मौक़ा

विभांशु दिव्याल (अंक: 258, अगस्त प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

लोग आते जा रहे थे। लाइन लम्बी होती जा रही थी। उसे हड़बड़ाहट होने लगी। बस अभी तक नहीं आई थी मगर लाइन भीड़ में बदलती जा रही थी। यहाँ के बस-स्टापों की नियति भी यही है कि जब तक चार-छः सवारियाँ इन्तज़ार में होती हैं, तो लाइन जैसी कोई चीज़ नज़र आती है, फिर उसके बाद सिर्फ़ भीड़। 

उसकी सारी मनौतियाँ चिकने पत्थर पर पानी की तरह उतर गईं। जब इस बस-स्टाप पर केवल चार आदमी थे, वह तभी से मना रहा था कि बस आ जाये। बीच-बीच में मनौती पूरी होने की लालसा में उसने पास बनी मज़ार पर भी श्रद्धाभरी दृष्टि डाली थी। मगर व्यर्थ। भीड़ बाक़ायदा बढ़ गई थी। सुरक्षा से बस में चढ़ने और आसानी से सीट प्राप्त कर लेने की उसकी मनोकांक्षा भली प्रकार ख़तरे से घिर गई थी। 

अनाम-सा क्रोध बस के ड्राइवरों के प्रति उपजने लगा। नहीं आयेंगे तो घन्टों नहीं आयेंगे। आयेंगे तो एक के बाद एक चले आयेंगे। स्साले! कोई कहने-सुननेवाला नहीं। सर पर कोई डंडा लेकर न खड़ा हो तो काम हो भी कैसे। सब आज़ाद हो गये हैं . . . 

पीछे से धक्का! 

वह तुरन्त पीछे मुड़ा, “ए-भाईसाब, ठीक से खड़े होइए।”

“मैं तो ठीक से खड़ा हूँ, आप पीछे देखिये न!” पीछेवाला बोला। लेकिन पीछेवाले के पीछेवाला शरारत से मुस्कुरा उठा। 

वह सुलगकर रह गया। कुछ बोलने की हिम्मत नहीं हुई। पीछेवाले के पीछेवाला अकेला नहीं था। उसकी अग़ल-बग़ल कुछ और भी थे। सबके सब नई उमर के। शैतानी पर आमादा। उसने चुपचाप अपने चेहरे को सामने छुपा लिया। क्रोध जो पहले ड्राइवरों के लिए था, अब इन छोकरों के इर्द-गिर्द छँटने लगा। कॉलेज में पढ़ते हैं तो जैसे ख़ुदा हो गये। हम भी तो कभी कॉलेज में पढ़े थे . . . 

दो लड़के और आ गये। खड़े हुए, मगर पीछे नहीं लाइन के मुँह पर। वह मन ही मन भुनभुनाया लाइन में जाकर पीछे नहीं लग सकते। ऐसे खड़े हो गये हैं, जैसे सबसे पहले यही आये हों। और एक ख़्याल . . . वह ख़ासा पहलवान हो गया है . . . उसने एक-एक हाथ से दोनों लड़कों की गर्दनें पकड़ी हैं . . . उन्हें धचाक-से पीछे ले जाकर खड़ा कर दिया है . . . गाली देकर कहा है—सूअरो, तमीज़ से यहाँ खड़े हो जाओ . . . 

अब की बार धक्का आगे से! 

वह हचमचा गया। एक लड़का लाइन में खड़े होने का प्रमाण-पत्र हथिया चुका था। क्रोध का उफान, पर बेहद ठंडा। मरे हुए साँप जैसा। न वह पहलवान था, और न वह उन लड़कों की गर्दनें पकड़कर पीछे खड़ा कर सकता था। कोई और भी कुछ नहीं बोला। 

एक ख़ूबसूरत लड़की आ रही थी। 

उस भीड़नुमा लाइन के अधिकांश लोग उधर देखने लगे। लड़की लाइन से दूर खड़ी हो गई। शायद उसे भी इसी बस से जाना था। 

आगेवाले दोनों लड़के, उस लड़की को देख-देखकर फूहड़ शब्दावली उगलने लगे। लड़की ने भी शायद लड़कों की इस हरकत का आभास पा लिया था। वह दूसरी ओर देखने लगी, गोया सारी गन्दगी उन लड़कों को देखने भर की हो। 

लड़की का ख़ूबसूरत चेहरा अब उसे भी नज़र नहीं आ रहा था। उसे लड़कों पर फिर ग़ुस्सा चढ़ने लगा। उल्लू के पठ्ठे। बद्तमीज़! समझते क्या हैं अपने आपको! कॉलेज में पढ़ते हैं, तो सब कुछ करने की छूट मिल गई। कोई इनकी बहिनों को देखकर इस क़िस्म की हरकतें करे तब . . . 

लोग एकाएक चौकन्ने हो गये। 

प्रतीक्षित बस आ रही थी। 

लड़के अब लड़की की ओर न देखकर आती हुई बस की ओर देख रहे थे। शिकार पर झपट पड़ने को आतुर किसी जंगली जानवर की तरह सतर्क-सावधान। सावधान वह स्वयं भी हो गया। अपने आगे खड़ा हुआ मरियल-सा आदमी उसे अपने और बस के बीच व्यवधान नज़र आने लगा। बस रुकी, और आगेवाले दोनों लड़के छलाँग मारकर सवार। लाइन ख़त्म। आपाधापी। 

उसके आगेवाला आदमी एक इंच भी नहीं सरका था। 

उसका सब्र समाप्त होने लगा। हो भी गया। इस आदमी के पीछे रहा तो चढ़ लिया बस में। उसे लगा, कंडक्टर सीटी बजाने वाला है। वह लपका। दरवाज़े का डंडा उसकी गिरफ़्त में। फिर धक्के के साथ ही अंदर। 

खुले पैसे उसके हाथ में थे। पैसे कन्डक्टर को थमाकर उसने टिकट ले लिया। वह बस के अंदर की खचाखच भीड़ में शामिल। कंडक्टर चिल्लाया—आगे बढ़ो, आगे . . . कित्ती जगह ख़ाली पड़ी है। कुछ आगे बढ़े। कुछ वैसे ही खड़े रहे, जैसे खड़े थे। वह ऊपर का डंडा पकड़कर सुविधापूर्ण स्थिति में खड़ा हो गया। बैठने को रत्तीभर भी जगह नहीं थी। 

बस चली नहीं, जैसा कि उसने सोचा था। एक मोटा-सा आदमी उसकी बग़ल से धकियाता हुआ निकला तो हाथ से डंडा छूटते-छूटते बचा। एक भद्दी गाली उसके ओंठों पर आते-आते भीतर ही ठहर गई। ख़ासे डीलडौल वाला था वह आदमी। गाली की प्रतिक्रिया उस पर हो सकती थी। संभावित प्रतिक्रिया का आभास ही उसे डरा गया था। 

बस अब भी खड़ी थी। उसे कंडक्टर पर क्रोध आने लगा जो अब आदमी पर आदमी घुसेड़े जा रहा था। बस ठसाठस भर गई थी, फिर भी। तभी उसने देखा, वह लड़की भी अंदर आ गई थी। एक आदमी पीछे से खिसककर एकदम उसके सामने आ गया। उसे लड़की की दूसरी झलक नहीं मिल पाई। 

कंडक्टर की सीटी । . . . बस चल पड़ी। 

कंडक्टर टिकट फाड़ता हुआ उसके पास आकर खड़ा हो गया। उससे सटकर खड़े आदमी ने दस का सिक्का कंडक्टर के हाथ में थमा दिया। कंडक्टर ने इस आदमी पर एक नज़र डाली और सिक्का जेब के हवाले। 

वह भिन्ना उठा . . . अब स्साले को टिकट की क्या ज़रूरत। बचा लिये पंद्रह पैसे। जहाँ पहुँचना होगा, दस पैसे में पहुँच लेगा। दस पैसे कंडक्टर के, कंडक्टर के बाप के। इस तरह दिन में दस रुपये तो बना ही लेता होगा। कुछ ज़्यादा ही। स्साले! सब के सब चोर! करप्ट! सब गौरमेन्ट को चुना लगाते हैं। ऐसे लोगों को तो . . . 

उसके पासवाली सीट से आदमी उठा तो उसने लपककर सीट हथिया ली। जो दूसरा आदमी सीट के लिए बढ़ा था, वह खिसियाकर रह गया। उसे सीट पा लेने की ख़ुशी हो रही थी। अपनी फ़ुर्ती पर गौरव की अनुभूति भी। 

अगला बस-स्टॉप। कुछ उतरे। कुछ चढ़े। कंडक्टर चिल्लाया—आगे बढ़ो, आगे . . .। 

पीछे खड़े लोग आगे बढ़ आये। वह लड़की उसके क़रीब आकर रुक गई। ‘महिलाएँ’ वाली सीटों पर पुरुष बैठे थे। लड़की खड़ी रही। किसी ने भी उठकर उसे सीट देने की ज़हमत नहीं उठाई। वह स्वयं तो सीट से उठ ही नहीं सकता था। वह ‘महिलाएँ’ वाली सीट पर नहीं था। . . . निश्चिंत बैठा रहा। 

उसकी निश्चिंतता में ख़लल पड़ा। 

लड़की के पास न जाने कहाँ से आकर वे ही दो लड़के खड़े हो गये थे जो बस-स्टॉप पर इस लड़की को देखकर भद्दी इशारेबाज़ी कर रहे थे। एक लड़का जबर्दस्ती उस लड़की से सटने की कोशिश कर रहा था। उसे लड़के की हरकत पर ताव आने लगा। . . . स्साला, बदतमीज़। ठीक से खड़ा नहीं हो सकता! कोई कुछ कहता क्यों नहीं इससे! ये कंडक्टर . . . मगर कंडक्टर तो स्साला ख़ुद . . . 

लड़की थोड़ा आगे खिसकी। लड़का भी उसके साथ ही आगे खिसक आया। लड़के का बदन पूरी तरह लड़की से सट गया था। लड़की की कुड़मुड़ाहट साफ़-साफ़ उस तक पहुँच रही थी। तबियत हुई कि लड़के के गाल पर एक ज़ोर का झापड़ उड़ा दे। पर तबियत तो . . . जैसे मरा हुआ कुछ। अगला बस-स्टॉप। बस रुकी तो वे दोनों लड़के उतरने के लिए आगे लपक लिये। लड़की वहीं खड़ी रही। उसे विचित्र-सी राहत महसूस हुई। सीने से कोई बोझ-सा उतरा। 

अगले स्टॉप पर उसे उतरना था। बस आगे बढ़ी। वह उठकर खड़ा हो गया, निकास के दरवाज़े तक पहुँचने के लिए। उसके उठते ही उसके पीछे खड़ा आदमी फ़ुर्ती से ख़ाली की गई सीट पर बैठ गया। बैठनेवाले व्यक्ति का तेज़ धक्का उसे लगा। वह अपने स्थान से कुछ दूर खिसक गया। 

अब वह लड़की ठीक उसके आगे थी। एक जानी पहिचानी उत्तेजना उसकी नसों में सरसराने लगी। उसने इधर-उधर गर्दन घुमाई। कोई उसे देख नहीं रहा था उसने हौले-से अपना पैर आगे बढ़ा दिया। 

अगला-स्टॉप। 

बस रुकी। रुकी रही। फिर चल भी दी। 

पीछे से फिर एक रेला। उसे जैसे जबर्दस्ती आगे बढ़ना पड़ा। अब वह पूरी तरह लड़की से सटकर खड़ा था। उसे अब उतरने की भी जल्दी नहीं थी। उसका अपना स्टॉप काफ़ी पीछे छूट गया था। 

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