वे ही

विभांशु दिव्याल (अंक: 277, मई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

दरवाज़े पर अचानक होने वाली थपथपाहट ने उसे बौखला दिया, वैसे भी उनके पास मिलने-जुलने आने वालों की संख्या न के बराबर थी, तिस पर वह दोपहर के वक़्त को अपना निजी वक़्त समझता था, इस वक़्त वह आराम करता था और किसी भी परिचित-अपरिचित का आना पसन्द नहीं करता था, आराम के इस समय में उसकी इकलौती लड़की भी प्रायः उससे बात नहीं करती थी, वह पूरा-पूरा ध्यान रखती थी कि उसके पिता के आराम में ख़लल न पड़े। 

जब थपथपाहट हुई तो लड़की दरवाज़ा खोलने को बढ़ गई। उसने सोचा कि दरवाज़ा खुलने पर जो भी व्यक्ति सामने आएगा, उसे बेबात आने के लिए डाँटेगा, लेकिन दरवाज़ा खुलते ही वे धड़ाक से अन्दर घुस आए, लड़की चीख कर पीछे हटी, वह आतंक से बेआवाज़ खड़ा रह गया, दो के हाथ में लम्बे फल वाले खुले चाकू थे, दो कमर पर हाथ रखकर इत्मीनान से उसे घूर रहे थे, एक ने दरवाज़ा अन्दर से बन्द कर दिया, एक चाकू वाला लड़की की ओर बढ़ा तो वह सहमकर पीछे हटी, मुड़कर भागना चाहती थी कि चाकू वाले ने लपककर उसकी कलाई जकड़ ली। 

तात्क्षणिक आतंक पर क़ाबू पाने की कोशिश करते हुए वह चिल्लाया, “फौरन छोड़ो लड़की का हाथ। तुम लोग कैसे घुसे घर में . ..”

“चुप बे! बकबक मत कर,” एक ने चमचमाता हुआ चाकू उसकी आँखों के आगे लहराया। 

देखकर लड़की के मुँह से चीख फूटी तो एक ने उसका मुँह कसकर दबा दिया, दूसरे ने चाकू की नोक बहुत ही बेशर्मी से उसके वक्ष पर टिका दी, आँखें नचाता हुआ बोला, “चीखी-चिल्लाई तो तेरी और तेरे बाप की आँतें निकालकर यहीं फेंक देंगे।” उसने चाकू पर दबाव बढ़ाया। 

लड़की ने चाकू की नोक महसूस की, फिर उसकी आवाज़ भय और आतंक से पथरा गई। 

उन सभी के चेहरों से उस समय पाशविकता टपक रही थी, उनकी आँखों में वहशी क़िस्म की चमक थी, वे ख़ूँख़ार भेड़ियों की मानिंद लग रहे थे, उनके चेहरों पर ढाटे नहीं बँधे थे, वे कहीं से भी विचलित मालूम नहीं पड़ते थे, उनमें भाग निकलने की हड़बड़ी भी नहीं थी, वे मुस्कुरा रहे थे। 

वह अब एक मेमने की तरह मिमियाया, “बच्ची को छोड़ दो! देखते नहीं उसकी क्या हालत हो रही है।”

उन्होंने एक साथ ज़ोर का ठहाका लगाया जैसे इस तरह के ठहाके लगाने का उन्होंने काफ़ी पूर्वाभ्यास किया हो, इस ठहाके से ख़ौफ़ पैदा होता था। तभी एक ने अँगूठे और तर्जनी से उसकी नाक दबाकर हिलाई गोया किसी बच्चे से प्यार कर रहा हो। 

वह घिघियाया, “बेटा, घर में रुपया-पैसा नहीं है। तुम लोग देख लो, तुम लोग ग़लत घर में घुस आए हो। बच्ची को . . .”

इस बार उसकी नाक पकड़कर हिलाई गई, नाक हिलाने वाला उसे चुमकारता हुआ बोला, “बेटा, रुपये-पैसे की ज़रूरत होती तो जहाँ छिपाता, हम वहीं से निकाल लेते, हमें हाल-फिलहाल रुपये-पैसे की ज़रूरत नहीं, देख, हमारी जेबों में कितने नोट हैं।” उसने नोटों की एक गड्डी जेब से निकालकर उसकी आँखों पर फिराई, फिर उसे जेब में रखते हुए लड़की की ओर देखकर बोला, “थोड़ी देर के लिए बच्ची की ज़रूरत है, समझा! इसे लिए जा रहे हैं, शोरगुल किया तो जानता है . . .”

उन्होंने उसे और अधिक गिड़गिड़ाने का अवसर नहीं दिया, एक ने उसके दोनों हाथ पीछे की तरफ़ करके जकड़ दिए, दूसरे ने पहले उसकी कलाइयों को बाँधा, फिर उसके मुँह में कपड़ा ठूँसकर ऊपर से मोटी पट्टी बाँध दी, उसकी आँखें और अधिक खुलकर फैल गई थीं|

उसने अपनी खुली-फटी आँखों से देखा कि उन्होंने लड़की की कलाई में मरोड़ देकर बाँह ऐंठ दी है, वे लड़की को धमकाते-धकियाते बाहर ले जा रहे हैं। लड़की ने कातर दृष्टि से उसे देखा है। 

लड़की आँखों से ओझल हो गई। बाहर से दरवाज़ा बन्द होने की आवाज़ आई। उसे लग रहा था, उसे कुछ भी सुनाई नहीं पड़ रहा। 

पता नहीं कितना वक़्त गुज़र गया था। वह अब तक कई बार होश में आने का प्रयास कर चुका था और हर बार बेहोश-सा होकर निढाल हो गया था। उसके गले की नसें फटने को आ रही थीं, आँखें उबल रही थीं, कलाइयों पर बँधी डोरी उसके ख़ून का स्वाद लेने लगी थी। 

उसकी बेहोशी फिर टूट रही थी, लगा, एक पल को उसकी सोचने-समझने की शक्ति वापस लौट आई है। इस बीच उसने स्वयं को अश्लील से अश्लील गालियाँ दे डालीं, जिनकी कल्पना वह कभी किसी दूसरे के लिए भी नहीं कर सकता था, अब वह उस दिन को कोस रहा था जिस दिन उसने बस्ती में आए दिन होने वाली गुंडागर्दी, मार-पीट, छीन-झपट के असामाजिक प्रदूषण से स्वयं को और अपनी बेटी को बचाने के लिए शांत-एकांत जगह पर चुपचाप जीवन बिताने का निर्णय लिया था, बस्ती में होता तो कुछ चीख-पुकार मचती, कुछ तो हल्ला-गुल्ला होता, उसकी आँखों के आगे वे चाकूवाले हाथ और वे वहशी चेहरे आकर खड़े हो गए, उनके बीच उसकी फूल-सी बच्ची उसकी गर्दन और गले की नसें बुरी तरह फटने लगीं, उसकी चेतना सुन्न होने लगी। 

उसे दरवाज़े पर आहट का आभास हुआ, हाँ दरवाज़े पर आहट थी। उसने अपने अन्दर की रही-बची सारी ताक़त समेटी और आँखें दरवाज़े पर जमा दीं। दरवाज़ा खुल रहा था। फिर जैसे बेहोश होना भूल गया। उसकी बेटी अन्दर आ रही थी। नहीं, उसकी बेटी नहीं थी। उसने ग़ौर से देखकर पहचाना, उसकी ही बेटी थी, नहीं, उसकी बेटी ऐसी नहीं थी। यह तो नहीं, यह उसकी ही बच्ची थी, पर फिर पता नहीं उसका लहू किन-किन नसों से दौड़ा कि उसे अपने दिमाग़ पर भारी-भारी हथौड़े पड़ते महसूस हुए। उसे सुनाई देना और दिखना फिर बन्द हो गया। 

सहसा उसे अपनी गले की नसों पर रखा सैकड़ों मन वज़न हटा हुआ लगा। उसको आँखें खुलीं, उसके मुँह में ठूँसा हुआ कपड़ा लड़की के हाथ में था। अब वह उसकी कलाइयों पर बँधी डोरी को खोलने की कोशिश कर रही थी। उसे पता नहीं लगा कि उसकी कलाइयाँ मुक्त मगर उसने अपनी बेटी को कमरे की ओर जाते देखा . . . नहीं, यह उसकी बेटी नहीं। उसकी बेटी की चाल तो . . . वह बुक्का फाड़कर रो पड़ा। मन हुआ, बेटी को आवाज़ दे। पर एक ही नज़र में उसकी आँखों, होंठों, कोली, उघड़े वक्ष और मुसे-कुचले कपड़ों पर उसने जो देख लिया था, उसे दुबारा देखने की दहशत में आवाज़ नहीं दे सका। उसका रुदन और भी करुण हो गया। 

वह वाक़ई होश में आया तो उसने घंटे हुए हादसे की भयावहता को कई गुने रूप में महसूस किया। उसके भीतर के एक हिस्से को लकवा मार गया। मगर दूसरा हिस्सा उबलने लगा। बदमाश! दिन-दहाड़े इस तरह! कोई सुरक्षा नहीं! कोई देखने वाला नहीं! किसी की भी इज़्ज़त उसके घर में घुसकर लूटी जा सकती है। पुलिस, क़ानून, प्रशासन, किसलिए हैं ये सब? 

पुलिस और क़ानून के बारे में वह पहले भी इसी तरह सोचता था, परन्तु उस सोच में निर्लिप्तता होती थी। तटस्थ क़िस्म का सोचना होता था वह। उसे अपनी पहले की तटस्थता चुभने लगी। पुलिस और प्रशासन के प्रति यह उसका अविश्वास ही था कि यह शहर की तमाम गहमा-गहमी से अलग-थलग शान्ति से जीवन बिताने के लिए इस जगह पर रहने लगा था। उसे क्या पता था कि वे लोग उसे यहाँ भी नहीं जीने देंगे। 

उसकी बेटी कमरे के किवाड़ भेड़कर अन्दर जा लेटी थी। उसने एक मोटी चादर से सिर से पैर तक अपना पूरा शरीर ढक लिया था। कफ़न से ढकी लाश की तरह, न वह बोल रही थी, न हिल-डुल रही थी। नहीं, वह चुप नहीं बैठेगा, पुलिस और प्रशासन को झकझोरेगा। सरकार को हिलायेगा। वह उन बदमाशों को छोड़ेगा नहीं। 

शरीर और मन सँजोकर वह बाहर निकल आया। दो मोड़ घूमकर उस रास्ते पर हो लिया जिस पर निकटतम थाना था। बदमाशों को ऐसे ही नहीं जाने देगा। उनके दुष्कर्म की सज़ा दिलायेगा। दंड-विधान के अन्तर्गत कड़ी से कड़ी सज़ा। 

थाने के ठीक बाहर आकर वह ठिठक गया। उसने अन्दर देखा, कुछ लोग एक बड़ी-सी मेज़ के इर्द-गिर्द बैठे थे। वे लोग किसी बात पर ठहाके लगा रहे थे। बीच में वर्दी वाला व्यक्ति था। वही थानेदार होगा। उनसे थोड़ी दूर पर एक काउंटर जैसा बना हुआ था, जिसके पीछे से एक मूँछों-वाला चेहरा झाँक रहा था। दायीं ओर दो व्यक्ति केवल खाकी नेकर पहने वर्जिश जैसा कुछ कर रहे थे। बायीं ओर एक नीम का पेड़ था, जिसके तने के चारों ओर गोल चबूतरा बना हुआ था। तीन बन्दुकधारी सिपाही इस चबूतरे पर बैठे थे। उनकी मुद्रा से लगता था जैसे वे किसी फ़िल्म पर बात-चीत कर रहे हों। इनके क़रीब ही एक आदमी ज़मीन पर उकड़ू बैठा था। कभी-कभी वह सिर ऊपर उठाता था तो उसका चेहरा बहुत भार खाया हुआ और पिटा हुआ लगता था। जैसे सज़ा मिलने से पहले उसने सज़ा पूरी कर ली हो। 

थाने के एकदम बाहरी हिस्से में एक आदमी केवल लँगोट पहने स्टोव जलाने की कोशिश कर रहा था। सिपाही होगा, उसने सोचा। स्टोव जलता था और बुझ जाता था। वह सिपाही पिन लगाकर फिर से माचिस जलाता था, स्टोव फिर से सूं-सूं करने लगता था। उसे यह सिपाही शक्ल से शरीफ़ मालूम हुआ। वह उसी की ओर बढ़ गया। 

“मुझे स्टेशन ऑफ़िसर से मिलना है।”

स्टोव अब तक जल चुका था। पहले उसने केतली स्टोव पर रखी फिर इत्मीनान से पूछा, “क्या काम है?” 

उसने महसूस किया कि दूर से यह आदमी जितना शरीफ़ लग रहा था, क़रीब से उतना नहीं लगता। उसकी ज़बान में ख़ास तरह की बदतमीज़ी शामिल थी जो शब्दों से नहीं लहजे से प्रकट होती थी। उसने कहा, “मुझे एक रिपोर्ट दर्ज करानी थी। मैं चाहता हूँ, पुलिस . . .”

“हर कोई यह चाहता है कि पुलिस उसके आते ही उसके साथ दौड़ लगा दे स्साले पुलिस को तो कुछ समझते ही नहीं, ग़ुलाम समझते हैं, ग़ुलाम।” फिर वह सिपाही उसे लगभग उपटता हुआ बोला, “उधर वो ईंटें पड़ी हैं बैठ जा। दरोगाजी के दोस्त आए हैं। थोड़ी देर में तेरी बात सुनेंगे।”

एक अदने-से सिपाही के मुँह से अपने लिए इस तरह तू-तड़ाक सुनकर वह तिलमिला गया। मगर वक़्त की नज़ाकत देखकर सारी तिलमिलाहट को गटक गया। वह अपनी आवाज़ में भरसक दीनता घोलता हुआ बोला, “देखिए दीवानजी, मैं एक पढ़ा-लिखा शरीफ़ नागरिक हूँ। मेरे घर में घुस-कर गुंडों ने बदतमीज़ी . . .”

“गुंडों के लिए क्या घर, क्या सड़क, सब एक हैं। घर में घुस गए तो कौन-सा रिकार्ड तोड़ दिया। घर में घुसना उनका काम है।”

वह हतप्रभ उस सिपाही को देखने लगा। 

सिपाही को शायद कुछ तरस आया, बोला, “उधर बैठ कर काग़ज़ पर सारा वाक़या लिख दो। दीवानजी अपने क्वार्टर तक गए हैं, वे रिपोर्ट लिखेंगे।” वह खौलते हुए पानी में चाय-चीनी डालने लगा। 

काग़ज़ पर वाक़या लिखने का काम। वह न तो काग़ज़ लेकर निकला था, न क़लम। उसने एक बार फिर चिरौरी की, “मैं एस.ओ. साहब को सारा वाक़या बताना चाहता हूँ। वे एक्शन लें तो बदमाश पकड़े जा सकते हैं। अगर आप इजाज़त दें तो मैं उनसे मिल लूँ?” 

सिपाही ने इस पढ़े-लिखे आदमी को ग़ौर से देखा। यह आदमी वाक़ई पढ़ा-लिखा मालूम हुआ जो उससे इजाज़त माँग रहा था। उसने इजाज़त देने का यह अवसर नहीं गँवाया। “नहीं मानते तो क्या कर सकता हूँ। वे बैठे हैं साहब जाकर उनसे कह लो जो कहना है।” सिपाही ने उसी ओर संकेत किया जिधर एक बड़ी-सी मेज़ पर एक बावर्दी ऑफ़िसर को घेरे कुछ लोग बैठे थे। 

उस ऑफ़िसर की तरफ़ बढ़ते हुए उसने सोचा कि इस फ़ालतू क़िस्म के सिपाही से बेकार ही उलझा। उसे न तो इससे बात करने की ज़रूरत थी, न ख़ुशामद करने की और इजाज़त लेने की तो बिल्कुल नहीं। उसे सीधे थानाध्यक्ष के पास जाकर ही बात करनी थी। 

मेज़ से कुछ दूर पहले ही वह चिहुँककर ठिठक गया। उसे लगा, थानाध्यक्ष की मेज़ के इर्द-गिर्द वही लोग हैं जो उसके घर में घुस आए थे और चेहरों पर वही दरिंदगी, आँखों में वैसा ही वहशीपन, वैसा ही आत्मविश्वास, वैसी ही हँसी, वह ग़ौर से देखने लगा। नहीं, उसे भ्रम हुआ था। ये, वे लोग नहीं थे। ये थानाध्यक्ष के दोस्त थे जो बहुत ही बेतकल्लुफ़ी से उससे हँसी-मज़ाक कर रहे थे। वह दो क़दम आगे बढ़ गया। 

“क्या है?” 

उसे किसी जानवरकी गुर्राहट-सी सुनाई पड़ी, लेकिन यह सवाल उसके सामने बैठे पुलिस अधिकारी ने किया था। बाक़ी लोग उसे घूर रहे थे। उसे लगा, उसके शरीर से पसीना फूट पड़ेगा। वह इतनी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था कि उस अधिकारी से अलग आकर अपनी बात सुनने का आग्रह करे और इतने लोगों के आगे बेटी के दुर्भाग्य की शर्मनाक दास्तान सुना नहीं सकता था। 

“क्या बात है, बोलते क्यों नहीं?” थानाध्यक्ष की आवाज़ में एक डपट थी। इस समय उसका चेहरा भी पास बैठे हुए लोगों के चेहरों में पूरी तरह मिल रहा था।

”जी जी देखिए, मैं पढ़ा-लिखा आदमी . . .” उसके मुँह से लड़खड़ाती आवाज़ निकली। 

वे सब हँस पड़े। 

उस अफ़सर को हँसी नहीं आई, उसने आती हुई हँसी को अफ़सराना रुआब से कुचल दिया था, “इस मुल्क में बेपढ़ा कौन रह गया है। इस थाने में तो चोर-डकैत भी पढ़े-लिखे आते हैं। बताओ क्या बात है?” 

“जी, मेरे घर में कुछ गुंडे घुस आए मेरी लड़की के साथ . . .” आगे फिर उसकी ज़बान लड़खड़ा गई। 

“क्या किया लड़की के साथ?” 

“जी, वे उसे उठा ले गये थे।”

“उठा ले गये थे। फिर क्या वापस छोड़ गये?” 

“जी . . .”

“लगता है बड़े शरीफ़ गुंडे थे।” इस बार बाक़ी लोगों के साथ अफ़सर भी हँसा, “आशनाई चल रही होगी पहले से?” 

“जी नहीं, वह बहुत शरीफ़ . . .”

“आजकल की लड़कियों को तुम नहीं जानते, हम जानते हैं। अच्छा, लड़की कहाँ है?” 

“घर है। उसकी हालत ठीक नहीं है,” वह धिधियाया जैसे लड़की की सारी पीड़ा अपनी आवाज़ में ढालना चाहता हो। 

“बिना लड़की के हम किसकी शिकायत पर रिपोर्ट दर्ज करेंगे? लड़की जवान है?” 

“जी।”

“ठीक है, लेकर आओ।”

“मगर उसकी हालत . . .”

“कितने गुंडे थे?” 

“जी चार . . .”

“तो मेरा वक़्त क्यों जाया करते हो? चार लोगों ने इतनी हालत नहीं ख़राब कर दी होगी कि यहाँ तक नहीं आ सके। उसे लेकर आओ, तभी रिपोर्ट लिखी जाएगी।” अफ़सर ने उसकी ओर से मुँह घुमा लिया। 

अफ़सर के पास बैठे लोग फिर हँसने लगे थे। 

और उसे लग रहा था, एक बार फिर उसे दिखलाई पड़ना बन्द हो गया है, सुनाई देना बन्द हो गया है। वह अपने जिस्म को न जाने किस ताक़त से घसीटता हुआ थाने से बाहर लाया। वह फटी-फटी आँखों से कभी थाने की इमारत को देखता रहा था, कभी सड़क पर दौड़ती-भागती ज़िन्दगी को। 

“क्यों भैये, रपट लिखाने आए थे? लिख गई?” एक बेहूदी वेशभूषा-वाला आदमी कह रहा था। 

इस आदमी की आवाज़ उसे किसी दूर जगह से आती लग रही थी। वह उसकी बग़ल से गुज़रकर आगे बढ़ा तो आदमी ने अपना हाथ उसके कंधे पर रख दिया, “थाने में ऐरे-ग़ैरे की रपट नहीं लिखी जाती। तुमने क्या किया? दरोगा-दीवान को खिलाया-पिलाया? किसी बड़े अफ़सर से टेलीफोन करवाया? किसी नेता को साथ लेकर आए?” 

वह उस बेहूदे से लगने वाले इन्सान को पीछे छोड़ आया, मगर उसके शब्द दिमाग़ पर मक्खियों की तरह भिनभिनाने लगे। ग़लती उसने ही की थी। उसे इस तरह अकेले थाने नहीं आना चाहिए था। किसी प्रभावशाली व्यक्ति को साथ लेना चाहिए था। वह क्या इन थानों की हालत जानता नहीं . . . लूट, हत्या, बलात्कार, घूसखोरी! उसकी आँखों के आगे अब उसके उन परिचित लोगों के चेहरे आ-जा रहे थे जो प्रभावशाली थे, और जिनका प्रभाव उसकी मदद कर सकता था। लड़की को लेकर दरोगा से मिलने की बात उसे बहुत ही अपमानजनक प्रतीत हो रही थी। वह अब किसी प्रभावशाली व्यक्ति को साथ लेकर किसी बड़े अफ़सर से मिलना चाहता था। उस थानेदार की बदतमीज़ी की शिकायत भी करना चाहता था। 

उस प्रभावशाली व्यक्ति से मिलने उसके दरबार में आया हुआ वह अकेला आदमी नहीं था। एक पूरा हुजूम वहाँ मौजूद था। लोग उससे मिलकर बाहर निकल रहे थे, लोग उससे मिलने बाहर से आते जा रहे थे, इनमें दो-तीन सजी-सँवरी महिलाएँ थीं, कुछ बने-ठने अतिरिक्त चुस्ती दर्शाते अधेड़ थे। भारी तोंदवाले लाला दिखलाई देते भी दो-चार लोग थे। सिर पर टोपी लगाए एक आदमी बैठा था जो और आदमियों के बीच आदमी कम, बिजूका अधिक लग रहा था। चेहरे पर मायूसी लिए एक दुबला-पतला नौजवान भी अन्दर आ गया था। 

यह भीड़ देखकर उसे घबराहट हुई कि वह कैसे मिल पाएगा। उसकी घबराहट तब और बढ़ गई जब उसने देखा कि उस प्रभावशाली व्यक्ति से मिलने जाने वालों की कोई पंक्ति नहीं है, कोई क्रम नहीं है। दरवाज़े पर खड़ा कुरता-पायजामा पहने, बाहर तक फूले गाल और धँसी, छोटी आँखों वाला यह नाटा साँवला इन्सान न जाने किस नियम के अन्तर्गत कार्रवाई कर रहा था कि भीड़ में से चाहे जिसे बुलाकर अन्दर भेज देता था। जाने वाला भीतर जाते हुए जब उसके क़रीब से गुज़रता था तो वह उस नाटे का बिछता हुआ-सा अभिवादन करता था। तब उस नाटे की देह की सारी पुलक आँखों की राह झड़ने लगती थी। वह साहस करके उस नाटे के पास जा पहुँचा, “सुनिए, मुझे भाई साहब से बहुत आवश्यक कार्य से मिलना है। मेरा इस समय उनसे मिलना बहुत ज़रूरी है। आपका बहुत अहसान मानूँगा . . . प्लीज़ आप मुझे . . .”

“अच्छा, अच्छा,” नाटे ने उसकी ओर कृपा-सी बरसाते हुए आश्वासन दिया, “आप दो मिनट तो बैठिए, मैं कोशिश करता हूँ। लखनऊ-दिल्ली से कुछ लोग आए हुए हैं। वे उन्हीं से बात कर रहे हैं। ज़रा ऊँचे लेवल की बातें हैं। सो बीच में डिस्टर्ब नहीं कर सकते। आप सिर्फ़ दो मिनट बैठिए। मैं अभी आपका इंतज़ाम करता हूँ।” फिर बिना यह देखे कि वह बैठा है या नहीं—वह नाटा चिक उठाकर अन्दर गुम हो गया। 

इस मध्य भी लोग अन्दर जाते रहे, बाहर आते रहे। वह नाटा भी बाहर आ-आकर, अन्दर की ओर डुबकी लगाता रहा। और वह अपनी बारी आने की यथावत् प्रतीक्षा करता रहा। धीरे-धीरे खिसकते समय के साथ उसके सब्र की हद तिरमिराने लगी। इस बार जैसे ही नाटा बाहर की ओर नमूदार हुआ, वह झपटता हुआ उसके सामने जा खड़ा हुआ। 

उसे एकदम सामने पाकर नाटे की छोटी आँखें कुष्ठ और छोटी हुई। उसकी मुस्कान पलभर को चेहरे से ग़ायब रहकर फिर वापस लौट आई, “बस सिर्फ़ दो मिनट बैठिए। आपकी बात मैंने पहुँचा दी है।”

“मगर मैंने तो अभी तक कोई बात ही नहीं कही।”

“वही, वही तो, आप बस दो मिनिट बैठिए।”

इससे पहले कि वह कोई बात कह पाता, नाटा फिर चिक के पीछे गुम हो गया। क्या बिना इस नाटे की इजाज़त के वह अन्दर नहीं जा सकता? अगर चिक उठाकर सीधा भीतर घुस जाए तो यह नाटा क्या कर लेगा! पर अपना ही यह ख़्याल उसे बेवुक़ूफ़ी भरा लगा। उसके इस व्यवहार से पता नहीं, वे क्या सोचें। इस तरह अन्दर जाना उसकी घोर अशिष्टता भी समझी जा सकती है। उनका मन भी उसकी ओर से बिगड़ सकता है। वैसे वे उसे जानते हैं मगर हो सकता है, तब भी उसके साथ किसी उच्चाधिकारी के पास जाने से इंकार कर दें। वह मन मसोसता हुआ बैठा रहा। 

आख़िरकार उसका बुलावा आया। 

उन्होंने तपाक से स्वागत किया, “आइए, आइए, कहिए कैसे आना हुआ?” 

उनको इस तरह स्वागत-भरा देख उसका उत्साह कुछ खुला। उसका साहस कुछ वापस लौटा। इतनी देर प्रतीक्षा कराने के कारण उनके प्रति पैदा हुई शिकायत कुछ कम हुई। वे ज़मीन पर मसनद के सहारे ही बैठे थे। क़ीमती सोफ़ों वाले इस युग में भी वे अपनी बैठक वाली इस विशेष पद्धति को क़ायम रखे हुए थे। वह उनके सामने बैठ गया। 

“हाँ, बताइए जी, आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ? लगता है, आपको पहले कहीं देखा है,” उनका गोल सुर्ख़ चेहरा पूरी तरह खिला हुआ था। 

“जी, मैं काफ़ी दिनों तक आपका पड़ोसी रहा हूँ। आपके मकान से चन्द मकान छोड़कर,” उसने उन्हें याद दिलाने की कोशिश की। 

“अख्हें . . . वही तो।” उन्होंने आवाजदार हँसी पैदा की। ”आप तो पुराने पड़ोसी निकले। कहिए जी, हुक्म मेरे लिए?” 

उसने काँपते-थरथराते पूरी कहानी कह सुनाई। सुनाते-सुनाते उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे। वह रुँधे गले से बोला, “देखिए, मेरी बच्ची और मैं कहीं के नहीं रहे।”

“च् च् . . .” उन्होंने भरपूर अफ़सोस ज़ाहिर किया, “क्या कहें साहब कितना बुरा ज़माना आ गया है। हम जैसे दो-चार लोग करें भी तो क्या करें? हाँ, आपकी किसी से कोई पुरानी रंजिश तो नहीं थी? आजकल लोग चुनाव-उनाव की रंजिश ऐसे ही निकालते हैं।”

“नहीं जी, मेरी किसी से कोई रंजिश नहीं। जब से आपके पड़ोस से निकला हूँ, किसी से कोई लेना-देना नहीं। सिर्फ़ अपने काम से काम रखा।”

“क्या बताएँ साहब, सबसे ज़्यादा मुसीबत सीधे-सादे आदमी की ही है। अब आप ही बताइए, मैं क्या करूँ? जो कहें, करने को तैयार हूँ।”

“अगर आप किसी बड़े अधिकारी से कह दें तो . . . मेरे साथ चले चलें . . . एस.ओ. इतना बदतमीज़ है कि . . .”

उसकी बात पर वे ठहाका लगाकर हँसे, “आप कौन-सी दुनिया में रह रहे हैं जनाब? आजकल सारी पुलिस ही ऐसी है। आपका साबका नहीं पड़ता न पुलिस से। यहाँ तो रोज़ दो-चार मामले सुलटाने पड़ते हैं। ख़ैर, आप कहें तो मैं एस.पी. से कह दूँ। वैसे कल मुझे डी.एम. से भी मिलना है। आप कहें तो उनसे कह दूँ।”

“आप ही कराइए कुछ, मैं तो किसी को नहीं जानता। मुझे तो कुछ भी नहीं मालूम,” वह फिर रोने-रोने को हो आया। 

तभी वह नाटा अन्दर आया और उनके कान के पास कुछ बुदबुदाया। 

वे एकदम छलके, “अच्छा, अच्छा। उन्हें अन्दर बुलाओ भई। बाहर ही कैसे बिठा दिया। बुलाओ उन्हें।”

नाटा चला गया तो वे जल्दी-जल्दी उससे बोले, “तो आप ऐसा करिए, कल सुबह मैं डी.एम. से मिलने जाऊँगा। आप मुझे वहीं मिल जाइए। और हाँ लड़की को अवश्य ले आइएगा। इंप्रेशन उसी का पड़ेगा।”

नाटा कुछ लोगों से घिरा हुआ अन्दर आया। 

वह बुरी तरह चौंका। यही लोग तो थे जिन्हें वह तलाश कर रहा था। वैसी ही आँख, वैसे ही चेहरे, वैसा ही आत्मविश्वास, वैसा ही वहशीपन, फिर तुरन्त ही उसने अपने भ्रम को झटका दिया। नहीं, ये वे लोग नहीं थे। ये लोग तो इसी प्रभावशाली व्यक्ति से मिलने आए थे जो इन्हें देखते ही खड़ा हो गया था। अब इनका गर्मजोशी से स्वागत कर रहा था। 

वह दिग्भ्रमित-सा बाहर आया तो अचानक ही उसे महसूस हुआ कि वह प्रभावशाली व्यक्ति उसकी तकलीफ़ से ज़रा भी विचलित नहीं हुआ था। अब उसे ध्यान आ रहा था कि उस व्यक्ति का अफ़सोस प्रकट करना किस क़द्र मशीनी था। जब वे लोग आए थे तो वह किस क़द्र उल्लास से उन लोगों से मिला था। उसकी ओर तब देखा तक नहीं था। क्या इस आदमी के पास दुबारा आएगा वह? तभी अपनी बच्ची का चेहरा उसकी आँखों के आगे कौंध गया। वह आएगा। वह डी.एम. से कहेगा। वह उन लोगों को सज़ा दिलाएगा। 

वह ज़िलाधीश की कोठी के बाहर काफ़ी देर से उस प्रभावशाली व्यक्ति के आने का इंतज़ार कर रहा था। उसकी बेटी साथ थी। इतनी देर तक इंतज़ार करना उसकी तकलीफ़ को बढ़ा रहा था। लेकिन उसकी बेटी वैसी ही बैठी थी, जैसी उसने बिठा दी थी। वह न हिल रही थी, न डुल रही थी। उसे लगा, उसकी बेटी देख भी नहीं रही है, सुन भी नहीं रही है। 

वह बाहर सड़क की ओर देख रहा था, जिधर से उस प्रभावशाली व्यक्ति के आने की उम्मीद थी। तभी उसके कानों में गूँजती-सी सामूहिक हँसी की ध्वनि पड़ी, परिचित-सी, उसने चौंककर गर्दन घुमाई। वे लोग! वे सभी डी.एम. की कोठी से निकल रहे थे। वैसी ही आँखें, वैसे ही चेहरे, वही दरिंदगी, वैसी ही ख़ौफ़ पैदा करने वाली हँसी। लेकिन नहीं। ये वे लोग नहीं थे। ये ज़िलाधीश के निवास से निकले थे। ये वे लोग नहीं हो सकते थे। उसे फिर भ्रम हुआ था। 

एक कार आकर रुकी। वह प्रभावशाली व्यक्ति अपने कुछ साथियों के साथ उतरा। वह लड़की को वहीं छोड़ उस व्यक्ति के सामने जाकर खड़ा हो गया। 

“अच्छा, अच्छा। तो आ गए आप। लड़की कहाँ है?” उन्होंने चारों ओर नज़र फेरी। 

“जी, वह है,” उसने अपनी बेटी की ओर संकेत किया। 

“अच्छा, अच्छा। उसे लेकर साथ आइए,” वे मित्रों सहित ज़िलाधीश-कक्ष की ओर बढ़ते हुए बोले। 

वह दौड़ता हुआ लड़की के पास पहुँचा। उसे बाँह से पकड़ लगभग घसीटता हुआ-सा उनके साथ हो लिया। 

औपचारिक अभिवादन की रस्म अदायगी के बाद वे सामने कुर्सी पर जमी साम्राज्यी शख़्सियत से ख़ुशामद-भरे लहजे में बोले, “हम अपनी बात दो मिनिट बाद करेंगे, पहले एक मिनिट आप ज़रा इन साहब और इस लड़की की बात सुन लीजिए।”

वह भारी शख़्सियत बिना कुछ बोले, उससे मुख़ातिब हो गई। मुद्रा संकेत कर रही थी कि वह जल्दी कह डाले, जो भी कहना हो। 

इतने लोगों और अपनी बेटी के आगे वह सब कुछ कहने का ख़्याल करते ही उसके बदन में पसीना छूटने लगा। 

“कहो भाई, मुँह क्या ताक रहे हो। साब का वक़्त बहुत क़ीमती है,” जैसे उसके हाथ मुँह बाँधकर धक्का दिया गया। 

उसे बेटी बिसर गई। आस-पास के लोग बिसर गए। फिर जब उसका कहना रुका तो वह बुरी तरह से हाँफ रहा था। उसकी आवाज़ लड़खड़ाने लगी थी। आख़िर में उसके मुँह से निकला, “मुझे न्याय दिलाइए हुज़ूर। मैं और मेरी बेटी . . .” फिर वह कुछ नहीं कह सका। वह बिल्कुल भूल गया था कि वह पढ़ा-लिखा आदमी है। 

सब लोग गंभीर थे। न कोई हँसा था, न कोई बीच में बोला था। मगर सबकी निगाहें लड़की को ऊपर से नीचे तक टटोल रही थीं। उसे लगा, उसकी बेटी उस कमरे में न हो, मगर . . .

“तुम्हें कहाँ उठाकर ले गए थे?” 

लड़की चुप रही। 

“क्या यह लड़की बोलती नहीं?” उस भारी आवाज़ में झल्लाहट भरी हुई थी। 

वह हड़बड़ा गया, “बोलती है, साब, मगर उस दिन से . . . उस हादसे के बाद . . .”

“हादसा तो हो ही गया। अब क्या चुप रहने से बदमाश पकड़ में आ जाएँगे? ठीक है, इस लड़की से कहो, वह सब लिखकर मुझे दे।” वह भारी शख़्सियत अब उस प्रभावशाली व्यक्ति से कह रही थी, “इसका मेडिक कराया कि नहीं?” 

“जी हाँ, जी हाँ, वह सब तो हो गया,” प्रभावशाली व्यक्ति की प्रभावहीन आवाज़ उसके कानों तक आई, “भई देखो, साब ने सारा मामला सुन लिया है। तुम इस लड़की से यहीं एप्लीकेशन लिखवा दो और फ़िक्र मत करो।”

लड़की वैसी ही गुमसुम खड़ी रही। काग़ज़-पेन उसके हाथ से उसने से लिये। लड़की के हाथ में देता हुआ बोला, “लिख बेटी, लिख, लिख दे।”

थोड़ी देर बाद जब वह उस भव्य इमारत के सुसज्जित कक्ष से अपनी बेटी के साथ बाहर आया तो उसे लग रहा था, बाप-बेटी दोनों को एक साथ नंगा कर दिया गया है। 

वह कुछ ही क़दम चला होगा कि एक बेहूदा-सा आदमी सामने आ गया। थाने के सामने भी शायद यही आदमी मिला था। ध्यान से देखा तो लगा कोई और आदमी था। 

वह आदमी उसकी आँखों में झाँकते हुए बोला, “क्यों इस भोली-भाली छोरी की मिट्टी कुटवा रहा है? यहाँ क्या है, असली तमाशा तो अदालत में होगा। गड्डी के गड्डी नोट डकारकर वकील तेरी छोरी से पूछेगा—जो तुझे भगाकर ले गया था, उसके साथ तू पहले क्या-क्या करती रही थी? तुझे वे कहाँ ले गए थे? कैसे ले गए थे? किसने तेरे कपड़े उतारे? किस आदमी का अंडरवियर किस रंग का था? जो आदमी सबसे पहले नंगा हुआ, उसके छिपे हिस्सों पर कौन-से छिपे निशान देखे? पहले तू किस-किस के साथ भाग चुकी है?” 

लोग उसकी और उसकी बेटी को घूर घूर कर देखने लगे थे। कुछ लोग उसे रास्ते में रोककर अफ़सोस प्रकट करते थे। कुछ सहानुभूति प्रदर्शित करने उसके घर तक आने लगे थे। वे पूरी घटना ज्यों की त्यों सुनना चाहते थे। कुछ ज़ोर देते थे कि सारा वाक़या लड़की ही बयान करे। वे यह भी जानना चाहते थे कि उसने जो प्रार्थना पत्र ज़िले के अधिकारियों से लेकर प्रदेश और देश के उच्चाधिकारियों तक पहुँचाए हैं, उनका क्या हुआ? अभी तक किसी अधिकारी ने कोई प्रभावी क़दम क्यों नहीं उठाया? वे जानना चाहते थे कि अपराधियों को पकड़वाने के लिए और पुलिस तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं-नेताओं को गति में लाने के लिए उसने अब तक कितना रुपया फूँक दिया था। जब वह उन्हें बताता कि उसके पास इतना पैसा नहीं है कि वह किसी को दे सके और उसने किसी को कुछ नहीं दिया, तो वे उसकी नादानी पर तरस खाते, झल्लाते उठ खड़े होते थे। जाते-जाते लड़की को नज़रों से खंगालते थे। उसके पास से कोई स्कैण्डल सूँघ ले जाना चाहते थे ताकि अपने नथुने फुलाकर उसे बाहर सिनक सकें। इधर लड़की सफ़ेद से और सफ़ेद होती गई थी। लोगों को उसकी बेटी पागल नज़र आने लगी थी या बेवुक़ूफ़ या बीमार। 

लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जो उससे नज़रें मिलते ही विचारने की कोशिश करते थे। वे उसे टोकते नहीं थे। उससे उसकी बेटी का हाल नहीं पूछते थे। पर उनकी एक नज़र ही उसे बता देती थी कि ये न बोलने वाले लोग उसकी तकलीफ़ को महसूस कर रहे हैं। बहुत क़रीब से उसके और उसकी बेटी के घाव को पहचान रहे हैं। उसे यह भी लगता, ये लोग चाहते हैं कि अपराधियों को सज़ा मिले। तब उसके भीतर फिर से उबाल उठने लगता था और वह अपराधियों को खोज निकालने पर आमादा हो जाता था। 

अख़बार की बात अचानक उसके दिमाग़ में आई। उसने सोचा, वह शुरू से ही ग़लती करता रहा है। सबसे पहले अख़बार के संपादक से ही मिलना चाहिए था। अगर अख़बार तरीक़े से कुछ छाप दे तो बहुत कुछ हो सकता था। 

अब तक वह जान चुका था कि किसी भी प्रमुख व्यक्ति से मिलने जाने के लिए बेटी को ले जाना ज़रूरी है। हादसा उसके साथ नहीं, उसकी बेटी के साथ हुआ था। बेटी बोलती नहीं थी। फटी-बुझी आँखों से दिशा-हीन देखती-ताकती थी। बेटी के एवज़ में सारी बातें उसे ही बयान करनी पड़ती थीं। फिर भी लोग बेटी की अनुपस्थिति में केवल उसके बाप का बयान सुनने को तैयार नहीं होते थे। 

उसकी बेटी अब बात-बात पर झगड़ा नहीं करती थी। मान-मनौवल नहीं, हल्ला-गुल्ला नहीं करती थी। हर बात पर अपनी मौलिक राय नहीं देती थी। वह जैसे ही बाँह पकड़ता था, वह उठ खड़ी होती थी। बाप जिधर को चलता था, उसी तरफ़ चल पड़ती थी। 

संपादक के कमरे के बाहर ही चपरासी ने उसे और उसकी बेटी को रोक दिया। संपादक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति था। अन्य महत्त्वपूर्ण लोगों का उससे मिलने आते रहना स्वाभाविक था। इस समय भी उसके साथ कुछ ऐसे ही लोग वार्तालाप कर रहे थे। 

वह प्रतीक्षा करने लगा कि वे महत्त्वपूर्ण लोग बाहर निकलें तो वह अपनी बेटी के साथ जाकर अपनी बात कहे। तभी कमरे के बाहर लगा लाल बल्ब जलने-बुझने लगा। चपरासी दरवाज़ा खींचकर अन्दर घुसा तो घनघनाती हँसी की आवाज़ संपादक के कमरे से निकलकर उसके कानों से टकराई। वह याद करने लगा कि यह आवाज़ पहले कहाँ सुनी है। 

चपरासी ने उससे कहा कि साहब बुला रहे हैं। वह अंदर की ओर दरवाज़ा खोलकर खड़ा हो गया। 

उसे आश्चर्य हुआ कि संपादक को उनकी उपस्थिति का भान कैसे हुआ? तभी उसकी नज़र उस शीशे पर पड़ी जो अन्दरवाले को बाहरवाले की उपस्थिति का आभास कराता था। उस शीशे के ठीक सामने ही उसकी बेटी खड़ी थी। 

संपादक के एयरकंडीशन कमरे में घुसते ही वह रुक गया। एक बार फिर उसे लगा ये वही लोग हैं जिनकी वह तलाश कर रहा है। वे संपादक को घेर कर बैठे थे। चेहरों से टपकती पाशविकता, आँखों में वहशीपन। वही रक्तसनी मुस्कुराहट, वैसा ही ख़ूनी आत्मविश्वास। उसे लगा, उसका दिमाग़ी संतुलन डगमगा रहा है। ये लोग वे कैसे हो सकते हैं। ये संपादक के लोग हैं। जो स्वयं संपादक की तरह महत्त्वपूर्ण हैं। इस समय संपादक से महत्त्वपूर्ण वार्तालाप कर रहे हैं। संपादक दयालु है जो उसने उसको और उसकी बेटी को इन महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के बैठे होने के बावजूद अन्दर बुलवा लिया है। 

उसने एक बार फिर बेटी की ओर से सारी घटना का बखान किया। संपादक एक-एक शब्द ग़ौर से सुनता रहा। कनखियों से लड़की को भी देखता रहा। जब वह अपनी बात पूरी सुना चुका तब भी दो मिनिट तक लड़की की तरफ़ देखता हुआ चुप बना रहा। फिर उसने पूछा, “अब आप मुझसे क्या चाहते हैं?” 

लोगों से बातें करते-करते भी अब तक वह डगमगाना-लड़खड़ाना भूला नहीं था। वह हाथ जोड़कर बोला, “आप चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं . . . वे बदमाश लोग . . . आप अपने अख़बार में . . .” वह एक भी वाक्य पूरा और पूरे आत्मविश्वास से नहीं बोल सका। 

संपादक ने उसकी बेटी पर एक नज़र डाली और पूछा, “आपकी बेटी पढ़ी-लिखी है?” 

“जी जी। इसने एम.ए. किया है। आगे रिसर्च की तैयारी की थी, तब तक यह . . .”

“आप इस पढ़ी-लिखी लड़की की ज़िन्दगी से क्यों खेलना चाहते हैं? 

“वह तो ग़नीमत हुई आपका यह केस हमारे किसी संवाददाता के हाथ नहीं पड़ा अन्यथा अब तक एक चटखारेदार ख़बर अख़बार में छप गई होती—एक कुँवारी लड़की के साथ चार गुंडों द्वारा बलात्कार या एक पढ़ी-लिखी लड़की चार लड़कों के साथ भागी। इस तरह की ख़बर छपती तो आपकी बेटी की समाज में क्या इमेज बनती? आप एक शरीफ़ इंसान हैं, आपकी बेटी पढ़ी-लिखी लड़की है, इसलिए मैं आपको नेक सलाह दे रहा हूँ कि इस सारे मामले को अख़बार से दूर ही रखिए, वरना जिस बात को आज केवल चार लोग जानते हैं उसे कल सौ लोग जानेंगे। होना-जाना कुछ नहीं है। हम तो सिर्फ़ छाप सकते हैं, बाक़ी एक्शन लेना तो पुलिस और एडमिनिस्ट्रेशन का ही काम है, वैसे आप कहें तो मुझे छापने में कोई एतराज़ नहीं और आपकी बेटी की तबीयत ठीक नहीं है क्या?” संपादक और उसके पास बैठे लोग सिर्फ़ उसकी बेटी को घूर रहे थे। 

उसकी बेटी फटी-बुझी आँखों से न जाने किस दिशा में देख रही थी। जब वह बेटी के साथ बाहर निकला तो संपादक के कमरे से फिर वही घनघनाती हँसी उठी। उसके बाहर आते ही संपादक के कमरे की हर आवाज़ अपनी जगह वापस आ गई थी। लेकिन उसे वे सारी आवाज़ें मरी हुई लग रही थीं। वह किसी का कोई अर्थ नहीं समझ पा रहा था। 

उसकी बेटी बीमार थी। वह उसे लेकर एक डॉक्टर से दूसरे डॉक्टर तक भाग रहा था। डॉक्टर कहते थे कि वह इतने दिनों तक क्या करता रहा? लड़की जिस मानसिक बीमारी की शिकार थी उसका इलाज शीघ्र ही होना चाहिए था। उसकी विक्षिप्तता काफ़ी आगे तक आ गई थी। वे उसे मानसिक चिकित्सालय में भरती करने की सलाह देते थे। लेकिन वह अपनी बेटी को स्वयं से अलग करने के ख़्याल से ही दहलने लगता था। वह चाहता था कि उसकी बेटी बिना अस्पताल में भरती हुए ही ठीक हो जाए। 

पश्चाताप के बगूले अब उसके अन्दर पूरे वेग से घुमड़ते थे। क्यों वह उन शैतानों को सज़ा दिलाने की नाकाम कोशिश करता रहा? क्यों उनकी तलाश करता रहा? क्यों इस आदमी से उस आदमी तक भागता रहा? क्या हुआ उसकी भागदौड़ का परिणाम? उसे सबसे पहले लड़की को किसी डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए था। उसे तो यह होश ही नहीं रहा था कि उसकी बेटी बीमार है। 

वह अपनी बेटी को सुप्रसिद्ध मनोचिकित्सक के पास ले गया था। उससे भी लड़की को पागलख़ाने में भरती कराने की सलाह पाकर निराश वापस लौट रहा था। चौराहा पार करके उसे दूसरी ओर के फ़ुटपाथ पर पहुँचना था, इसलिए वह ट्रैफ़िक कम होने का इंतज़ार करने लगा। सहसा उसके कानों में दूर से आती कुछ आवाज़ें पड़ने लगीं। वह सतर्क होकर उन आवाज़ों को पहचानने की कोशिश करने लगा। 

शायद कोई जुलूस था, जुलूस ही था। जुलूस के झंडे दूर से ही नज़र आने लगे थे। जुलूस इसी ओर आ रहा था। नारों की आवाज़ें तेज़ होती जा रही थीं, मगर अभी तक अस्पष्ट थीं। शायद विजय जुलूस था। अब जुलूस की अगुआई करते लोगों की आकृतियाँ साफ़ हो चली थीं। वे लोग उत्साह से मुट्ठियाँ ह‌वा में उछाल रहे थे। कुछ लोग स्वयं को ही हवा में उछाल देते थे। उसे उनके पैर किसी अदृश्य सीढ़ी पर पड़ते-से लगते थे मानो वे हवा में से ही कुछ पकड़कर वहीं टिके रहना चाहते हों। 

जिन लोगों के हाथ में झंडे लगे थे, उनका एक हाथ ऊपर था। बाक़ी लोगों के दोनों हाथ नीचे होकर झटके के साथ ऊपर उछलते थे। लगता था, वे अपनी बंद मुट्टियों को खोल-खोलकर अपना विजय-बीज सारे वातावरण में फैला देना चाहते हैं। 

जुलूस की आवाज़ स्पष्ट होती जा रही थी। उसने सुना जैसे कहा जा रहा हो—रोज़ी व्यापार हमीं से है, घर-बाज़ार हमीं से है, शासन-सरकार हमीं से है। वह एकाएक गहरी लालसा और अपेक्षा से जुलूस को देखने लगा। क्या ये लोग उसकी मदद कर पाएँगे? एक-एक कर वे सब चेहरे उसकी आँखों से गुज़र गए, सहायता की उम्मीद लेकर वह जिनसे मिला था और जो उभरे हुए काले दाग़ की तरह उसके दिमाग़ से चिपक गए थे वह खरोच-खरोंचकर इन दाग़ों को मिटाने की बात सोचने लगा था। क्या उन काले दाग़ों को खरोंचने में ये कुछ करेंगे? 

उसे अपने अन्दर उत्साह पैदा होता हुआ लगा। जुलूस काफ़ी क़रीब आ गया था। हवा में शान से लहराते जुलूस के झंडों की चमक में उसकी नज़र खो गई, तभी उसने अपनी बेटी की चीख सुनी, “पापा, वे! वे!” लड़की की पुतलियाँ भय और आतंक से उलट गई प्रतीत होती थी। वह उसके कंधे पर झूलकर उसकी बाँहों में आते-आते चेतना शून्य हो गई। उसने ध्यान से देखा तो उसके पैर भी बुरी तरह काँपने लगे। वह साफ़-साफ़ पहचान रहा था—वे वही थे। उनकी आँखों में वहशी क़िस्म की चमक थी। चेहरों पर शैतानियत पसरी हुई थी। वे कहीं से भी विचलित नहीं थे। किसी के मुँह पर ढाटा नहीं बँधा हुआ था। उनके चेहरे आत्मविश्वास और विजयदीप्ति से ढके हुए थे। अगुआई करते वे शानदार झंडे उन्हीं के हाथों में थे। काँपते-थरथराते भी वह सोचने लगा था, किसी तरह उन झंडों को . . .! 
 

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