एक अच्छा सा दिन

01-09-2023

एक अच्छा सा दिन

विभांशु दिव्याल (अंक: 236, सितम्बर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

कई दिन बाद कुहरा छंटा था। हल्की-सी धूप भी खिल आयी थी। मौसम अचानक गुनगुना हो गया था। तायल साब मेरे पास आकर बोले, “चलिए, कहीं घूम आते हैं। ठण्ड की वजह से बहुत दिन से बाहर ही नहीं निकल पाये हैं।” 

तायल साब ठीक कह रहे थे। पिछले दिन लगातार घने कुहरे और तेज़ सर्दी के रहते कहीं बाहर निकलने का मन ही नहीं हुआ था। मन हुआ भी था तो हिम्मत नहीं हुई थी। सर्दी मेरे नज़ले को कुछ ज़्यादा ही उग्र कर देती थी, इसलिए मैं प्रायः ठण्ड से बचता भी था। लेकिन मौसम आज सुखद करवट ले गया था। तायल साब ने जब घूम आने का प्रस्ताव रखा तो मेरा मन भी कहीं बाहर निकलने को होने लगा। मैंने पूछा, “कहाँ चलेंगे?” 

“कहीं भी चलते हैं। आप कभी चंद्रिका देवी गये हैं?” उन्होंने पूछा। 

“मैं तो घनघोर नास्तिक हूँ, मैं पूजा-पाठ नहीं करता,” मैंने कहा। 

वह बोले, “चलिए, अच्छी जगह है। यहाँ अकेले बैठ कर क्या करेंगे?” 

जहाँ तक अकेले बैठकर कुछ करने का सवाल था तो मेरे पास कुछ भी करने को नहीं था। ऑफ़िस की छुट्टी थी और इस समय कोई अतिरिक्त काम करने की इच्छा नहीं थी। पर एक ख़ूबसूरत धूपिया दिन को किसी मंदिर की भेंट चढ़ाने की बात गले नहीं उतर रही थी। 

मेरा संकोच भाँपकर वह फिर बोले, “बड़ी मान्यता है चंद्रिका देवी की। जगह भी बहुत अच्छी है। बहुत हरियाली है आस-पास।” 

हरियाली शब्द सुनकर मन की कसावट एकाएक ढीली होती लगी। मैंने पूछा, “शहर के अंदर है चंद्रिका देवी का मंदिर?” 

“अंदर कहाँ है, शहर से बहुत दूर है। मगर गाड़ी से चालीस-पैंतालीस मिनट लगेंगे,” वह बोले, “चलिए, दुविधा में मत पड़िए।” 

उनके इस आग्रह के चलते मेरे लिए शहर बाहर दिखने वाली हरियाली बुलावा देती सी महसूस हुई। कई दिन से कैंपस से बाहर जाना नहीं हुआ था, सो क्यों न चलकर आँखों को कुछ ताज़गी दी जाये। मैंने चलने की हामी भर दी। 

वह बच्चे की तरह ख़ुश होकर बोले, “ठीक है, मैं अपने ड्राइवर को बुलाता हूँ।” फिर वह अपने मोबाइल फोन से अपने ड्राइवर से संपर्क करने लगे। पता नहीं उधर से क्या बात हुई कि उनका चेहरा उतर गया। मगर वह कुछ देर तक मदद करने, ज़रूरत हो तो पैसा देने की बात करते रहे। 

“क्या हुआ?” मैंने पूछा। 

“ड्राइवर की रिश्तेदारी में कोई एक्सीडेंट हो गया है, वह वहाँ निकल गया है।” उनकी आवाज़ में चिन्ता उतर आयी थी। 

ज़ाहिर है कि वह ड्राइवर को सहायता की पेशकश कर रहे थे। उनके कुछ पल पहले के उत्साह का अचानक इस तरह उतरना मुझे अच्छा नहीं लगा। एकबारगी मैं यह अनुमान भी नहीं लगा पाया कि वह ड्राइवर की रिश्तेदारी में हुई दुर्घटना से दुखी हुए हैं या अपनी प्रस्तावित यात्रा के बाधित हो जाने से। लेकिन जब उन्होंने हताश होकर कहा, ‘अब मेरा ड्राइवर तो नहीं आ पाए̜गा’ तो उनकी परेशानी का एक कोना उजागर हो गया। 

मैंने कहा, “अगर ड्राइवर की बात है तो मैं अपने ड्राइवर को बोल देता हूँ। मगर मेरी गाड़ी भाई ले गया है।”

वह बोले, “गाड़ी तो मेरी है ही, आप अपने ड्राइवर को बुलवा लीजिए।” मैंने अपने ड्राइवर कमाल को फोन किया तो उसने आधे घंटे में पहुँचने की बात कही। जब मैंने तायल साब को बताया तो उनके चेहरे की कुछ रंगत लौट आयी। 

तायल साब मेरी ही तरह दिल्ली से स्थानांतरित होकर आये थे और हम दोनों ही कंपनी होस्टल में रह रहे थे। हमारे परिवार दिल्ली में ही थे। जब कभी एक से ज़्यादा दिनों की छुट्टियों की व्यवस्था हो जाती थी तो हम लोग दिल्ली निकल जाते थे, अन्यथा एकाध दिन की छुट्टी या रविवार की छुट्टी हमें यहीं बितानी पड़ती थी। मैं लिखने-पढ़ने में समय गुज़ारता था तो तायल साब प्रायः कहीं न कहीं घूमने निकल जाते थे। आस-पास के ज़्यादातर मंदिर, दरगाह वह घूम चुके थे। जहाँ भी जाते थे, वहाँ से कुछ अतिरिक्त प्रसाद ले आते थे और होस्टल के छोटे-बड़े सभी कर्मचारियों में बाँटते थे। 

तायल साब प्रबंधन के अच्छे पद पर थे और उन्हें पर्याप्त सुविधाएँ भी मिली हुई थीं। वह अन्य बड़े अधिकारियों की तरह अपने ऊपर हर समय अधिकारी भाव नहीं ओढ़े रखते थे। छोटे कर्मचारियों से भी पूरी आत्मीयता से मिलते-जुलते थे और वक़्त ज़रूरत पर उनकी आर्थिक या अन्य तरह की मदद भी कर दिया करते थे। कर्मचारी वर्ग उनको सम्मान भी ख़ूब देता था। जब उनको छुट्टी के दिन कहीं बाहर नहीं जाना होता था या बाहर जाने की स्थिति नहीं बनती थी तो होस्टल की कैंटीन में आकर बैठ जाते थे और कैंटीन में कार्यरत लड़कों से उनके घर-परिवार के बारे में बतियाते रहते थे। इस बहाने वह अपने बीवी-बच्चों को भी याद कर लिया करते थे और कभी-कभी लड़कों के सामने ही दिल्ली फोन मिला कर घर वालों से बात करने लगते थे। जब कभी संयोगवश हम दोनों कैंटीन में मिल जाते थे तो हम दोनोंं ही परिवार से दूर रहने के अपने अकेलेपन को कोसने लगते थे और अंत में नौकरी की शर्तों के आगे अपनी विवशताओं का समर्पण करके चुप हो जाते थे। तायल साब की मंदिर-दरगाह यात्राएँ अक़्सर मुझे अकेलेपन से मुक्त होने की उनकी चेष्टाएँ ही प्रतीत होती थीं। 

कमाल आया, तब हम दोनोंं तैयार होकर उसका इंतज़ार ही कर रहे थे। मैंने कहा, “कमाल, तायल साब की गाड़ी से चलना है।” 

तायल साब ने चाबी आगे बढ़ाते हुए गाड़ी का नंबर बताते हुए कहा, “कमल, तुम गाड़ी लेकर गेट पर आओ, हम लोग वहीं पहुँचते हैं।”

तायल साब के ‘कमल’ संबोधन पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। मेरे इस ड्राइवर के नाम के साथ अक़्सर ऐसा होता था, और वह भी इसका अभ्यस्त हो चुका था। बहरहाल, वह चाबी लेकर गैराज की तरफ़ चल दिया और हम लोग होस्टल के मुख्य गेट की तरफ़। 

शहर के बाज़ारों, बस्तियों, मार्गों, उपमार्गों को पार करते हुए शहर के बाहर होने तक लगभग आधा घंटा लग गया। अब आगे वह राजमार्ग था जिस पर कुछ किलोमीटर चलकर चंद्रिका देवी के मंदिर के लिए मुड़ना था। शहर की घनी बसावट पीछे छूट रही थी मगर छितरी-बिखरी बसावट अब भी साथ चल रही थी। 

तायल साब ने अचानक कहा, “कमल गाड़ी रोकना।” 

मैंने पूछा, “क्या हुआ?” 

“सिंघाड़े ले लेते हैं,” वह गाड़ी का दरवाज़ा खोलते हुए बोले। 

तब मेरा ध्यान गया कि सड़क के दोनोंं किनारों पर सिंघाड़े की ढेरियाँ लगाए बेचने वाले बैठे थे। लेकिन ये ढेरियाँ उन हरे सिंघाड़े की नहीं थी जिन्हें छील कर खाया जाता है। उबले हुए सिंघाड़े को छील कर रखा हुआ था। ज़ाहिर है कि खुले रखे इन सिंघाड़ों पर आते-जाते वाहनों से उड़ी धूल चढ़ रही थी। मैंने कहा, “तायल साब, ये खुले सिंघाड़े खाना ठीक नहीं है।” 

“अरे इतने लोग खा रहे हैं, कोई बीमार नहीं पड़ता। हम तो माता की यात्रा पर हैं कुछ नहीं होगा,” उन्होंने पूरे भरोसे के साथ कहा और सिंघाड़े लेकर वापस गाड़ी में बैठ गये। कुछ सिंघाड़े उन्होंने ड्राइवर की ओर बढ़ा दिये, “ले कमल, सिंघाड़े खा।”


अब मेरे और उनके बीच सिंघाड़े की थैली रखी थी। मैंने आशंकित मन से दो-तीन सिंघाड़े उठा लिए और उन्हें टूँगने लगा। तायल साब पूरा स्वाद लेकर खा रहे थे। 

दस-बारह मिनट चलने के बाद वह मोड़ आ गया जहाँ से एक पतली-सी सड़क चंद्रिका देवी मंदिर की ओर जाती थी। इस सड़क पर दो-ढाई किलोमीटर चलने के बाद सरसों और अरहर के लहलहाते खेत नज़र आने लगे। सरसों को इस तरह फूलते लहराते मैंने बहुत दिनों के बाद देखा था। आँखों को सुकून मिल रहा था। फिर अचानक खेत ख़त्म हो गये और खेतों की जगह दोनोंं किनारों पर चहारदीवारियाँ नज़र आने लगीं। तायल साब ने ही बताया कि बड़े लोगों ने यहाँ ज़मीन ख़रीदकर फ़ार्महाउस बनवा लिये हैं। किसी फ़ार्म पर पौधारोपण किया हुआ था और कुछ वैसे ही पड़े हुए थे। थोड़ा आगे बढ़े तो एक स्कूल की इमारत बनती दिखी। आगे जो ज़मीन थी उस पर एक बैंक का बोर्ड लगा हुआ था। साथ में एक नर्सरी विकसित हो रही थी। बाँस के पेड़ों के साथ पीपल के पेड़ बड़ी संख्या में उगे हुए थे। थोड़ा और आगे बढ़े तो आम के बाग़ दिखाई दिये। बग़ल में किसी इंस्टीट्यूट की इमारत बन रही थी। 

पूरे रास्ते ऐसा ही दृश्य दिखता रहा। कभी सरसों और अरहर के खेत दिखने लगते तो कभी फ़ार्महाउस और निर्माणाधीन इमारतें। यह एक संक्रामक स्थिति थी। यहाँ शहर आगे बढ़ता हुआ देहात और खेतों को निगल रहा था। मन में सवाल पैदा हुआ क्या दो-तीन साल बाद यहाँ कोई खेत दिखाई देगा? शायद नहीं। इस ख़्याल के साथ ही मन पर एक उदास-सी प्रतिक्रिया होने लगी। 

तायल साब बोले, “पहले चंद्रिका देवी के मंदिर के लिए यह सड़क नहीं थी। लोगों को पैदल चलकर जंगल से होकर वहाँ जाना पड़ता था।” 

“तब तो इतने लोग नहीं जाते होंगे?” मैंने कहा। 

“और क्या, जब से ये सड़क बनी है तब से भक्तों की संख्या बहुत बढ़ गयी है। अब तो ऐन मंदिर तक गाड़ियाँ पहुँच जाती हैं। मंदिर के लोगों ने बहुत भाग-दौड़कर इस सड़क को बनवाने का प्लान पास कराया था,” तायल साब ने जानकारी दी। 

मैं मंदिर को भूल गया था और खेत बाग़ों की जो भी हरियाली नज़र आ रही थी उसमें डूब-उतरा रहा था। अचानक वह पतली सड़क एक छोटी-सी बस्ती में प्रवेश कर गयी। लोगों ने एकदम सड़क के ऊपर घर-दुकान बना लिये थे। किसी-किसी घर का बरामदा सड़क के किनारे को छू रहा था। क्या ये लोग सड़क से थोड़ा हटकर मकान-दुकान नहीं बना सकते थे? निर्माण एकदम नये थे इसलिए यह तो तय था कि निर्माण सड़क बनने के बाद ही कराए गये थे। बाद में मालूम हुआ कि यह बस्ती मंदिर से जुड़े हुए लोगों की है। सड़क के बनते ही इन लोगों ने कुछ मील दूर के अपने गाँव से निकल कर सड़कों के किनारे ही मकान बना लिए थे। दुकानें बना ली थीं जो मंदिर आने-जाने वाले दर्शनार्थियों के सहारे अच्छी ख़ासी चल रही थीं। यहाँ पान गुटखे की दुकान भी थी तो एक जगह देशी शराब का ठेका भी खुला हुआ था। 

सामने से किसी गाँव के लोग माता के दर्शन करके ट्रैक्टरों में भर कर लौट रहे थे। सड़क पर इतनी भी गुंजाइश नहीं थी कि हमारी गाड़ी ट्रैक्टरों की बग़ल से निकल सके। ड्राइवर को गाड़ी बैक करके एक अपेक्षाकृत ख़ाली जगह में घुमानी पड़ी। जब ट्रैक्टरों का क़ाफ़िला निकल गया, हम तभी आगे बढ़ सके। 

तायल साब एकाएक बोले, “आपके नाम से आप की कास्ट का पता नहीं लगता।” 

मैंने कहा, “मेरी कोई कास्ट नहीं है। मैं जातिविहीन आदमी हूँ।”

तायल साब हैरानी से मेरी ओर ताकने लगे। बोले, “आप मज़ाक़ कर रहे हैं। आजकल तो मुसलमानों में भी जातियाँ बन गयी हैं। आप कह रहे हैं आप की जाति नहीं है। किस हिंदू की जाति नहीं होती?” फिर वे ड्राइवर से बोले, “क्यों कमल, मैं ग़लत तो नहीं कह रहा हूँ।”

“जी सर!” ड्राइवर सिर्फ़ इतना बोला। 

“मेरी जाति थी जो मैंने छोड़ दी है,” मैंने मुस्कुराते हुए कहा। 

“चलिए, आपने जाति छोड़ दी ठीक, आपके भाई-बहिन रिश्तेदार उन्होंने तो जाति नहीं छोड़ी होगी। वे अपने नाम के आगे क्या लिखते हैं यही बता दीजिए,” तायल साब ज़िद-सी करने लगे। फिर बोले, “जात-पांत मैं भी नहीं मानता। फिर भी पूछ लिया।”

उन्होंने एक कड़वी सचाई मेरे सामने रख दी थी। मेरे किस नाते-रिश्तेदार ने जाति छोड़ी? तभी मुझे महसूस हुआ कि वह क्या सोच रहे हैं, यानी मैं अपनी जाति किसी छोटेपन की वजह से छिपा रहा हूँ। मन में ग़ुस्सा-सा पैदा हुआ, लेकिन तायल साब पर ग़ुस्सा करने की कोई वजह नहीं थी। मैंने उन्हें बता दिया कि मैं वैश्य परिवार में पैदा हुआ था और मेरे पिता का नाम यह था। 

मैंने पिता का नाम सगोत्र बताया था। सुनकर वे चहक से उठे, “अरे, आप बिल्कुल हमारे क़रीब निकले। आपके गोत्र में तो हमारी बहुत-सी रिश्तेदारियाँ हैं।” 

तायल साब मेरे प्रति एकाएक कुछ ज़्यादा ही आत्मीय हो उठे। 

अब हमारी गाड़ी सामने दिखने वाले भव्य द्वार के निकट पहुँच रही थी। यह द्वार इस सड़क के ऊपर ही बना था और सड़क इस द्वार के नीचे से निकली थी। द्वार के शीर्ष पर लिखा था—माता चंद्रिका देवी मंदिर। यानी यह मंदिर परिसर का प्रवेश द्वार था। गाड़ी आगे बढ़ी तो दसियों गाड़ियाँ दिखाई देने लगीं। 

तायल साब बोले, “अमावस्या के दिन यहाँ इतनी गाड़ियाँ होती हैं कि पार्किंग की जगह तक नहीं मिलती।”

देखने से स्पष्ट लगता था कि मंदिर परिसर को हाल ही में बढ़ाया-बनाया गया है। पार्किंग स्थल पर तो निर्माण अभी भी चल रहा था। एक जगह शेड डाला जा रहा था। आगे एक बड़ा-सा ताल था। ताल की पाड़ भी पक्की बनी थी। शायद यहाँ छोटा-सा तालाब रहा होगा जिसे चारों ओर से सीढ़ियाँ बनाकर ख़ासा सुंदर और दर्शनीय बना दिया गया था। ताल के बीच में शिवजी की विशाल प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी थी जो समूचे तालाब को भव्यता प्रदान कर रही थी। बहुत से भक्तगण ताल के जल में पवित्र स्नान कर रहे थे। 

ताल के किनारे के बड़े हिस्से पर छोटा-सा बाज़ार बसा हुआ था। दुकानों पर जहाँ एक ओर ग्रामीण महिलाओं के लिए चूड़ियाँ-बिंदी, टीका बूँदे, माला जैसे सामान विक्रय के लिए रखे थे तो दूसरी ओर देवी-देवताओं के चित्र, मूर्तियाँ, भक्ति संगीत के कैसेट, व्रत कथाओं की किताबें, हनुमान चालीसा, रामायण आदि पुस्तकें रखी हुई थीं। खाने-पीने की भी कई दुकानें खुली हुई थीं। सबसे ज़्यादा भीड़ चाट की दुकानों पर दिखाई दे रही थी। महिलाओं और बच्चों के पहनावे से समझा जा सकता था कि यह लोग छोटी-बड़ी कारों से निकल कर चाट की दुकानों पर क़रीने से लगाई गयी मेज़-कुर्सियों तक आये हैं। समूचा परिदृश्य एक बड़े पिकनिक स्थल का आभास करा रहा था। फिर भी यहाँ देखकर साफ़-साफ़ महसूस किया जा सकता था कि मंदिर ने सैकड़ों लोगों को रोज़गार उपलब्ध करा रखा है। 

हम लोग मंदिर के थान पर पहुँच रहे थे। माता के भवन तक पहुँचने के लिए जिस चौक से सीढ़ियाँ शुरू होती थी उसमें आठ-दस प्रसाद की दुकानें लगी हुई थी। प्रसाद में छोटे पेड़े शायद यहाँ की विशेष व्यवस्था में शामिल थे, इसलिए हर दुकान पर एक ही तरह के पेड़े रखे हुए थे। तायल साब अपनी एक परिचित दुकान से प्रसाद लेने के लिए बढ़ गये। मैं और ड्राइवर वहीं सीढ़ियों के पास बैठ गये। 

तायल साब प्रसाद लेकर लौटे तो मैंने कहा, “आप दर्शन करके आइए, हम लोग यहीं बैठते हैं।”

“ऐसा कैसे हो सकता है? माता के दरबार तक आकर बिना प्रसाद लिए लौट जाएँगे। मैं आप दोनों के लिए भी प्रसाद लाया हूँ। आप लोग जूते उतार कर हाथ धो लीजिए,” तायल साब ने आग्रह के साथ कहा। 

मैंने देखा कि तायल साहब अपने जूते प्रसाद वाले की दुकान पर ही उतर आये हैं। उन्होंने हाथ भी वहीं धो लिए होंगे। उनके हाथ में प्रसाद के तीन दोने थे। यह दोने पत्तों के नहीं बल्कि गत्ते के डिब्बों के थे जैसे कि आम तौर पर हलवाइयों की दुकान पर मिलते हैं। 

तायल साब ने इस बार आदेश दिया, “कमल उठ जल्दी। हाथ धोकर आ। ये प्रसाद सँभाल।”

“जी सर।” मेरे ड्राइवर ने कहा और मेरी ओर देखने लगा। जैसे मैं अपनी दुविधा को महसूस कर रहा था, वैसे ही उसकी दुविधा को भी महसूस कर रहा था। मगर तायल साब कुछ भी सुनने समझने की मनःस्थिति में नहीं दिखे। 

जब उन्होंने अपना आदेश फिर दुहराया तो मेरा ड्राइवर मुस्कुराते हुए उठ खड़ा हुआ। उसकी मुस्कान ने मेरी दुविधा को जैसे हिला दिया। सोचा, चलो जब यहाँ आकर इतना सब देखा है तो मंदिर के भीतर जाने की भी एक औपचारिकता पूरी कर दी जाए। बस उत्सुकतावश ही। 

मैं जब हैरत से अपने ड्राइवर को देख रहा था जो जूते उतारकर हाथ धो रहा था। तायल साब ने प्रसाद के दोने हमारे हाथ में दे दिये। मेरी आँखें उससे मिली तो वह फिर मुस्कुरा दिया। सबसे आगे तायल साब उनके पीछे मैं और मेरे पीछे कमाल, हम तीनों मंदिर के भवन में प्रविष्ट होने वाली पंक्ति में शामिल हो गये। 

मैंने प्रसाद के दोने में देखा, दो सौ ग्राम पेड़े, दो अगरबत्तियाँ, कुछ फूल और एक लाल चीर। मंदिर के द्वार की ऐन बग़ल में एक दंड खड़ा किया हुआ था जिस पर लोग चीर बाँध देते थे वहीं बड़ा सा धूपदान बनाया हुआ था। जिसमें लोग बत्तियाँ जला कर रख देते थे। प्रसाद पुजारी को दे दिया जाता था जो कुछ पेड़े निकालकर वापस कर देता था। 

तायल साब ने सारी पूजा-परिपाटी पूरी की परन्तु मैं और कमाल अपने-अपने दोने जस के तस हाथों में लिये रहे। जब हमारी बारी आयी तो तायल साब ने पचास का एक नोट दोने में रख दिया। पुजारी ने उन्हें विशेष प्रसाद दिया और एक लंबा टीका भी उनके माथे पर लगा दिया। एक मंत्र भी बुदबुदा दिया। 

अब मैंने अपना दोना पुजारी की ओर बढ़ा दिया। उसने चीर, अगरबत्तियाँ और कुछ पेड़े निकाल कर दोना मुझे वापस कर दिया। 

तायल साब बोले, “यह मेरे साथ हैं। इन्हें मंदिर की महिमा के बारे में बता दीजिए।”

सुनकर पुजारी ने मेरे माथे पर भी टीका लगा दिया और बताने लगा, “माता का यह मंदिर त्रेता युग का है। भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण यहाँ पूजा करने आया करते थे . . . इसकी दूर-दर तक मान्यता है। सच्चे मन से माँगी हर मनौती यहाँ पूरी होती है . . .।”

मैंने पूछा, “आप किस पंडित परिवार से हैं और कब से मंदिर की सेवा कर रहे हैं।” 

“हम सत सैनी समाज के हैं, हमारे पुरखे त्रेता युग से ही पुजारी रहे हैं . . . कहते हैं लक्ष्मण जी ने उन्हें यहाँ बिठाया था . . .” उस अपेक्षाकृत युवा पुजारी ने अपना महत्त्व बताते हुए आँखें चमकाईं। फिर उसने मेरे पीछे खड़े लोगों पर नज़र डाली। 

मेरे लिए यह हटने का इशारा था। कमाल भी अपना दोना पुजारी को देने के बाद वापस लेकर और माथे पर टीका लगवा कर बाहर निकल आया। 

तायल साब फिर शुरू हो गए कि मंदिर की प्रतिमाएँ हज़ारों साल पुरानी हैं, कि अब उन पर चाँदी का पत्तर चढ़ा दिया गया है . . . कि माता की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गयी है, कि शहर के बड़े लोग माता के दर्शन भी करते हैं और शहर की घुटन से थोड़ी देर के लिए मुक्ति भी पा लेते हैं . . .। मगर मेरी नज़र और दिमाग़ बार-बार आस्था के आर्थिक पहलू पर टिक रहे थे। हाँ यह ज़रूर अजीब-सा लग रहा था कि मंदिर का पूजा कर्म किसी ब्राह्मण परिवार द्वारा नहीं बल्कि आज की पिछड़ी सूची में दर्ज जाति के एक परिवार द्वारा किया जा रहा था। 

ऐसा होने का कारण भी मेरी समझ में आ रहा था। मंदिरों पर ब्राह्मण वर्चस्व से खीझकर इस परिवार के किसी पूर्वज ने यहाँ एकांत जंगल में अपना निजी मंदिर बना लिया होगा जो आज शहर के तेज़ी से बढ़ते चले आने के कारण तथा शहर से थोड़ी देर के लिए बाहर होने की लोगों की ललक के चलते एकाएक महत्त्व पा गया होगा। जैसे तायल साब मुझे लेकर पिकनिक-सह-श्रद्धा यात्रा पर ले आए थे वैसे ही अन्य लोग भी यहाँ आते होंगे। 

बहरहाल, हम हरियाली भरे रास्ते से वापस लौट रहे थे। मैं एक बार फिर इस हरीतिमा से अपनी आँखें भरने की कोशिश कर रहा था। 

जब हमारी गाड़ी शहर जाने वाले राजमार्ग पर आयी तो तायल साब बोले, “आप नॉनवेज तो खाते हैं?” 

“कभी-कभार खा लेता हूँ, मगर पूछ क्यों रहे हैं?” मैंने कहा। 

वह बोले, “रास्ते में नॉनवेज के बहुत से ढाबे हैं। भूख भी लग रही है, कुछ खा पी लेते हैं।”

“बनियों के परिवारों में तो ऐसा खाना-पीना चलता नहीं,” मैंने कहा। 

“अब तो सब खाने लगे हैं। बस, घर में नहीं बनाते, बाहर खा लेते हैं,” वह बोले। 

तभी मेरे ड्राइवर ने पलटकर मेरी ओर देखा। हम दोनों के भीतर एक मौन मुस्कान उठी और विला गयी। 

“कमल,” तायल साब बोले, “तू नॉनवेज खा लेता है न?” 

“जी सर!” उसने जवाब दिया। 

“जहाँ कबाब बिरयानी के ढाबे हैं, वो जगह पता है?” उन्होंने पूछा। 

“जी सर, पता है,” उसने जवाब दिया। 

“ठीक है तो फिर किसी अच्छे से ढाबे पर ले चलना, जहाँ कबाब अच्छे बनते हों,” उन्होंने निर्देश दिया। 

“जी सर,” उसने संक्षिप्त स्वीकृति दी। 

“मुझे मटन कबाब बहुत पसंद है, आपको?” तायल साब ने मुझसे पूछा। 

“मेरी ऐसी कोई ख़ास पसंद नहीं है जो भी ठीक-सा मिल जाये खा लेता हूँ,” मैंने कहा। हमारी गाड़ी शहर की सीमा के निकट पहुँच रही थी। 

ड्राइवर ने गाड़ी उस तरफ़ मोड़ दी थी जिधर वे स्वादिष्ट कबाब-बिरयानी के ढाबे थे। जब गाड़ी एक ढाबे के निकट जाकर खड़ी हुई तो तायल साब ने गाड़ी से बाहर झाँका और ढाबे पर लगा बोर्ड पढ़ने लगे। लिखा था शमीम होटल। 

ड्राइवर बोला, “सर यहाँ के कबाब बहुत मशहूर हैं।”

तायल साब थोड़ा झिझकते हुए से दिखे। मैंने कहा, “आइए, अंदर चलते हैं।”

वह बोले, “मुसलमानी ढाबे पर खाने का मेरा मन नहीं होता। पता नहीं चलता कैसा बनाते हैं।”

कमल कह रहा है, “यहाँ अच्छे कबाब बनते हैं . . .।”

“नहीं जी नहीं करता,” वह बोले, “यहाँ एक सरदार जी की दुकान है, वही पता करते हैं,” वह गाड़ी से उतरते हुए बोले। 

मैं भी नीचे उतर आया। मेरा ड्राइवर मुस्कुरा रहा था। 

मैंने वहीं निकट के ढाबे पर जाकर सरदार जी के ढाबे के बारे में पूछा तो ढाबे वाले ने एक दुकान की ओर इशारा किया। जिधर इशारा किया जा रहा था उधर एक दुकान पर लिखा था गुरु नानक मीट शॉप मतलब, सरदार जी का ढाबा यही था। जो अधेड़ व्यक्ति ढाबे का संचालन कर रहा था उसने उस वक़्त पगड़ी नहीं पहनी हुई थी। इसलिए मैं उसे चिह्नित नहीं कर सका था। 

तायल साब बोले, “कमल गाड़ी पार्क कर दे और आ जा।” 

ड्राइवर गाड़ी पार्क करने गया तो तायल साब मुझसे बोले, “मैं ड्राइवर का पूरा ख़्याल रखता हूँ। ऐसे कभी बाहर खाना होता है तो साथ बिठाकर खिलाता हूँ।”

कमाल गाड़ी पार्क कर के आ गया। हम तीनों ढाबे के बाहर लगी मेज़ों पर बैठ गये। 

तायल साब बोले, “कमल, शरमाना मत। जो मँगाना हो मँगा ले,” फिर ढाबे के लड़के से बोले, “इसे जो माँगे खिलाओ। और क्या-क्या है तुम्हारे यहाँ?” 

लड़का गिनाने लगा, “सींक कबाब, चिकन कबाब, मटन बिरयानी, चिकन बिरयानी, कलेजा, मटन टिक्का, फ़िश फ़्राई . . .”

“ठीक है, पहले सींक कबाब ले आओ, फिर फ़िश फ़्राई ले आना,” उन्होंने आदेश दिया और फिर कमाल से बोले, “कमल, तुझे बिरयानी खानी हो तो बोल दे।”

कमाल ने मटन बिरयानी के लिए बोल दिया। लड़के ने पूछा, “फ़िश फ़्राई बोनलेस लेंगे“

“हाँ, हाँ बोनलेस लेंगे,” फिर मुझसे बोले, “आप और क्या लेंगे?” 

“जितना मँगाया है उतना ही बहुत है मेरे लिए। मैं और ज़्यादा कुछ नहीं ले पाऊँगा,” मैंने कहा। 

लड़का सींक कबाब की प्लेटें हमारे सामने रख गया। 

मैंने सींक कबाब खाना शुरू किया तो महसूस किया ये सींक कबाब इतने स्वादिष्ट नहीं थे जितने किसी मुस्लिम ढाबे पर मिल सकते थे। लेकिन यहाँ सरदार जी का ढाबा मायने रखता था, शायद कबाब का स्वाद नहीं। 

तायल साब मगन होकर कबाब टूँग रहे थे। मेरी ओर नज़र उठी तो बोले, “सरदार लोग नॉनवेज अच्छा बनाते हैं।” 

मेरा मन हुआ कि कुछ टिप्पणी करूँ, परन्तु उनकी भोली मग्नता देखकर चुप्पी मार गया। सिर्फ़ इतना कहा, “जी अच्छा बनाते हैं।”

थोड़ी देर में लड़का फ़िश फ़्राई की प्लेटें भी लगा गया। तायल साब बोले, “मैं कभी हिंदू-मुसलमान नहीं मानता पर एक बात तो आप भी मानेंगे कि हिंदुओं के मन में जानवरों के लिए दया होती है . . .।”

कमाल बिरयानी दबाता हुआ हमारी ओर देखने लगा। मैंने उसकी ओर देखा तो वह फिर मुस्कुराने लगा। मेरे चेहरे पर भी बरबस मुस्कान उतर आयी। 

खा-पीकर जब हम गाड़ी में बैठे तो तायल साब ने माता के प्रसाद का दोना खोल लिया। एक पेड़ा उठाकर मुँह में डाल लिया, फिर दोना मेरी और बढ़ाते हुए बोले, “लीजिए।”

मैंने पेड़ा उठा लिया। उन्होंने दोना कमाल की ओर बढ़ाया तो उसने भी एक पेड़ा उठा कर मुँह में रख लिया। मेरे मन में अजीब सी उत्सुकता पैदा हुई। तायल साब ने अब तक प्रसाद नहीं खाया था। वह मंदिर में भी प्रसाद खा सकते थे। पर यहाँ मेरे पूछने के लिए कोई सही सवाल नहीं बनता था, इसलिए चुप रहा। 

तायल साब ने दूसरा पेड़ा मुँह में डाला और बोले, “मैं प्रसाद खाकर कभी नॉनवेज नहीं खाता।”

मेरी समझ में नहीं आया कि क्या कहूँ। फिर भी पूछ लिया, “नॉनवेज खाने के बाद प्रसाद खा लेते हैं?“

“जी हाँ, उसमें कोई बुराई नहीं है,” वह निश्चिंतता से बोले। 

मेरा मन ठहाका लगाने को हुआ, पर स्वयं को नियंत्रित कर गया। 

हम लोग जब कंपनी परिसर में लौटे तो तायल साब ने प्रसाद वहाँ के लड़कों में बाँट दिया। फिर मुझसे बोले, “अगली बार पीर शाह की दरगाह पर चलेंगे। उसकी बड़ी मान्यता है।”

वह कमाल से मुख़ातिब हुए और बोले, “कमल, अगली बार भी तुझे ही ले चलेंगे। दरगाह दिखा लाएँगे तुझे।”

कमाल बोला, “जी सर, चलेंगे।” कमाल गाड़ी पार्क करने चला गया। तायल साब मुझसे बोले, “अच्छा दिन गुज़रा न?” आज आपको माता ने बुलाया था सो आपने भी माता के दर्शन कर लिये।”

“जी बहुत अच्छा रहा।” मैंने कहा और उनसे विदा लेकर अपने कमरे में आ गया। 

चाबी तायल साब को देकर कमाल मेरे पास चला आया। प्रसाद का दोना उसके हाथ में था। उसे देखकर मेरे चेहरे पर खुली हँसी खेलने लगी। वह भी हँसने लगा। वह बोला, “सर, चलता हूँ। मेरी नमाज़ का वक़्त हो रहा है।” 

कमाल अहमद चला गया। 

दिन अच्छा ही गुज़रा था। 

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