आसान नहीं होता उस कविता की तरह जीना
जिसे लिखा गया हो
बहुत आँच और पानी देकर
लेकिन न मिले उसे अच्छा पाठक या श्रोता!
कोई देख न सके
उसकी चुहल को,
न बँधी-तनी मुठ्ठियों को,
कोई आया ही न हो उसकी आँच की तपिश से
अपने ठंडे मन को गरमाने,
ख़ून में गति लाने,
या उसके पानी में पाँव भिगो,
उसकी छाँव में कुछ देर सुस्ताने.. ..
ऐसी कविता सोचने लगती है
क्या फ़ायदा...?
क्या फ़ायदा मेरे होने का?
और पड़ जाती है दुविधा में...!!
अपने को समेट,
बिस्तर पर देह फैलाती वो औरत भी सोचती है
क्या फायदा..?
क्या फ़ायदा मेरे होने का?
उम्र भर अपने को पका,
सब को आग-पानी देने की कोशिश करने का
जब उसके उजास को किसी ने पढ़ा ही नहीं?
कोई भीगा ही नहीं उसके झरनों के पानी में..
किसी की अँगुलियों ने थामे ही नहीं उसके मन के पन्ने…
रह गयी वो भी उस कविता सी..
बिन पढ़ी,
एक अच्छे पाठक के इंतज़ार में!