लुटेरे

01-09-2024

लुटेरे

विभांशु दिव्याल (अंक: 260, सितम्बर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

वह गली के मुहाने पर ही ठिठक गया। गली में भुतहा अँधेरा भरा हुआ था। डरावना, दहशत पैदा करनेवाला। गली में बिजली के कई खंभे थे, पर रोशनी नहीं थी। उसने इधर-उधर देखा, कोई साथ के लिए आये, पर एक भी इंसानी आकृति उस ओर आती हुई नज़र नहीं आयी। उसे एक डरावने विरोधाभास की अनुभूति हुई। थोड़ी ही दूर पर जगमग करती मुख्य सड़क, और इधर अँधेरे में डूबी यह भुतहा गली। उस सड़क की पृष्ठभूमि में गली का नीम अँधेरा बहुत गहरा और गाढ़ा लग रहा था। 

क्या लौट चले? 

वह कुछ तय करता कि गली के अंदर आवाज़ें उभरने लगीं—बोलने और चलने की आवाज़ें। फिर अँधेरे के गर्भ से कुछ आकृतियाँ प्रकट हो गयीं, ये उसी ओर आ रही थीं। 

उनके चेहरे स्पष्ट नज़र नहीं आ रहे थे, पर उसकी आँखों में क्रूर लुटेरों के ख़ूनी चेहरे कौंधने लगे—उसे लगा, वे लुटेरे क़रीब आते ही उस पर झपट पड़ेंगे। उसका हाथ तुरंत अपनी जेब में रखे पाँच हज़ार रुपयों पर चला गया झटके से उसने हाथ हटा भी लिया। कहीं उसके हाथ की संदेहास्पद हरकत ही उन ख़ूनी चेहरों को उसकी ओर न खींच दे। 

आवाज़ें एकदम क़रीब आ गयीं . . . 

उसकी आँखों के आगे लंबे-लंबे चाकू लहराने लगे। अपनी आँतें सड़क पर फैली हुई नज़र आयीं। दिल की धड़कन रुकती हुई लगी। 

वे नौजवान लड़के थे जो ज़ोर-ज़ोर से बातें करते हुए आगे बढ़ गये। उसकी रुकी हुई धड़कनें फिर से चालू हो गयीं, लेकिन सम पर नहीं आयीं। 

अब उसे स्वयं अपने ऊपर क्रोध आ रहा था कि इतनी देर की ही क्यों। पर करता भी क्या? दोनों पुलिसवाले इस तरह जमकर बैठ गये थे कि न उठाये बन रहा था, न बिठाये। ‘टुकड़ भूखे कूकर,’ मनोहर कहता है, ‘न इनकी यारी अच्छी, न दुश्मनी। जब-तब टुकड़ा फेंक दिया करो।’

पुलिसवालों को आते-जाते चाय-लस्सी के लिए तो वह बिठा ही लेता है, पर आज तो वे जम ही गये थे। ‘लाला, बुरे का मुँह देखकर उठे, सुबह से चाय तक नसीब नहीं हुई। दो ठिकानों पर रेड मारी, इसकी माँ का एक भी हत्थे नहीं चढ़ा। लाओ चाय-शाय करा दो।’

चाय पीने के बाद वे दूकान के फड़ पर ही अधलेटे हो, थकान मिटाने लगे थे, सो भी तब, जब वह दूकान बंद करने जा रहा था। 

उसकी बेचैनी भाँपकर एक सिपाही बोला था, “सीधे थाने पहुँच गये तो थानेदार दम नहीं लेने देगा। लौंडिया की शादी तै कर दीनी हैगी, हमें रगेदता हैगा कि दहेज इकट्ठा करो . . . दो मिंट ह्यां पाँव फरैरे कर लें . . .”

“आपकी दूकान है दीवानजी, चाहे जब तक आराम करो,” उसने अपनी चिढ़-नफ़रत को मुस्कान का रेशमी जामा पहनाया था। मन हो रहा था कि अपने बाल नोंच डाले। 

आज की सारी रोकड़ और ढाई हज़ार उगाही का, उसने सोचा था कि इतनी बड़ी रक़म के साथ अकेला नहीं जायेगा, मनोहर को साथ ले लेगा, पर पुलिसवालों की ख़ातिर ख़िदमत के चक्कर में ध्यान ही नहीं रहा और मनोहर अपनी दूकान बंद कर निकल गया। 

पता होता घर लौटने में रात हो जायेगी तो उगाही की रक़म पास क्यों रखता। बैंक पहुँचा देता, या घर सुरक्षित पहुँचाने की कोशिश करता। मगर अब क्या हो? पुलिसवालों से ही कहना था कि वे ही उसे घर तक छोड़ देते। तुरंत ही अपने इस ख़्याल को उसने परे सरका दिया। पुलिसवालों का ही क्या भरोसा? चील से कहो, मांस की रखवाली करे! 

चौराहे पर ही घर तक का कोई साथ तलाशना था। कोई सवारी ही ले लेनी थी। एक रिक्शेवाले ने उसे आवाज़ भी दी थी, पर वह टाल गया था। ज़रा-सी देर के लिए कौन रिक्शा ले? पर अब पछतावा हो रहा था। रिक्शा ले लेता तो एक से दो तो होते। अगले ही पल उसे ध्यान आया कि पिछली बार इस गली में जो लूट हुई थी उसमें रिक्शेवाला भी शामिल था। गली में इतना अँधेरा! फिर रिक्शेवाले का क्या भरोसा? 

पर अब? 

वह गली में आगे तो बढ़ रहा था। मगर उसे अपने दिल की धक्-धक् ही किसी डरावने शोर-सी लग रही थी। हर परछाईं चौंका रही थी। हर आवाज़ घबराहट पैदा कर रही थी। 

गली के भीतर गली। एक से एक अँधेरी। कोई चाकू मारकर भागे तो पता तक नहीं लगे कि कहाँ घुसा, कहाँ निकला . . . उसका हाथ पुनः जेब के रुपयों पर पहुँच गया। 

बिक्रीकर की तारीख़ भी—कल ही पड़नी थी। उसने कल की तारीख़ को कोसा। पर तारीख़ तो पड़नी ही थी। उसे एकमुश्त रक़म भी देनी थी। वकील साहब ने याराना अंदाज़ में उसके कंधे पर हाथ मारते हुए कहा था, “यार लाला, क्यों केस लंबा खिंचवाता है? दो हज़ार में सारा मामला पट जायेगा। तुम्हारी दुआ से एस.टी.ओ. मेरा यार है, बात मान जायेगा।”

वह ताव खा गया था। वकालत न हुई, दलाली हो गयी। सारे खाते ठीक हैं, स्टॉक ठीक है, फिर भी! तब मनोहर ने समझाया था, “लाला, दुकानदारी कर रहे हो, अफ़सरी नहीं। यहाँ जो भी आकर खड़ा होगा, उसी के सहलाने पड़ेंगे। आजकल हिसाब-किताब ठीक नहीं रखा जाता, हिसाब-किताब रखनेवालों को ठीक रखा जाता है।”

बात उसकी समझ में न भी आयी हो, तब भी उसे समझनी पड़ी थी, जैसे और बातें समझनी पड़ी थीं। आज इकट्ठा रुपया भी इसीलिए ले जा रहा था कि सबका लेना-देना एक बार ही निपटा दे। मार्केटिंग इंस्पेक्टर को देना था, ओमप्रकाश सिंह को देना था, वकील साहब की फ़ीस देनी थी, तेल का कोटा बढ़वाने के लिए एक हज़ार रुपये राजा भैया के ऑफ़िस में जमा कराने थे। 

वह फिर ठिठक गया। आगे उसे एक परछाईं-सी नज़र आ रही थी। परछाईं हिली तो लगा कोई टोह में खड़ा है। डर नये सिरे से उसके अंदर पैठने लगा . . . “क्यों यह मूर्खता की कि सबका हिसाब-किताब एक ही दिन चुकता करने की बात सोच ली? पर किसको टालता, कब तक टालता? ओमप्रकाश सिंह का आदमी दो बार आ चुका है। मनोहर भी टोक चुका है, “ये चंदा तो देना ही है, दे-दिवाकर बला टालो। बेटी का भार, ताक़तवर का उधार, जितनी जल्दी उत्तरे उतना अच्छा।”

चंदा देने को वह कब मना करता है, पर दे तो तब, जब पैसे हों। बीवी के पेट का ऑपरेशन हुआ तो तीन हज़ार चाट गया। और बड़े होते हुए बच्चों के बढ़ते हुए ख़र्च! इंतज़ाम तो होते-होते ही होता है। ओमप्रकाश सिंह को टालने की बात तो वह सोच भी नहीं पाता। उसे टालने का मतलब अच्छी तरह जानता है। 

नयी-नयी दूकान खोली थी बाज़ार में। पंद्रह दिन भी नहीं हुए थे कि एक दिन दूकान का ताला टूटा हुआ देखा तो जी धक्! ग़नीमत हुई थी चोर माल नहीं निकाल पाये थे। 

बाज़ार में चौकीदार के रहते हुए भी . . . 

चौकीदार ने चार वाक्य बोलकर पल्ला झाड़ लिया, “ये बीस-बीस रुपल्ली के ताले! लबिया लगा कि पटाक! इत्ता लंबा बाजार, या छोर ते वा छोर तक जाने में टैम लगती है। चटका दिया इत्ती देर में। इत्ता क्या कम है, माल निकालने की जुगत नहीं बैठी . . . “

मनोहर ने कहा था, “लाला बाज़ार में नये हो। न चौकीदार कुछ करेगा न पुलिस। आज माल नहीं निकलना था ताला ही चटकना था।”

वह भौचक। समझा ही नहीं। 

मनोहर बोला, “फ़ुर्सत में बताऊँगा।”

फ़ुर्सत में मनोहर ने समझाया था, ओमप्रकाश सिंह और ताला टूटने के बीच के रिश्ते का गणित। उस क्षेत्र के सारे चोर-उचक्के ओमप्रकाश सिंह के चेले-चाकुटे, और दारोगा-दीवानों का ओमप्रकाश सिंह से व्यावसायिक लेन-देन। ताला टूटना इसका सूचक था कि बाज़ार में दूकान सुरक्षित रखनी है तो बीमा कराओ ओमप्रकाश सिंह के यहाँ। 

अच्छी धौंस है। इसकी भी चौथ दो कि दूकान न लुटे। पर, क्योंकि उसे दूकान चलानी थी, जैसे मनोहर चला रहा था, सब चला रहे थे, उसे चौथ देनी पड़ी थी, जैसे सब दे रहे थे। 

खद्दर के कुरते-पाजामेवाला लंबा-तगड़ा ओमप्रकाश सिंह उसकी दूकान पर आने-जाने लगा था। और वह भी कभी ओमप्रकाश सिंह तो कभी उसके आदमी को बीमे की किश्तें अदा करने लगा था। कभी देवी जागरण का चंदा, कभी राम बारात का, कभी किसी महापुरुष की जयंती तो कभी किसी नेता या अधिकारी का सम्मान समारोह, कभी किसी के चुनाव कोष के लिए दान! इस बार स्वयं ओमप्रकाश सिंह अपने चुनाव के लिए कोष इकट्ठा कर रहा था। उसका आदमी दूकान पर आकर कह गया था कि इस बार सौ-पचास में मामला नहीं टलेगा। 

मार्केटिंग इंस्पेक्टर ने वनस्पति वाले मामले को लटका रखा था। उसे भेंट चढ़ानी थी . . . 

दूकान शुरू की थी तो यही बात थी मन में कि मेहनत और ईमानदारी की दो रोटी मिल जायें, बाल-बच्चे पल-पुश जायें, पर ईमानदारी तो पग-पग पर परीक्षा लेने लगी थी। 

मनोहर कहता है, “महात्मा गाँधी बनने का ठेका हमने ही ले रखा है क्या? लाला, जो सब करें वो तुम करो। बिना नंबर दो के तो पाल लिए बाल-बच्चे! बस, सवा रुपया हनुमान बाबा के नाम, और सब भला-बुरा उसके खाते . . .”

मनोहर के साथ वह भी हनुमान मंदिर जाता है। प्रसाद चढ़ाकर कानों को हाथ लगा लेता है . . . फिर क्या सही, क्या ग़लत। 

उसने मन ही मन पवनसुत को याद किया, हनुमान चालीसा की पंक्तियाँ दुहराईं। और उसने देखा कि जिस परछाईं से वह डर रहा था, वह एक आवारा गाय थी जो बिजली के एक खंभे के नीचे खड़ी थी। 

बिजली के इतने खंभे मगर सब के सब अंधे। किसी पर बल्ब नहीं। यह गली स्याह क्यों रह गयी है? एक यही गली नहीं, इस जैसी न जाने कितनी गलियाँ . . . अचानक ही उसे तेल-मिलवाले राजा भैया की कोठी याद हो आयी . . . वह उनके परिचित की एक सिफ़ारिशी चिट्ठी लेकर अपनी दूकान के लिए तेल का कोटा बँधवाने की बात करने गया था। राजा भैया बाहर से लौटे नहीं थे। वह इंतज़ार करता रहा था। राजा भैया की महल जैसी कोठी की भव्यता पर मुग्ध होता रहा था। राजा भैया की लंबी कार कोठी में घुसी थी तो औरों के साथ वह भी हाथ जोड़कर खड़ा हो गया था . . . उस कोठी की जगमगाहट वह कभी नहीं भूला। कितने ही बल्ब, कितने रंगों के। पर इस गली के अँधेरे और राजा भैया की कोठी की जगमगाहट का क्या रिश्ता? हाँ, उसके पास कार होती, राजा भैया की तरह, तो उसी की रोशनी से उस अँधेरे को चीरता हुआ घर पहुँच जाता एकदम सुरक्षित। 

न जाने कहाँ से निकलकर एक काली बिल्ली उसके आगे आ गयी, ढिठाई से खड़ी होकर उसे घूरने लगी। भय फिर उसके अंदर फैलने लगा। यह बिल्ली है या कोई प्रेतात्मा। पास के घर की खिड़की से निकलकर रोशनी का एक धब्बा बिल्ली के ऊपर पड़ रहा था। बिल्ली और भी डरावनी लग रही थी। 

“हिश-हिश,” उसने आवाज़ निकाली। बिल्ली छलाँग लगाकर नाली में खो गयी। 

रोशनी की पतली लकीर पार करके आगे बढ़ा तो गली और अधिक स्याह हो गयी। उसे लगा सारे शहर में एक षड्यंत्र चल रहा है। स्याह गलियों को और भी अधिक स्याह बनाने का षड्यंत्र। वरना इतने खंभे और किसी पर रोशनी नहीं। कौन फोड़ देता है इन बल्बों को? राजा भैया की कोठी के बल्ब क्यों नहीं फूटते? उसे पोचूमल की बात याद हो आयी . . . 

वह पोचूमल को देखने अस्पताल गया था। 

“साई, देक्खयों न, वो तीन मैं इकला। थैला छीन्ना तो मैंने दिया धिक्का . . . एक्को पकड़ा तो दूसरे ने चाकू चलाया, विसको पकड़ा तो तीसरे ने चाकू चलाया . . . ” पोचूमल की दोनों बग़लों में घाव लगे थे, “सांई, मैं चिल्लाता रह्या, एक बी घर से बाहर नई झांक्का। कौन मदद को आता है जी? थैला छीन ले गये . . . गली के बल्ब फोड़ देते हैं, कहीं पहचान नईं हो जाय . . .”

पट्टी बँधा पोचूमल उसे इमर्जेंसी वार्ड के पलंग पर नज़र आया। शीघ्र ही पोचूमल की आकृति नदारद हो गयी और उसे वहाँ अपनी आकृति नज़र आने लगी। फिर उसे ख़ूँख़ार लुटेरों की डरावनी आकृतियाँ घेरने लगीं-अभी कोई इधर से निकला, कोई उधर से आया। पोचूमल उनके चेहरे नहीं पहचान सका था, वह भी पहचान नहीं सकेगा। उसकी देह से पसीना छूटने लगा। वह तेज़ चलने लगा . . . 

झटके के साथ उसे होश आया कि वह मनहूस लुटेरी गली पीछे छूट गयी है, और वह अपने मुहल्ले के मुहाने के क़रीब है। 

उसने बाँह उठाकर क़मीज़ की आस्तीन से माथे का पसीना पोंछा, फिर सामान्य चाल में चलने लगा। 

चाकू-छुरेवाली डरावनी आकृतियाँ जो गली में उसके पीछे दौड़ रही थीं, धीरे-धीरे विलुप्त हो गयीं। 

भय-मुक्ति के इन क्षणों में एक धारदार ख़्याल मन में उगा कि उसके घर और दूकान के बीच पड़नेवाली इस अँधेरी गली में रोशनी होनी ही चाहिए। लेकिन इससे आगे का ख़्याल ओमप्रकाश सिंह, वकील साहब, मार्केटिंग इंस्पेक्टर और राजा भैया के चेहरों ने छा लिया। उसे इन सबसे अगले दिन मिलना था। ये सब उसके जाने-पहचाने चेहरे थे, वह अब स्वयं को सुरक्षित महसूस करना चाहता था, पर डर नये सिरे से उसे अपनी गिरफ़्त में ले रहा था। 

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