गाड़ी चल पड़ी थी। उसने एक बार फिर स्वयं को टटोला। अनिवार्य जैसी स्थिति अब नहीं रही थी। वैसे प्रायः उसे निर्णय लेने में देर नहीं लगती, परन्तु इस मामले में वह आख़िर तक दुविधाग्रस्त रहा। अब तो कुछ ही घंटों बाद दिल्ली पहुँच ही जाना था। प्रशांत से बात भी होनी थी। इस बार विभागीय काम का तो बहाना था, मुख्य काम चोपड़ा की भाँजी के सम्बन्ध में प्रशांत से बात करना ही था।
उसकी इच्छा हो उठी थी कि वह सुंदर-सलोनी लड़की उसके परिवार में शामिल हो जाये। लड़की की बचकानी ज़िद को महत्त्व देने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था, उस हालत में तो बिलकुल भी नहीं जब कि स्वयं लड़की के घरवाले उसकी ज़िद के कारण परेशान थे, और जल्दी-से-जल्दी उसका रिश्ता तय कर देना चाहते थे।
उसके पासवाले व्यक्ति ने अपना ब्रीफ़केस सीट के ऊपर ही कुछ इस ढंग से रख दिया था कि उसे सहजता से बैठने में परेशानी हो रही थी। उसने विनम्रता से कहा, “भाईसाब, ये अपना ब्रीफ़केस सीट के नीचे रख दें, या थोड़ा अपनी तरफ़ खिसका लें।”
उस शख़्स ने उसे इस तरह देखा जैसे उसने ब्रीफ़केस खिसकाने की बात कह कर अगले की शान में गुस्ताख़ी कर दी हो। उसने ब्रीफ़केस खिसकाया तो ज़रूर, मगर इतना नहीं कि उसे वांछित सुविधा मिल पाती। उसे कोफ़्त हुई। कैसे बेहूदे लोग हैं। सारी सुविधा अपनी झोली में डाल लेना चाहते हैं, दूसरों को उनका उचित हक़ देने में भी इनका दम निकलता है। ब्रीफ़केस हटाने जैसी छोटी-सी बात क्यों इनकी प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाती है? बहरहाल उसने आँखें मूँद लीं, शरीर को शिथिल करके मस्तिष्क को विचारशून्य स्थिति में ले जाने की कोशिश करने लगा, ताकि रातभर की अनिद्रा-थकान में मुक्ति पा सके।
रात कोई ऐसी बात नहीं थी कि तनाव पैदा होता, परन्तु पत्नी ने व्यर्थ का वितंडा खड़ा कर दिया था। हालाँकि उस तरह की बात कहने की कोई तुक नहीं थी, फिर भी वह बोली थी, “मेरा मन नहीं है कि आप प्रशांत से इस लड़की के रिश्ते की बात करें।”
वह झल्ला गया था, “क्या ख़राबी है लड़की में? हर तरह से ठीक है। सच पूछो तो प्रशांत के लिए इतनी अच्छी लड़की का रिश्ता आज तक नहीं आया।”
“आप तो कुछ समझते ही नहीं। कल को प्रशांत को इस लड़की के बारे में मालूम पड़ता है तो क्या होगा?”
“क्या पता लगेगा प्रशांत को? पता लग भी जायेगा तो क्या हो जायेगा? प्रशांत इतना बेवुकूफ़ तो है नहीं कि आजकल के हालातों को समझता न हो। ऐसी घटनाएँ तो इन दिनों आम हो गयी हैं। इस लड़की के बारे में तो हम जानते हैं, किसी दूसरी जगह से ऐसी ही किसी लड़की का रिश्ता आता, तब हम क्या पता लगाते? हमें कुछ मालूम भी नहीं पड़ता, लड़की बहू बनकर घर में आ जाती।”
“कुछ भी हो, देखते हुए मक्खी कोई नहीं निगलता। पता नहीं आप क्यों उस लड़की पर लट्टू हो गये हैं।”
वह सोने की कोशिश करता रहा था, परन्तु देर तक नींद नहीं आयी थी। उसे आज तक इस बात का उत्तर नहीं मिला था कि एक कुत्ता दूसरे को देखकर क्यों गुर्राता है, उसी तरह इस बात का भी जवाब नहीं मिल रहा था कि एक औरत के मन में दूसरी औरत के प्रति हमदर्दी पैदा क्यों नहीं हो पाती।
उनींदापन उसके शरीर पर पूरी तरह तारी हो पाता कि सामने की सीट पर बैठे लोगों की बहस का स्वर तेज हो गया। मन में फिर कोफ़्त पैदा हुई, ये लोग गाड़ी में यात्रा करते हुए इतने लापरवाह क्यों होते हैं? इन्हें दूसरों के आराम का ध्यान क्यों नहीं रहता? वह स्वयं कभी भी फ़ालतू बहसों में नहीं उलझता था और न ही पसंद करता था कि दूसरे लोग ज़ोर-ज़ोर से बोल कर आस-पासवालों का चैन से बैठना हराम कर दें।
न कोई ऐसा क़ानून था जिसके तहत वह उन लोगों को बोलने से मना कर पाता, न वे लोग इतनी समझदारी दिखा रहे थे कि दूसरे की परेशानी समझें और बोलना बंद कर दें। उनकी बातें चल रही थीं, उसे सुननी ही थीं। एकाएक उसका ध्यान गया कि वे लोग फ़िल्मी और बचकानी राजनीतिक बहस नहीं कर रहे थे। उसके कान स्वतः ही उन लोगों से जुड़ गये “. . . सारा आनंद लय का होता है, कविता में उसकी लय आनंद देती है, संगीत का आनंद भी उसकी लय में होता है . . .” कुरतेवाला व्यक्ति, जो कहीं प्राध्यापक हो सकता था, दूसरे से कह रहा था, “इसी तरह ज़िन्दगी का आनंद भी उसकी लय में है। जिस तरह कुछ ख़ास नियम कविता में लय पैदा करते हैं, उसी तरह ज़िन्दगी के कुछ नियम ज़िन्दगी में लय पैदा करते हैं। आपने यह लय तोड़ी तो आपकी ज़िन्दगी का मज़ा खत्म।” वह अंदर-ही-अंदर चौंका, जैसे किसी बड़े रहस्य की सरल कुंजी हाथ लग गयी हो।
उस शाम हमेशा की तरह सूरज डूबा था। हमेशा की तरह ही लालिमा पश्चिमी क्षितिज पर फैल गयी थी। झील की ओर से आते हुए जलपक्षी क़तारबद्ध पश्चिम की ओर उड़ चले थे। टिटकारी भरते हुए तोतों का झुंड नेहरू पार्क के धुँधलाते वृक्षों में समाने का प्रयास कर रहा था। अब उसे लग रहा था कि इस सब में एक लय होती थी जिससे बँधा हुआ वह हर शाम घर की छत पर चला आता था। यह लय बहुत ख़ुशनुमा होती थी, उसके अंदर हलके-हलके उन्माद को जगाती हुई। वह सिगरेट नहीं पीता था परन्तु लगता था, जैसे किसी नशीली वस्तु के गहरे कश ले रहा हो।
उस शाम वह इसी नशे के सुरूर में था कि उस लड़की के कारण लय टूट गयी थी। वह एकटक डूबते सूरज को देख रही थी। इकहरे बदन की लंबी लड़की थी वह। उस समय उसके चेहरे का पार्श्व भाग ही नज़र आ रहा था, और वह किसी आदमक़द पोस्टर में से निकल आयी कलाकृति जैसी लग रही थी। लड़की को अपने देखे जाने का अहसास हुआ था तो उसने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें उसकी ओर घुमा दी थीं। एकाएक सब कुछ उदासी में डूब गया था। लड़की की आँखों की उदासी सारे वातावरण में घुल गयी थी।
लड़की धीरे-धीरे चलकर सीढ़ियों से नीचे उतर गयी थी, मगर उदासी में डूबी अपनी आँखें उसके पास छोड़ गयी थी। इससे पहले कभी उसने इस लड़की को अपने पड़ोसी की छत पर नहीं देखा था। कौन थी यह लड़की? क्या डी.सी. चोपड़ा की कोई रिश्तेदार? मगर इसकी आँखें ऐसी क्यों थीं? प्रकृति सुंदर आँखें देती है, आँखों में अवसाद की घनी परछाइयाँ तो नहीं।
पत्नी ने बाद में बताया था कि वह लड़की चोपड़ा की भाँजी है। उसके बारे में कुछ और जानने की उत्सुकता के उत्तर में पत्नी ने मुस्कराकर कहा था, “क्यों, मन में उतर गयी है क्या? ख़ूबसूरत तो है।”
गेंद-सी गदबदी पत्नी के ऐसे मज़ाक़ उसे प्रायः गुदगुदाते रहते हैं, परन्तु उस दिन यह मज़ाक़ अच्छा नहीं लगा था। लड़की की आँखें उस समूची ख़ुशनुमा शाम को उदासी की स्याही में रंग, उसके अंदर बिठा गयी थीं। पत्नी समझदार होते हुए भी इस बात को नहीं समझ सकती थी। तब वह चुप ही रहा था।
जो आदमी अभी तक प्रमुख वक्ता की भूमिका अख़्तियार किये हुए था, अब चुप हो गया था। दूसरे के चेहरे पर मुक्ति का भाव था जैसे वह किसी गरिष्ठ संभाषण को पचाने की दुसह नियति से बच गया हो। उस आदमी ने अपनी आँखें मूँद ली थीं और पैर सामने की ओर फैला लिये थे। मगर उसका अपना मन संभाषणकर्ता से सवाल पूछने का हो रहा था कि ‘लय’ से वस्तुतः उसका तात्पर्य क्या था?
उस लड़की ने भी शायद ज़िन्दगी की लय को तोड़ने की कोशिश की थी, तभी स्वयं उसका और उसके घर-परिवार के लोगों का जीवन दुखमय हो गया था, चाहे अल्पकाल के लिए ही सही। लड़की लीक से हटकर चलना चाहती थी, अपने परिवार की परंपरा को तोड़ना चाहती थी, इसी कारण घर में उसका तीव्र विरोध हुआ था। इसी विरोध, प्रति-विरोध ने पारिवारिक अशांति को जन्म दिया था जो अभी तक समाप्त नहीं हुई थी।
वैसे पलभर के लिए यह सवाल भी ज़ेहन में आया कि लड़की के घरवाले उसकी बात मान लेते तो इतना क्लेश पैदा नहीं होता। परन्तु यहाँ परिवार संरचना में किसी लड़की की बात को महत्त्व देने की कोई सीधी परंपरा नहीं रही, अतः ग़लती लड़की की ही थी जो वैसा चाहती थी। इसका अर्थ तो यही था कि ज़िन्दगी की लय उन्हीं सनातन रीति-रिवाज़ों और परंपराओं से पैदा होती है, जो न जाने कब से आदमी को एक ख़ास ढर्रे-ढाँचे पर चलाये जा रहे हैं।
अगर तर्क करने का यह नज़रिया उसके पास पहले आया होता तो उस लड़की को बेहतर ढंग से समझा जा सकता था शायद पहले ही दिन, जब वह उसके सामने आ कर खड़ी हो गयी थी। वह फीरोजी रंग का सलवार-सूट पहने थी। यह रंग उसके चेहरे पर अवसाद की छाया को घना कर रहा था। उस दिन एक बात और उसने महसूस की थी—उदास आँखों के बीच से लपकती एक गहरी चमक, जो प्रायः अपने इरादे के आगे जान तक को छोटा बना देने वाले लोगों की आँखों में नज़र आती है।
उस ग़ुस्से को वह अंदर ही जज़्ब किये रहा था। चोपड़ा से बात करने से पहले वह एक बार नीरा से बात करना चाहता था, जो उसे एक पहेली में उलझाकर चली गयी थी।
ग्वालियर का स्टेशन पीछे छूट गया था। चाय-पानी की दौड़-भाग, पुकार-चिल्लाहट जो स्टेशन पर शुरू हुई थी, तो स्टेशन पर आते ही गाड़ी की लय टूट गयी थी। वह क्षणभर को भ्रमित हो गया। गाड़ी की निरंतर एकरस लय उसे भी उबाने लगी थी, वह भी स्टेशन का इंतज़ार करने लगा था, उसे चाय की तलब लगी थी। स्टेशन आते ही बहुत-से यात्री प्लैटफ़ॉर्म पर कूद पड़े थे, जैसे वे उतावली से स्टेशन आने की प्रतीक्षा कर रहे हों। तो क्या वे लोग भी गाड़ी की लय में नहीं डूब जाते थे या फिर स्टेशन का शोर-शराबा भी गाड़ी की लय में शामिल था। वह स्पष्ट रूप से कुछ तय नहीं कर पाया। लय का यह गणित भी उसे ज़िन्दगी के गणित की तरह ही पेचीदा लगा।
यकायक उसने महसूस किया कि मस्तिष्क को विचारशून्य करने की बात मस्तिष्क से बाहर हो गयी है, और वह नीरा की ज़िन्दगी में, ज़िन्दगी की किसी लय को तलाश कर रहा है। अगर नीरा ज़िन्दगी की लय से जुड़ी थी, तो उसके घरवाले इसमें शामिल क्यों नहीं हो पा रहे थे? और घरवाले इस लय से जुड़े थे तो नीरा उनसे एकदम अलग जाकर क्यों खड़ी हो गयी थी?
“आप मेरी बात पर विश्वास क्यों नहीं करते? मेरी शादी हो गयी है। झूठ बोलकर मुझे क्या मिलेगा?” नीरा का चेहरा बेबसी और ग़ुस्से से भर गया था।
“इसी बात ने तो मुझे परेशान कर रखा है, आख़िर तुम्हें झूठ . . .”
“फिर वही, मैं आपको कैसे यक़ीन दिलाऊँ कि मैं झूठ नहीं बोल रही हूँ। मेरी शादी हो गयी है, और मुझे मेरे मामा के यहाँ क़ैद किया हुआ है। पर कोई मेरी बात सुनना नहीं चाहता, समझना नहीं चाहता।” उसकी आँखों में आँसू भर आये थे, बोली थी, “ठीक है, आप जी भर कर कोशिश कर लीजिए, मगर मैं शादी नहीं करूँगी। ज़बरदस्ती की गयी तो . . .”
“मुझे ग़लत मत समझो,” वह अपने सामने खड़ी उस लड़की के प्रति गहरी सहानुभूति से भर गया था, “तुम्हारे मामा लगातार मुझसे कह रहे थे कि मैं उनके साथ दिल्ली चला चलूँ। मैं सिर्फ़ इसलिए दिल्ली नहीं गया कि एक बार तुमसे मिलकर सारी बातें जान लूँ। अगर तुम मुझ पर विश्वास कर सको तो . . .”
नीरा ने सुबकना छोड़ एक खोजती-सी नज़र डाली थी, फिर संदेह, विश्वास के बीच से बोली थी, “क्या आप पर भरोसा कर सकती हूँ? आप मामा जी के दोस्त हैं। इसलिए . . .”
“अगर तुम्हें डर है कि तुम मुझसे कुछ कहोगी, और मैं तुम्हारे मामा जी से कह दूँगा, तो इस डर को अपने मन से बिल्कुल निकाल दो। मैं ऐसा नहीं करूँगा। तुम्हारी हर बात सिर्फ़ मुझ तक रहेगी।” उसने नीरा को आश्वस्त किया था।
वह बोली, “मामा जी ने आपको मेरे बारे में क्या बताया है?”
“यही कि तुम किसी आवारा क़िस्म के आदमी के चंगुल में फँस गयी थीं, वह तुम्हें बहला-फुसलाकर कहीं ले गया था, काफ़ी खोज-बीन के बाद पुलिस की सहायता से तुम्हें उसके चंगुल से मुक्त कराया गया।”
“इतना सब जानने के बाद भी आप अपने भतीजे से मेरा रिश्ता जोड़ना चाहते हैं।”
“वह इसलिए कि अगर ऐसा है तो मैं तुम्हें दोषी नहीं मानता। तुम्हारे साथ एक दुर्घटना हो गयी, सो हो गयी। भविष्य तो सुरक्षित किया जा सकता है,” उसने कहा था।
“आपकी इस उदारता की तारीफ़ करनी पड़ेगी।”
“इसका मतलब तुम्हारे मामा ने जो कहा, वह ठीक है।”
“क़तई नहीं।”
“फिर सच क्या है?”
“जिस आदमी को आप आवारा क़िस्म का कह रहे हैं, क़तई आवारा नहीं है। दूसरे, इससे बड़ी शर्मनाक बात मेरे लिए क्या हो सकती है कि कोई मुझे बहला-फुसलाकर ले जा सकता है। मैं आपको बेवुक़ूफ़ लगती हूँ? बच्ची लगती हूँ? सच बात यह है कि मैं ख़ुद उसके साथ गयी थी, वह भी तब, जब मेरे पापा ने मुझे उससे शादी करने की अनुमति नहीं दी थी। मामा जी ने यह भी ग़लत बताया है कि मुझे पुलिस की मदद से मुक्त कराया गया वास्तविकता यह है कि मैं ख़ुद वापस आयी थी। पापा ने ख़बर भिजवायी थी कि वे इस शादी को मंज़ूर कर लेंगे, बस वे एक बार मुझसे मिलना चाहते हैं।”
“तुम लोग आ गये तो उन्होंने पैंतरा बदल दिया। तुम्हें उस व्यक्ति से अलग कर दिया और यहाँ भेज दिया, यही न?” उसने बात पूरी की।
“हाँ, यही। अब वे मेरी शादी दूसरी जगह करना चाहते हैं, आप ही बताइए, कोई लड़की जो एक बार माँग में सिंदूर भर चुकी है, वह कैसे . . .” वह सुबकने लगी थी, “ये लोग अदालत में इसलिए नहीं गये कि मैं इनके ख़िलाफ़ बोलूँगी।”
उस समय नीरा उसे एक बच्ची की मानिंद लगी थी। उसने समझाया था, “नीरा, तुम्हारे माँ-बाप ने दुनिया देखी है। वे तुम्हारा भला-बुरा अच्छी तरह सोच सकते हैं। कोई भी बाप अपनी बेटी का बुरा नहीं चाहता। अगर तुम्हारे पापा को भरोसा हो जाता कि वह लड़का ठीक है, तो वे अवश्य तुम्हारी शादी उससे कर देते। तुम कोरी भावुकता में बह रही हो . . .”
“जो मेरी ज़िन्दगी की सच्चाई है, आप उसे भावुकता कहक़र क्यों टाल रहे हैं, और भावुकता क्या ज़िन्दगी की सच्चाई नहीं होती? आप कहते हैं, कोई बाप अपनी बेटी का बुरा नहीं चाहता। मेरे लिए इससे बुरा और अपमानजनक क्या होगा कि एक पति के रहते में दूसरी शादी कर लूँ।”
“तुम्हारे दिमाग़ में यह बात क्यों बैठ गयी है कि तुमने माँग में सिंदूर भर लिया तो तुम्हारी शादी उसके साथ हो गयी।”
वह तुरंत बोली, “अगर एक माँग में सिंदूर भरता है तो शादी नहीं होती, दूसरा भरे तो शादी हो जायेगी। यह कौन-सा नियम है आपका? मैं अपनी माँग में सिंदूर भर लूँ, माँ-बाप मिटा दें, तो कोई बात नहीं, और माँ-बाप द्वारा भरवाये गये सिंदूर को मैं मिटा दूँ, तो पहाड़ टूट पड़ेगा?”
“तुम भावावेश में ज़िन्दगी की सच्चाई भूल रही हो, आख़िर तुम्हारे माँ-बाप की एक सामाजिक मान-प्रतिष्ठा है।”
“हाँ, यह सामाजिक मान-प्रतिष्ठा मेरे माँ-बाप की है, मेरी नहीं। वे अपनी मान-प्रतिष्ठा के लिए मुझे ज़िन्दगी भर को अपमान की भट्टी में झोंकना चाहते हैं . . . वे मुझे वेश्या बनाने पर तुले हुए हैं। जिस आदमी से मेरे तन-मन का एक-एक रग-रेशा जुड़ा हुआ है, उसे भूलकर मैं कैसे किसी दूसरे आदमी को अपना आदमी मान लूँगी?” नीरा का पीला चेहरा उत्तेजना से लाल हो गया था।
इस बार उसे बच्ची समझकर समझाने का साहस वह नहीं जुटा सका था। मात्र इतना ही कह सका, “मैं तुम्हारी बात मानता हूँ, लेकिन वह लड़का ठीक होता तो . . .”
“जिस लड़के का चुनाव मैं अपने लिए कर रही हूँ, वह अच्छा है या बुरा, इसे तय करने का हक़ किसी और को क्यों हो? फिर भी अगर आप मामा जी की बात का विश्वास करते हैं, तो मैं आपको एक पता दिये देती हूँ। आप ख़ुद जाकर उसके बारे में पता कर लीजिएगा।” नीरा ने तब उससे ही काग़ज़-पेन माँगकर एक पता लिख दिया था। वह काग़ज़ उसे देते हुए बोली थी, “वह व्यक्ति आपको मिल जाये, और आप संतुष्ट हो जायें, तो मेरे यहाँ होने की सूचना उसे अवश्य दे दीजिएगा।”
वह झटके के साथ सचेत हुआ। कुछ ही देर में आगरा कैंट स्टेशन आनेवाला था। नीरा ने उसे जो काग़ज़ दिया था, उसमें राजामंडी बाज़ार का ही एक पता दिया हुआ था। उसने जल्दी से अपने कोट की जेबें टटोलीं। वह काग़ज़ उसने बिना किसी ख़ास इरादे के जेब में डाल लिया था, जो अभी भी जेब में पड़ा हुआ था।
गाड़ी की रफ़्तार यकायक धीमी पड़ने लगी। लोगों ने एक-दूसरे की ओर देखा, जैसे इस अचानक रुकने का रहस्य जानना चाहते हों। उसके पासवाला जो काफ़ी देर से उसकी ही पत्रिका पढ़ रहा था, बोला, “गाड़ी रुक क्यों गयी?”
“क्या मालूम, शायद सिगनल नहीं हुआ होगा,” उसने उत्तर दिया। अब तक वह इस आदमी के ब्रीफ़केस हटाते वक़्त के रूखेपन को बिसार चुका था। यह आदमी भी उतना रूखा नहीं रहा था। बाद में इसने स्वयं ही ब्रीफ़केस उठाकर सीट के नीचे रख दिया था। अजीब स्वभाव है आदमी का!
“यहाँ तो पास में कोई स्टेशन भी नहीं है,” पासवाला खिड़की से बाहर झाँककर बोला, “दिल्ली जा रहे हैं?”
“हूँ,” उसने उत्तर देने की मात्र औपचारिकता पूरी की। वह उस व्यक्ति को बढ़ावा देकर तमाम फ़ालतू प्रश्न पूछे जाने की अप्रिय स्थिति में आना नहीं चाहता था।
उस शख़्स ने उसे रुचि न लेते देखा तो वह उठा और दरवाज़े की ओर चल दिया। अब तक बहुत से लोग नीचे उतर गये थे और इंजिन की ओर उत्सुक नज़रों से देख रहे थे। किसी निश्चत कारण के अभाव ने डिब्बे में अफ़रा-तफ़री फैला दी थी। लोग अटकलें लगाने लगे थे।
एक ने मत प्रकट किया, “किसी ने चेन खींच दी होगी।
दूसरे ने तुरंत प्रतिवाद किया, “चेन खींचने के बाद चलने में क्या इतना टाइम लगता है? कोई और ही वजह है।”
एक अन्य ने शंका प्रकट की, “कोई जानवर पहियों के नीचे आ गया होगा।”
“जानवर आ जाता तो पहियों की आवाज़ बदल जाती,” एक और बोला। एक दाढ़ीवाले ने राय ज़ाहिर की, “हो सकता है, किसी उग्रवादी ने फिशप्लेट निकाल दी हो।” इस राय पर दो-तीन लोग मुस्कराये। एक बोला, “ये क्या पंजाब है, जो कोई फिशप्लेट निकालेगा? ये तो यू.पी. का ठंडा इलाक़ा है।”
लोग ऊब रहे थे। उनके अंदर बेचैनी भर रही थी। वह स्वयं भी बेचैन हो रहा था। उसके सामनेवाली सीट पर छोर की तरफ़ बैठा आदमी रेलवे प्रशासन के लिए गालियाँ निकालने लगा। उसे लगा, गाड़ी के इस तरह अचानक रुक जाने की घटना यात्रा की लय से अलग घटित हुई है, तभी लोग परेशान हो गये हैं। जब स्टेशन आया था, तो यात्रा की लय में शामिल था—लोग स्टेशन आने की प्रतीक्षा कर रहे थे, और चढ़े-उतरे थे। परन्तु बीच रास्ते गाड़ी के यों अनपेक्षित रुक जाने से लय टूट रही थी। नीरा ने भी अपने परिवार की लय इसी तरह तोड़ दी थी, तभी सबको इतनी परेशानी झेलनी पड़ रही थी।
नीरा अपनी बात कह कर गयी थी, उस शाम वह बहुत देर तक छत पर टहलता रहा था। सूरज डूब गया था। पश्चिमी क्षितिज में लालिमा भरने लगी थी। नेहरू पार्क के वृक्षों पर तोते टूट रहे थे। वह उन जल-पक्षियों का इंतज़ार करने लगा था जो झील की ओर से क़तारबद्ध आते थे। शाम का जो समूचा परिदृश्य उसके अंदर एक उजली ख़ुशी के अहसास को जगाता था, वह उन पक्षियों के बिना अभी तक अधूरा था। वह इंतज़ार करने लगा था कि पक्षी आयें, और पश्चिम की ओर एक रेखा की तरह धुँधले होते-होते एकदम विलीन हो जायें। पक्षियों के लिए उसके मन में बेचैनी भरने लगी थी। बेचैनी इसलिए भी थी कि वह कोई ऐसा बिंदु तलाश लेना चाहता था, जिस पर नीरा और उसके परिवार मिल सकें। नयी प्राप्त शब्दावली में, उस दिन वह नीरा और उसके घरवालों के बीच की टूटी लय को जोड़ने के बिंदु तलाश रहा था, पर वे उसे नहीं मिल रहे थे। वह रात घिर आने तक छत पर खड़ा रहा था, मगर वे पक्षी झील की ओर से आते हुए नज़र नहीं आये थे। वह रात बेचैनी में ही कटी थी।
अगली सुबह उसने चोपड़ा से बात की थी, “चोपड़ा साहब, ऐसा नहीं हो सकता कि उस लड़के को किसी तरह नीरा के क़ाबिल बनाया जा सके।”
“कैसी बातें करते हो तुम, जीजा जी ने उस लड़के का पूरा चिट्ठा बताया था, न जाने कितनी लड़कियों से उसके सम्बन्ध हैं। उस लड़के के बारे में तो हम सोच भी नहीं सकते,” चोपड़ा ने कहा था।
वे लोग उस लड़के के प्रति संपूर्ण दुर्भावनामय थे। लड़के पर उनके जो आरोप थे, ऐसी स्थितियों में प्रायः इसी तरह के होते हैं। उसे आरोपों की सत्यता पर संदेह भले ही न हुआ हो। परन्तु पूर्णतः उन पर विश्वास भी नहीं हुआ था। लेकिन एक बात मन में अवश्य आयी थी कि नीरा की भावनाओं की उपेक्षा, कहीं किसी अन्य दुर्घटना का कारण न बन जाये—नीरा आत्महत्या न कर ले। घर छोड़कर किन्हीं अँधेरों में गुम न हो जाये। उसने चोपड़ा से कहा था, “लेकिन नीरा की अपनी भावनाएँ?”
“नीरा तो बेवुक़ूफ़ है। इस समय वह नहीं समझ रही है, बाद में अपने-आप समझ जायेगी . . .”
सीट की छोरवाला आदमी बार-बार अपनी घड़ी देख रहा था। उसकी बड़बड़ाहट तेज़ हो गयी थी, “ससुरे, सब हरामख़ोर हैं। सबको लाइन में लगा कर गोली मार देनी चाहिए।”
कुरतेवाला आदमी जो अब तक शांत था, उस आदमी से बोला, “यार क्यों परेशान होते हो, ये छोटी-छोटी दुर्घटनाएँ तो होती ही रहती हैं। अब इन्हें चाहे चिल्लाकर झेलो, या ठहाके लगाकर। गाड़ी रुक गयी है तो उसकी कोई वजह होगी। कोई आदमी इसके लिए ज़िम्मेदार है तो उसकी कोई मजबूरी भी हो सकती है। हमें उसे भी तो समझना चाहिए। ये क्यों नहीं सोचते कि इस छोटी-सी परेशानी के कारण कोई बड़ी परेशानी टल गयी हो . . . थोड़ा मन बड़ा रखो तो सब चीज़ें आसान हो जाती हैं।”
उसने सोचा, यह बात भी लय के संदर्भ में कही गयी है कि ये छोटी-मोटी दुर्घटनाएँ ज़िन्दगी की लय का हिस्सा ही हैं, अब चाहे इन्हें सामान्य घटना मान लो या विशाल दुर्घटना। अगर आदमी ज़िन्दगी के छोटे-मोटे हादसों को भी ज़िन्दगी की लय में शामिल कर ले तो उसे बहुत-सी घटनाएँ दुखद न प्रतीत हो। परन्तु इसके लिए चाहिए बड़ा मन-उदार सोच, जिससे अन्य के मन को ठीक से पहचानने की समझ बनती है।
उसे अपना यह ख़्याल ज़िन्दगी के एक सूत्र जैसा प्रतीत हुआ। वह इस सूत्र से नीरा के प्रकरण को मापने लगा। नीरा के माँ-बाप नीरा को ठीक से समझने की उदारता बरत सकते थे, मगर वे वैसा नहीं कर रहे थे। लेकिन वह स्वयं नीरा को नीरा के तरीक़े से न समझने की अनुदारता क्यों बरत रहा था? उस लड़के से बात करके किसी सही स्थिति-बिंदु पर पहुँचने की बात उसके मन में क्यों नहीं आयी? नीरा के माँ-बाप को भी तो अनुदार हठपूर्ण रवैया त्यागने के लिए समझाया जा सकता था।
गाड़ी कब चल पड़ी थी, उसे मालूम नहीं हुआ। उसे तो स्टेशन आने के शोर ने सचेत किया। गाड़ी आगरा कैंट स्टेशन पर रुक गयी थी। अन्य कई लोगों के साथ वह भी प्लैटफ़ॉर्म पर उतर पड़ा और टी-स्टॉल पर खड़ा होकर चाय पीने लगा।
जब गाड़ी की तेज़ सीटी स्टेशन को गुंजाने लगी, तो गाड़ी से उतरे हुए यात्री हबड़-हबड़ अपने डिब्बों की ओर भागे। उसके साथवाला उसे आश्चर्य से घूर रहा था कि वह डिब्बे की ओर दौड़ क्यों नहीं रहा? मगर उस समय वह स्वयं को अपने घर की छत पर खड़ा हुआ देख रहा था। उस शाम न आये हुए जलपक्षी अचानक झील की ओर से उड़ कर आने लगे थे। उदास शाम का समूचा परिदृश्य ख़ुशनुमा लय में बदल गया था। उसकी उँगलियों में नीरा का दिया काग़ज़ उलझा हुआ था।