अब मत आना किन्नी

01-05-2024

अब मत आना किन्नी

विभांशु दिव्याल (अंक: 252, मई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

छुट्टी का दिन। गर्मी की दोपहर। घर में पड़े रहने की बाध्यता हो जाती है। उनींदापन टूटा नहीं था, जब दरवाज़ा खुलने की आहट हुई। किन्नी हो सकती थी। थी भी वही। हाथ में रुमाल से ढकी प्लेट लिए हुए। 

“आप अभी तक सो रहे हैं? यह भी कोई सोने का टाइम है,” उसका अपनत्वजनित अधिकार-भरा स्वर मन को गुदगुदा गया। 

मैंने कहा, “मेरा तो किसी भी चीज़ का कोई टाइम नहीं, न सोने का, न जागने का, मगर तुम इस समय क्या ले आयीं? मुझे बहुत देर से ख़ुश्बू आ रही थी।” किन्नी का बुज़ुर्गाना अंदाज़ देखकर परिहास करने का मन हो आता था। जिस तरह मेरे सोने-जागने का कोई समय निश्चित नहीं था, उसी तरह किन्नी का मेरे फ़्लैट में आ धमकने का भी कोई समय निश्चित नहीं था। 

किन्नी ने मेरा मुँह चिढ़ाया, “ख़ुश्बू आ रही थी। सोये तो पड़े थे। बैठिए, यह हलवा खा लीजिए।” उसने प्लेट से रुमाल हटाया तो देखने के साथ ही घी की ख़ुश्बू और भी तीखी हो कर नाक में समा गयी। 

प्लेट मेरे आगे रख कर वह रसोईघर में चली गई। चम्मच लेकर लौट आयी। चम्मच प्लेट में लगाते हुए बोली, “चाय बना दूँ?” 

चाय वह वाक़ई जायकेदार बनती थी। चाय बनाने का प्रस्ताव करती तो इच्छा न होते हुए भी चाय पीने की इच्छा होने लगती थी। मेरे घर में चाय बनने का यह प्रबंध भी कन्नी की ही बदौलत हुआ था, और कुछ दिनों से सिलसिला यह चल निकला था कि मेरी रसोई में किन्नी चाय अधिक बनाती थी, मैं कम। 

चाय का प्याला मेज़ पर रखते हुए बोली, “आपने अभी शुरू भी नहीं किया? ठंडा हो जायेगा तो क्या मज़ा आयेगा?” 

“अपने लिए भी तो एक चम्मच ले कर आओ।”

“न बाबा। मैं ख़ूब खाकर आयी हूँ, ज़रा-सी भी जगह नहीं है,” उसने इस तरह पेट पर हथेली घुमायी कि मुझे बरबस हँसी आ गयी। 

वह मुझे चम्मच हलवे तक लाते और फिर मुँह तक ले जाते देखती रही। मुझे सुस्वादु व्यंजन की प्राप्ति का सुख मिल रहा था और उसे मुझ तक इस तृप्ति को पहुँचाने का। उसकी आँखों में यह छोटा-सा सुख गहरी चमक लिये ठहरा हुआ था, जिसकी अदृश्य तरंगें मुझे छू रही थीं। 

“किन्नी, यह प्लेट लेकर तुम्हें पापा ने भेजा होगा, “मैंने महज़ पूछने के लिए ही पूछा। 

“न।”

“तो मम्मी ने?” 

“न।”

“तो फिर?” जो सवाल मैंने अनायास ही पूछ लिया था, एकाएक उस पर मेरी सारी उत्सुकता केंद्रित हो गयी। किन्नी इससे पूर्व भी कई बार मेरे लिए खाने-पीने की वस्तुएँ लेकर आयी थी। स्वाभाविक रूप से मेरा मानना होता था कि सहृदय पड़ोसी की उदारता के तहत कपूर साहब या उनकी श्रीमती जी विशेष अवसरों पर बनाये गये व्यंजन मेरे लिए भी भेज देते हैं। कपूर दंपती से पिछले दिनों मेरे जैसे सम्बन्ध बन गये थे, उसे देखते हुए यह एक सामान्य-सी बात थी। 

“मैं ही ले कर आयी हूँ,” किन्नी बोली, “मम्मी-पापा को तो आपका ध्यान ही नहीं रहता। मैं बताती हूँ, तब उन्हें ध्यान आता है।”

किन्नी की बात सुनकर हलवे का स्वाद एकाएक बदल गया। चम्मच को अधर में रुका देख कर किन्नी बोली, “आप रुक क्यों गये अंकल? खाइए न।”

“खा रहा हूँ,” चम्मच मुँह तक लाया तो बहुत भारी प्रतीत हुआ। लगा, मैं खाने की जबरन कोशिश कर रहा हूँ। स्पष्ट साम्य न होते हुए भी जयनगर कॉलोनी वाली घटना आँखों में घूम गयी। श्रीमती गुप्ता का वह अप्रत्याशित अनचीन्हा रूप जिसके कारण मैं कॉलोनी छोड़ आया था, मन पर फैलता चला गया। 

जयनगर कॉलोनी छोड़कर यहाँ आया था तो उस अनुभव की तिक्तता भी साथ चली आयी थी। मैंने बार-बार अपना निर्णय दोहराया था कि यहाँ किसी से भी कोई सम्बन्ध नहीं बनाऊँगा। लगभग तीन महीने तक मुझे यह तक पता नहीं लगा, मेरे बग़ल के फ़्लैट में रहने वाले की शक्ल-सूरत कैसी है। अलस्सुबह घर से निकलता, पब्लिशिंग हाउस की कैंटीन में ही सुबह का नाश्ता लेता, अख़बार आदि पढ़ता। नौकरी का समय होते ही अपनी मेज़ पर जा बैठता। दोपहर का खाना भी कैंटीन में लेता। अलबत्ता रात के खाने की कोई निश्चित जगह नहीं थी। खाने के समय जहाँ भी होता, वहीं पास के किसी ढाबे या होटल में खा लेता। अक्सर ऐसा भी होता कि गोष्ठी, नाटक, किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम या फिर सिनेमा के चक्कर में खाना खाने की याद ही न रहती और जब याद आती तब तक होटलों की ग्राहकी अंतिम साँस ले चुकी होती या फिर भूख ही दम तोड़ गयी होती। जब मैं घर पहुँचता तब तक सारी बस्ती ऊँघने लगी होती। मैं केवल इतना करता कि अपने पहने हुए कपड़े उतार कर सोफ़े पर फेंक देता और पलंग पर फैल जाता। इस चर्या में बाहर टूर पर जाने पर ही कभी परिवर्तन आता था। पर परिवर्तन आया। 

उस शाम तबीयत कुछ ढीली थी। न किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम में जाने का मन हुआ, न सिनेमा देखने का, सिर भारी था, और दिनों की अपेक्षा जल्दी ही घर आ कर पड़ा रहा। सुबह नींद जल्दी खुल गयी, मगर सिर का भारीपन वैसा ही था। शायद टहलने से कुछ ठीक हो, यही सोचकर सामने वाले पार्क में चला गया। 

पार्क में पहले से ही मौजूद एक सज्जन ने अभिवादन किया तो मुझे उत्तर देना पड़ा। वे आगे बढ़कर बोले, “मैं कपूर हूँ, अट्ठानवे नंबर में हूँ। आप एक सौ दो में हैं न?” 

इस व्यक्ति और नये परिचय के लिए मन में कोई उत्साह नहीं लगा। शिष्टतावश ही कहा, “जी।” और चलने को हुआ, लेकिन कपूर साहब ने तब तक अगला प्रश्न भी कर दिया, “आप पब्लिशिंग हाउस में सर्विस करते हैं न?” 

“जी, वहाँ ट्रांसलेटर हूँ,” मेरी नौकरी के बारे में कपूर साहब को जानकारी थी। 

“आप कभी यहाँ की एक्टिविटीज़ में नहीं दिखते। बहुत व्यस्त रहते हैं।” कपूर साहब के सवाल का तुरंत कोई उत्तर नहीं सूझा। कुछ कहना था इसलिए कहा, 'ऐसी कोई बात नहीं . . . बस ऐसे ही।” परिचय की यह औपचारिकता भारी होती जा रही थी। 

कपूर कुछ और पूछते कि उनका बच्चा दौड़ता हुआ आया, “पापा चाय बन गयी। मम्मी बुला रही हैं।”

बातों का पिछला सिरा छोड़ते हुए कपूर साहब बोले, “आइए साहब, एक कप चाय हो जाये।”

मैंने टालने की कोशिश की तो मेरा हाथ पकड़ कर साग्रह कहा, “आइए भी, चाय का टाइम ही है। हम भी दो मिनट आपकी कंपनी एंज्वाय कर लेगें।”

इस आग्रह को मैं टाल नहीं सका। एक कप चाय पीने की इच्छा मेरे अंदर भी तीव्रता से उठ आयी थी। 

चाय की चुस्कियों के मध्य औपचारिक बातचीत चलती रही। मैं व्यक्तिगत सवालों से कन्नी काटता हुआ कपूर साहब को अपने और उनके पेशे से सम्बन्धित मसलों पर ही टिकाये रहा। इसी बीच वह बच्ची वहाँ चली आयी। 

कपूर साहब बोले, “किन्नी, अंकल को नमस्ते नहीं करोगी, ये एक सौ दो नंबर में रहते हैं।”

“मैं जानती हूँ। मैं तो अंकल को रोज़ देखती हूँ,” किन्नी ने अभिवादन की मुद्रा में हाथ जोड़े। 

“ताज्जुब है, मैंने तो तुम्हें नहीं देखा।”

“बड़े आदमी नहीं देखते न?” 

मैं अचकचा कर उसे देखने लगा। ‘बड़े आदमी’ शब्द का प्रयोग उसने उम्र के अर्थ में अभिधात्मक किया था या अन्य अर्थ में व्यंजनात्मक, मैं समझ नहीं पाया। 

“तुम किस क्लास में पढ़ती हो?” मैंने पूछा। 

“सातवीं में।”

“कॉन्वेंट में हो?” 

“नहीं जी, कॉन्वेंट में कहाँ,” उत्तर कपूर साहब ने दिया, “यहीं जवाहरलाल गर्ल्स स्कूल में है। आठ-नौ सौ में ही सारे ख़र्च समेटने पड़ते हैं। कॉन्वेंट का ख़र्चा कहाँ से उठायें? पल्लू के लिए सोच रहे हैं कि उसे कॉन्वेंट में डाल दें।” पल्लू कपूर साहब का छोटा बेटा था, जो चाय के लिए बुलाने पार्क तक दौड़ा आया था। 

“अंकल, आप क्या काम करते हैं?” किन्नी ने पूछा। 

“मैं . . . मैं ट्रांसलेशन करता हूँ।”

“ट्रांसलेशन। यह क्या काम हुआ? हमारी मिस भी हमें ट्रांसलेशन कराती हैं। आप पढ़ते हैं क्या?” 

किन्नी के सहज उत्सुकता-भरे प्रश्न के उत्तर में मुझे विस्तार सहित अपने पेशे की व्याख्या करनी पड़ी। पूरे भाषण के बाद वह संतुष्ट हुई कि ट्रांसलेशन मात्र सातवीं-आठवीं कक्षा में करने को दिया जाने वाला प्रश्न ही नहीं होता, बल्कि आगे भी इसका उपयोग होता है। 

कपूर साहब बोले, “इस छोकरी से आप कोई बात तो शुरू कीजिए, आपका भेजा खा जायेगी। बाल की खाल निकालती रहेगी। ख़ुद नहीं ऊबेगी, मगर सामने वाले को ज़रूर उबा देगी।”

चपल-वाचाल किन्नी बहुत प्यारी लगी। उससे हुई बातचीत की अनुगूँज कई दिनों तक मन के आसपास बनी रही। इस मुलाक़ात के बाद आते-जाते कभी-कभी किन्नी दिख जाती तो ‘अंकल-नमस्ते’ कहना न भूलती। 

मैं भी पूछ लेता, “क्या हाल है किन्नी?” 

“फ़ाइन?” उसका उत्तर होता। 

“पापा हैं घर पर?” मैं सिर्फ़ पूछने के लिए पूछता, तो कभी “हाँ, हैं” कहती, या बताती, “अपने फ़्रेंड के साथ चले गये है।” कहने के साथ वह अपने घर आने का आग्रह करना कभी नहीं भूलती थी। कपूर साहब नहीं होते थे तो मेरे पास सीधा-सा जवाब होता, “तुम्हारे पापा होंगे तब आऊँगा।” लेकिन कपूर साहब के घर होने की स्थिति में मुझे दुविधा का सामना करना पड़ता था और आवश्यक काम से जाने के बहाने को अपनी ढाल बनाना पड़ता था। 

शायद हम सभी के अंदर अपनी-अपनी व्यस्तताओं, कार्य-व्यापारों के बावजूद कुछेक ख़ाली कोने बचे रहते हैं। चुंबकीय स्पंदनों से धड़कते ये ख़ाली कोने अपने भराव के लिए अपनी ओर खींच लेने को किसी-न-किसी सम्बन्ध की तलाश में सन्नद्ध बने रहते हैं। वैसे तो सैकड़ों अमूर्त सम्बन्धों के बिंब अंदर के शून्य में फैलते-पसरते रहते हैं, जिनमें से तलाश के हाथों लग एकाध कोई मूर्त भी हो जाता है। लेकिन कभी-कभी यह प्रक्रिया इतनी निशब्द होती है कि बहुत आगे आ जाने पर एक चौंक के साथ किसी सम्बन्ध के मूर्त होने का अहसास जागता है। 

पिछला मकान छोड़ते समय मन-ही-मन शपथ ली थी कि आगे जहाँ भी रहूँगा किसी से कोई सम्बन्ध नहीं रखूँगा। श्रीमती गुप्ता ने अपने बच्चे बबलू को ले कर जितना कुछ कहा था, वह मेरे लिए असहनीय हो उठा था। वे अपने बच्चे तक ही सीमित रहतीं तब भी ग़नीमत थी। मगर उन्होंने मेरे व्यक्तिगत जीवन की दबी-ढकी बातों को कुरेद कर पुर आये घावों के खुरंट उतार दिये थे। घर बदल लेने के बाद भी टीस बनी रही थी। लेकिन पता नहीं कब यह टीस दब गयी और कब शपथ की चमक धुँधला गयी। 

उस दिन सुबह-ही-सुबह किन्नी को अपने घर आया देख कर अटपटा लगा था। आते ही बोली, “अंकल, कल मेरा अंग्रेज़ी का पेपर है, आप तो अंग्रेज़ी जानते हैं न। मुझे ‘इंपॉर्टेट लेसन्स’ की हिन्दी समझनी है।”

पढ़ाना समाप्त किया तो बोली, “अंकल, आप तो बहुत अच्छा समझाते हैं। हमारी मिस इतनी अच्छी तरह नहीं बताती आगे के पाठ भी मैं आपसे ही पढ़ूँगी।”

फिर किन्नी कुछ-न-कुछ पूछने आने लगी। जब भी मुझे घर पर देखती, चली आती। एक दिन उसने शिकायत की, “अंकल आपकी ड्यूटी इतनी लंबी होती है कि आप सुबह से शाम तक बाहर रहते हैं।”

उसने इसके बाद भी यह बात कई बार दोहरायी। 

समय एक छोटी-सी छलाँग लगा गया। 

तब अचानक ही मैंने महसूस किया कि मैं अधिकाधिक समय घर पर रहने लगा हूँ। पहले घर लौटने की इच्छा नहीं होती थी, अब बाहर रुकने की इच्छा नहीं होती थी। 

किन्नी में नयी आदत पनप रही थी। वह आती और अपनी कापी-किताबें मेज़ पर एक ओर पटक देती और कमरा सँभालने में जुट जाती। कभी-कभी टिप्पणी भी उछाल देती, “अंकल, आप सारे कमरे को कबाड़ बना देते हैं। आपके अख़बार के पन्ने दस जगह बिखरे रहते हैं।”

वह दस जगह बिखरे अख़बार के पन्नों, पत्रिकाओं और किताबों को यथास्थान लगा देती। साथ ही हिदायत भी देती जाती, “आप जिस किताब को जिस जगह से उठायें, उसे पढ़ने के बाद उसी जगह पर लगा दिया कीजिए।”

किताब या पत्रिका पढ़कर रखते समय कभी-कभी किन्नी की हिदायत याद आ जाती तो मैं उसे यथास्थान ही रख देता था। एक बार किन्नी ने किताबों को तरतीबवार लगाने में ख़ासा समय लगा दिया था। कई कोणों से उसने किताबों की पंक्तियाँ बनायी मिटायी थीं। अंत में जब वह समापन स्पर्श दे चुकी तो बोली, “देखिए अंकल, अब आपकी किताबें कैसी लग रही हैं।”

उसने सचमुच ही किताबें बड़े सलीक़े से लगायी थीं। उसकी कलात्मक दृष्टि जीवंत हो उठी थी। 

अगले दिन किन्नी आयी तो अपनी कलात्मक सज्जा को ध्वस्त देख कर बौखला गयी, “यह आपने क्या किया?” उसकी बनायी हुई जो पंक्तियाँ शेष रह गयी थीं, उनको भी उसने झटक दिया, ज़रा-सी देर में सारी किताबों का ढेर लगाकर बोली, “लीजिए, आपको ऐसी ही किताबें अच्छी लगती हैं न, अब कर दीं मैंने ठीक। इतने बड़े हो कर भी आपको समझ नहीं आयी।”

किन्नी का यह उग्र रूप में पहली बार देख रहा था। किन्नी की नाराज़गी उस बच्चे की नाराज़गी थी जिसका बनाया हुआ घरौंदा किसी ने तोड़ दिया हो। मैं केवल इतना ही कह सका, “किन्नी, अगर मैं यह सब नहीं करता तो तुम्हारा ग़ुस्सा कैसे देखने को मिलता?” 

“ग़ुस्सा कैसे देखने को मिलता!” किन्नी ने मेरे ही शब्द दुहराकर अपनी झुँझलाहट उतारी। फिर वह हाथ बाँधकर कुर्सी पर बैठ गयी। बहुत प्यारा लगा उस पल उसका यह ग़ुस्सा। 

मैंने कहा, “तुम तो सचमुच रूठ गयीं किन्नी आज चाय भी नहीं बनाओगी क्या।”

किन्नी के हाथ इन दिनों मेरी रसोई की नाप-जोख करने लगे थे, यों तो जिसमें सुबह-शाम चूल्हा न सुलगे, रोटी न बने, वह कैसी रसोई, पर किन्नी ने मात्र चाय की परंपरा क़ायम करके इसे रसोई की संज्ञा प्रदान कर दी थी। 

किन्नी ने ही यह सुझाव रखा था कि मैं दूध ले लिया करूँ और चाय घर पर ही बनाया करूँ। मैंने इसे बिना किसी प्रतिवाद के स्वीकार कर लिया था। किन्नी के यहाँ जो दूधवाला दूध देता था, मेरा दूध भी उसी से बँध गया। यह दूधवाला ठीक ब्रह्म मुहूर्त में, जब मेरी नींद अपनी चरम सीमा पर होती थी, ‘दूध लो जी’ की कर्णभेदी गुहार लगाकर रोज़-रोज़ चारपाई से उठाकर बिठाने की सज़ा देने लगा तो मेरे लिए दूध लेना कठिन हो गया। 

इस कठिनाई का हल किन्नी ने अपनी तरह से निकाला। अपनी मम्मी से उसने ज़िद के साथ कहा कि जब वे अपना दूध लेती हैं, तभी मेरा भी ले लिया करें। और जब मेरी नींद खुले तो दूध मेरे घर पहुँचा दिया करें। इस तरह किन्नी का नियम बन गया था कि वह दूध लेकर आती। रसोई में जा कर स्टोव जलाती, दूर्ध गर्म करती, और चाय बना लाती। इस क्रम में उसकी सुबह की चाय मेरे यहाँ होने लगी थी। 

किन्नी ने अपनी मुद्रा नहीं बदली। वह वैसे ही बैठी रही। 

मैंने तब अपने दोनों हाथ कानों पर रख लिए, “लो बाबा, कान पकड़ता हूँ। अब ऐसी ग़लती नहीं करूँगा।”

किन्नी के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कराहट दिखाई दी। वह उठी और किचन की ओर चली गयी। 

मैं चुपचाप उसकी बखेरी हुई किताबों को समेटने लगा। उसे कैसे समझाता कि ये किताबें सिर्फ़ अलमारी सजाने के लिए नहीं हैं। जब भी किसी किताब को पढ़ने का मन होता है, या कुछ लिखने के लिए संदर्भ की ज़रूरत होती है, तो किताबों की तरतीबवार सज्जा में टूट आनी ही होती है। 

किन्नी चाय बनाकर लायी तब तक मैं काफ़ी किताबें समेट चुका था। चाय का प्याला मुझे पकड़ाते हुए बोली, “आप हटिए, मैं ठीक करती हूँ।” फिर मुझे हिदायत देते हुए बोली, “अब मत बिगाड़िएगा।” 

“नहीं बाबा, नहीं बिगाड़ूँगा।” मैं अलग हटकर चाय पीने लगा। किन्नी देर तक किताबें ठीक करती रही। 

उस दिन किन्नी आयी तो आदत के विपरीत चुपचाप बैठ गयी। वह अपनी किताब-कापी भी साथ नहीं लायी थी। मैंने पूछा, “आज क्या पढ़ाई नहीं करनी तुम्हें?” 

“अंकल, आपका और आंटी का झगड़ा हो गया है?” किन्नी ने सीधा सवाल मुझ पर दागा। 

मैं बुरी तरह हड़बड़ा गया। अप्रत्याशित सवाल था। सोच भी नहीं सकता था कि यह सवाल कभी किन्नी के मुँह से भी निकल सकता है। मेरा भ्रम एक बार फिर चरमरा गया। आदमी की ज़िन्दगी की वह फ़ाइल जिसे वह कभी-कभी हमेशा के लिए बंद समझ लेता है, हवा के किस झोंके से, कब, कहाँ खुल जायेगी, कुछ पता नहीं लगता। मैंने प्रतिप्रश्न किया, “तुमसे किसने कहा किन्नी?” 

आपकी एक लड़की भी है न, उसका नाम क्या है अंकल? मेरे सवाल का उत्तर दिये बिना किन्नी अगला सवाल पूछ रही थी। 

किन्नी के इस सवाल के धक्के ने मुझे कई वर्ष पीछे पहुँचा दिया। मेरा टूटा हुआ कुछ मुझसे जुड़ा और फिर टूट गया। ख़ामोश-सी कोई फाँस अंदर तक खुबती चली गयी। अंदर जमा हुआ शोर तेज़ आँधी की तरह हरहरा उठा। 

“आंटी से आपका झगड़ा क्यों हुआ अंकल? आपको अपनी लड़की की याद नहीं आती?” किन्नी पूछ रही थी। 

किसी रिश्ते के बनने के पीछे कोई गणित नहीं होता, उसी तरह उसके टूटने के पीछे भी कोई गणित नहीं होता। शादी के तुरंत बाद ही मेरा और मंजुला का अहम टकराने लगा था। वैचारिक विषमताओं तथा भिन्न संस्कारों से उत्पन्न विपरीत व्यवहारों ने दरारें बनानी शुरू कीं तो फिर भरने में नहीं आयीं। हमारे बीच भावनात्मक सघनता भी नहीं थी जिसके सहारे हम इन दरारों को लाँघ जाते। रोज़-रोज़ की किचकिच से बचने के लिए ही मैंने और मंजुला ने सोच-समझकर अलग रहने का निर्णय किया था। अल्पावधि के साहचर्य की परिणति नन्ही सी बच्ची की कोई तस्वीर भी आँखों के आगे नहीं बनती थी। और किन्नी मुझसे पूछ रही थी कि मुझे उस बच्ची की याद नहीं आती? इस समय उस बच्ची का एक बिंब बन रहा था, जो किन्नी के चेहरे में घुलता जा रहा था। 

किन्नी के किसी भी सवाल का सही उत्तर मेरे पास नहीं था। उत्तर के आकार का जो कुछ मेरे पास था, उसे क्या किन्नी समझ सकती थी? एक रिश्ते के टूटने के पीछे के तर्क तो तभी समझ में आ सकते हैं जब समझने वाला ठीक उस बिंदु तक पहुँचे जहाँ से भुक्तभोगी उन तर्कों को उठाता है। किन्नी क्या उस बिंदु तक पहुँच सकती थी? 

सवाल किन्नी की आँखों में अभी लटके थे। मैं उससे पूछ रहा था, ‘तुमसे यह सब किसने कहा, किन्नी?’

मैं किन्नी की बाट जोहता था। घर का ताला खोलते ही चाहने लगता था कि किन्नी आये और बातें करें। जैसे-जैसे उसके साथ मेरी घनिष्ठता बढ़ती गयी थी वैसे-वैसे उसकी बातों की विषयवस्तु भी विस्तार पाती गयी थी। वह मुझसे मेरी बातें करती थी, अपनी बातें करती थी, अपने मम्मी-पापा और छोटे भाई की बातें करती थी, कभी अपने साथ की लड़कियों की बातें करती थी तो कभी अपनी ‘मिस’ की। वह बोलना शुरू करती और मेरे इर्द-गिर्द का उबाऊ एकाकीपन भरभरा कर ढह जाता। 

किन्नी जब आई, मैं प्रतीक्षा ही कर रहा था। आ कर वह चुपचाप बैठ गयी। 

अब तक मैं किन्नी की इस आदत से परिचित हो चुका था। जब उसे अपना ग़ुस्सा जताना होता था या कोई विशेष बात कहनी होती थी तो वह इसी तरह चुपचाप बैठ जाया करती थी। मैंने उसे छेड़ा, “आज तो लगता है, मिस ने तुम्हारी पिटाई की है।”

“मेरी पिटाई क्यों करेंगी मिस?” 

“फिर क्यों ऐसे चुपचाप बैठ गयी हो?” 

तब उसने अपनी एक प्राथमिक चुप्पी की गाँठ खोली, “आज मिस ने हमारी क्लास की एक लड़की की पिटाई की।”

“अच्छा! क्यों?” 

“उसके पास लैटर निकला था।”

“कैसा लैटर?” 

“किसी लड़के का था।”

“क्या लिखा था?” 

“गंदी बातें।” किन्नी बहुत ही गंभीर नज़र आ रही थी। मैं अपनी मुस्कराहट नहीं दबा सका, “ये गंदी बातें क्या होती हैं? किन्नी?” 

“हिश्श। मुझे क्या मालूम?”

“तुम्हीं तो कह रही थीं, लैटर में गंदी बातें थीं।”

“आप बिलकुल बुद्धू हैं, लैटर में गंदी बातें नहीं होतीं तो मिस उसकी पिटाई क्यों करती?” किन्नी ने झटके से अपना दायाँ हाथ आगे की ओर उछाल कर कहा। 

मुझे मान लेना पड़ा कि मैं बुद्धू था। 

वह रविवार की इत्मीनानभरी सुबह थी। किन्नी चाय का प्याला ख़ाली कर बैठ गयी थी और अपनी सद्यः विवाहित हिंदी वाली मिस की गाथा सुना रही थी, “. . . मिस ने सारी लड़कियों को अपने घर इन्वाइट नहीं किया था न, दो-तीन लड़कियों से कहा था।”

“तुमको भी ‘इन्वाइट’ नहीं किया था?” 

“मुझको क्यों नहीं करतीं, मैं तो उनकी सबसे ‘फ़ेवरिट’ स्टुडेंट हूँ। मुझे तो वे बहुत प्यार करती हैं। मुझे बुलाया था और रीता को बुलाया था। माला अपने पापा के साथ आयी थी। माला के पापा और हमारी मिस के पापा फ़्रेंड हैं न!”

किन्नी तन्मयता से दास्तान-ए-मिस सुना रही थी कि उसके छोटे भाई ने आकर व्यवधान उपस्थित किया, “किन्नी तुझे मम्मी बुला रही हैं।” 

“मैं अभी आ रही हूँ, कह देना मम्मी से,” बात पूरी करने की उत्कंठा उसके चेहरे पर दिपदिपा रही थी। 

“नहीं, मम्मी बुला रही हैं, तुझे डाँटेंगी नहीं तो,” वह ज़िद पकड़ते हुए बोला। 

किन्नी चली गयी। मैं यथावत बैठा रहा कि किन्नी अभी आती ही होगी, मगर वह नहीं लौटी। 

अगले दिन भी किन्नी नहीं आयी। सुबह दूध देने भी पल्लू आया। मैंने पूछा, “किन्नी क्यों नहीं आयी?” तो वह बिना कोई जवाब दिये चला गया। वह उसके अगले दिन भी नहीं आयी। न मेरी दूध गर्म करने की इच्छा हुई, न चाय बनाने की। पल्लू का किन्नी को बुलाने आना बार-बार मन के पर्दे पर उभरने लगा। मैं किन्नी से बात करने को बेचैन हो उठा। 

किन्नी बाहर अपनी हमजोलियों से बात कर रही थी। मैंने उसे बुलाया। उसकी आँखों में सहसा सकपकाहट तैर गयी। किन्नी की मम्मी उस समय घर के बाहरी दरवाज़े पर खड़ी थीं। किन्नी ने एक बार मेरी ओर देखा, फिर अपनी मम्मी के पास जा कर खड़ी हो गयी। जिन दो लड़कियों से वह बात कर रही थी, वे मुझे घूरने लगीं। 

किन्नी का यह व्यवहार सर्वथा अप्रत्याशित था। कुछ ग़लत-सा घट जाने का अहसास दूर तक खरोंचता चला गया। जयनगर कॉलोनी की श्रीमती गुप्ता चीखती-चिल्लाती आँखों के आगे खड़ी हो गयीं। उनका एक साल का बिल्लू एक दिन मैंने गोद में ले लिया था। खिलाते हुए उसे दो-तीन बार ऊपर उछालकर हाथों में लपका। बिल्लू को मनचाहा खेल मिला। फिर वह कभी मुझसे टॉफ़ी वसूलने लगा, कभी गुब्बारा, तो कभी पिपहरी। 

उस दिन बाज़ार जाते समय बिल्लू गोद में चढ़ा तो कोशिश करने पर भी नहीं उतरा। यह सोचकर कि दस मिनट में बाज़ार से लौट कर इसे इसके घर छोड़ दूँगा, मैं उसे लेकर ही चल दिया। लेकिन लौटा तो आधे घंटे से भी अधिक समय गुज़र गया था। 

श्रीमती गुप्ता के दरवाज़े पर छोटी-सी भीड़ लगी थी। मुझे देखते ही श्रीमती गुप्ता लपकीं और बच्चे को मेरी गोद से छीन लिया। 

“क्या बात हो गयी?” मैं असमंजस में था। 

“बच्चे को आप ले गये थे?” एक सज्जन बोले, “यहाँ लोग समझ रहे थे कि जाने बच्चा कहाँ चला गया? आपको कम-से-कम बता कर तो जाना चाहिए था।”

उधर श्रीमती गुप्ता धारदार शब्दावली उगल रही थीं, “बहुत देखे हैं हमने बच्चों को प्यार करने वाले हमें नहीं चाहिए ऐसा लाड़-प्यार! यहाँ तो जान गले में आ गयी। ऐसे ही बच्चे प्यारे हैं तो अपने बीवी-बच्चे क्यों छोड़ रखे हैं . . .!”

मुझे अपने पैरों से भारी-भारी पत्थर बँधे हुए महसूस हुए थे। मैं अपने-आपको धकेलता हुआ घर ले गया था। फिर जब तक जयनगर कॉलोनी में रहा, उस नन्हें-बच्चे से बच कर निकलता रहा जो मुझे देखते ही किलक कर अपने हाथ ऊपर उछालने लगता था। 

अपने दरवाज़े के आगे से निकलकर जाती हुई किन्नी को देखकर मैं स्वयं को उसे आवाज़ देने से नहीं रोक सका। किन्नी ने देखा तो उसके चेहरे पर वही पहले जैसी सकपकाहट उभर आयी। उसने सहमी हुई दृष्टि से अपने घर की ओर देखा। बाहरी दरवाज़े पर इस समय कोई भी नहीं था। किन्नी अंदर चली आयी, कुछ इस तरह जैसे कोई ग़लत काम करते समय पकड़े जाने का डर उसे साल रहा हो। 

“अब तुम यहाँ नहीं आतीं किन्नी, मम्मी ने मना किया है क्या?” 

किन्नी ने मेरे सवाल का जवाब न दे कर अपना ही सवाल कर दिया, “अंकल, आप बुरे आदमी हैं?” 

डंक-सा लगा। यह कैसा सवाल पूछ रही थी यह लड़की? में समझ ही नहीं सका कि उसके इस सवाल का क्या जवाब हो सकता है! फिर कहा, “तुम्हें कैसा लगता हूँ?” 

“पहले बताइए, लोग आपको बुरा क्यों कहते हैं?” 

मेरे पास उत्तर था भी क्या जो उसे बताता। मुझे क्या पता, लोग मुझे बुरा क्यों कहते हैं। मैं तो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ता, फिर भी लोग . . . 

किन्नी ही बोली, “आप अकेले रहते हैं न। मम्मी कह रही थीं, अकेले आदमी के घर नहीं जाना चाहिए।”

भीतर खिली हुई फूलों की क्यारी एकाएक मुर्झा गयी। बुरा होने का इससे बड़ा कारण क्या हो सकता था कि कोई व्यक्ति कई-कई अधूरे, अधकचरे, बेजान रिश्तों की गली हुई देह को ढोता हुआ निपट अकेला रहे-मानव देहधारी प्रेत की तरह। कोशिश करने पर भी मैं अपने अंदर की घुमड़ को नहीं दबा सका। 

“किन्नी तुम जाओ!” मुझे लगा, मैं अपने-आप से डर रहा हूँ। 

“आप बुरा मान गये अंकल, बुरा मत मानिएगा। मैं आपको बुरा आदमी नहीं समझती। वो तो मम्मी कहती हैं वे ही आने को मना करती हैं। वो सरला आंटी हैं न, बहुत बुरी हैं। वे ही मम्मी से कहती हैं, आप अकेले रहते हैं, किन्नी को वहाँ मत भेजा करो। कहीं अकेले रहने से कोई आदमी बुरा हो जाता है, अंकल?” 

“हाँ बेटे, बहुत बुरा। अकेलेपन की मनहूसियत से बुरा और क्या होगा! अच्छा किन्नी, तुम अब यहाँ कभी मत आना। मैं बुलाऊँ तब भी नहीं,” मैं किन्नी से आँखें नहीं मिला पा रहा था। कुछ बोल भी नहीं पा रहा था। सारे शब्द जैसे एकाएक चुक गये थे। 

किन्नी चली गई। 

बहुत दिनों से अंदर किसी कोने में शांत सोयी छटपटाहट कूद कर खड़ी हो गयी। इस छटपटाहट के समांतर किन्नी को सोचते चले जाने से आँखें नम होने लगीं। सँभाल कर पकड़ी हुई एक ख़ूबसूरत तितली-सी ख़ुशी हथेली पर ही दम तोड़ गयी। कमरे की हवा बहुत भारी हो गयी थी। खिड़की खोलने को उठा, मगर रुक गया। बाहर की हवा कहीं अधिक बोझिल थी!  

1 टिप्पणियाँ

  • 5 May, 2024 07:25 PM

    समाज में एक सुन्दर परिवर्तन लाने का प्रयास करती कहानी। भयानक से भयानक शारीरिक बीमारी की चिकित्सा तो खोज ली जाती है, परन्तु हमारे समाज के मस्तिष्क में शताब्दियों से निर्दोष व्यक्तियों के प्रति ऐसे-ऐसे कीड़े पल रहे हैं जिन्हें मारने की औषधि अभी तक मिल नहीं पायी।

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