ऊसरा
विभांशु दिव्याल
खूबी का चौंतरा पीछे छूट गया। हरखू का इंजन भी निकल गया। पोखर की बग़ल से निकली तो क्रिख्वों-क्रिख्वों करती बतखों के झुण्ड भी विम्मो ने अनदेखे कर दिये। बर के पेड़ के नीचे आकर उसके हिरदय में उछाह नहीं जगा। बर देवता और उसकी लम्बी-ऊँची शाखों पर बसेरा करनेवाले ऊत प्रेतों से उसने कोई मनौती नहीं माँगी। अपने ऊसरा के बीचों-बीच पड़ी साँप-सी लहरियादार पगडंडी पर चलते हुए उसका कलेजा धुकधुकाता था, पर इस बेर नहीं धुकधुकाया। ऊसरा पार कर उसने अपने खिरान की गैल गह ली। सर पर थी पानी की गागर और हाथ में थी कलेऊ की पोटली।
रात-भर औलाती टपकती रही थी। वही औलाती अब उसके दिल से दिमाग़ तक टपक रही थी ट्प . . . ट्प . . . ट्प . . . ट्प। पिछली रात अभी भी खाखियाती बिल्ली की तरह उस पर झपट रही थी . . . देह से ही लाचार था, ज़ुबान को थोड़े लकुआ मार गया था। दो बोल तक मुँह से नहीं फूटे। चिल्ला-चिल्लाकर सारे गाँव को सिर पर उठा लेता। अपनी मय्यो को बुलाकर कहता कि देख अपने ल्हौरे पूत की करतूत। हलंदे वीरपाल से ही कुछ कहता! जवानी फटी पड़ रही है उसकी! सारी हया-सरम घोलकर पी गया है . . . भौजाई पर ही हाथ डाल बैठा। उसके अपने आदमी के होते हुए भी . . .। भले ही उसका आदमी खाट से हिल नहीं पाता, पर अभी मर तो नहीं गया। पर उसका आदमी भी तो नहीं बोला था पिछली रात। सुन समझकर भी सुट्टा खींच गया था . . .।
पिछली रात बेमौसम मेह बरसने लगा था। तब वह अपनी कोठरी में अधनींदी थी। नीम की साँय-साँय और पत्तों पर टपकती बूँदों की धप-धप ने उसे उठाकर बिठा दिया था। उसका आदमी ओसारे में पड़ा था। ओसारा टपकता था। ज़रूर उसके ऊपर पानी आ रहा होगा। खाट बाहर की ओर बिछी थी। बौछार आ रही होगी। वह अपना खेस भी नहीं सँभाल पाता था। मेह से क्या बचता?
वह अपनी कोठरी से बाहर निकल आई थी। ओसारे तक पहुँचने के लिए उसे छान में होकर जाना था। छान में सोता था वीरपाल। उसे वीरपाल से भय लगता था। उसका आदमी क्या लुंज हुआ था, वीरपाल सीधे उसकी छाती तकने लगा था। अकेले-दुकेले ओछी हरकत करता था। वह उसका मन्सूबा ताड़ गई थी। रात-बिरात कोठरी से बाहर नहीं निकलती थी। एक बार उसने नीची दीठि करके सास को जताने की कोशिश की थी, पर सास उसे ही कोसने लगी थी। तब उसने अपने मुँह पर ही ताला डाल लिया था। वीरपाल से बचती रही थी। बाहर उसका आदमी मेह से भीग रहा था। उसे सँभालना ज़रूरी था।
छान में घुप्प अँधेरा था, ऐसा कि हाथ को हाथ न सूझे। अभ्यास से सधे पाँव ओसारे की ओर बढ़े कि उसकी देह से दो मज़बूत मरद बाँहें लिपट गईं। वीरपाल . . . जैसे फनियर नाग देह से लिपट गया हो। एक हाथ उसके मुँह पर आ लगा, और कानों में उतरी ज़हर भरी फुसफुसाहट . . . भौजी चिल्लइयो मत . . .
विम्मो चिल्लाई नहीं थी। अपने दाँत मुँह से चिपके हाथ में गड़ा दिये थे। पकड़ ढीली होते ही वह ओसारे की ओर घर भागी थी। ओसारे में पड़े अपने आदमी के लुंज शरीर पर गिरकर सुबकने लगी थी।
“का भयौ विम्मो?” उसके आदमी की आवाज़ में धरथरी थी। बन्दूक की गोलियों से बेकार हुई बाँहों की लुंज जुम्बिश विम्मो ने अपनी देह पर महसूस की थी।
विम्मो सुबकती रही।
“बोल तौ सई, का बात है गई? का है गयौ?”
विम्मो इतना ही बोल सकी, ‘वीरपाल . . .’ उसके बाद उसकी रुलाई छूट गई थी। हिये का बाँध टूट गया था। न जाने कितने दिनों के ठहरे दरद-पीर बह निकले थे।
पर उसके आदमी के हाथों की हर जुम्बिश ठंडी हो गई थी। उसकी तेज़-तेज़ साँसों की आवाज़ टपकती बूँदों की आवाज़ में घुलती रही थी। उसके मुँह से एक भी बोल नहीं फूटा था . . . उसने वीरपाल को भला-बुरा नहीं कहा था। उसने अपनी मय्यो को बुलाकर वीरपाल को त्रासने के लिए नहीं कहा था। हाथ-पैर ही तो बेकार थे, ज़ुबान तो नहीं . . .। औलाती टपकती रही थी . . . ट्प . . . ट्प . . . ट्प।
आगौनी की बेला घोड़ी पर चढ़े दूल्हे को देखकर दुलहन बनी विम्मो की भायलियों ने उसके पास आकर कहा था, “लाखनि में एक-ऐ तेरी दुला! संमारि कै रखिओं, कहूँ नज़र ना लग जाइ।” विम्मो का हिया हुलास से भर गया था। और ससुराल में पैर रखा था तो परछन की घड़ी ही एक औरत बोली थी, “सोने सी बहू मिली ऐ धरमपाल कूं।” दूसरी ने कहा था, “राम-सीता की जोड़ी ऐ . . . देखी कैं आँखें सिरावति एँ . . .।”
भीतर ले जाकर सास ने सबसे पहले काजल की डिबिया उठाकर अनामिका से उसके भाल पर काली टिकुली रख दी थी कि सोने-सी बहू को नज़र न लग जाये। बहू नहीं थी, साक्षात् लक्ष्मी घर आई थी। हर पल बलैयाँ लेती थी सास। कभी ताप चढ़ आती या तबिअत नरम-गरम होती तो सास सात साबुत मिर्चे लाकर उस पर उसारती। मिर्चों को आग के हवाले कर कहती, “नेकऊ भस नांइ उठी। नज़र लगी ऐ . . . नज़र . . .।” तब उसे समझाती, “पौठे की औरतनि से बचि कैं रहिबे करि . . . नां जानें किनकी कैसी दीठि पत्ति ऐ।”
सास की ममता और अपने आदमी का लाड़-प्यार पाकर विम्मो के मन-देह पुलकते रहते थे। अंग-अंग से ख़ुशी झरती थी। आदमी की चौड़ी छाती पर माथा टिकाती तो ख़ुद को दुनिया की सबसे भागवान सुहागवती समझती थी। “बहू-बेटा . . . बहू-बेटा” कहते ससुर की जीभ लसती थी और जब देवर नेह से भौजी कहकर पुकारता था तो स्वयं उसके मन में मिश्री की डली घुल जाती थी। दिन पंख लगाकर उड़ते थे। रातें हाथ की माछरी की तरह फिसलती थीं।
तभी बज्जर गिरा था . . . ऊसर धरती को लेकर साधूराम पंडित से ऐंस बँध गई थी। घर में उसका ससुर, उसका देवर और उसका आदमी ऊसर धरती के झगड़े को लेकर जिकरा करते थे . . . साधुराम पंडित लठ्ठ के ज़ोर पै हमारे ऊसरा कूं दाबन चाहवें . . . कहतें, पटवारी नै नाप-जोखि कै बिनकी धत्ती के पाँच कूंड़ हमाए ऊसरा में निकारे ऐं . . . झूठ बोल्तें ससुर . . . नीअत ख़राब ऐ . . .।”
उसका आदमी कहता था, ऊसरा ऐ तौ का . . ., अपनी धत्ती का सैति-मैंति में छोड़ि देंगे . . . . . .। तेल हमारे ऊ लट्ठ नै पीओ ऐ . . . काऊ और के धोके में ना रहें।
अपने आदमी की जवांमर्दी की बातें सुनकर विम्मो की छाती गरब से फूलती थी। वह आँखों ही आँखों में उसकी लम्बाई नापने लगती थी, उसकी चौड़ी छाती को निरखती थी, उसकी बलिष्ठ भुजाओं को मोह से देखती थी। सचमुच लाखों में एक था उसका मरद . . . ताक़त से भरा-पूरा, बाँका जवान। फिर भी लड़ाई-झगड़े के नाम से उसके भीतर हौल बैठने लगता था। उसने पौठे की औरतों से कुएँ पोखरे की बतियाबन में साधूराम पंडित के घर-कुनबे की कहानियाँ सुनी थीं। बदरू ने पंडित से बदज़ुबानी की तो उसकी मड़ैया को आग लग गई . . . सगनो की घरवाली से पंडित के लड़के ने बदफैली की। सगनो ने शिकायत की तो मार-मारकर उसी की देह सुजा दी . . . परसादी के खेत बैल पंडित ने क़र्ज़े में गिरवी रखे तो फिर कभी परसादी के नहीं हुए। औरत-बच्चों की भूख का मारा परसादी अपने खेत के कुएँ में ही कूद पड़ा था। कहते हैं, उसका भूत अभी भी अपने खेत की रोंस पर घूमता दिख जाता है।
विम्मो ने एक दिन दबी ज़ुबान से अपने आदमी से कहा था कि वह ऊसरा के लिए पंडित साधूराम से बैर न ले। वह बोला था, “किसान की मैय्या, हरहारे की जोरू, बाकी घत्ती होति ऐ . . . कल्लि कूं तेई कोख ते कछू ना होइ तौ का तो कूं छोड़ि देंगो?”
विम्मो के पास कहने को फिर कुछ नहीं बचा था।
ऊसरा पर लाठी नहीं गोली चली थी।
उसका आदमी लाठी लेकर ही जम गया था। सारा गाँव कहता है . . . धरमपाल अकेला ही बहुतों पर भारी पड़ रहा था। उसकी लाठी की घूम सब पर भारी पड़ गयी थी। वह सीधा पंडित साधूराम पर ही चढ़ दौड़ा था। तब पंडित के लड़के ने गोली चला दी थी . . . एक . . . दो . . . तीन . . . धरमपाल जैसा कड़ियल जवान न होता तो सरग सिधार गया होता।
सारा गाँव कहता था पंडित के अन्याय की बात। हाट-चौपाल सब जगह जिकरा होता रहा। हाकिम-थानेदार भी आते-जाते रहे थे। पर सारे गाँव में कोई माई का जना ऐसा नहीं था जो कचहरी तक न्याय की दुहाई देता। ऊँची बिरादरी के लोग पड़ितों से क्यों रंजिश बाँधते। नाई, धोबी, जाटव काछियों में इतनी क़ुव्वत ही कहाँ थी जो ज़ुबान खोलते। ज़ुबान खोली थी धरमपाल ने—विम्मो के आदमी ने। अपने हाथ-पाँव गँवा दिये। कोई कुछ नहीं बोला। जब सगे बाप-भाई ही लाठियाँ छोड़कर भाग निकले थे, तो किसी ग़ैर को क्या पड़ी थी जो फटे में टाँग अड़ाता।
छैंकुरा के पेड़ तले आकर विम्मो ने कलेऊ की पोटली ज़मीन पर रख दी। सर पर रखी गागर भी नीचे उतार दी। उधर देखने लगी जिधर खिरान में उसके ससुर और देवर काम कर रहे थे।
ससुर दांय नहीं हाँक रहा था। देवर बस्साई नहीं कर रहा था। रात के मेह से कुनाव गीला हो गया था। लांक गीली हो गई थी। ससुर गीली लांक से पूली उठा-उठाकर ज़मीन पर बिछा रहा था। वीरपाल जेरिया से कुनाव कुरेद रहा था।
ससुर ने कलेऊ आया हुआ देखा तो काम रोककर छैंकुरा के नीचे चला आया। ससुर ने भुस-माटी से सने हाथ धोने को पानी माँगा तो विम्मो गडुआ से उसके हाथों पर पानी डालने लगी। हाथ धोते हुए उसने ल्हौरे बेटे को पुकारा, “ओ वीरपाल, ले कलेऊ कर लै पहिलें . . .।”
“हौं नैक देर में करैंगो,” वीरपाल ने वहीं से कहा।
विम्मो लहँगा उछारकर ज़मीन पर बैठ गयी। उसने अपने देवर की ओर देखा जो कुनाव पर जेरिया चला रहा था। जेरिया चलाने का बहाना कर रहा था। उसके सामने आयेगा भी क्यों। अपनी करनी की सरम जो खा रही होगी। रोटी का कौरा छाछ में डुबोता हुआ ससुर बोला, “घर में गुड़ नांइ रहो का?”
विम्मो से पहली चूक हुई थी। कलेऊ में गुड़ रखने का उसे ध्यान ही नहीं रहा था। ध्यान रहा था तो इतना कि ओसारे में पड़े अपने आदमी की ओर न देखे। खिरान को आती बिरियां आज उसने पहली बार खाट पर लुंज पड़े अपने आदमी की ओर नहीं देखा था। वह झमाके से ओसारा पार कर आई थी।
“पतौ नांइ दिमाग कहाँ रैहून लागौ ऐ . . .” ससुर बड़बड़ा रहा था।
ससुर के स्वर की रुखाई विम्मो को छील गई। उसके आदमी ने खाट क्या पकड़ी, बुढ़ऊ भी बौरा गया है। ‘बहू बेटा’ तो जैसे कहना ही भूल गया है। क्या ससुर, क्या सास, और क्या देवर, सब के सब जबर की बछिया समझने लगे हैं उसे। जैसा वे चाहें, वह करे। जैसा वे कहें, वह सुने। न हाथ रोके, न जुबान खोले।
उसके दिल में ससुर के प्रति नफ़रत बजबजा उठी। वह हर घड़ी बड़बड़ करता है बुड्ढा। बहू होने का लिहाज़ कर जाती है नहीं तो . . .। वह भी हया-सरम घो के बहा दे तो बुड्ढे का गला पकड़कर पूछे—बेटे के हत्यारों से रुपये खाते तुझे लाज नहीं लगी? कैसा बाप है तू जो बेटे के लहू को पानी समझ ठंडा होकर बैठ गया! बेटे को लट्ठ लेकर ऊसरा पर जाने से नहीं रोक सका था तो उसके लहू को ऐसे बेचता तो नहीं। वह तो घर की बहू थी। लोकलाज ने उसके पाँव बाँध दिये थे। जुबान सिल दी थी। नहीं तो कैसी आग दहकती थी कलेजे में . . . ख़ून पी जाये नासपिटों का। पर वह औरत जात कलेजा कूटकर रह गई थी। घर के मर्द ही हीजरे निकले तो वह अकेली क्या करती!
सारा गाँव कहता है—धरमपाल के बाप ने पंडितों से रुपये खा लिये, तभी कोरट-कचहरी नहीं की उसने। कहाँ की उसके ससुर ने कोरट-कचहरी! घर आकर मरी-मरी आवाज में कहता था, “धरमा की मैय्यो, पंडित ने दरोगा कूं और बड़े हाकिम कूं रुपैया भरि दये ऐं . . . अब कछू नांइ होगौ। हम्पै तो दरोगा कूं भरिवे फूटी कौड़ी ऊ नांइ . . .” झूठ बोलती बेर बुड्ढे की जीभ नहीं टपकी। अपने सारे ही जेवर तो दे दिये थे उसने . . . लच्छे, खडुआ, हंसुली और माँग का बोल्ला भी। ससुर कहता था, “बे रुपैया तौ धरमा के इलाज में ई चुकि गये। बड़े डॉकघर कूं रुपैया भरिने परे . . . ताही ते बचिगौ धरमा . . .।”
इसे बचना कहते हैं? न हाथ काम के रहे, न पाँव। हौरामसिंह उसे बीच गैल टोककर कहता है, “जिन्दा ल्हास कूं कब लौं ढोवैगी . . .?” आगरे के हस्पताल से अपने बेटे की जिन्दा ल्हास ही तो लेकर लौटा था, उसका ससुर। उसे तो एक बार हस्पताल भी नहीं जाने दिया गया था। सास कहती थी, “तू का करेगी म्हा जाइ कैं . . . ज्वान ज्हान लुगाइन कूं ठौर नांइ म्हा . . .।” कलेजे पर पत्थर रख लिया था उसने। आगरे से खाट पर रखकर लौटा था उसका आदमी। देखकर धीरज छूट गया था। वह हूकरी देकर रो पड़ी थी।
ससुर और देवर कलेऊ कर चुके तो विम्मो कपड़ा, बासन और ख़ाली गागर लेकर लौट पड़ी। और दिन वह सुरजो की बाट जोहती थी कि उसके संग ही वापस लौटे। सुरजो संग होती थी तो हौरामसिंह बिन बोले कन्नी काट जाता था। जिस दिन अकेली पड़ जाती थी उस दिन ज़रूर कुछ न कुछ ऐरे-गैरे बोलता था।
सुरजो ने पूछा भी था, “जे मरों गैल में चीं रोज मिल्तु ऐ। जाकूं और कोऊ काम नांइ का। घरबारी मरी ऐ तबते छुट्टा सांड़ सौ डौल्तु-फित्तु ऐ . . .”
विम्मो क्या बताती कि वह मरा गैल में क्यों मिलता है। सुरजो को बताती तो बात सारे गाँव में फूट जाती। सास के कान तक पहुँचती तो उसे ही पानी पी-पी कर कोसती। कुछ सास का भय, कुछ गाँव निन्दा का, उसने किसी को कुछ नहीं बताया था। बताती भी तो कौन सहारे को बढ़ता! सब जबर के संगी होते हैं। उस अबला की ओरदारी कौन करता?
पहले जब अपने आदमी के साथ मेला-कुंड को निकलती थी तो यही हौरामसिंह गैल छोड़कर परे हट जाता था। अब कैसा बोल-कुबोल बोलता है, “. . . मेरी मेहरिया बन जा . . . काऊ बात की कमी नांइ रहन देंगो . . . धरमा तौ मूर्ख हतो सो बानें ऊसरा के पीछे जान झौंकि दई . . . तू चौं ऊसरा के पीछे देह गलाइ रही है . . . मेरे घर बैठिजा, नहीं तौ दिना बीतें भौत परेखौ करेगी . . .”
हौरामसिंह को देखकर उसका हिरदय भय से धक-धक करता रहा है। उसे पहले से देख लेती है तो बचने को पूरे खेत का चक्कर लगाकर खिरान में पहुँचती रही है। या फिर किसी संग-साथ की बाट जोहती रही है। हौरामसिंह तभी बोलता है जब वह अकेली होती है। इस वक़्त वह अकेली ही वापस लौट रही थी। हौरामसिंह के मिलने के ख़्याल से उसका हिरदय धक-धक नहीं कर रहा था।
बीती हुई रात की खौखियाती बिल्ली फिर उसके भीतर हूलने लगी। क्या नहीं किया था उसने अपने आदमी के लिए? क्या-क्या नहीं सहा था? जब सही सलामत था तो उसकी आँख के इशारे पर प्रान निछावर करती रही थी। अब जब लुंज होकर खाट में पड़ा है, तो सोते-जागते उसी की चिंता में घुलती है। गू-मूत, ओढ़ना-बिछौना, सब वही करती है। खुद तो इतना भी नहीं कि अपने हाथ से रोटी का कौरा भी मुँह तक ले जाये . . .। इस आदमी के नाम का सिन्दूर अपने माँग में भरती . . . और यही आदमी ऐसे चुप्पी मार गया था जैसे मुँह में ज़ुबान ही न हो। करने लायक़ नहीं, तो कुछ बोल तो सकता था। वीरपाल से खरी-खोटी तो कह सकता था . . .। जी को संतोष ही हो जाता कि अभी उसका आदमी ज़िन्दा है . . .। ज़िन्दा कहाँ है? ज़िन्दा होता तो आग-सा भभकता। इतनी बात पर तो मुरदे का भी ख़ून खौल जाता। हौरामसिंह पूछता है—ज़िन्दा ल्हास कूं कब लौं ढोवेगी? कौन ग़लत पूछता है। आधी गैल पार हो गयी थी, पर अभी तक किसी करील की बग़ल से निकलकर पगडंडी पर खड़ा नहीं हुआ था हौरामसिंह। विम्मो को अपनी चाल हलकी पड़ती हुई लगी।
इसी गैल में एक दिन किरनो काकी ने भी टोका था, “विम्मो तोइ जा हालत में देखी कैं तरस आवतु ऐ . . . बड़ी निरदयी निकरी तेरी सासु . . . खेत-खिरान, घर-घूरौ सिग तोई पै डारि दए ऐं . . .।”
विधवा किरनो काकी गाँव से कोस-भर दूर दाल्तनगर के, लड़कियों के स्कूल में नौकरी करती है। पैदल जाती है, पैदल आती है। इकलौता लड़का कुछ दिन पहले आगरा की एक बैंक में चपरासीगिरी पा गया है। वह चाहता है किरनो काकी स्कूल की नौकरी छोड़ दें। आगरा आकर उसके पास रहें।
किरनो काकी ने कहा था, “विम्मो, तू कहै तो अपने मदरसे की बड़ी भैन्जी ते बात करूँ . . .। मेरौऊ मन नाइं लगतु हिंया। मौंड़ा के जौरें ईं जाइ कैं रहौंगी। मेई बल्दी बड़ी भैन्जी तोइ रक्खि लेंगीं। मेई बात खूब मान्ति ऐं। मदरसे की झाड़ बुहार में कोऊ ज्यादा कसालौ नांय . . .। तेई मर्जी होइ तौ मौकूं बताइ दीओ। हिंया की किल्ल-किल्ल ते फन्द छूटि जागौ . . .।”
किरनो काकी के सहानुभूति के दो बोल सुनकर विम्मो की आँखें भर आई थीं। पर मर्ज़ी तो उसकी सास की चलती थी। एक दिन सास के आगे बातों-बातों में उसके मुँह से किरनो काकी की बात फूट गई थी। सास ने तब हज़ारों भोग किरनो काकी को दी थीं, ‘बा मेई सौति कूं और कोऊ नांइ मिली। मेई बहूँ कूं मदरसे में भेजैगी . . . मोइ मिलै तो सई, जाइ हौं देखौंगी . . . ’ और विम्मो पर अपनी भकभकी उतारी थी, “. . . जा घर में तो पै बीजुरी पत्ति ऐ, . . . मदरसे में जाति-कुजाति के पांय दबाबैगी . . . हमाई नांक कटावैगी . . . मोइ का मालिम हती जि ऐसी असगुनिआई बहू आई ऐ . . .। मेरौ मौंडा मरे नि में सुमार है गयौ . . .।”
सास के विषैले बैन सुनकर विम्मो की आँतें मसूसने लगी थीं। ऐसी बात बोलते सास को रत्ती-भर हया नहीं आई थी। बेटे की देह में बंदूक के छर्रे घुसे थे तो पछाड़ खाती थी। छाती कूटती थी। पंडितों के लिए मरे-भरे सराप मुँह से निकालती थी . . . हाय, इन बैरीन कौ बंस डूबे . . . इनके घर मड़ैया मिटि जांय . . . बज्जर गिरें इनि पै . . . इन्ने मेरौ मौंड़ा मारि डारो . . .।
अब उसी सास की जीभ तालू से चिपक गई है। पाख का पाख बीत जाता है, पर बेटे के पास तक नहीं फटकती। सराप देती थी पंडितों को। सराप लगा विम्मो को। पंडितों का क्या बिगड़ा . . . पंडित का लड़का भरे बाजार मदुराता है। छाती ठोंककर अपनी करनी बखानता है।” . . . और विम्मो सहती है सास-ससुर के बोलों की पथरमार!
करवाचौथ, गनगौर, बरमावस . . . हर बरत त्योहार करती थी। बर के नीचे स्थापित पथवारी पर जल ढारती बिरियां उस बर के तने से बाँधे गए कच्चे सूत के तार याद हो आते थे। उसने मन्नत मानी थी कि उसका आदमी ठीक हो जाये तो सारी उमर बर देवता पर जल ढारेगी . . .। उसके लिए अभी तक कोई देवता नहीं पसीजा था। उसकी कोई मनौती नहीं फली थी। तब भी उसकी आस की डोरी टूटी नहीं थी . . .। लेकिन पिछली रात जैसे बर के पेड़ से लिपटे कच्चे सूत के तार तिरक गये थे।
ओसारा पार कर विम्मो सीधे बाखर में घुसना चाहती थी कि खाट पर पड़े लुंज आदमी की पुकार ने उसके पाँव कील दिये। उसने पुकारा था, “विम्मो!”
विम्मो थम गई।
“हियां आ विम्मो, जौरें आ!” वह उसे अपने क़रीब बुला रहा था। विम्मो खाट के पैताने खड़ी हो गई।
“बैठि जा!”
विम्मो ज़मीन पर बैठने को हुई तो वह बोला, “धत्ती पै नई, हियां खाट पै बैठि।”
विम्मो पाटी पर बैठ गई।
उसने विम्मो की आँखों में देखा। कैसी दीठ थी यह! विम्मो को यह दीठ अपने कलेजे में खुबती हुई महसूस हुई . . . पहले तो उसने ऐसे कभी नहीं देखा।
“विम्मो, तू मोते गुस्सा है गई ऐ . . .!” वह बोला। पलभर चुप रहा, फिर बोला, “विम्मो मेई एक बात मानैगी।”
वह फिर चुप हो गया। अब वह विम्मो की ओर न देखकर न जाने कहाँ देख रहा था।
विम्मो की उसांसी ठहरने लगी। क्या कहना चाहता था वह?
“विम्मो, तू हिंया ते चली जा! मो पै तेरौ दुख ना देखौ जातु। मेई बजै ते तू अपई जिन्दगी मत बिगार . . .। हाथ-पाँव होते ती सिगनिकूं सुज्जि लेतो . . . जा भाग की मार के आगें काऊ को बस नांइ। हौं तौं है गयो मरे नि में सुमार . . . माटी की नांई। देर-अबेर पिरान निकरि बे कूं रहि गये हैं, बेऊ एक दिना निकर जांगे . . .। परि तो कूं देखी कैं करेजौ म्हों कूं आवतु ऐ। हौं अधमरौ का भयौ, मय्यो दादा सिग बदलि गए।”
“ . . . तू हिंया ते चली जा . . . काऊ भले मांस की हाथ गहि लेगी ती जिन्दगी पार लगि जागी . . .।” वह बोलता जा रहा था।
विम्मो का हिरदय पत्ते-सा काँपने लगा। अंग-देह का लहू जमने लगा। कानों के पास साँय . . . साँय! अब उसे कुछ भी सुनाई नहीं पड़ रहा था।
न अभी पीरी फटी थी, न मुरगा बोला था। विम्मो मुँह सवेरे ही बाखर से निकल पड़ी थी। उसने न तो गोबर-कूड़े की परवा की थी, न छाछ बिलोने की, न ढोर-पौहों को सानी देने की, और न सास की कायं-किल्ल की। अपने पौठे से निकली, दगरा पार किया, पोखर की बग़ल होकर आगे बढ़ी, और अगले पौठे में समाना ही चाहती थी कि खरखराता बोल कानों से टकराया, “इत्ती सबेरे इत कितें जाइ रई ऐ?”
इतनी सुबह ही बीच गैल हौरामसिंह आ खड़ा हुआ था।
विम्मो ने पलभर को उसे घूरा, फिर जैसे सूखी छोई आग में घिर कर भभक उठी हो, “तेरे म्हों पे भूभर डारों बरामने! तू काइ कूं ठौर-कुठौर मेई गैल रोकतु ऐ! बिरानी तिरिया ते कुबोल बोल्त में तेई जीभ ना टपकति! खेह भरूँ तेरे म्हों में . . . बरामने! मुँह झौसे! अब कित्ती तैनें कछू कही तो ठाड़े ते आगि बराइ दैउंगी तो में . . .!”
हौरामसिंह सन्न! बुरी तरह अकबका गया। विम्मो को पीठ दी और यह जा कि वह जा। चोर का कलेजा कितना!
दस-बारह बाखर छोड़कर ही किरनो काकी की बाखर थी। विम्मो लगभग भागने लगी। अभी किरनो काकी गई नहीं होगी। काकी के पाँव पकड़कर मनुहार करेगी कि दाल्तनगर के मदरसे में नौकरी लगवा दें। गाँव छोड़कर दात्तनगर में ही रह लेगी। कैसे भी निभारा कर लेगी। टूटी-फूटी मड़ैया में ही रात गुजार लेगी। अपने आदमी को वहाँ ले जाकर रखेगी तो अपने दुख-सुख की दो बात तो बतरा सकेगी। उसकी लुंज देह से लिपटकर रो तो सकेगी . . .। काकी घर में मिल जायं।
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लेखक से एक छोटा सा अनुरोध है कि आपकी सभी रचनाएँ मैं बहुत शौक़ से पढ़ा करती हूँ। परन्तु इस कहानी का आरम्भ व अन्त तो समझ आया, बीच-बीच में जिस भाषा का प्रयोग हुआ, वह समझ न आने के कारण कहानी रोचक होने के बावजूद भी क्रमभंग (confusion) पैदा करती रही। हिंदी शब्दकोश की सहायता भी ली, लेकिन केवल पाँच प्रतिशत शब्दों के अर्थ मिल पाये। कृपया हो सके तो भविष्य के लिए मुझ जैसे पाठकों के लिए संवादों का अनुवाद भी लिख दिया कीजिए। साधुवाद।