पिंजरे में क़ैद एक चिड़िया

01-07-2024

पिंजरे में क़ैद एक चिड़िया

विभांशु दिव्याल (अंक: 256, जुलाई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

लम्बी और अच्छी दोस्ती के बावजूद कभी ऐसा नहीं हुआ था कि मैं शमीम भाई के घर जाता और उनसे साहित्य-राजनीति पर चर्चा करता। उस दिन भी महज़ संयोग ही था कि मैं उनकी बैठक में मौजूद था और उनकी डायरी पलट रहा था, जब कि वे अपने मुवक्किलों को निपटा रहे थे। हर दो मिनिट बाद मुझसे मुख़ातिब होते और दो मिनिट में ‘फ़्री’ होने की आश्वस्ति देते, मगर दो मिनिट बीतते न बीतते कोई नया चेहरा बैठक में दाख़िल होता, जो उन्हें अगले दो मिनिटों के लिए फिर व्यस्त कर देता। 

अब तक मैं उनकी डायरी में लिखी कई कविताओं से गुज़र चुका था। कहाँ ये कविताएँ और कहाँ झूठ-फ़रेब की नींव पर खड़ा हुआ वकालत का क्रूर पेशा। शमीम भाई कैसे संगति बिठा पाते होंगे दोनों में? यह सवाल प्रखरता से उठना शुरू हुआ था कि अगली कविता ने पूरी तरह मुझे अपनी जकड़ में ले लिया था। उनकी कविता की सफ़ेद चिड़िया मेरे अन्दर-बाहर, हर ओर फड़फड़ाने लगी थी। शमीम भाई अभी भी एक मुवक्किल को निपटाने की कोशिश कर रहे थे, और मैं फिर से उसी कविता को पढ़ने लगा था:

रोज़ाना, 
रोज़ेरियम के सामने से गुज़रते देखता हूँ, 
रोज़ प्लांटस पर, डाली-डाली, फूल-फूल 
फुदकती, चहकती एक सफ़ेद चिड़िया को 
दिन, हफ़्ते, महीने, साल गुज़रते जाते हैं, 
फिर एक दिन रोज़ेरियम, की वह चिड़िया 
मेरे पड़ौस के मकान के सहन में लटकते हुए 
एक पिंजरे में बंद दिखाई दी। 

और मेरे दिल में सोई पड़ी 
उसे देखने की इच्छा, तड़पकर जाग उठी। 
लेकिन घर, पिंजरा और चिड़िया सभी पराये थे, 
फिर उसके क़रीब से गुज़रते वक़्त 
उस पर पड़ने वाली मेरी नज़रों में, 
पता नहीं, उसने क्या देखा कि 
जब भी मैं उसके सामने होता 
वह पिंजरे की हर सलाख को 
अपने पंजों और चोंच से तोड़कर 
बाहर आने के लिए फड़फड़ाती और 
न आ सकने की बेबसी से थककर, हाँफती-काँपती 
बैठ जाती, और मेरे नज़रों से ओझल होने तक देखती रहती 
बहुत मासूम और बेबस नज़रों से! 

मुझे लगा था, मेरी पहुँच और मेरी दृष्टि से कहीं बहुत दूर कोई सफ़ेद चिड़िया पिंजरे की सलाखें तोड़ने की कोशिश में लहूलुहान हो गई है—दर्द की टीस से भरे हुए उसके पंजे, उसकी घायल चोंच . . . मेरे अन्दर तड़प कौंधने लगी थी। 

“क्या हुआ?” मुझे शमीम भाई की आवाज़ सुनाई दी। 

“कुछ नहीं!” मैंने कहा, मगर मेरा चेहरा कुछ न कुछ अवश्य कह गया था, तभी शमीम भाई का ध्यान, अपने मुवक्किल से हटकर बार-बार मेरी ओर जा रहा था। 

मैंने कोशिश की कि अगली कविता पढ़ूँ, पर हाथ इतने भारी हो आये कि अगला पृष्ठ नहीं पलट सका। कविता की हर पंक्ति को एक सफ़ेद चिड़िया के पंखों ने छा लिया था . . . 

तब वह मुझे बाज़ों की कहानियाँ सुनाया करती थी—एक से एक डरावनी कहानियाँ कि वह अपने नीड़ में भी सुरक्षित नहीं रहती, कि ये बाज़ उसके निकटतम सम्बन्धियों के वेश में उस पर झपटते थे, कि वे उसके शरीर पर कम, मन पर अधिक गहरे घाव छोड़ते थे . . . कि वह उस घोंसले में भी आतंकित रहती थी जहाँ उसने जन्म लिया था। किसी को भी इतनी फ़ुरसत नहीं थी उसके ज़ख़्मी अहसासों को सहला सके। मुझे कभी विश्वास नहीं होता था, तो वह अपनी उदास आँखों से मुझे देखने लगती थी जैसे कह रही हो, “तुम्हें मेरी बातों पर विश्वास नहीं होता?” 

मैं जानता था कि वह मुझसे झूठ नहीं बोलती। और उसकी बातों पर विश्वास करने का मतलब होता था अपने आस-पास के सारे परिवेश के प्रति बुरी तरह शंकालु हो उठना, हर जीवन-मूल्य के प्रति गहरे अविश्वास से भर उठना। मगर मैं उसकी बातों पर विश्वास करता था, और मन में बहुत-से जाने-पहचाने, बेहद शरीफ़ छवि वाले चेहरों के प्रति गहरी वितृष्णा पैदा होने लगती थी। अन्दर आक्रोश उबलने लगता था। तब मेरे मुँह से अस्फुट-सी शब्दावली में निकल जाता, “कैसे हो सकता है ऐसा? कैसे?” 

तब वह अपने डैने खोल देती थी। मुझे उसके धवल ख़ूबसूरत डैनों पर खरोंचों के निशान नज़र आते थे, कभी-कभी ख़ून के धब्बे, और घावों पर जमी पपड़ियाँ। मैं दहशत से भर जाता था। मैं उन खरोंचों, और दाग़ों को सहलाने के लिए अपनी उँगलियाँ बढ़ाता तो वह चिंहुककर डैने समेट लेती। उसके मुँह से चीत्कार-सा फूटता था, “नहीं, नहीं, तुम्हारी उँगलियाँ भी मुझे घायल कर देंगी।” 

फिर वह अपनी पलकें उठाकर मेरी ओर देखती थी। उसकी आँखों में तैरती शंका की परछाइयाँ धीरे-धीरे तिरोहित हो जाती थीं। वह कहती, “नहीं, तुम, तुम मुझे ऐसे नहीं लगते।” तब वह अपने घायल डैने मेरी गोद में रख दिया करती थी। 

मेरी आँखें भर आती थीं। कभी-कभी आँसू टपककर उसके घावों में गिरने लगते थे। क्या यह खारा पानी घावों में लगता होगा? मगर वह अपनी आँखें मूँदे हुए होती थी—चेहरे पर गहरा सुकून जैसे वह उस वक़्त दुनिया की सारी छीन-झपट, घात-प्रतिघात से महफ़ूज़ हो। सोया हुआ वक़्त तभी जागता था जब वह यकायक उठकर कहती, “अब चलूँ।”

“कहाँ!”

“वहीं अपने पिंजरे में,” वह कहती। तब मुझे लगता था, जैसे स्वयं उसके पंख उसके लिए बहुत भारी हो उठे हैं। 

वह तो अपने पिंजरे में वापस लौट जाती थी, और मैं बैठा रह जाता था, अपने आप में खोया हुआ, सोच के समुद्र में डूबता-उतराता, किसी को भी क़ैद कर लेने वाली उन सलाखों की पहचान को मन में बिठाता हुआ। क्यों होता है ऐसा कि ऊपर से एकदम साबुत नज़र आने वाला परिन्दा, हताशा-निराशा की सलाखों पर सर पटकता रहता है, मगर कोई उम्मीद कहीं से जुम्बिश लेती हुई नज़र नहीं आती। इतनी नाउम्मीदी, इतनी टूटन, इतनी तड़प दिल की हदों पर कहाँ से टूट पड़ती है? और कोई क्यों चुपचाप अपने आप को उजड़ता हुआ देखता रहता है? यह निरुपायता किस कोने से फूट पड़ती है? किसी के अपने अन्दर से फूटती है, या बाहर से? और कोई चाहता क्या है, जिसके न मिलने पर उसे सलाखों का दहलानेवाला अहसास घेर लेता है? 

मैंने उससे पूछा था, “आख़िर वे चाहते क्या हैं?” 

उसकी चमकदार आँखों का रंग स्याह हो गया था, लगा था जैसे अपने ऊपर झपटते किसी बाज़ को देख रही हो, फिर एकदम ठंडी-ठहरी आवाज़ में बोली थी, “वे मुझे नोंचना चाहते हैं, चिंथोड़कर फेंक देना चाहते हैं। कभी उनकी दुम कुत्ते की तरह हिलती है मगर उनकी जीभ भेड़िए की तरह लपलपा रही होती है। वे चाहते हैं कि अपनी ख़ूनी जीभ मेरे ऊपर फेरते रहें, और मैं चुप रहूँ, न उनसे कुछ कहूँ, न किसी से उनकी शिकायत करूँ . . . वे समझते हैं, मैं सिर्फ़ इसीलिए पैदा हुई हूँ . . .।”

“किसलिए पैदा हुई हो?” मैंने हल्का-सा मज़ाक़ किया था। 

तब उसका चेहरा ग़ुस्से से तमतमा आया था, “बाज़ों के पंजे तोड़ने, कुत्तों का मुँह नोचने और किसलिए।” उसके चेहरे की तमतमाहट उसकी आवाज़ में घुल गई थी। 

“कर पाओगी ऐसा?” 

मेरे ऐसे सवालों पर वह चुप हो जाती थी। उसकी आँखों में उदासी उत्तर आती थी, और वह मेरी ओर अर्थपूर्ण नज़रों से देखने लगती थी। ऐसी ही कोई बात थी जब एक दिन उसने कहा था, “सुनो, तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि हमारे क़रीब से पागलपन की एक नदी गुज़र रही है, और हर कोई इसमें डुबकी लगा रहा है, एक दूसरे को नोचने-खसोटने के लिए, फाड़ फेंकने के लिए। बोलो, तुम्हें नहीं लगता ऐसा?” 

“लगता है, ऐसा ही लगता है। लेकिन यह भी लगता है कि जो कुछ हो रहा है, हम उसे चुपचाप देखते रहने के लिए मजबूर हैं। और हम कुछ भी नहीं कर सकते। बोलो, कर सकते है कुछ?” 

वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों को पलकों से ढाँपते हुए बोली थी, “तुम ठीक ही कहते हो। सचमुच हम कुछ नहीं कर सकते। और देखो, यह भी कैसा मज़ा है, कि हम ख़ुद को सभ्यता की आख़िरी सीढ़ी पर आया हुआ बताते हैं। मुझे तो लगता है, सभ्यता के नाम पर हम किसी धोखे की सीढ़ियाँ चढ़ते रहे, हम वहीं हैं, वैसे के वैसे ही जंगली, वैसे ही आदमख़ोर . . .!”

“नहीं, वैसे नहीं, उससे भी अधिक ख़ूँख़ार, उससे भी अधिक तीखे नाख़ून, और पैने पंजोंवाले . . .,” मैंने कहा था। 

वह बोली थी, “दरअसल हमें एक ऐसी सभ्यता की ज़रूरत थी जो हमारे अन्दर बैठे हुए बाज़ों के पैने नाख़ून तोड़ सकती, उनकी ख़ूनी चोंच से ख़ून की प्यास छीन सकती, मगर . . .” फिर वह हँसने लगी थी। बोली थी, “मगर देखो, हम ख़ुद को सभ्य कहते हैं। और हम अभी तक आकाश का ऐसा छोटा-सा टुकड़ा तक नहीं बना सके जहाँ हम खुली उड़ानें भर सकते, हर बाज़ की नज़र से दूर, हर ख़तरे से महफ़ूज़ . . .।”

मैंने कहा, “वैसे, ख़ुद तुम क्या चाहती हो? क्या पाना चाहती हो?” 

“मैं क्या चाहती हूँ?” वह बोली, “मैं अपने लिए आकाश का छोटा-सा टुकड़ा चाहती हूँ, जो मेरा अपना हो, जहाँ में अपनी उड़ान भर सकूँ, खुली उड़ान, जिसमें बाज़ों की दख़लन्दाज़ी न हो,” तब वह एक सुनहरे सपने में खोई हुई लगी थी। फिर अचानक ही जैसे किसी सपने से जागते हुए बोली थी, “सुनो, तुम से एक बात पूछूँ?”

“क्या बात?” मुझे उत्सुकता हुई। 

वह बोली, “तुम मुझे मेरे आकाश का वह छोटा-सा टुकड़ा दे सकोगे? बोलो, दे सकोगे वह छोटा-सा टुकड़ा?” वह अनुनय-सी करने लगी थी। 

और मेरे मुँह से अस्फुट से शब्द निकले थे, “हाँ, मैं तुम्हें यह टुकड़ा दूँगा। तुम्हारे अपने आकाश का एक छोटा-सा टुकड़ा, जहाँ तुम अपनी मर्ज़ी से उड़ान भर सको—एकदम खुली उड़ान। तब तुम्हारे पंखों पर ये भद्दे काले दाग़ नहीं होंगे—एक भी नहीं।”

उसकी आँखों में सुबह की ताज़ी रोशनी के मानिन्द चमक भर गई थी, फिर वे आँखें कृतज्ञता से छलछला आई थीं। तब मुझे उसके सफ़ेद धवल पंख बहुत प्यारे लगे थे, किसी सुन्दर आदर्श की तरह। 

शमीम भाई की आवाज़ मेरे ख़्यालों से टकराई, “कहाँ पहुँच गए जनाब?” चाय ठंडी हो रही है। 

मैं सचमुच कहीं पहुँच गया था—एक सफ़ेद पंखोंवाली चिड़िया की तलाश में, जो न जाने कहाँ, कितनी दूर, किस पिंजरे की सलाखों पर अपनी चोंच और पंजे मार रही होगी मगर इस लम्हे तो मैं शमीम भाई की बैठक में था। मेरे सामने चाय रखी थी। पता नहीं लगा था, कौन, कब रख गया था। शमीम भाई अपने आख़िरी मुवक्किल को निपटा रहे थे। मैंने प्याला ख़ाली कर वापस प्लेट में रखा तो देखा शमीम भाई अपने मुवक्किल से मुख़ातिब थे। मेरी आँखों के आगे फिर वह सफ़ेद चिड़िया पंख फड़फड़ाने लगी . . . मैंने उससे वादा किया था कि मैं उसे एक निरभ्र आकाश का टुकड़ा सौंपूँगा, जहाँ वह उड़ान भर सकेगी—अपनी उन्मुक्त उड़ान। और एक दिन वह अपना नीड़ छोड़ मेरे घर की मुँडेर पर आ बैठी थी। 

फिर जैसे एक आँधी उमड़ आई थी। आकाश का वह टुकड़ा जो मैंने उसके लिए बनाया था, एकाएक स्याह हो गया था। बादलों से नहीं, उन ख़ूँख़ार डरावने बाज़ों के डैनों से, जो न जाने कितनी शक्लों में कितने तरीक़ों से हम दोनों के ऊपर टूट पड़े थे। 

जब मुझे होश आया था तो मुझे अपने घर की मुँडेर पर दिखलाई पड़े थे, उस सफ़ेद चिड़िया के रक्त के कुछ धब्बे, और कुछ नुचे हुए पंख। अपने काले-बदसूरत डैनों की स्याह आँधी में, वे बाज़ उस चिड़िया को कहाँ उड़ा ले गये थे, मैं फिर कभी नहीं जान सका। 

“क्या सारी डायरी पढ़ डाली?” शमीम भाई मुझसे पूछ रहे थे। उनका आख़िरी मुवक्किल जा चुका था। 

मैंने अपना चेहरा उठाया तो शमीम भाई के चेहरे का रंग भी बदला हुआ पाया। शायद मेरी आँखों की प्रतिक्रिया हुई थी उन पर। मैंने किसी तरह उनसे पूछा, “शमीम भाई, आपकी यह कविता . . .”

“अरे कहाँ, मैं कहाँ कविता लिखता हूँ, यह तो बस ऐसे ही,” कहते-कहते शमीम भाई चुप हो गये। और मुझे लगा उनकी आँखें भी किसी चिड़िया को देखने लगी हैं, जिस तरह कि मेरी आँखें देख रही थीं, ख़ूबसूरत पंखोंवाली एक सफ़ेद चिड़िया—लहूलुहान चोंच, लहूलुहान पंजे। पिंजरे की मोटी-काली सलाखों पर सर पटकती हुई, विवश आँखों से बाहर देखती हुई। खुला आकाश पाने के लिए छटपटाती हुई। 

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