गली के कुत्ते
विभांशु दिव्याल
उसका उनींदापन घंटी की तीखी आवाज़ से छिटक गया। दोपहर की नींद जब इस घंटी की कर्कश आवाज़ से टूटती है तो सारा शरीर थकान से भर जाता है। पापा से कई बार कह चुकी है कि इस घंटी को बदलवाकर दूसरी लगवा लें। रीता के घर भी घंटी है, बटन दबाते ही लगता है जैसे तोते ने मीठी टिटकारी ली हो। ऐसी ही घंटी लगे उसके घर भी, मगर पापा टालते आ रहे हैं।
घंटी रह-रह कर बज रही थी। मम्मी नहीं है क्या? तत्क्षण ध्यान आया कि वे उसके सोने के पहले ही चली गई थीं। वर्मा अंकल के यहाँ कीर्तन है, उन्होंने मम्मी से ज़रा जल्दी आने के लिए कह दिया था।
वह अलस मन-शरीर से उठी। कौन होगा इस वक़्त? मगर कोई अनुमान नहीं लगा सकी। कहीं पी.के. गिदोलिया . . . गिदोलिया का ख़्याल आते ही मन में डर की थरथरी-सी उठ आई। उसने आशंकित मन से दरवाज़ा खोला तो जी धक! गिदोलिया ही था। मुस्कुराता हुआ।
उसने किसी तरह अपने डर पर क़ाबू पाया। ठंडे स्वर में बोली, “नमस्ते अंकल,”
“नमस्ते सबा जी,”
उफ़! ये आदमी “स” और “श” का फ़र्क़ भी नहीं समझता। उसे गिदोलिया की मुस्कराहट सहन नहीं हो रही थी। अन्दर कहीं नफ़रत फनफनाने लगी। मगर यह नफ़रत उसके डर के नीचे दबी जा रही थी। उसका मन नहीं था कि दरवाज़े से हटकर उस आदमी को घर के अन्दर आने का रास्ता दे, लेकिन जब उसने पैर आगे बढ़ा दिया, तो उसके स्पर्श से बचने के लिए वह तुरन्त एक ओर हट गई। वह सीधा ड्राइंगरूम में चला आया। घर के भीतर नज़र फेंकता हुआ बोला, “पापा नहीं हैं क्या?”
कितना मक्कार है यह आदमी! क्या यह जानता नहीं है कि पापा इस समय घर पर नहीं होते? वह बोली, “वे तो दुकान पर होंगे,”
“अच्छा, हाँ,” उसने फिर एक खोजती-सी नज़र घर के अन्दर डाली, “मम्मी क्या कर रही हैं?”
कह दे कि कीर्तन में गई हैं, देर से लौटेंगी, पर शीघ्र ही दिमाग़ में कुछ कौंधा। बोली, “यहीं पड़ौस में चली गई हैं आती ही होंगी,”
“अच्छा तो अकेले आराम हो रहा है,” वह अपने पान खाए दाँत निकालकर हँसा।
यह हँसी उसे चुभती हुई लगी। अन्दर ही अन्दर घबराहट होने लगी। कहीं उस दिन की तरह . . . मन हुआ कि कह दे, घर में कोई नहीं है, आप फिर आएँ। पर ऐसा कहने की हिम्मत नहीं जुटा सकी। उसे लगा, अगर वह खड़ा रहेगा तो उसकी ओर बढ़ने लगेगा। वह जल्दी से बोली, “आप बैठिए, मैं चाय बनाती हूँ,”
“चाय-वाय छोड़ो, तुम बैठो,” वह भी उतनी ही जल्दी बोला।
“नहीं, आप बैठिए,” उसने तुरन्त कहा, और उसे वहीं छोड़ किचिन में चली आई।
किचिन में आकर भी उसकी घबराहट कम नहीं हुई। लग रहा था, गिदोलिया अभी किचिन में चला आएगा। वह मन ही मन स्वयं को तैयार करने लगी कि अगर वह आया तो कसकर डाँट लगाएगी। देबू भी कहता था, “शबा, ऐसे लोगों को सहन नहीं करना चाहिए। ऐसे लोग धूर्त और बेईमान होते हैं।”
“धूर्त-बेईमान,” उसके होंठों ने बुदबुदाया। ऐसे लोगों के साथ शिष्टता बरतने से अपना ही नुक़्सान होता है। काश उस दिन इसे डाँटने का साहस जुटा पाती।
उस दिन तो वह उसी तरह अवसन्न रह गई थी जिस तरह तीन वर्ष पहले तब रह गई थी जब स्कूल वाली गली में उस लड़के ने झटके-से उसकी चुन्नी खींच ली थी। वह उस लड़के को अक्सर अपना पीछा करते देखती थी। वह सीटियाँ बजाता था, फ़िल्मी गीत गाता था। उसे लड़के की आवाज़ उसकी सूरत से भी अधिक भौंडी लगती थी। मन होता था कि जाकर उसके मुँह पर ज़ोर से थप्पड़ मारे। मगर उसे देखते ही वह तेज़-तेज़ क़दमों से स्कूल पहुँचने की कोशिश करती थी। लड़कियाँ जब इस तरह के लड़कों की बातें हँस-हँसकर करने लगती थीं, तो उसका मन भी हल्का हो जाता था। डर कम हो जाता था। रीता कहती थी, “ये तो गली के कुत्ते हैं, ऐसे ही भौंकते रहते हैं मरे।”
उस दिन कुत्ता भौंककर ही नहीं रह गया था, उसने चुन्नी खींच ली थी। चुन्नी खींच कर ले नहीं गया था, वहीं छोड़ दी थी। वह बुरी तरह घबरा गई थी। काँपने लगी थी। जब दो-चार लोग वहाँ जुड़ आए थे, तो वह रोने लगी थी। उसमें इतनी हिम्मत भी नहीं रही थी कि सड़क पर पड़ी चुन्नी को उठा ले। अगर वह भला-सा आदमी चुन्नी उठाकर उसके हाथ में देकर नहीं कहता, ‘जा लाली जा, स्कूल जा’, तो न जाने वह कब तक उसी तरह रोती रहती।
उसने किसी लड़की से कुछ नहीं कहा था, फिर भी न जाने कैसे यह बात उसकी कक्षा की लड़कियों को मालूम हो गई थी। कुछ ने उससे हमदर्दी जताई, कुछ ने उस लड़के के लिए गालियाँ निकालीं। लड़कियों से घिरी वह रोने लगी थी तो एक लड़की ने कहा था, “ऐसे कब तक रोएगी, ये तो रोज़-रोज़ के तमाशे हैं। ऐसे कुत्तों की वजह से अपना ख़ून क्यों जलाओ।”
ठीक उस दिन तो नहीं, मगर धीरे-धीरे बात उसकी समझ में आती गई थी। वह पहले से कहीं अधिक सावधान चलने लगी थी। उसने अकेले जाना भी बन्द कर दिया था। स्कूल समाप्त होता था तो वह घर जाने के लिए किसी न किसी लड़की का साथ तलाशने लगती थी। कभी-कभी उसे इस साथ के लिए दो-दो पीरियड तक इन्तज़ार करना पड़ता था।
“अरे, तुम कहाँ चाय के चक्कर में पड़ गईं, इधर आओ न!” गिदोलिया किचिन में नहीं आया, उसकी आवाज़ आई। वह फिर भी चौंक पड़ी।
चाय का पानी खौल रहा था। उसे मम्मी पर ग़ुस्सा आने लगा। क्यों उसे इस तरह अकेला छोड़कर कीर्तन-वीर्तन में चली जाती हैं? यह आदमी भी सूँघ लेता है कि घर में कोई नहीं है। उसे अपने ऊपर भी ग़ुस्सा आने लगा कि क्यों इसके लिए चाय बना रही है। चाय नहीं बनाए तो! पापा कहेंगे, घर में कोई आये तो चाय भी नहीं पिला सकती। तब क्या कहेगी पापा से कि क्यों चाय नहीं पिलाई? क्या पापा को बता सकेगी, यह आदमी क्या हरकत करता है? उन्हें बता सकेगी कि वह इस आदमी के बारे में क्या सोचती है? देबू कहता है, “तुम पापा से साफ़-साफ़ बताती क्यों नहीं?” लेकिन देबू नहीं समझता कि वह किस संकोच से घिर जाती है। पापा के आगे यह बात . . .
ड्राइंगरूम से आवाज़ आई जैसे टेबल सरकाई गई हो। कहीं, वह आ न धमके! उसने जल्दी से एक प्लेट में नमकीन रखा और चाय की ट्रे लेकर ड्राइंगरूम की ओर चल दी।
गिदोलिया ड्राइंगरूम के दरवाज़े पर ही खड़ा हुआ था। वह ठिठक गई। क्या चाहता है यह आदमी? क्या चाहता है, वह समझती है। अचानक मन में केंचुए-सा कुछ कुलबुलाने लगा। वह थोड़ी-सी बदतमीज़ क्यों नहीं हो पाती! लेकिन वह बदतमीज़ नहीं है।
“बैठिए न अंकल, आप खड़े क्यों हो गए?” वह चाय की ट्रे हाथ में पकड़े वैसी ही ठिठकी खड़ी थी।
गिदोलिया सोफ़े पर बैठ गया। उसने आगे बढ़कर ट्रे सेन्ट्रल टेबल पर रख दी। चाय कप में उड़ेलते हुए उसे लगा, गिदोलिया की आँखें उसके सीने पर गड़ी हैं। वह झट-से सीधी खड़ी हो गयी।
गिदोलिया बैठे ही बैठे कसमसाया। बोला, “एक ही कप क्यों, तुम्हारा कप कहाँ है?”
“मैं नहीं लूँगी, आप लीजिए।”
“ऐसा कैसे हो सकता है, हमारी सबा जी चाय न पिएँ और हम पीते रहें। एक कप ले आओ, इसी में से आधी-आधी किये लेते हैं।”
उफ़, क्या मुसीबत है! इसकी ‘सबा जी’! इतनी बेशर्मी से कैसे बोल लेता है यह आदमी? मगर ग़लती तो उसी की थी। उसे क्या ज़रूरत थी इस आदमी से ट्यूटर की बात करने की? लेकिन तब क्या पता था कि एक ज़रा-सी बात को लेकर यह इतना आगे बढ़ जाएगा। ट्यूटर की बात तो वैसे भी पापा ने ही शुरू की थी। इसने पापा के सामने ही उसकी क्लास पूछी थी, सब्जेक्ट पूछे थे। तब पापा ने कहा था, “इसे अंग्रेज़ी में थोड़ी परेशानी है, कोई ट्यूटर हो तो बताइएगा।”
“क्यों नहीं, क्यों नहीं, यह तो मेरे लिए ज़रा-सी देर का काम है,” यह झट-से बोला था।
कुछ दिन बाद यह आया था तो पापा घर पर नहीं थे। मम्मी किचिन में काम कर रही थीं। वह यूँ ही पूछ बैठी थी, “अंकल, मेरे ट्यूटर का क्या हुआ?”
“ट्यूटर तो तलाश दूँगा, पर मुझे क्या फ़ीस मिलेगी?” वह बोला था।
”आपकी फ़ीस?” वह समझ नहीं पाई थी, “आप क्यों फ़ीस लेंगे?
“क्यों, हमारी फ़ीस क्यों नहीं होगी? आजकल बिना फ़ीस के कोई किसी का काम करता है?”
“बताइए, क्या फ़ीस लेंगे?”
“बस यही कि कभी-कभार हमसे अकेले में दो-चार बातें कर लिया करो,” कहकर यह आदमी मुस्कराने लगा था।
उसे यह सब बहुत अटपटा लगा था। मगर फिर सोचने लगी थी, वैसे ही मज़ाक़ कर रहा है। वह स्वयं भी सिर्फ़ मुस्कराकर रह गई थी। इसके मन के कलुष को भाँपकर उसी दिन अपनी नाराज़गी प्रकट कर देती तो आज यह नौबत नहीं आती। पर उस वक़्त इसके गंदे इरादे को समझ ही कहाँ सकी थी! समझ जाती तो क्या उस दिन . . . उस दिन इसकी इतनी हिम्मत पड़ती।
उस दिन भी वह घर पर अकेली थी। दरवाज़े पर गिदोलिया को देखकर स्वयं उसने कहा था, “आइए अंकल।”
इसे बिठाकर इसके लिए पानी लाई थी। चाय बनाकर लाई थी तो आधा कप चाय अपने लिए भी बना लाई थी। काफ़ी देर तक यह अपनी पत्नी की बुराइयाँ करता रहा था कि झगड़ालू है, पढ़ी-लिखी नहीं है, उसे कहीं ला-ले जा नहीं सकता। बताता रहा था कि उसकी शादी उसके माँ-बाप ने बिना मर्ज़ी के कर दी थी, और अब वह घर बच्चों की ख़ातिर जाता है, नहीं तो घर जाने की तबिअत नहीं होती।
वह समझ नहीं पा रही थी कि यह आदमी इस तरह की बातें उससे क्यों कर रहा है, और इसकी बातों के जवाब में कहे तो क्या कहे। वह चुपचाप हाँ-हूँ करती रही थी।
तब अचानक ही इस आदमी ने उसका हाथ पकड़कर खींच लिया था, और चूमते हुए बोला था, “सबा मैं तुम्हें प्यार करता हूँ। तुम्हें देखकर पहली ही नज़र से तुम्हारा दीवाना हो गया हूँ।”
तभी काम करनेवाली महरी आ गई थी, और यह उठकर चला गया था।
कुछ देर तक तो उसकी समझ में ही नहीं आया था कि क्या हो गया है? थोड़ी-सी चैतन्य हुई थी तो अपमान और शर्म से आँसू छलछला आए थे। सोचा था, पापा घर आएँगे तो उनसे कहेगी, मगर पापा के सामने पड़ते ही उसकी हिम्मत जवाब दे गई थी। आज फिर यह आदमी उस समय चला आया है जब वह घर में अकेली है।
“तुम तो खड़ी रह गईं, सबा। कप लेकर आओ न,” गिदोलिया उसे ठिठका हुआ देखकर बोला।
“आप पीजिए। चाय उधर है, मैं ले आती हूँ अपने लिए,” वह तुरन्त किचिन में चली आई। टी-पॉन में ज़रा-सी चाय पड़ी थी, उसने कप में उढ़ेल ली। इस चाय को पीने को उसका ज़रा भी मन नहीं हो रहा था जैसे उस आदमी के मन की गन्दगी चाय में घुल गई हो। फिर भी वह कप लेकर ड्राइंगरूम में चली आई।
“आओ, बैठो न,” गिदोलिया ने अपने पासवाले सोफ़े की ओर इशारा किया।
“जी बैठ रही हूँ,” वह उससे हटकर दूसरे सोफ़े पर बैठ गई।
”इधर बैठो न, करीब,” उसकी आवाज़ में आग्रह था।
किस अधिकार से इस तरह की बात कह लेता है यह आदमी! समझता है, वह बिल्कुल बेवुक़ूफ़ है, कुछ समझती ही नहीं। तेरा कोई इरादा पूरा नहीं होगा बच्चू। पर इस वक़्त क्या करे? पड़ौस की मीना को बुला ले? उसकी मम्मी क्या सोचेंगी, कि वह क्यों मीना को बुला रही है? उसने देखा, गिदोलिया की आँखों का रंग बदल रहा है। उसकी घबराहट बढ़ने लगी। उफ़! पापा भी कुछ नहीं समझते। कैसे-कैसे लोगों को मुँह लगा लेते हैं। समझते हैं, ख़ुद सीधे हैं, तो सब सीधे हैं।
कुत्ते! उसने मन में कहा, समझते हैं, वह कुछ नहीं कहती तो उसने हाँ कह दी। उसे रनवीर का ध्यान हो आया जो कॉलेज के रास्ते में उसके पीछे लग लेता था, जाने क्या-क्या अंट-शंट बका करता था। उसकी बक-बक पर बिना कोई ध्यान दिए वह चुपचाप निकल जाती थी। एक दिन वह उसके पास आकर एक काग़ज़ उसकी ओर बढ़ाते हुए बोला था, “ये तुम्हारा काग़ज़ गिर गया है।”
असमंजस की स्थिति में उसने काग़ज़ ले लिया, और जैसे ही खोला उस लड़के की सारी मक्कारी उसकी समझ में आ गई। उसने बिना पढ़े ही उस काग़ज़ को फाड़कर वहीं उसके आगे ही नाली में फेंक दिया था। इस घटना के बाद उसे वह लड़का नज़र नहीं आया तो उसने सोचा था, जान छूटी। फिर कुछ ही दिनों बाद कॉलेज की एक जूनियर क्लास की लड़की ने उसके हाथ में एक काग़ज़ पकड़ा दिया था। खोलकर देखा तो कान की लवें तक लाल हो गईं-मैं दिन-रात तुम्हें सपनों में देखता हूँ। तुम मुझे हेमामालिनी से ज़्यादा ख़ूबसूरत लगती हो। उफ़! उसने तुरन्त इधर-उधर नज़र घुमाई थी कि उसे यह काग़ज़ लेते हुए किसी ने देखा तो नहीं, मगर किसी ने नहीं देखा था। मन हुआ था, वहीं फाड़ कर फेंक दे। फिर सोचा था, ऐसा करेगी तो लड़कियाँ देख लेंगी। बेकार बदनामी होगी। उसने बाद में वह काग़ज़ फाड़कर नाली में फेंक दिया था।
कुछ दिन बाद वही लड़की वैसा ही दूसरा ख़त ले आई थी। उसी ने बताया था कि वह लड़का उसका भाई है, उसका नाम रनवीर है। इस ख़त को भी उसने फाड़कर फेंक दिया था और लड़की को डाँटा था कि आगे से कोई ख़त न लाए और अपने उस भाई से कह दे कि ऐसी बदतमीज़ी न किया करे। मगर अगली बार तो उस लड़की ने हद ही कर दी थी, बोली थी, “दीदी, आप हमारी भाभी हैं, रनवीर भाई साहब कह रहे थे।”
वह ग़ुस्से से जल उठी थी। उस लड़की को खींचते हुए प्रिंसीपल मैडम के पास ले गई थी। लड़की रोने-गिड़गिड़ाने लगी थी कि आगे से वैसा कुछ नहीं करेगी। मैडम ने चपरासी को भेजकर लड़की के बाप को बुलाया था। उस लड़की को कॉलेज से निकालने और लड़के की पुलिस में रिपोर्ट करने की धमकी दी थी। लड़की का बाप मैडम के हाथ-पैर जोड़ने लगा था कि आगे कुछ नहीं होगा। तब जाकर यह मामला शान्त हुआ था।
उसने रनवीर की शिकायत तो प्रिंसिपल से कर दी थी, पर इस आदमी की शिकायत किससे करे? वैसे अब उसे न डर लगता था, न घबराहट होती थी, बस, वह बचने का पूरा प्रयास करती थी, ठीक उस तरह जैसे स्कूल वाली गली से ठीक पहलेवाली गली में मिलनेवाले उस काले-खजैले कुते से बचने का प्रयास करती थी जो लड़कियों को देखकर अक्सर गुर्राने लगता था। मगर इससे कैसे बचे?
गिदोलिया अपनी आँखें नचाकर बोला, “हम तो आपके काम के लिए भागदौड़ कर रहे हैं और आप हैं कि दूर-दूर भाग रही हैं।”
क्या जवाब दे इस बात का! क्या कहना चाहता है यह आदमी? चाहता है, इसकी बग़ल में आकर बैठ जाऊँ। एकाएक उसके अंदर एक भद्दी-सी गाली उग आई। लेकिन मुँह से फिर भी कुछ नहीं निकला।
वह बोला, “मैंने तुम्हारे लिए ट्यूटर तलाश दिया है। दो-एक दिन में पढ़ाना शुरू कर देगा।”
“जी।”
“ढाई-सौ रुपये लेगा।”
“ढाई-सौ रुपये!” वह चौंकी।
“वह तो तीन सौ रुपए माँग रहा था। ढाई सौ के लिए तो मेरी वजह से तैयार हुआ। अच्छे ट्यूटर मिलते ही कहाँ हैं।”
“पापा इतने पैसे नहीं दे पाएँगे।”
“अरे तो तुम क्यों चिन्ता करती हो? हम भी तो कुछ कर सकते हैं तुम्हारे लिए। तुम पापा से कहना एक-सौ पचास में तय हुआ है। सौ रुपए उसे मैं दे दिया करूँगा।”
“आप? आप क्यों देंगे?”
“तुम्हारी ख़ातिर।”
तुम्हारी ख़ातिर! कैसा दानी बन रहा है। समझता है सौ रुपये का लालच देकर उसे फुसला लेगा। ऐसे सौ रुपयों पर वह थूके भी नहीं। मगर प्रकट में बोली, “मेरी ख़ातिर आप तकलीफ़ क्यों उठाते हैं? मैं पापा से बात कर लूँगी।” उसी क्षण उसे लगा, गिदोलिया अपनी जगह से उठना चाहता है। उसे फिर घबराहट होने लगी। तभी बाहर के दरवाज़े पर आहट हुई। उसे जैसे साँस मिली। वह झट-से उठकर बाहर आ गई। पोस्टमैन था। वह आए हुए पत्रों को बाहर ही खड़ी होकर देखने लगी। उसका कोई पत्र नहीं था। सब पापा के नाम थे। फिर भी उसने एक पत्र खोल डाला। पढ़ने लगी। किसी तरह समय गुज़ारे। उसकी आँखें पत्र पर थीं, पर दिमाग़ की आँखें सोफ़े पर बैठे कुड़मुड़ाते गिदोलिया को देख रही थीं। बैठा रह बच्चू। अपना ट्यूटर भी रख अपने पास। मुझे नहीं पढ़ना। तूने भेजा भी तो दो दिन में भगा दूँगी। सौ रुपए देगा! उंह, बड़ा आया देनेवाला! ‘सबा, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।’ उल्लू का पटठा! मुझे प्यार करता है तो अपनी उस बीवी से क्या करता है, जिसने दो-दो बच्चे का बाप बनाया है!
“सबा, बाहर ही खड़ी रह गई,” गिदोलिया की आवाज़ आई। तो तेरी बग़ल में आकर बैठ जाऊँ? हीरो समझता है ख़ुद को। खूसट!
आज पापा से सारी बातें न कही तो कहना। फिर बोली, “जी, आ रही हूँ।”
“तुम कैसे कटी-कटी हो आज?” गिदोलिया ने पूछा।
जैसे और दिन तो तुझसे आकर चिपक जाती हूँ। मगर उससे कुछ कहते नहीं बना।
“अच्छा तो मैं परसों से ट्यूटर को भेज दूँगा।”
“अभी रुक जाइए। देबू ने भी ट्यूटर के लिए कहा था। कल बताएँगे।”
“देबू कौन?”
“त्रिवेदी अंकल के यहाँ जो रहते हैं . . .”
“अच्छा वो। वो लड़का तो त्रिवेदी की लड़की से फँसा हुआ है।”
गिदोलिया बेशर्मी से मुस्कराया।
उसका मन हुआ इस आदमी का मुँह नोंच ले। त्रिवेदी अंकल के आगे कैसा दुम हिलाता है, पीछे उसकी बेटी के लिए ऐसी भद्दी बात कह रहा है। ज़रा भी शर्म नहीं! वह क्या देबू को जानती नहीं। किसी और के बारे में कहता तो विश्वास भी कर लेती। देबू कहता था, “शबा, ऐसे लोग अपने चरित्र की गन्दगी ढकने के लिए दूसरे लोगों के चरित्र पर कीचड़ उछालते हैं।” मन हो रहा था कि गिदोलिया से कहे, सबको अपने जैसा कुत्ता समझता है क्या, पर संकोच ने फिर घेर लिया।
“ख़ैर ट्यूटर का तो दो-तीन दिन में ही हो जाएगा, तुम तो यह बताओ, हमारे घर कब आ रही हो?”
“आपके घर क्यों?”
“भई, यहाँ बातचीत कहाँ हो पाती है?”
“बातचीत होती तो है।”
“तुम समझती ही नहीं, “गिदोलिया ने उसे लपकती नज़र से देखा। समझती तो सब हूँ, बच्चू। तू समझता है, तूने कह दिया तो मैं तुरन्त तेरे घर भागी चली आऊँगी। मुँह धो रख! फिर अचानक ही उसे चुहल सूझी। बोली, “यहाँ बात नहीं हो सकती, तो फिर आपके घर कैसे होगी? आंटी नहीं होगी वहाँ, और बच्चे?”
“उनकी चिन्ता छोड़ो, उनके लिए तो ज़रा-सा बहाना ही काफ़ी है,” वह मुस्कराया।
कितने मज़े से कह रहा है, उनकी चिन्ता छोड़ो। जैसे वह सचमुच उनकी चिन्ता करती है! कितना मज़ा आए, जब इसकी बीवी से मिले और इसकी सारी हरकतें उसे बता दे। कभी मौक़ा लगा तो ऐसा ही करेगी। अपने इस ख़्याल से उसके चेहरे पर मुस्कराहट आ गई। अगले ही क्षण वह सचेत भी हो गई। उसकी यह मुस्कराहट इस आदमी के मन में ग़लतफ़हमी पैदा कर सकती थी। शायद हुआ भी ऐसा ही।
वह बोला, “तुम्हारे पापा उस दिन तुम्हारे लिए किसी लड़के का ज़िक्र कर रहे थे।”
तो ये बातें भी तुझसे करूँ! बेशर्म।
“तुम शादी करोगी?” वह मुँह उठाकर पूछ रहा था।
तो क्या यह समझता है कि वह सचमुच इसे प्यार करने लगी है। बेवुक़ूफ़! सोचता है, शबा शादी नहीं करेगी और इसकी लट्टू जैसी मूरत पर लट्टू बनी रहेगी! गधे का बच्चा!
तभी वह बुरी तरह हड़बड़ा गई। उसने देखा, गिदोलिया के हाथ ने उसका हाथ जकड़ लिया है। गिदोलिया कह रहा था, “मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ।” उसे लगा जैसे उसके सारे शरीर से पसीना फूट रहा है। उसने झटका देकर अपना हाथ छुड़ाया और ड्राइंगरूम से बाहर आकर खड़ी हो गई। उसे लग रहा था, गली के सारे कुत्ते घर में घुस आये हैं। वह व्यग्र होकर गली के मोड़ की ओर देखने लगी, मम्मी आती हुई दिखाई दें।
1 टिप्पणियाँ
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काश, यह कहानी किसी की आँखें खोल दे। समाज के ऐसे कीड़ों को यदि कुचला न जा सके तो कम से कम उनसे सुरक्षित कैसे रहा जाये, यह माँ-बाप के लिए न केवल अपनी बेटियों बल्कि बेटों को भी उनके बचपन से ही सतर्क व बहादुर बने रहने की बातों-बातों में ट्रेनिंग देनी बहुत ही आवश्यक है। साधुवाद।