वह अनुभव

01-10-2024

वह अनुभव

विभांशु दिव्याल (अंक: 262, अक्टूबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

पिछले पड़ाव का अनुभव अच्छा रहा था। लोगों ने हमारी बातें सुनी थीं। वे हमारे सामाजिक आंदोलन से एकदम भले ही न जुड़े हों, परन्तु वे सब इस बात से सहमत थे कि देश में एक ऐसे सामाजिक आंदोलन की ज़रूरत है जो सामाजिक जीवन के मूलभूत मूल्यों के समर्थन में तमाम भ्रष्ट और विघटक प्रवृतियाँ के विरुद्ध खड़ा हो सके। एक ही बैठक में स्वस्थ सामाजिकता के मूल विचारों के प्रति इतना समर्थन जुटा लेना भी हम अपनी सफलता मान रहे थे। मन में यह विश्वास भी बल पा रहा था कि आगे के गाँवों में भी हम ऐसी ही सफलता पाते रहेंगे। 

अगला प्रमुख गाँव जहाँ रुककर हमें ग्रामीणों से बातचीत करनी थी, लगभग चार कि.मी. दूर रहा होगा, जब हमने राहगीरों से इस गाँव के विषय में अन्तरंग जानकारी प्राप्त करने का प्रयास शुरू किया। एक व्यक्ति अपनी देशज शब्दावली में कुछ बोलकर आगे बढ़ गया। उसके कथन का जो अर्थ हमारे पल्ले पड़ा वह यह था कि राहगीरों से पूछकर हमें क्या पता लगेगा, हम ख़ुद जाकर देख लें कि गाँव के क्या हालचाल हैं। गाँव का यह रहस्यमय-सा परिचय हमारे अन्दर तमाम जिज्ञासाएंँ जगा गया। 

हम किसी अन्य राहगीर से बात करना चाहते थे कि एक साइकिल सवार हमें देखकर उतर पड़ा। यह व्यक्ति कुछ पढ़ा-लिखा प्रतीत हो रहा था। हमसे बोला, “आप लोग कहाँ जा रहे हैं?” 

मैंने उसे समझाया कि हम पति-पत्नी लम्बी पैदल यात्रा पर निकले हैं। जगह-जगह जाकर लोगों से बातचीत करते हैं। सामाजिक बुराइयों के बारे में उन्हें समझाते हैं। उनसे वादा कराते हैं कि वे स्वयं बुराइयों को दूर करने का प्रयास भी करेंगे। 

साइकिल सवार हमें आश्चर्य से घूरने लगा। वह बोला, “इस काम के लिए आप इतनी तकलीफ़ उठा रहे हैं। आपको उम्मीद है कि आप कुछ कर पायेंगे?” 

“इसी उम्मीद के सहारे तो हम निकले ही हैं कि कुछ कर पाएँगे। रही तकलीफ़ उठाने की बात तो बिना तकलीफ़ उठाए तो कोई भी अच्छा काम न तो सम्पन्न हुआ है, न होगा,” मैंने उसे समझाया। 

थोड़ी देर की बातचीत के बाद ही यह व्यक्ति हमारे प्रति आत्मीय हो उठा। हमें सलाह देते हुए बोला, “आप गाँव-गाँव जा रहे हैं, यह तो अच्छा कर रहे हैं, मगर आगे जो बहुली गाँव पड़ेगा, वहाँ मत जाइएगा।”

“क्यों?” मैंने और मेरी पत्नी ने एक साथ पूछा। 

वह बोला, “सारा गाँव शराबी-कबाबियों का है। वहाँ आपकी बात कोई नहीं सुनेगा। आप अकेले होते तो भी कोई बात नहीं थी, बाई जी आपके साथ हैं, वे लोग कोई भी बदतमीजी कर सकते हैं।”

विचित्र स्थिति थी। मैंने और मेरी पत्नी ने एक दूसरे की ओर देखा फिर मैंने उस व्यक्ति से कहा, “वह गाँव हमारे रास्ते में पड़ेगा, इसलिए जाना तो पड़ेगा ही। जब वहाँ जाना ही है तो कुछ लोगों से बातचीत करने में क्या बुराई?” 

वह बोला, “मैंने तो आपको बता दिया, बाक़ी आप जानें। अच्छा तो यही रहेगा कि आप बिना इधर-उधर देखे चुपचाप उस गाँव से निकल जाएँ।” 

मैं दुविधा की स्थिति में था कि पत्नी ने उबार लिया। वह बोली, “अगर इसी तरह गाँव छोड़ते हुए निकलना था तो अपने घर में ही क्या बुरे थे? हम इस गाँव में ज़रूर चलेंगे।”

मुझे अपनी पत्नी के फ़ैसले पर प्रसन्नता हुई। हम उस साइकिल सवार से विदा लेकर बहुली गाँव की ओर बढ़ चले। 

यूँ तो यह दिन अन्य दिनों की तरह ही गुज़रा था—सुबह उठकर यात्रा शुरू कर देना, चार-पाँच कि.मी. चलने के बाद अल्प विश्राम, कोई गाँव मिला तो बातचीत, फिर आगे बढ़ जाना। लेकिन आज एक अव्यवस्था यह हो गई थी कि सुबह नाश्ते के लिए जो ब्रेड-बिस्कुट वग़ैरह रखते थे वह समाप्त हो गये थे। इसलिए इस गाँव में घुसते ही पहली चिंता भूख शान्त करने की थी। नज़र डाली कि कहीं कोई ढाबा नज़र आ जाए, पर नहीं आया। 

एक व्यक्ति को हमने इस आशय के साथ रोका कि किसी ऐसे व्यक्ति का पता जान लें जो इस गाँव के लोगों से बातचीत करने में हमारा मददगार हो सके, साथ ही हमारे खाने इत्यादि की व्यवस्था भी कर सके। वह व्यक्ति बोला, “तिवारी सेठ के पास जाने का।”

मैंने कहा, “तिवारी लोग हैं, इस गाँव में?” 

“वो यू.पी. का है। इधर तो वो बिज़नेस के वास्ते आया।”

तिवारीजी तक पहुँचने में हमें अधिक पूछताछ नहीं करनी पड़ी। किराने की दुकान थी तिवारीजी की। जब हम लोग दुकान पर खड़े हुए तो साठ को पार किए हुए मगर किसी महन्त जैसे सुर्ख़ व्यक्तित्व वाले तिवारीजी कुछ आदिवासी लोगों के साथ ताश खेल रहे थे। खड़े होते ही महुए की शराब की गंध महसूस हुई। शीघ्र ही मालूम पड़ा कि यह गन्ध ताश के खिलाड़ियों की साँसों से ही उठ रही थी। हमें दुकान पर खड़ा देखकर एक छोटा-सा झुण्ड हमारे गिर्द घिर आया था। 

तिवारीजी जब तक हम से मुख़ातिब होते, एक व्यक्ति झूमता हुआ आया और तिवारीजी से पैसे माँगने लगा। 

“फिर आना,” तिवारीजी बोले, “ये लोग आये हैं, इनसे बात करनी है।” उस शख़्स ने हिक़ारत की नज़र से हमें देखा, जैसे उसे पैसा न मिलने के दोषी हम हों, फिर लड़खड़ाते क़दमों से चला गया। 

जिस छोटी-सी भीड़ से हम घिर गये थे, वह हमें विचलित कर रही थी। कारण थी महुए की तीव्र गन्ध। एक लड़के ने जब मेरा बैग टटोलना शुरू किया तो तिवारीजी ने डपट दिया। लड़के हमसे थोड़ी दूर हो गये। महसूस हुआ, तिवारीजी का ख़ासा रोब दाव है . . . 

हमने अपनी पदयात्रा की वजह तफ़सील से बयान की कि हम जातीय कट्टरता, धार्मिक अन्धविश्वास, क्षेत्रीय उग्रवाद जैसी प्रवृतियों के विरुद्ध जन-चेतना जागरण के उद्देश्य से निकले हैं, और खुले दिमाग़ के युवकों को तमाम सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए संगठित भी कर रहे हैं।

तिवारी जी ध्यानस्थ सुनते रहे। जब हमने तमाम अपेक्षाओं के साथ अपनी बात ख़त्म की तो तिवारी जी ने बारी-बारी से हम लोगों को देखा, फिर अवधूती मुद्रा में बहुत ठन्डे स्वर में कहा, “ठीक है, करो।”

मुझे लगा, हमारे उत्साह की लौ पर तिवारी ने बर्फ़ की बाल्टी उड़ेल दी हो। इधर भूख के मारे खड़े होना भी कठिन लग रहा था। पंद्रह कि.मी. पैदल चल आने की थकान अलग से। मैंने पूछा, “यहाँ कोई ढाबा-होटल है, खाने के लिए।”

“इस गाँव में कहाँ, ढाबा होटल रखे हैं.” तिवारी जी ने अपने हाथ के ताश फेंटने शुरू कर दिए। हम असमन्जस की स्थिति में खड़े ही रहे तो तिवारीजी बोले, “देखो भाई, खाने का इंतज़ाम कर तो देते, पर आज हमारे यहाँ सबने व्रत रखा है। कल तो खाना घर बनवा देंगे।”

मुझे लगा, आज हमारा भी व्रत हो जाएगा, मगर अंतड़ियों में भूख ऐंठ रही थी। इधर यह ख़ास आदमी सारे दरवाज़े बंद किये दे रहा था। मैंने भूख को भूलकर अपनी आख़िरी बात कही, “आप यहाँ, गाँववालों के साथ हमारी बैठक करा सकते हैं?” 

“गाँव की बैठक ये रही,” तिवारी जी ने नशेड़ियों की ओर गर्व से देखा, “ऐसी बैठक तो हो जाएगी, पर इसमें क़िस्सा कहानी कौन सुनेगा?” इसके बाद वहाँ खड़ा होना वक़्त ख़राब करना था। 

हमने आगे बढ़कर एक छोटे बच्चे से पूछा, “यहाँ आस-पास कोई स्कूल है?” 

स्कूल का दृश्य वही था जिसकी कल्पना एक सामान्य स्कूल के लिए सहजता से की जा सकती हो। सारे बच्चे एक ही कमरे में बैठे पंचम स्वर में अपने-अपने रागों का आलाप ले रहे थे। कुर्सी पर एक व्यक्ति उकड़ूँ बैठा हुआ ऊँघ रहा था। उसने सिर्फ़ बनियान पहन रखी थी। क़मीज़ कुर्सी के हत्थे पर टँगी हुई थी। हम तय नहीं कर पाये कि यह उजबक शख़्सियत किस हैसियत से उस कुर्सी पर विराजमान थी। 

हमें कमरे के दरवाज़े पर खड़ा देख वह मूर्ति क़मीज़ में शरीर प्रविष्ट कराने का असफल प्रयास करती हमारे नज़दीक आई तो महुए का झोंका हमें कृतार्थ कर गया। मैंने कहा, “मास्टर साहब से मिलना है।” 

“मैं ही मास्टर साहब हूँ।”

मैंने आश्चर्य से उन्हें घूरा। विश्वास न होते हुए भी अविश्वास करने की कोई ऐसी वजह नहीं थी कि वे सज्जन मास्टर साहब नहीं हैं। तब तो सचमुच ही मानना पड़ा कि वे मास्टर साहब ही हैं, जब उन्होंने हमारे चारों तरफ़ घिर आये लड़कों को डाँटकर भगाया, और कुछ लड़के सचमुच भाग गये। मास्टर साहब हम दोनों लोगों का नख-शिख निरीक्षण करने लगे। 

मैंने अपने आने का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए जब उनसे गाँववालों के साथ एक बैठक आयोजित कराने की बात कही तो उन्होंने मजबूरी ज़ाहिर की। वे वहाँ से दसेक किलोमीटर दूर गाँव के रहनेवाले थे। मास्टरी के साथ-साथ महुआ बिनवाने बिकवाने का काम भी आजकल कर रहे थे, हमारी ख़ातिर उनका छुट्टी के बाद गाँव में रहना सम्भव नहीं था। 

“कोई और व्यक्ति है जो हमारी मदद कर सके?” 

“तिवारी पैसेवाले आदमी हैं, वे कर सकते हैं,” मास्टर साहब छूटते ही बोले। 

“तिवारी के अलावा कोई अन्य व्यक्ति बताएँ।”

मास्टर साहब थोड़ी देर सोचने की मुद्रा अख़्तियार किये रहे, फिर बोले, “साहूजी कर सकते हैं।”

हमने एक और प्रयास करने का निश्चय किया। मास्टर साहब को साथ लेकर हम साहूजी से मिलने चल पड़े। 

हमारे बारे में जानकर जब साहूजी ने हमसे पूछा, “खाना-वाना लिया कि नहीं” तो हमारी जवाब देती हिम्मत वापस लौट आई। हमने साहूजी से आग्रह किया, हमारे लिए अलग से कुछ भी न बनवाया जाये, बल्कि जो कुछ घर में बना पड़ा हो, उसी से हम काम चला लेंगे। 

दो-दो रोटियाँ दाल के साथ खाकर, न केवल शरीर को ताक़त मिली बल्कि मन भी चैतन्य हो उठा। 

मास्टर साहब तो पहले ही चले गए थे। हमने साहू जी से बैठक की बात चलाई। साहूजी ने हमसे हमदर्दी जताते हुए कहा, “यहाँ दिन डूबते ही लोग महुआ पीने लगते हैं, कोई मीटिंग में नहीं आएगा।”

मैंने कहा, “आप सिर्फ़ जगह का इंतज़ाम कर दीजिए, लोगों को हम बुला लेंगे।”

“आप इस गाँव को जानते नहीं हैं, तभी आप कह रहे हैं . . . वैसे आप मीटिंग बुलाना चाहें तो बुला लीजिए, यहीं चौपाल पर बुला लीजिए। फ़ायदा कुछ होना नहीं।”

बहरहाल हमने साहू साहब को डूबते का सहारा तिनका मानकर शाम की बैठक का प्रयास शुरू कर दिया। कटाक्ष, उपहास से लेकर त्याग उत्सुकता का सामना करते हुए हमने गाँव के लोगों से साहू साहब की चौपाल पर इकट्ठा होने का आग्रह किया। इस गाँव-सम्पर्क के दौरान भी हमें हर तीसरा-चौथा व्यक्ति महुआ चढ़ाये मिला। 

एक जगह एक व्यक्ति को मैंने टोका, “क्यों इतना दारू पीते हो, क्या मिलता है तुम्हें?” 

उसने अपनी छोटी-छोटी आँखें कुछ और छोटी कीं, बोला, “तुम्हारे कहने से दारू छोड़ने का क्या!”

मैंने कहा, “इतनी दारू क्यों पीते हो, छोड़ देनी चाहिए।”

उसने हाथ उठाकर पैर आगे बढ़ाया जैसे कत्थक का ठुमका लिया हो, और बोला, “दारू छोड़ देने का, कल बोलगा, रोटी छोड़ देने का, काहे को छोड़ देने का। तुम्हारा पैसे का लाता क्या?” उसने ठुमका पूरा किया और नृत्य की मुद्रा अख़्तियार कर ली। 

वह जितनी गहराई से बोल रहा था, वहाँ तक पहुँचकर उसकी बात को खंडित करने का साहस मैं नहीं जुटा पाया। दो अन्य व्यक्ति जो हमारी बातचीत सुन रहे थे हँसने लगे। मैं चुपचाप वहाँ से हट लिया। मुझे साहूजी की बात ही सत्य लग रही थी। इन लोगों से क्या बातचीत हो सकेगी? क्या कर सकूँगा मैं इन लोगों के बीच? लोगों को बैठक के लिए आमंत्रित कर जब मैं साहूजी की चौपाल पर लौटा तो मन दुविधाग्रस्त हो चुका था। 

इस बीच साहूजी ने जब उस गाँव, और उस जैसे अन्य गाँवों के दारू चरित्र को स्पष्ट किया तो मन और भी अधिक क्षुब्ध हो गया। वह आदिवासी बहुल इलाक़ा था। प्रत्येक आदिवासी परिवार को दो बोतल महुए की शराब खींचने की अनुमति थी। इसका लाभ अन्य क्षेत्रों के अवैध शराब के व्यापारी उठाते थे। वे आदिवासियों से शराब दो रुपया प्रति बोतल लेकर बाहर शहरों में दस रुपया प्रति बोतल बेच देते थे। यह सारा धन्धा पुलिस तथा स्थानीय आबकारी अधिकारियों की साँठ-गाँठ से चलता था। इस धन्धे को जारी रखने के लिए ज़रूरी था कि नशाखोरी को बढ़ावा दिया जाए। और यह काम बहुत ही सुनियोजित ढंग से हो रहा था। 

जब मैंने साहूजी से उन लोगों के बारे में विस्तार से जानना चाहा जो भोले आदिवासियों के स्वास्थ्य, प्रगति, पैसे की क़ीमत पर दुष्चक्र को चला रहे थे, तो साहू साहब ने चुप्पी मार ली। मैं समझ गया कि वे लोग निश्चित ही ताक़तवर हैं, इसीलिए साहू साहब उनका नाम लेने से डर रहे हैं। 

शाम को चौपाल पर लोग इकट्ठा होना शुरू हुए तो लगा, यह भीड़ कोई नौटंकी देखने की मानसिकता के साथ आई है। कुछ नौजवान लड़के अवश्य सामान्य अवस्था में थे, मगर वे भी गम्भीर नहीं थे। साहू जी ने जब उस छोटे से समूह को शान्त रहकर मेरी बात सुनने को कहा तो, उनमें से कई एक हँसने लगे। 

मेरी पत्नी बोली, “आप बोलना शुरू कीजिए, ये लोग चुप हो जाएँगे।” मैंने बोलना शुरू किया, “साथियो, आज हमारे देश और समाज की क्या हालत है, आप जानते हैं,” मगर इसके बाद नहीं बोल सका। 

एक श्रोता तुरन्त खड़ा हो गया, “हमको क्या बताता, देश क्या हम सब जानता देश क्या . . . हम जानता, हमारा गाँव जानता हमारा लड़का भी जानता पूछो हमारा लड़का से वो सब जानता देश क्या, तुम हमारे को क्या बताता हम जानता है तुम्हारे को वोट माँगता। तुम हमारा वोट ले जाएगा। फिर इधर को कभी नहीं देखेगा बोलो सच कहता कि नहीं?” 

उस शराबी की बातों पर ठहाके लगता श्रोता-समूह ज़ोर से चिल्लाकर बोला, “सच कहता सच कहता।”

सारी फ़ज़ा ठीक वैसी हो गई जैसी होली के हुड़दंग में होती है। मेरे अंदर ग़ुस्से का तेज़ उबाल उठा और मैं ज़ोर से चिल्लाया, “चुप हो जाओ! तुम्हें शर्म नहीं आती ये तमाशा करते हुए। हम लोग इतनी दूर से पैदल चलते हुए, तमाम तकलीफ़ें उठाते हुए तुम्हारे पास तक आते हैं, और तुम हमारी दो बात नहीं सुन सकते।” उस समय मेरे एकाएक चिल्ला उठने से ही माहौल शान्त हो गया था। मगर मैं बिना रुके बोलता गया, “तुम इस तरह शराब पीकर ये तमाशा कर रहे हो, तुम्हें अच्छा लगता है? तुम्हें देखकर दूसरे लोग हँसते हैं, तुम्हें शर्म नहीं मालूम होती . . . जो पैसा इस शराब में ख़त्म कर देते हो, इन बच्चों को खिलाने-पिलाने में ख़र्च करो तो ये भी इन्सान बन जाएँ . . . तुम्हें शर्म नहीं आती। तुम्हारे बच्चे, नंगे-भूखे रहते हैं, न पढ़ पाते हैं, न लिख पाते हैं . . . और तुम दारू पीकर अपनी ज़िन्दगी बरबाद करते हो, अपने बच्चों की ज़िन्दगी बरबाद करते हो . . . 

“और तुम लड़के लोग तुम्हें अच्छा लगता है ये सब? दिन-रात की गाली-गलौज . . . मारपीट, झगड़ा-फसाद, सब इस शराब की वजह से होता है, और तुम लोग कुछ नहीं करते . . . तुम लड़के लोग समाज की बुराइयों को दूर नहीं करोगे, तो और कौन करेगा तुम अपने घर-परिवार को नहीं बचाओगे तो कौन बचायेगा? तुम हर गन्दी आदत के शिकार हो जाते हो तुमने कभी सोचा तुम्हारे अंदर दारू पीने की आदत डालकर कौन फ़ायदा उठाता है? मगर तुम अपने आप अपनी भलाई-बुराई का फ़ैसला कर सकते, तो तुम्हें कोई इस तरह लूट सकता?” मैंने बोलना बंद कर दिया। इस माहौल में और अधिक बोला भी क्या जा सकता था? मेरे चुप होते ही वे फिर आपस में शुरू हो गए। पहले एक ही भाषण दे रहा था, परन्तु अब एक साथ तीन-चार बोल रहे थे। कुछ लड़के ज़रूर मेरी ओर उत्सुकता से देख रहे थे। 

बैठक बुरी तरह असफल हो गई थी। साहूजी ने लोगों को डाँटकर भगा दिया। 

खाना खाकर जब हम पति-पत्नी रात्रि विश्राम के लिए लेटे तो आपस में बात नहीं कर पा रहे थे। शायद मेरी तरह, मेरी पत्नी के मन में भी गहरी हताशा उतर गयी थी। मुझे लग रहा था, हमारे पाँवों के नीचे की ज़मीन बेहद भुरभुरी हो गई है, और हम आगे यात्रा नहीं कर पायेंगे। मन बुरी तरह डाँवा-डोल हो रहा था। सारे दिन की थकान थी, इसलिए नींद तो आनी ही थी। 

सुबह जल्दी ही नींद खुल गयी। मैंने पत्नी से तुरन्त तैयार होने को कहा। मैं इस मनहूस गाँव से बिना किसी की शक्ल देखे ही निकल जाना चाहता था। साहूजी का चाय पीकर जाने का आग्रह भी हमने स्वीकार नहीं किया। हमने अपने बैग अपने कन्धों पर लादे और चल पड़े। 

गाँव से निकलकर हम थोड़ी ही दूर चले थे कि पीछे से कुछ लोगों की आहटें सुनाई देने लगीं। मुड़कर देखा तो कुछ लड़के दौड़ते हुए हमारी ओर आ रहे थे। उन्होंने हमें रुकने का इशारा किया। हम रुक गये। 

एक लड़का हाँफता हुआ-सा बोला, “साब अपुन लोग साहू साहब के घर गया . . . आप लोग इदर को निकल आया . . . साब आपका अक्खा बात अपुन लोग को अच्छा लगा। अपुन लोग इस गाँव में दारू नहीं बनने देगा। साब वो तिवारी सेठ है न वो ही इधर को महुआ लाता है। यही अपुन लोग से दारू का धन्धा कराता . . . अपुन अब उसकी दादागिरी नहीं चलने देगा साब, हमको आपका बात अच्छा लगा। आप हमारा हेल्प तो करेगा न साब . . .?” 

एकाएक मुझे लगा, मेरे पाँवों के नीचे की भुरभुरी ज़मीन चट्टान की तरह मज़बूत हो गयी है। मैंने अपनी पत्नी की ओर देखा। उसकी आँखें बता रही थीं कि आदमियत के प्रति उसके उखड़ते विश्वास पहले से भी अधिक पुख़्ता हो गये हैं। 

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