आतंक मुक्ति

15-01-2025

आतंक मुक्ति

विभांशु दिव्याल (अंक: 269, जनवरी द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

इस तरह कमरे में बन्द होकर बैठे रहना अब उसके लिए असह्य हो रहा था। अन्दर से एक अपरिचित क़िस्म की बेचैनी उठकर दिल-दिमाग़ को झटके दे रही थी। क्या वह अभी भी डर रहा है? परन्तु निश्चित रूप से यह बेचैनी डर के कारण नहीं थी। बाहर अभी भी आतंक का साया-सा पसरा हुआ लग रहा था, पर यह साया कमरे के भीतर की उसी सुरक्षा को नहीं भेद पा रहा था। इस समय वह किसी अनहोनी की आशंका से भी त्रस्त नहीं था। ग़ुस्से की पतली-सी लहर अवश्य उसके सोच की गिरफ़्त में आ रही थी। किन्तु यह लहर भी उस बेचैनी का सम्पूर्ण उत्तर नहीं बन पा रही थी। कहीं कुछ दबा-दबा-सा था जो उछलकर बाहर आना चाह रहा था . . . वह उठकर खड़ा हो गया। फिर बैठ गया। थोड़ी देर बाद फिर खड़ा हो गया। 

यह तीसरा दिन था किन्तु बस्ती की वीरानगी अभी टूटी नहीं थी। मकानों के बन्द दरवाज़े, खिड़कियों के पीछे से पर्दा हटाकर झाँकती उत्सुकता और डर से चमकती-सहमती आँखें, वाहन-विहीन सड़क, मरी हुई गहमागहमी वाली बस्ती की चंद दुकानें, दूर छोर तक बस्ती को अपनी गिरफ़्त में लिये हुए एक घबरा देनेवाला मौन। और इस मौन को डर की हद तक बोझिल बना देनेवाली पुलिस की संवादहीन उपस्थिति। यह बस्ती पहली बार ही उन काले डैनों के नीचे आयी थी जो इस समय तक देश के कई शहरों-क़स्बों पर मँडराने लगे थे। 

उसने खिड़की का पर्दा हटाकर बाहर देखा। 

सुमेर गुप्ता के मकान की अतिरिक्त भव्यता डरावनी स्याही में डूबी लग रही थी। क्या बच जायेगा सुमेर गुप्ता? उसकी पत्नी और बेटी की लाशें यहाँ लायी जायेंगी, या अस्पताल से श्मशान घाट ले जायी जायेंगी? हो सकता है, उनका दाह-संस्कार कर भी दिया गया हो। दोस्त-रिश्तेदार सब अस्पताल ही पहुँचे होंगे। पुलिस ने लाशें यहाँ न लाने की अनुमति इसलिए न दी हो कि कहीं प्रतिक्रियास्वरूप दंगा-वंगा न भड़क उठे। 

पुलिस का यह सोचना रहा होगा, तो कितना ग़लत रहा होगा। इस बस्ती में किसी भी तरह के दंगे की कोई कल्पना भी नहीं की जा सकती। सुमेर गुप्ता की पत्नी और लड़की की लाशें उसने भी देखी थीं। ऐसी औरतों की लाशें जिन्होंने कभी कोई सामाजिक उत्तेजना नहीं फैलायी थी, कभी किसी के ख़िलाफ़ कोई बयान जारी नहीं किया था, कोई विरोध प्रदर्शन नहीं किया था, कोई जुलूस नहीं निकाला था, किसी की भी गाली-गलौजनुमा आलोचना नहीं की थी। उसने इन लाशों को देखकर अपने ख़ून में उबाल महसूस किया था। परन्तु इस उबाल में इतनी तेज़ी नहीं थी कि वह कुछ करने के लिए किसी पर टूट पड़े। तब दंगा कहाँ से होता? 

बस्ती के इन अधबंद घरों के भीतर छिपे लोग क्या सोच रहे होंगे? क्या इनमें से कोई भी कुछ करने की स्थिति में होगा, या फिर उसकी तरह ही . . .? निश्चित ही सब उसी की तरह थे। तभी तो सब घरों के दरवाज़े बन्द थे, और खिड़कियों पर पर्दे पड़े थे। चीख-चीखकर नारे लगाना, भाषण देना, जुलूस निकालना, या फिर बाज़ार-दुकानें बन्द कराते डोलना . . . उसे ये सब नपुंसक क़िस्म के काम लगे। ठीक वैसे ही जैसे कोई बाबू अपने साहब से तमाचा खाकर अपनी बीवी पर भड़ास निकाले। बाज़ार-दूकान बन्द हैं। तभी तो वे लोग घरों में बन्द हो गये हैं। उसके मुँह में थूक भर आया। पिच्च से उसने खिड़की के बाहर थूक दिया। यह भी कुछ करने में करना है। 

वह खिड़की के पास से हटा और आकर सोफ़े पर बैठ गया। 

कितनी अजीब बात थी कि इससे पहले कभी भी उसने इस तरह नहीं सोचा था, इतने क़रीब से और इतना संलग्न होकर। इससे पहले तो हत्या या सामूहिक हत्या की हर ख़बर उसके लिए सिर्फ़ ख़बर हुआ करती थी। कुछ वर्ष पहले जब इन हत्याओं का सिलसिला शुरू ही हुआ था, वह पूरी दिलस्पी से विस्तार के साथ इन ख़बरों को पढ़ता था। अपने साथियों के बीच लम्बी-लम्बी चर्चाएँ करता था, सरकार-प्रशासन की भूमिका पर टिप्पणियाँ करता था। फिर धीरे-धीरे यह पढ़ना शीर्षकों तक ही रह गया था। और अब तो शीर्षक भी दरनज़र होने लगे थे। दोस्तों-परिचितों के बीच की बहसें और चर्चाएँ तो न जाने कब की ठंडी पड़ चुकी थीं। 

वह ठंडक एकाएक गर्म होकर पिघल गयी थी। शायद इसलिए कि जो हादसा हुआ, वह इतने क़रीब था कि ठंडक को पिघलना ही था . . . वह उठकर कमरे में चक्कर लगाने लगा। 

यह भी कितनी अजीब बात थी कि गुप्ता की कार पर गोलियाँ चलाये जाने की ख़बर सुनकर उसने सबसे पहला काम अपने साले को आगरा टेलीफोन करने का किया था कि वह उसके बीवी-बच्चों को अभी वहीं रोक ले। उसे लगा था, यहाँ कोई ज़बर्दस्त वारदात न हो जाये, भयानक आग न भड़क उठे। कुछ अनहोना होने की आशंका से वह बुरी तरह जकड़ गया था। और अब अपनी वही आशंका उसे निहायत बचकानी लग रही थी। अगर उसने टेलीफोन नहीं किया होता तो उसकी पत्नी और बेटा-बेटी शादी समारोह में शामिल होकर आज घर लौट आये होते। तो क्या उसे इसलिए बेचैनी महसूस हो रही है कि उसके बीवी-बच्चे घर पर नहीं हैं, और वह इस समय अकेला है। 

दूसरे घरों में लोग अपने-अपने बीवी-बच्चों के साथ थे। वे लोग आपस में बोल-बता सकते थे। जो सोच-समझ रहे थे, एक-दूसरे से कह-सुन सकते थे। अपने डर-ग़ुस्से का परोक्ष इज़हार कर सकते थे, अपने गुबार-भरे दिल-दिमाग़ को ख़ाली कर सकते थे। और इधर वह अकेला ही अन्दर ही अन्दर उलझ-सुलझ रहा था। उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। 

किन्तु यह ख़्याल कि बीवी-बच्चों की अनुपस्थिति उसे बेचैन बना रही है, तत्काल ही उसे कोई संतुष्टि नहीं दे सका। बल्कि एक दूसरी बात भी उसके दिमाग़ में कुलबुलाने लगी। अगर वे लोग यहाँ होते तो हो सकता है उस दिन गली के मुहाने पर गुप्ता के परिवार की जगह उसका अपना परिवार वहाँ होता। गुप्ता की बीवी की जगह लाश बनी उसकी अपनी बीवी, गुप्ता की बेटी मुनु की जगह उसकी अपनी बेटी, और घायल होकर अस्पताल में पड़ा वह स्वयं। 

उफ़! उसने मुनु की लाश की सिर्फ़ एक झलक देखी थी, गोली शायद उसकी बग़ल में कहीं लगी थी। चेहरा पीला पड़ा हुआ था। शायद ख़ून निकल जाने के कारण या अंतिम क्षण के ख़ौफ़ के कारण। लेकिन चेहरे की मासूमियत जस की तस थी . . . 

“अंकल, आपको कौन-सा टीवी सीरियल सबसे अच्छा लगता है?” एक बार मुनु ने उससे पूछा था। 

सुमेर गुप्ता और उसके बीच का सम्बन्ध एक ही स्थान पर रहने वाले दो परिचितों के बीच दुआ-सलाम वाले सम्बन्ध तक ही सीमित था। किन्तु गुप्ता की बेटी मुनु उसकी अपनी बेटी के साथ कभी-कभी घर आ जाती थी। उसे वह लड़की बहुत ही ज़हीन दिमाग़ लगती थी। 

उसे याद नहीं था कि मुनु के सवाल का उसने क्या जवाब दिया था, लेकिन बाद में स्वयं मुनु ने जो कहा था, उसे अभी तक याद था, “देखिये, कितनी ‘अनरिअलिस्टिक सिचुएशंस’ हमारे सामने रखते हैं ये लोग! एक तो हम लोग वैसे ही आपस में कटते जा रहे हैं, और अब एक नये क़िस्म का ‘एस्केपिज़्म’ सोसाइटी में लाया जा रहा है। लोगों को सिर्फ़ सपनों में रहना सिखाया जा रहा है ताकि वे सच्चाई का सामना करने से कतराते रहें। नो बड़ी वांट्स टू फ़ेस रिअलिटी . . .”

एक ज़हीन दिमाग़ लड़की का यह कैसा अन्त था? क्या गुप्ता ने अपनी बीवी और बेटी के इस अन्त की कभी कल्पना भी की होगी? उसने बेटी के लिए न जाने कितने सपने बुने होंगे! उसे सजाने-सँवारने का सपना, पढ़ाने-लिखाने का सपना, घुमाने-फिराने का सपना, उसकी सगाई-शादी का सपना। हर सपने के लिए उसने कुछ चाँदी जुटायी होगी। क्या उसने अपनी बच्ची की सुरक्षा के लिए भी कुछ चाँदी जुटायी होगी? 

कितना बेतुका विचार था यह उसका, मगर यह विचार अपनी तेज़ धार से उसके दिमाग़ को लहू-लुहान किये डाल रहा था। गुप्ता बेटी के हर सपने के लिए भाग-दौड़ करता था। पिछले साल मनचाहे कॉलेज में मुनु के दाख़िले के लिए उसने मंत्रियों तक दौड़ लगायी थी। पर मुनु को सुरक्षित बनाए रखने के लिए भी उसने कोई भाग-दौड़ की होगी? किसी से मिला होगा? कुछ चाँदी इस मद में रखी होगी उसने? 

अकेला सुमेर गुप्ता ही क्यों! इस बस्ती के किस आदमी ने अपना धन-समय इस मद में ख़र्च किया होगा? बस्ती के बहुत सारे चेहरे उसकी आँखों के आगे से गुज़र गये। हर चेहरा उसे अपने आप में ही बेतरह उलझा लगा। और वह स्वयं? उसने ही अपने बच्चों के लिए इस तरह से कब सोचा? बस्ती के और लोगों की तरह वह भी तो अपने घर का दरवाज़ा बन्द किये बैठा है। उसे लगा, बस्ती का हर व्यक्ति असुरक्षित है। और सिर्फ़ अपने घर की दीवारों के बीच ख़ुद को सुरक्षित रखने के प्रयास में और भी अधिक असुरक्षित होता जा रहा है। 

उसे थकान-सी महसूस हुई, और वह फिर से सोफ़े पर बैठ गया। 

वह, सुमेर गुप्ता या बस्ती का कोई भी आदमी, कर भी क्या सकता है, उसने सोचा। जहाँ मौत इतनी अस्वाभाविक और इतना आकस्मिक हो कि आदमी को बचने का तो दूर, सोचने तक का मौक़ा न मिले, तो कोई भी क्या कर सकेगा? जिसके दो-चार दुश्मन हों, दो-चार बार झगड़े-फ़साद हुए हों, वह तो चौकन्ना रहे भी, पर वह क्यों चौकन्ना रहे जो घर में भी तू-तू, मैं-मैं से बचता रहा हो? जब आदमी अपनी शांत-शरीफ़ बस्ती के मुहाने पर ही मौत बनी गोली की चपेट में आ सकता है तो वह कहाँ सुरक्षित महसूस करे, किस जगह पर किस शहर में? 

वह फिर उठ खड़ा हुआ। 

यह शहर हो सकता है तो वह क्यों नहीं? वह शहर, जहाँ उसकी पत्नी और बच्चे इस समय हैं, और जिन्हें वह सुरक्षित महसूस कर रहा है। यहाँ जैसा हादसा वहाँ भी तो हो सकता है। अपने बीवी-बच्चों के सुरक्षित रहने का उसका भ्रम पतले काँच की तरह टूट गया। चटकी हुई किर्चें उसके हर ख़्याल में बिंध गयीं। उसकी आँखों के आगे निर्जीव पड़ी मुनु उभर आयी। मुनु का पीला पड़ा, मासूमियत-भरा चेहरा। मुनु का चेहरा उसकी अपनी बेटी के चेहरे में तब्दील हो गया। मुनु की मृत देह, जैसे उसकी अपनी बेटी की मृत देह। उसकी अपनी देह में थरथराहट व्याप गयी . . . वह सोफ़े पर ढह-सा गया। 

जो निर्दोष-मासूमों पर गोलियों की बौछार कर देते हैं, कैसे होते होंगे वे लोग? ट्रिगर दबाते समय क्या उनका कोई रोंया नहीं काँपता होगा? करुणा का कोई तार उनके अन्दर भी पिघलता होगा? उस समय क्या सोच रहता होगा? अपने सामने ज़िन्दगी की भीख माँगती आँखों को देखकर उनकी अपनी आँखों की वहशियत क्या ज़रा भी नम नहीं होती होगी? पर वह ग़लत सोच रहा है ट्रिगर दबाने की मानसिकता तक आते-आते उनके अन्दर कौन-सा संवेदन तन्तु शेष रह जाता होगा! कौन-सी कोमल अनुभूति बची रह जाती होगी। मगर क्यों हो जाता है ऐसा? 

ये लोग अपनी इस दुर्दमनीय पथरीली क्रूरता से क्या पाना चाहते हैं? क्या सोचते हैं ये लोग कि इनकी कौन-सी अनमोल वस्तु लुट गयी है जिसका बदला लेना हैं इन्हें? या कौन-सी बेशक़ीमती धरोहर इनके पास है जिसे इस तरह बचाना चाहते हैं? या जिसे ये अपनी बहुमूल्य संपदा समझ रहे हैं, उसका वस्तुतः कोई मूल्य है भी? उसका मन हुआ कि ये सारे सवाल वह किसी रिवाल्वर या किसी स्टेनगन से निकली गोली से सीधे पूछे, उसके सामने खड़ा होकर, उसकी आँखों में आँखें डालकर . . . 

एकाएक उसकी सारी बेचैनी ख़त्म हो गयी। वह झपटता हुआ-सा उठ खड़ा हुआ। सबसे पहले तो वह अपने साले को टेलीफोन करेगा कि उसके बीवी-बच्चों को तुरन्त यहाँ के लिए रवाना कर दे। फिर बस्ती के मुहाने पर जाकर खड़ा होगा जहाँ सुमेर गुप्ता की कार पर गोलियों की बौछार की गयी थी। वह उस दिशा को ठीक-ठीक समझने की कोशिश करेगा जिस दिशा से मुनु की मासूमियत को छीन लेने वाली गोली आयी थी। 

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