स्वयं से स्वयं तक

01-06-2025

स्वयं से स्वयं तक

विभांशु दिव्याल (अंक: 278, जून प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

यह पत्र पहली बार पढ़ा था तो मन ग़ुस्से से उबलने लगा था। वह औरत सामने होती तो शायद उसे झिंझोड़ डालता, ‘बच्ची बीमार है, तो मैं क्या करूँ? मुझसे पूछती है, पापा कहाँ से लाकर दूँ? उस रनवीर चौधरी को क्या हुआ? उसे क्यों नहीं बुलाती अब? बेशर्म! मक्कार औरत!’ मन हुआ था, जवाब में कोई बेहद चुभती हुई बात लिखूँ, ऐसी कि उस औरत को भीतर तक तिलमिला दे। लेकिन इस समय जबकि मैं पत्र को हाथ में लेकर कई बार पढ़ चुका हूँ, उत्तर लिखने के लिए काग़ज़-पेन हाथ में लेकर बैठा हूँ, तो अन्दर के उस उबाल को कोई भाषा नहीं मिल पा रही। और वह बच्ची बार-बार आँखों के आगे खड़ी होकर पूछ रही है—‘आप मेले पापा हैं?’

वैसे यह ख़्याल मुझे उद्विग्न कर रहा है कि तरुणा ने क्या सोच कर लिखा होगा यह ख़त—

‘पत्र लिख़ते हुए यही सोच रही हूँ कि मुझे आपको नहीं लिखना चाहिए था। मुझे लिखने का कोई अधिकार भी नहीं है। पर एक माँ हार कर यह पत्र लिख रही है। मैं पूछती रही हूँ कि मैंने क्यों बिट्टी को आपका परिचय उस तरह से दिया। सच बात तो यह है कि वैसा मैंने जानबूझ कर नहीं किया था। शायद आपको विश्वास नहीं होगा, लेकिन यह सच है कि वह अचानक ही मेरे मुँह से निकल पड़ा था। अपनी उस ग़लती की क़ीमत भी मुझे ही चुकानी पड़ रही है। बिट्टी एक हफ़्ते से बुख़ार में पड़ी है। पापा-पापा पुकारती है। कहाँ से लाकर दूँ उसे पापा? क्या एक अबोध बच्ची की ख़ातिर आप एक बार यहाँ आ सकते हैं? इसलिए नहीं कि वह मेरी बच्ची है बल्कि इसलिए कि वह कोई भी अबोध बच्ची हो सकती है। अपने आने की सूचना टेलिग्राम से दे सकेंगे . . .?’

तरुणा क्या सचमुच सोचती होगी, पत्र पाकर मैं तुरन्त आने की सूचना दूँगा, फिर भागकर उसके पास जा पहुँचूँगा? क्या कोई औरत इतनी बेवुक़ूफ़ हो सकती है कि अपने प्रति पोर-पोर नफ़रत भरे आदमी से किसी तरफ़दारी की अपेक्षा करे? यह तरुणा की मूर्ख़ता है या फिर कोई सोची-समझी चालाकी? चालाकी हो या मूर्ख़ता, इसे करने का अवसर उसे स्वयं मैंने ही दिया था। ग़लती उस दिन मेरी ही थी। लपककर बच्ची को गोद में उठा लिया था, जैसे वह मेरी अपनी बच्ची हो। बच्ची को गोद में न लिया होता तो तरुणा इस तरह का पत्र नहीं लिख़ती। मुझे अपने यहाँ बुलाने का बहाना भी उसके हाथ नहीं आता। मगर यह बात तो मैं इस समय सोच रहा हूँ जब वह बच्ची मेरे सामने नहीं है। बच्ची के साथ खड़े होने के वे क्षण तो किसी के भी प्रति मोहाविष्ट हो अभिभूत हो जाने के क्षण थे। 

दीदी कहती थीं, “तू मुक़द्दर वाला है शरन, तेरी बीवी जितनी ख़ूबसूरत है, उतनी ही सुशील और पढ़ी-लिखी भी। अगर नौकरी करे तो तुझसे अच्छी नौकरी लगेगी।”

तरुणा वाक़ई ख़ूबसूरत थी। दीदी की प्रशंसोक्ति पर मैंने कहा था, “इन्हें मेरी नज़र न लग जाये दीदी!”

दीदी तो हँसने लगी थीं, मगर तरुणा के कपोल जो लाल होने शुरू हुए तो वह और भी ख़ूबसूरत लगने लगी थी। दीदी के ही शृंगारदान से काजल की डिब्बी निकाल जब मैं उसके कपोलों पर काली टिकुली रखने चला था तो सिमटकर दोहरी होते हुए उसने दोनों हथेलियों के बीच अपना चेहरा छिपा लिया था। तब वह शील और सौन्दर्य की जीवंत मूर्ति मेरे मन के सबसे ख़ूबसूरत कोने में स्थापित हो गयी थी। 

और आज मैं सोच रहा हूँ कि सबसे सुन्दर कोने में स्थापित वह मूर्ति एक झटके में ही कैसे निकलकर बाहर हो गयी। कैसे खण्ड-खण्ड बिखर गयी? 

तरुणा के लिए पैदा हुई नफ़रत ने एक भरे-पूरे रिश्ते को महसूस करने के सारे तंतु झिंझोड़ डाले थे। क्यों हुआ ऐसा? मैं स्वयं को सामान्य अवस्था में क्यों नहीं बनाये रख सका? आसान उत्तर तो यही है कि मेरी जगह कोई भी दूसरा व्यक्ति होता तो उस पर बड़ी प्रतिक्रिया हुई होती, जो मेरे ऊपर हुई थी। कोई भी व्यक्ति मेरी तरह ग़ुस्से से पागल हो सकता था, और तरुणा ने जो कुछ किया था, वैसा करने पर अपनी बीवी की परछाईं तक से नफ़रत करने लग सकता था। यह तर्क मेरे तोष के लिए अब तक सबसे बड़ा सहारा रहा है, किन्तु आज इसमें भी दरार पड़ रही है। फिर भी यह सवाल तो उठ ही रहा है कि तरुणा ने वैसा क्यों किया? 

तरुणा का दिल्ली से नियुक्ति-पत्र आया था तो घर में बहस चल पड़ी थी कि वह शहर में जाकर नौकरी करे या न करे। मुझे इसमें कुछ भी असंगत प्रतीत नहीं हुआ था। जिस लड़की ने एम.एससी. प्रथम श्रेणी में किया हो, उसे अपनी प्रतिभा का लाभ उठाने से वंचित रखे जाने का तुक भी क्या था? फिर तरुणा के अपने तर्क थे, “इतनी अच्छी सर्विस का चांस हर बार तो मिलेगा नहीं। सेंट्रल गवर्नमेंट की नौकरी है।”

केन्द्रीय सरकार की नौकरी होना ही एकमात्र लाभ का बिन्दु नहीं था। तरुणा ने एक दूसरी बात भी कही थी, “आप अपनी इस प्राइवेट नौकरी को कब तक खींचेंगे? साल में आठ महीने बाहर रहना पड़े, ऐसी नौकरी भी कोई नौकरी है?” 

उसका कहना था कि जैसे ही उसकी नौकरी स्थायी हो जाये, मैं अपनी नौकरी छोड़ कर दिल्ली में नौकरी तलाश करूँ, तब घर पर तो रहेंगे। हर पन्द्रह दिन बाद दो-दो, तीन-तीन महीने के लिए बाहर तो नहीं भागना पड़ेगा। 

मैं स्वयं भी अपनी इस नौकरी से परेशानी महसूस करने लगा था। शादी से पहले की स्थिति भिन्न थी। मैंने अपनी कंपनी के मालिकों तक अपनी समस्या पहुँचायी थी। उनसे आग्रह किया था कि अपने किसी ऑफ़िस में मुझे कोई स्थायी काम दे दें। मगर वे बराबर टाल रहे थे। इसी मध्य तरुणा ने अपनी योजना रखी थी, तो सब अच्छा ही लगा था। 

पैसे की तंगी के हवाले पर बाबू जी तो चुप हो गये थे, पर मम्मी ने शंका उठायी थी, “इत्ते बड़े शहर में जवान-जहान लड़की अकेली कहाँ रहेगी?” 

समाधान तरुणा ने ही सुझाया था, “रनवीर अंकल वहाँ हैं। पापा के दोस्त। आप तो उनसे मिले थे शादी पर, ध्यान नहीं आया क्या?” यह कोई अहम बात भी नहीं थी कि मुझे रनवीर अंकल का चेहरा याद आता। तरुणा ने कहा था, “थोड़े दिनों की ही तो परेशानी होगी। फिर आपके आने के बाद तो सब ठीक हो ही जायेगा।”

मैं भी यही सोचता था, बाद में सब ठीक हो जायेगा। 

भविष्य बुनते समय शायद हर आदमी ख़्यालों के ताने-बाने इतने मुलायम, इतने रेशमी, इतने रंगीन और इतने चमकीले रख़ता है कि उनके इर्द-गिर्द उसे एक भी काला दाग़ या धब्बा नज़र नहीं आता। उस समय सुखद भविष्य की कल्पना मुझे भी उतनी ही बेदाग़ लगी थी, जितनी कि स्वयं तरुणा। फिर तरुणा के पाँव कैसे फिसल गये? 

यह सवाल तब से न जाने कितनी बार मन में उठा है। और जब भी उठा है, तरुणा के प्रति नफ़रत भी नये सिरे से उठी है। इस बार ऐसा नहीं हो रहा। वह बच्ची जैसे अपने नन्हे-नन्हे हाथों से नफ़रत के इस साँप का फन पकड़ने की कोशिश कर रही है। 

इस समय मेरा दिमाग़ उत्तेजना से तड़फड़ाया हुआ नहीं है। तरुणा का पत्र पढ़ने के बाद का प्रथम आक्रोश ठंडा पड़ गया है। मैं बहुत ही शान्त और तटस्थ मनःस्थिति में सोच रहा हूँ कि वैसा करने के पीछे तरुणा की क्या मजबूरी रही होगी? तरुणा ही नहीं, कोई भी औरत ऐसा कैसे कर पाती है? देह क्या इतनी उद्दाम हो जाती है कि तमाम रस्म-रिवाजों और साक्षियों के बीच प्राण-वचन से स्थापित किये गये रिश्ते की संपूर्ण गरिमा को धकिया कर अपनी पुष्टि का बेईमानीभरा रास्ता खोज ले? अगर यही सच्चाई है तो क्या हर वह औरत, जिसका मर्द उससे चार-छह महीने अलग रहता है, बेईमान हो जाती है? नहीं, लगता है ऐसा सोचकर स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की शुचिता पर मैं कीचड़ उछाल रहा हूँ। 

हर औरत तरुणा की तरह नहीं रपटती। तरुणा भी तब कहाँ लगती थी कि किसी एक झोंके से लड़खड़ा जायेगी . . . तब क्या रनवीर चौधरी द्वारा बलात्कार? अगर रनवीर चौधरी द्वारा अवांछित हरकत की जा रही थी तो उसने मुझसे शिकायत क्यों नहीं की? फिर भरे-पूरे परिवार में रहते हुए कोई पुरुष किसी स्त्री के साथ बलात्कार कर सकता है? तो तरुणा का स्वेच्छ्या सम्बन्ध था यह? 

“आप निश्चित रहिए शरन बाबू, आपकी बीवी यहाँ मज़े में रहेगी,” पहली मुलाक़ात में रनवीर चौधरी ने कहा था। तब ये शब्द सामान्य प्रतीत हुए थे, पर अब लगता है, इनके बीच रनवीर का कोई अश्लील संकेत छिपा हुआ था। वह यह भी तो कह सकता था—तरुणा बेटी ठीक से रहेगी या तरुणा को यहाँ कोई परेशानी नहीं होगी . . . 

रनवीर चौधरी के घर बाद में दो-तीन बार जाना हुआ था। मगर उसके और तरुणा के बीच के अवैध को कहाँ सूँघ सका? शायद इसका कारण रनवीर चौधरी की ममतामयी बीवी, और जीजा जी-जीजा जी कहकर मेरे चारों ओर मँडराते हुए अपनापा प्रदर्शित करनेवाली उसकी लड़कियाँ थीं, जिनके बीच अपनी पत्नी के लिए असुरक्षा या आस-पास कसी हुई किन्हीं अश्लील परिस्थितियों को भाँपना असंभव नहीं, तो सरल भी नहीं था। 
अगर तरुणा का यह स्वेच्छया सम्बन्ध था तो उसे किस सामाजिक नज़रिये से देखा जाये? किस मनोवैज्ञानिक दृष्टि से परखा जाये? यह तो नहीं सोचा जा सकता कि तरुणा को अपने कृत्य के ग़लत होने का अहसास नहीं था। यह अहसास नहीं होता तो मुझे धोखा देने के लिए घिनौने ढंग से उस पर पर्दा डालने की कोशिश वह कभी न करती। तरुणा जान-बूझ कर एक ग़लत में लिप्त थी, अब यह चाहे स्वेच्छा रही हो या विवशता। सवाल फिर वहीं है—कहाँ से पैदा होती है यह विवशता जो हर क्षण एक अपराध-बोध के साथ जीने को मजबूर करती है, और व्यक्ति फिर भी उससे कट कर अलग नहीं रह पाता? 

तरुणा, रनवीर चौधरी से सम्बन्ध बनाये रखने के लिए विवश थी, मगर मुझसे शादी करने के लिए तो नहीं। मुझे क्यों उसने अपने बेईमान चरित्र का शिकार बना डाला? एक बेईमान व्यक्ति के प्रति सहानुभूति पैदा नहीं होती, पर इस समय ‘मन को कुरेदनेवाली चीज़’ कुछ और है। मैं ग़लती तरुणा में नहीं, उस परिवेश में तलाशने की कोशिश कर रहा हूँ, जो अपने विसंगतिपूर्ण दबाव से आदमी को अपनी नैसर्गिक भावनाओं के स्तर पर बेईमान बना देता है। आदमी इस दबाव के आगे क्यों नहीं टिक पाता? 

यह बात जो मैं सोच रहा हूँ, दरअसल तरुणा के सोचने की बात थी। अपने किये की सज़ा उसे भुगतनी पड़ी। क्या महसूस करती होगी वह? अपनी उस बच्ची को ही क्या सामाजिक हैसियत देगी? क्या उसे उसके वास्तविक पिता का नाम बता पायेगी? तरुणा इन विपरीत स्थितियों का सामना कैसे करती होगी? लेकिन ये विपरीत स्थितियाँ उसके आगे तब पैदा हुई जब वह अपनी चालाकी में असफल हो गयी। अगर कहीं सफल हो जाती तो? 

मम्मी ने हुलस कर बहू के पैर भारी होने की सूचना दी थी तो मैं आश्चर्य-उत्सुकता से बँधा तरुणा के आगे जा खड़ा हुआ था, “क्या बात है तरुणा?” 

“आप शान्त हो जाइए, मैं सब बता दूँगी,” तरुणा के चेहरे पर अबूझ घबराहट तारी हो गयी थी। 

“मैं तुम्हें कहाँ से अशांत नज़र आ रहा हूँ? तमाशा क्या है आख़िर?” मैंने तरुणा को ऊपर से नीचे तक घूरा था। तब उसके बोलने की ज़रूरत नहीं रह गयी थी। उसके शरीर का असंगत अनुपात उत्तर बनकर उभर रहा था। 

आदमी को पता नहीं रहता कि उसके अन्दर क्या-क्या छिपा रहता है, और छिपा हुआ किस रूप में फूटेगा। अब सोचता हूँ तो आश्चर्य होता है कि मेरे अन्दर से वह नफ़रत का लावा कहाँ से फूट पड़ा था? वह भी उस लड़की के लिए, जिसकी छींक तक मेरी नींद उड़ा देती थी। 

“इसीलिए मुझे पत्र लिख-लिखकर बुलाया जा रहा था? उस दिन वह घिनौना नाटक इसीलिए था कि . . .”

तरुणा ने मेरे पैर पकड़ लिए थे, “मैं पैर पड़ती हूँ आपके! जो ग़लती हुई, वह तो हुई है। जो सज़ा देना चाहें, आप मुझे दे लें। मगर ज़ोर-ज़ोर से मत बोलिए। माँ जी सुनेंगी . . .”

“तुम! तुम ज़लील औरत! अब माँ जी का डर लग रहा है तुम्हें? बेशर्म! भलाई इसी में है कि मुँह काला कर जाओ . . . मैं न जाने क्या कर बैठूँ!” मैं ग़ुस्से से फट पड़ा था। 

वह पूरी रात मैंने राजामंडी स्टेशन के प्लैटफ़ॉर्म पर चक्कर मारते हुए गुज़ारी थी। अगले दिन जब घर पहुँचा था तो मम्मी रोती हुई मिली थीं, “क्यों रे, ऐसा क्या ग़ज़ब हो गया? तू रात को लौटा नहीं, सुबह बहू भी चली गयी। लाख रोका, पर रुकी नहीं इस हालत में . . .”

“अच्छा हुआ, चली गई। मैं एक पाप से बच गया। नहीं तो मैं उसका गला घोंट देता!”

“कैसे अशुभ बोल मुँह से निकालता है तू!”

मम्मी के आगे उस अशुभ को निरावृत किया था तो वे सदमे से जड़ हो गयी थीं। अगर वक़्त पर बाबूजी आकर नहीं सँभालते तो न जाने क्या होता। 

बाद में मैंने सोचा था, मेरा वह ग़ुस्सा कहाँ से फूटा था? सच्चाई नंगी होती है तब इतनी तकलीफ़ नहीं होती, जितनी कि सच्चाई को ढकने के अश्लील प्रयास के नंगे होने पर होती है। एक घृणित सच पर परदा डाले रखने का निकृष्ट प्रयास था वह . . . 

जब मैं टूर से वापस लौटता था तो तरुणा दो-एक दिन की छुट्टी लेकर आगरा आ जाती थी। मैं भी कभी-कभी दिल्ली चला जाता था, परन्तु मेरा यह जाना रनवीर चौधरी के परिवार में इतना औपचारिक हो जाता था कि अपनी चन्द बातें कहने के लिए भी मैं तरस जाता था। इसलिए मैं यही पसन्द करता था कि तरुणा ही आगरा आ जाया करे। 

उन दिनों मेरे टूर का कार्यक्रम कुछ इस तरह उलझा था कि मैं और तरुणा लम्बे समय तक नहीं मिल पाये थे। तरुणा दो बार आगरा आ कर लौट गयी थी। और अब वह बार-बार पत्र, सूचनाएँ भिजवा कर मिलने का आग्रह कर रही थी। मैं किसी तरह चन्द घंटों का समय निकालकर दिल्ली पहुँचा था। 

अब याद आता है कि रनवीर चौधरी ने कुछ अधिक ही उत्साह से मेरा स्वागत किया था, “आइए-आइए, शरन बाबू, आप तो ईद के चाँद हो गये। तरुणा याद कर-कर के दुबली हो गयी।” मुझे इसमें कुछ भी ग़लत नहीं लगा था। रनवीर चौधरी की मुस्कान और मूँछें भी इतनी नहीं चुभी थीं। 

मैंने तरुणा को बताया था कि मैं दिल्ली में चन्द घंटों के लिए हूँ तो वह बहुत व्यग्र नज़र आने लगी थी। स्वाभाविक न लग कर भी तरुणा की यह व्यग्रता मुझे अस्वाभाविक नहीं लगी थी। बार-बार अपनी मजबूरी समझाने पर भी तरुणा एक दिन रुकने का आग्रह कर रही थी, “एक दिन में क्या बिगड़ जायेगा। कल चले जाइएगा आप।”

तरुणा का यह आग्रह उसके स्वभाव के विपरीत लगा था कि इतनी समझदार होते हुए भी वह इस तरह की बचकानी ज़िद कर रही है। लेकिन जब रनवीर चौधरी ने अपने बच्चों को डाँट कर मुझे और तरुणा को एकांत देने की बात कही थी तब अवश्य कुछ अटपटा लगा था। 

रनवीर चौधरी की बीवी और चटपटी बातें बनाती हुई उसकी दोनों बच्चियों को ड्राइंगरूम में छोड़, तरुणा के साथ उस दूसरे कमरे की ओर बढ़ते हुए एक विचित्र-सा अपराध-भाव मेरे अन्दर समाने लगा था। तरुणा ने जब दरवाज़ा अन्दर से बन्द किया तो मैं और अधिक असहज हो गया था। 

मैंने तरुणा से कहा था, “वे लोग क्या सोचेंगे?” 

“कुछ नहीं सोचेंगे, आप बैठिए,” तरुणा ने हाथ पकड़कर मुझे जिस पलंग पर बिठाया था, उसके सिरहाने रनवीर चौधरी और उसकी पत्नी का फ़्रेम किया हुआ फोटो लगा था। 

तरुणा एकाएक प्रणयातुर हो उठी थी—किसी दूसरे के घर में होने की मर्यादा का उल्लंघन करती, बेशर्मी की हद तक। लगा था, रनवीर चौधरी और उसके परिवार की निगाहें दीवार भेद कर हमें देख रही हैं। एकाएक मेरे अन्दर ठंडी शिलाएँ जम गयी थीं। मैंने लगभग डपटते हुए कहा था, “यह तुम क्या पागलपन कर रही हो! बाहर सब लोग हैं।”

तरुणा के चेहरे पर स्याही-सी फैल गयी। 

दिल्ली से लौटते हुए तरुणा की बेशर्मी दिमाग़ पर हल्की-हल्की चोट करती रही थी। यह तो बहुत बाद में मालूम हुआ था कि अगर उस दिन मेरे अन्दर शिलाएँ न जमतीं तो मैं तरुणा के प्रति मन की सघन स्निग्ध अनुभूतियों पर अहर्निश नयी-नयी परतें चढ़ाता रहता। उसी तरह कोमल प्रसंगों के ताजमहल बनाता रहता, और अपना रुपहला आकाश सिरजने के लिए पंख तौलता रहता। यही पंख कितनी बुरी तरह झुलसे थे। 

तब मैं तरुणा के प्रति सर्वांग घृणा से भर गया था, लेकिन अब क्यों उसके पक्ष में सोच रहा हूँ? तरुणा में ग़लती खोजने के बजाय परिस्थितियों में ग़लती तलाश रहा हूँ। सामाजिक मर्यादाओं और देह-मन के विज्ञान के समीकरणों के बीच विसंगतियाँ खोज रहा हूँ। अपनी आर्थिक तंगी और तरुणा के घर से बाहर निकल नौकरी करने की आवश्यकता की परिणति में उसके फिसलने के बिन्दु तलाश रहा हूँ। क्या सिर्फ़ उस बच्ची के कारण? 

मैं एक दूसरी बात भी सोच रहा हूँ, वह भी कितने अविश्वसनीय ढंग से। इस कांड को मैंने मम्मी से नहीं कहा होता, इसे सार्वजनिक नहीं किया होता, तो शायद मेरे और तरुणा के रिश्ते के कुछ तन्तु जीवित बच जाते। पर मम्मी का वह रूप! 

मम्मी ने एक बहुत ही नंगा पत्र तरुणा के पिता के लिए लिखा था। तरुणा के लिए उन्होंने जिस फोहश शब्दावली का इस्तेमाल किया था, वह भी मेरे लिए अजूबा थी। कुलटा, वेश्या जैसे शब्दों का बार-बार प्रयोग किया था उन्होंने। तब मम्मी का यह उग्ररूप अच्छा लगा था, अपने लिए ढाल प्रतीत हुआ था। अब जब कि मैं बच्ची के बारे में सोच रहा हूँ, वही ढाल बीच में आकर खड़ी हो रही है। 

मम्मी इतना करके ही शान्त नहीं हो गयी थीं। उन्होंने मेरे लिए दूसरी पत्नी की तलाश का अभियान भी ज़ोर-शोर से शुरू कर दिया था। मैंने विरोध किया था तो बोली थीं, “तो क्या एक बदचलन के लिए सारी उम्र कुँआरा बैठा रहेगा? एक नहीं, हज़ार लड़कियाँ तलाश दूँ अभी तो! हर लड़की उसके जैसे थोड़े ही होती है! तू ‘हाँ’ तो कर!।” 

मैं किसी भी तरह मम्मी को नहीं समझा पाया था कि भावनात्मक रिश्ते मशीन के पुर्जे नहीं होते, पुराना ख़राब निकल गया तो नया डाल लो, और मशीन चालू। एक रिश्ते की दरक सारे वुजूद में दरारें डाल जाती है। आदमी न मर पाता है, न ज़िन्दा रह पाता है। सारा सोचा-समझा ज़रा-सी देर में उलट-पुलट हो जाता है। विश्वास के खम्भे इस तरह ध्वस्त होते हैं कि नयों के लिए जगह नहीं बचती। दिल से दिमाग़ तक, और दिमाग़ से दिल तक जो तह कौंधती है, वह आसानी से शान्त नहीं होती। 

आसानी से नहीं हुई थी, मगर शान्त तो होती ही गयी थी। मम्मी के साथ-साथ स्वयं मैं भी चाहने लगा था कि कोई दूसरी लड़की . . . दो दिन पूर्व ही मैंने मम्मी को लिखा है कि मैं अगले इतवार को लड़की देखने आ रहा हूँ। मम्मी ने कोई लड़की देखी थी, जो उनकी नज़र में हर तरह में ठीक थी शक्ल-सूरत से भी, और घर-परिवार से भी। वे चाहती थीं कि में शीघ्र आकर लड़की को देख लूँ, ताकि आगे का सारा मामला तय किया जा सके। 

आख़िर किसी भी रिश्ते की बुनियाद क्या होती है? रिश्तों के इतने घने, छायादार वृक्ष दीमक-खायी लकड़ी की तरह भुरभुरा कर कैसे ज़मीन पर आ रहते हैं? रिश्तों को समझने-सहेजने में कहाँ ग़लती हो जाती है हमसे? वह बच्ची बार-बार आवाज़ देती हुई क्यों प्रतीत होती है? मेरठ जाते हुए अलीगढ़ बस स्टैंड पर मैं चाय पीने के लिए उतरा था तो उस नन्ही बच्ची के साथ दिल्ली से आयी बस से उतरती तरुणा को देख ठिठक गया था। तरुणा भी जहाँ की तहाँ जमी रह गयी थी। आमना-सामना इतना अप्रत्याशित था कि न उसे बच कर निकलने का मौक़ा मिला था, न मुझे। कुछ पलों तक उसके चेहरे पर संशय-आशंका की घुमड़ बनी रही थी। मैं उस नन्ही-सी गोल-मटोल बच्ची को देख रहा था, जो अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मुझे लगातार घूरे जा रही थी। 

“कैसे हैं आप?” तरुणा ने पूछा था। 

क्या उत्तर हो सकता था इस प्रश्न का? यही, कि ठीक हूँ। मगर मैंने ये दो शब्द बोलने तक की औपचारिकता नहीं निभायी थी। 

“मम्मी-बाबू जी कैसे हैं?” तरुणा ने दूसरा सवाल पूछा। 

“ठीक हैं।”

“सुना था, बाबू जी के पैर में फ़्रैक्चर हो गया था।”

“हाँ, बाथरूम में फिसल गये थे।” तो इसको हमारे बारे में ख़बरें मिलती रहती हैं, मैंने सोचा था। 

“वे लोग तो आगरा में ही होंगे?” 

“हाँ,” तो क्या इसे मालूम है कि में आजकल मेरठ में हूँ और मम्मी-बाबू जी आगरा रह रहे हैं। 

“मेरठ जा रहे होंगे आप?” 

“हाँ।” सारी जानकारी है इसे। “और तुम?” 

“यहीं, अलीगढ़ आयी थी। एक कलीग की शादी है।”

तरुणा चुप हो गयी थी, जैसे समझ नहीं पा रही हो कि क्या पूछे। इसी बीच बच्ची बोल उठी थी, “ये तौन हैं?” 

“ये तेरे पापा हैं बिट्टी,” तरुणा के मुँह से निकला था। 

मैं अवाक् तरुणा को देखने लगा था। वह सकपका गयी थी और नज़रें बचाने लगी थी। इधर बिट्टी, तरुणा के हाथ से अपना हाथ छुड़ा कर मेरे पास चली आयी। अपने नन्हे हाथों से पैंट पकड़कर बोली, “आप मेले पापा हैं?” 

यह तो अभी तक नहीं समझ पाया कि उस पल मेरे अन्दर क्या घटित हुआ था, मगर मैंने उसे गोद में उठा लिया था। वह मेरी घनी मूँछों में अपनी नर्म उँगलियाँ उलझाती पूछे जा रही थी, “आप मेले पापा है आप . . . मेले पापा हैं?” मोह के उस अविछिन्न प्रवाह को तरुणा ने ही भंग किया था, “आपकी बस जाने वाली है।”
बस के लगातार बजते हॉर्न पर मेरा ध्यान ही नहीं गया था। मैंने बिट्टी को एक बार चूमकर गोदी से उतार दिया था। बस में बैठकर जब मैंने बाहर झाँका था, बिट्टी अपने नन्हे-से हाथ हिला रही थी। 

कितनी अजीब बात है कि तरुणा से एकदम अलग हटकर मुझे सिर्फ़ बिट्टी याद आ रही है। उसका ‘पापा’ सम्बोधन जैसे तरुणा से जुड़ी हर घटना के ऊपर पाँव रखता हुआ मेरे भीतर के बाप की गोद में जा बैठा है। मेरे और बिट्टी के बीच शायद रनवीर चौधरी कहीं नहीं आता। ऐसा होता तो क्यों उस दिन तरुणा अपनी बेटी को मुझे उसका पापा बताती? 

जब तरुणा घर छोड़कर गयी थी, तो मैं सोचता था कि वह रनबीर चौधरी के साथ ही रहेगी। लेकिन शीघ्र ही समाचार मिला था कि उसने रनवीर चौधरी का घर छोड़ दिया है और करौलबाग में कहीं कमरा लेकर रहने लगी है। वैसे भी रनवीर चौधरी के घर वह रहती किस हैसियत से? चौधरी की बीवी अपनी छाती पर किसी दूसरी औरत को क्यों सहती? 

फिर इसी का क्या भरोसा कि स्वयं रनवीर चौधरी ने अपने बच्चों की नज़र में ज़िम्मेदार बाप की अपनी छवि धूमिल होने से बचाने के लिए उसे घर छोड़ने को विवश न किया हो। 

तरुणा को ले कर उठते ख़्यालों की घुमड़ से मैंने तब बहुत मुश्किल से स्वयं को बचाया था। जिससे कुछ लेना-देना नहीं, उसके बारे में सोच कर परेशान होने से फ़ायदा? धीरे-धीरे वह एक बीती हुई घटना मात्र रह जाती, अगर अचानक बिट्टी बीच में न आ जाती। न उसके प्रति दोबारा नफ़रत उमड़ती, न उसके सान्निध्य से जुड़ी मृदुल घटनाओं की स्मृति। 

बस स्टैंड की अप्रत्याशित मुलाक़ात से पूर्व तरुणा से मेरी आख़िरी मुलाक़ात अदालत में ही हुई थी। उस दिन वह बहुत टूटी-थकी लग रही थी। उसने जिस याचनाभरी दृष्टि से मुझे देखा था, वह अभी तक मुझे याद है। 

मेरे वकील ने तरुणा को तलाक़ का नोटिस भेजा था। इसमें तरुणा और रनबीर चौधरी के अवैध सम्बन्ध का आरोप था, उसके अवैध गर्भ का स्पष्ट उल्लेख था। इस नोटिस के उत्तर में मुझे तरुणा का पत्र मिला था— ‘इतना ज़्यादा कीचड़ उछालने से क्या मिलेगा आपको? मैं विवाद खड़ा करने नहीं जा रही। म्यूचुअल डाइवोर्स के काग़ज़ तैयार करा लीजिए . . .’

मजिस्ट्रेट के सामने स्वेच्छा से तलाक़ लेने का उसका बयान पढ़ कर सुनाया गया था तो उसका चेहरा स्याह पड़ गया था। बाद में जब उसने काग़ज़ों पर हस्ताक्षर किये थे तो वह सिसकने लगी थी। उस समय लगा था, उसने मजिस्ट्रेट सहित सभी मौजूदा लोगों की सहानुभूति जीत ली है। मगर मेरे अन्दर सहानुभूति जैसा कुछ भी पैदा नहीं हुआ था। घृणा का कोई आवेग उस वक़्त भी मुझे मरोड़ रहा था। मैंने अदालत से बाहर निकलते-निकलते कहा था, “यहाँ भी नाटक करने से नहीं चूकी!”

तरुणा ने तब ठंडी निगाहों से मुझे ताका भर था। वह कुछ बोली नहीं थी। फिर भी लगा था, कोई बात उसके होंठों से उतर कर मुझ तक आना चाहती थी। अब एकाएक प्रबल इच्छा हो रही है कि तरुणा से पूछूँ, अगर उस दिन वह कुछ कहती तो क्या कहती। इधर अनायास ही मैंने टेलिग्राम की इबारत घसीट दी है—मैं बिट्टी को देखने आ रहा हूँ। 

मैं एक दूसरे टेलिग्राम की इबारत भी घसीट गया हूँ—मम्मी, मैं अभी आगरा नहीं आ पाऊँगा। आप रिश्ते की कोई बात न चलायें। 

अब मैं स्वयं से ही पूछ रहा हूँ—आख़िर मैं यह क्यों लिख गया हूँ? उस बच्ची तक पहुँचने के लिए तरुणा को सेतु बनाना चाहता हूँ, या इसके अतिरिक्त भी कुछ और? 

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