राध्यापक है या हिन्दी अनुवाद, पत्रकारिता या प्रशासकीय हिन्दी सेवाओं से जुड़ा हुआ है। ऐसे लोग कम हैं जो इंजीनियर या डॉक्टर हैं और लेखन का कार्य भी गंभीरता पूर्वक करते हैं जबकि विदेशों में ऐसा नहीं है। यहाँ बहुत से इंजीनियर, डॉक्टर, बैरिस्टर या व्यापारी हिन्दी लेखन का काम कर रहे हैं। इन लोगों ने भारत में आठवीं या दसवीं कक्षा तक हिन्दी की पढ़ाई की है पर हिन्दी साहित्य के प्रति अपने रुझान के चलते वे अपने व्यवसाय से समय निकाल कर हिन्दी कविता, हिन्दी नाटकों से जुड़े और इसी रुझान के कारण रचना करते रहे हैं। इन हिन्दी प्रेमियों को विदेश में हिन्दी साहित्य भी अधिक मात्रा में पढ़ने के लिये उपलब्ध नहीं हो पाया जिसके द्वारा वे अपने हिन्दी ज्ञान को आगे बढ़ाने की चेष्टा कर पाते। पिछले लगभग १०-१५ वर्षों से ऐसा हुआ है कि हिन्दी साहित्य की कुछ सामग्री अंतरजाल पर उपलब्ध होने लगी है अन्यथा एक दूसरे से माँग कर हिन्दी पुस्तकें पढ़ना या कई वर्ष पहले की गई भारत यात्रा में खरीदी गई पुस्तकों या पत्रिकाओं को ही अनेक बार पढ़-पढ़ कर संतुष्ट होने की बात विदेशों में रहने वाले वयोवृद्ध साहित्यकार भूले नहीं हैं। विदेशी पुस्तकालयों में अच्छे हिन्दी साहित्य का अभाव रहता था/ है अत: ऐसे में साहित्य के शिल्प का जैसा विकास भारत में हो रहा था, वह यहाँ नहीं हो पाया। हिन्दी से जुड़ी संस्थायें बनीं पर वे प्राय: अपनी-अपनी रचनाओं को सुनाने के कार्य तक सीमित रहीं, रचनाओं के परिष्कार के काम से नहीं जुड़ पाईं।

आज के समय में अंतरजाल पर उपस्थित पत्रिकाओं के कारण लेखन का आदान-प्रदान होने से लेखकों के लेखन स्तर का अंतर भी दिखाई देने लगा है। अत: भारतेतर हिन्दी साहित्यकारों के स्तर की चर्चा होने पर केवल उन्हीं साहित्यकारों के नाम उभर कर आते हैं जो विदेशों में आने से पहले भी भारत में लेखन कर रहे थे और भारतीय लेखक समाज को कुछ याद थे। नये उभरते लेखकों को बहुत कम पढ़ा गया है और न उन के लेखन पर अधिक चर्चा ही की गयी है। बहुत कम ऐसे भारतेतर साहित्यकार हैं जिन्होंने अधिक लिख कर और अच्छा लिख कर अपने लिये भारत में कुछ जगह बनाई है।

यह सच है कि भारतेतर हिन्दी साहित्य प्राय: अपनी "शौक़/ रुचि की पूर्ति" के लिये किया गया है। यह सीधा सा गणित है कि अपने शौक़ के लिये लिखने वाले लेखक, गंभीरता से लिखने-पढ़ने वाले लोगों के साथ प्रतिस्पर्धा कैसे कर सकते हैं? लेकिन अपने शौक़ के लिये लिखने वाले लोगों के लेखन को हल्के ढंग से नहीं लिया जाना चाहिये क्योंकि यह लेखन "अनुभव का सत्य" है, यह कथ्य ’चमत्कार’ और शिल्प के आडंबर से दूर रह कर एक प्रवासी की जीवन स्थितियों की सही व्याख्या कर रहा है। यही लेखन वह दस्तावेज़ है जो बीसवीं शती के अंत और इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ के भारतीय की, भारत से बाहर के देशों में स्थिति और स्वीकृति के सही चित्र उपस्थित कर रहा है। यह दुनिया के सांस्कृतिक संक्रमण काल के प्रारंभ का इतिहास है और स्थानीय सत्य को बिना लाग लपेट के कह रहा है। इस सत्य का अपना महत्त्व है। भारत के आलोचक इसे मान्यता दें या न दें, पर इसकी रक्षा की जानी चाहिये, इसे पढ़ने के लिये उपलब्ध कराना चाहिये और इसे जाँचने के भिन्न मानदंड होने चाहिये। हर हिन्दी लेखन भारत के आलोचक की पहरेदारी से गुज़र कर आये, यह आवश्यक नहीं है।

भारतेतर हिन्दी साहित्य ने हिन्दी को वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित कराने के लिये भी बहुत मेहनत की है। अनेक देशों में हिन्दी पढ़ाने और अपनी संस्कृति को बनाये रखने में ये हिन्दी-प्रेमी तन-मन-धन से जुटे हैं। इनके कारण ही विदेशों में बसे भारतीयों की दूसरी और तीसरी पीढ़ी अपनी संस्कृति से जुड़ पाई है। भारत में अनेक कारणों से हिन्दी-प्रेम में गिरावट आने से विदेश में बसा भारतीय जहाँ परेशान होता है वहीं अपने हिन्दी प्रचार-प्रसार के कार्य पर गर्व में भर कर वह अपने देश में हिन्दी स्थापना और प्रसार के कार्य में और भी अधिक तन्मयता से जुट जाता है।

आगे के लेखों में मैं विस्तार से भारतेतर हिन्दी साहित्य की चर्चा करूँगी और यथासंभव इस कार्य में संलग्न साहित्यकारों के साहित्य को प्रस्तुत करने का प्रयास करूँगी ताकि पाठकों को "भारतेतर हिन्दी साहित्य" की सही जानकारी मिल सके।

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