पिता
विभांशु दिव्याल
डॉक्टर जयेन्द्र गुप्ता पल-भर के लिए स्तब्ध रह गये। यह उनके लिए कल्पनातीत था। स्तब्धता से उबरे तो सूझा नहीं कि क्या कहें, क्या करें।
सारे मरीज़ों को निपटाकर उठकर चल देने के वक़्त जब उनके चपरासी ने कहा था ‘एक लड़की आई है’ तो उन्होंने यही समझा था कि कोई मरीज़ होगी। उसी अन्दाज़ में उन्होंने कहा भी था, “जल्दी भेजो, आज पहले ही काफ़ी देर हो चुकी है।”
हाथ में ब्रीफ़केस लिये, जीन्स टॉप वाली जिस सुदर्शना किशोरी ने कमरे में प्रवेश किया था, उसे देखकर डॉक्टर गुप्ता यह तो समझ गये थे कि लड़की मरीज़ नहीं है। यह भी कि लड़की का पहनावा उनके क़स्बे का नहीं है। लेकिन यह भी नहीं सोच सके थे कि . . . तब एक दूसरा पेशेगत ख़्याल ही आया था कि लड़की शायद चूक क्षणों की संकट-ग्रस्तता से उबरने के लिए उनसे सहायता-याचना करने आयी है। ऐसा प्रायः होता ही रहता था।
इसी अपेक्षा के साथ उन्होंने लड़की को स्टूल पर बैठने का संकेत करते हुए कहा था, “बोलो।”
लड़की न तो बैठी, न उनके प्रश्न के उत्तर में कुछ बोली, बस एकटक उन्हें घूरे जा रही थी।
“बैठो, बताओ क्या परेशानी है?”
लड़की फिर भी उन्हें घूरती रही। उन्हें लड़की का घूरना असामान्य-सा लग रहा था। आख़िर वह बोली, “मैं पेशेन्ट नहीं हूँ।”
“फिर?”
“मैं दिल्ली से आयी हूँ।”
“दिल्ली से?” उन्होंने दिल्ली से जुड़ी किसी पहचान को स्मृत करने का प्रयास किया, परन्तु कुछ भी ऐसा पकड़ में नहीं आया जो इस लड़की से जुड़ सकता हो। उनकी दृष्टि का सवाल थोड़ा और पैना होकर लड़की की आँखों से जा मिला।
तब लड़की ने जो कुछ कहा था वह उन्हें थोड़ी देर के लिए जड़ बना गया था और अब उनके अन्दर एक अंधड़ उठ रहा था।
लड़की उन्हें वैसे ही एकटक ताके जा रही थी।
उनका कम्पाउंडर भी आकर खड़ा हो गया था, डिस्पेन्सरी बन्द करने की इजाज़त लेने के लिए। चपरासी भी दो बार अपना चेहरा दिखाकर जा चुका था कि कब वे संकेत करें और कब वह घर जाने के लिए सामान सेमेटे। उन्होंने शुक्र मनाया कि जब लड़की बोल रही थी तब वहाँ कोई और नहीं था। यह भी संयोग था कि लड़की सारे मरीज़ों के जाने के बाद आख़िर में आयी थी। उन्हें लगा कि उनका कम्पाउंडर उनके और लड़की के बीच किसी अस्वाभाविकता की गंध सूँघ रहा है। वे नये सिरे से विचलित होने लगे। चपरासी से बोले, “स्कूटर बाहर निकाल दो।”
इस पल वे यही निर्णय ले सके कि लड़की को घर ले चलें।
वर्षों से सोया पड़ा एक विशेष काल-खंड जैसे हड़बड़ाकर उठ बैठा था, और अब उनके दिल-दिमाग़ पर घूँसे बरसा रहा था। क्या ज़रूरत थी इस लड़की को यहाँ आने की! उनके अन्दर न जाने कब के कजरा गये द्वेष-क्रोध की राख से नई चिंगारियाँ चटकने लगी थीं।
स्कूटर से घर का रास्ता दस मिनट का था, और वे मना रहे थे कि दूरी अनन्त हो जाये . . . ग़नीमत यह थी कि इन दिनों बच्चे घर पर नहीं थे, वरना . . . लेकिन सुनीरा तो थी, उनकी पत्नी।
दरवाज़े पर ही उन्हें सुनीरा की आँखों के बड़े सवाल का सामना करना पड़ा। मगर वे बिना बोले अन्दर चले गये। उन्होंने इतना अवश्य देखा कि लड़की ने नमस्ते की थी, और सुनीरा ने गर्दन हलके ख़म से अभिवादन स्वीकार कर उसे बैठक में जाने का इशारा कर दिया था।
सुनीरा उनके पीछे-पीछे चली आयी, “कौन है यह लड़की?”
“मुझे नहीं मालूम।” भीतर दबी चिंगारी बाहर फूटी, “तुम ख़ुद जाकर पूछ लो। यह भी पूछो कि यहाँ क्या लेने आयी है।”
“क्या बात है, आप इतने उत्तेजित क्यों हो रहे हैं? कौन लड़की है यह, कहाँ से . . .?”
“कहा न, मुझे नहीं मालूम। उसी से जाकर पूछ लो!” वे तेज आवाज़ में बोले।
उन्होंने देखा, इस तरह ज़ोर से बोलने से सुनीरा के चेहरे पर सहसा असमंजस घिर आया है। उन्हें लगा, वे कुछ अधिक ही असंतुलित हो उठे हैं। पत्नी से इस तरह ज़ोर से बोलने का अर्थ? लेकिन जैसे वे पत्नी के आगे भी लड़की के परिचय का ख़ुलासा करने से बचना चाहते थे।
सुनीरा ने फिर उनसे बात करने की कोशिश की तो उन्होंने चेहरा घुमा लिया।
सुनीरा चुपचाप बाहर निकल गयी।
क्या बताएँ वे सुनीरा को? कैसे बताएँ कि वह लड़की कौन है?
क्लिनिक में हुआ अल्प संवाद उन्हें लगातार झटके दिए जा रहा था। उन्हें एकटक निहारती लड़की की वह दृष्टि। फिर उसका कहना, “मैं रामनाथ जी की लड़की हूँ।”
“कौन रामनाथ?”
“रामनाथ गुप्ता, आपके पिताजी!”
इस अप्रत्याशित के लिए वे कहीं से भी तैयार नहीं थे। उन्होंने बहुत-सी होनी-अनहोनी घटनाओं की कल्पनाएँ बुनी थीं, पर उन तानों-बानों में यह धागा कहीं नहीं था जो आज अचानक अलग निकल आया था। वे अपनी पत्नी को अपने मुँह से क्या परिचय देते लड़की का?
उनकी स्मृति में दूर कहीं दरवाज़े की साँकल बज उठी थी . . .
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उन्होंने दरवाज़ा खोला था तो एक मुस्कुराता चेहरा सामने था-उनके पिता का चेहरा। परन्तु उस चेहरे की मुस्कुराहट उन्हें पिघला नहीं सकी थी। शायद उनके मन में उतना आक्रोश नहीं था, जितना कि उन्होंने उस मुस्कुराहट के विरुद्ध अपने चेहरे पर पैदा कर लिया था। उन्होंने दरवाज़े के दोनों पल्ले अपने दोनों हाथों से पकड़ लिये थे कि सामने वाला व्यक्ति, उनका अपना पिता, घर के अन्दर न चला आए। पिता कुछ करते, इससे पूर्व ही उन्होंने सवाल किया था, “आप क्यों आये हैं यहाँ?”
जबर्दस्त असर हुआ था इस सवाल का। चेहरे की सौम्य मुस्कुराहट तिरोहित हो गयी थी और उसकी जगह ले ली थी स्याह झांइयों ने। उन्होंने निस्तेज रूखी हँसी के बीच से कहा था, “हम अपने बेटे से मिलने आये हैं।”
“यहाँ कोई बेटा नहीं रहता आपका! आप चले जाइए!”
उनके चेहरे की स्याही और गहरी हो गयी थी।
“बेटे, अपनी माँ से कहो, हम उनसे बात करना चाहते हैं।”
“माँ आपसे बात नहीं करना चाहतीं। वे आपसे नफ़रत करती हैं, वे आपकी सूरत भी नहीं देखना चाहतीं।”
उन्हें नहीं मालूम कि उस दिन उनके अन्दर क्या था, लेकिन उन्होंने माँ के आँसुओं का बदला लिया था। माँ का दिनो-दिन रोना, पिता को कोसना, फिर उन्हें छाती से लगाकर सिसकियाँ भरने लगना। माँ उनसे कहने, या उन्हें समझाने के लिए कोई भी बात शुरू करती थीं तो बात का अन्त माँ के आँसुओं से होता था। कितना लम्बा सिलसिला था यह। इस सिलसिले के चलते ही उनके मन में पिता के लिए ग़ुस्से की परत पर परत जमती गयी थी। लेकिन अब तक तो उन परतों पर भी समय न जाने कितनी परतें चढ़ा चुका था। इस लड़की ने जैसे एक ही चोट से वे सारी परतें छिन्न-भिन्न कर डाली थीं।
अब क्या कहें सुनीरा से इस लड़की के बारे में? क्या बताएँ, समझाएँ!
पर अब तक तो सुनीरा ने सब कुछ जान लिया होगा। क्या सोचेगी वह? क्या कहेगी आकर उनसे? उस लड़की से भी सुनीरा ने क्या कहा होगा? अच्छा हुआ, दोनों बच्चे यहाँ नहीं थे। रोमी या रूही में से कोई भी कुछ भी सवाल कर सकता था। तब क्या उत्तर देते वे?
सुनीरा उनके क़रीब आकर खड़ी हो गयी।
“आपने मुझे बताया क्यों नहीं?” सुनीरा ने भरसक आत्मीय आवाज़ में पूछा।
“क्या बताता तुम्हें!” वे चिड़चिड़ा गये, “तुमने पूछ तो लिया होगा।”
“आप इतने परेशान क्यों हो रहे हैं! मैंने तो वैसे ही कहा कि . . .”
“उफ, तुम,” मगर वे कुछ भी नहीं बोल सके।
सुनीरा की क्या ग़लती? वे उस पर क्यों उबल रहे हैं? पर सुनीरा उनकी मनःस्थिति का अनुमान क्यों नहीं लगा पा रही? वह इस बात को समझने की कोशिश क्यों नहीं कर रही कि इस लड़की ने उन्हें कितना विचलित कर दिया है। वे बोले, “तुमने पूछा उससे, वह क्यों आयी है यहाँ?”
“कहती है, अपने भाई-भाभी से मिलने चली आयी।”
भाई-भाभी! तो क्या वे उसके भाई हैं? उनके और उस पतुरिया की लड़की के बीच कोई रिश्ता भी जुड़ता है? वह पतुरिया . . .
माँ को पिता से इतनी शिकायत नहीं थी जितनी कि उस जादूगरनी पतुरिया से, जिसने न जाने कौन-सी मोहिनी डालकर उसके पिता को फँसा लिया था।
माँ की आँखों से आँसू निकलते थे, और मुँह से पतुरिया के लिए गालियाँ—रंडी . . . डाकिनी . . .
बचपन से ही उनके भीतर औरत के रूप के दो छोर तन गये थे—एक पर थी उनकी माँ, उन्हें बार-बार छाती से लगा लेने वाली, उनकी हर ज़रूरत के प्रति सतर्क सावधान रहने वाली, और उनके नन्हे मस्तिष्क में डॉक्टर बनने का बड़ा सपना रोपकर नित्यप्रति पढ़ने-लिखने को प्रेरित कर उस सपने को सींचनेवाली, और दूसरे छोर पर थी वह पतुरिया जिसने उनके पिता को वश में कर माँ का सब कुछ लूट लिया था, जो बहुत ही बुरी औरत थी, ऐसी कि जिन्हें अच्छे घरों में आने तक नहीं दिया जाता, और भले लोग जिनकी परछाइयों तक से बच कर चलते हैं। उनका पितृहीन बचपन बहुत पीछे छूट गया था, पर यह ख़्याल कभी भी पीछे नहीं छूटा कि उनके पिता एक बाज़ारू औरत के चक्कर में फँस गये थे। कोई भी भला आदमी बाज़ारू आँखों से बचकर चलता है, किन्तु उसके पिता नहीं बचे थे। और पिता को लेकर उनके मन में यह क्षोभ सबसे बड़ा था।
“सुनो, उससे कुछ कहना मत,” सुनीरा बोली।
“किससे?”
“उस लड़की से। मुझे तो वह बहुत मासूम लगती है . . .”
हाँ, शायद तभी वे क्लिनिक में उससे कुछ नहीं बोल पाये थे। लेकिन लड़की के मासूम होने से ही तो वह सब कुछ ख़त्म नहीं हो जाता। वे बोले, “वह ज़रूर किसी मतलब से आई होगी। नागिन की बेटी है, वैसे नहीं आ सकती . . . ” उन्हें लगा, वर्षों बाद भी उनके अन्दर काफ़ी ज़हर भरा रह गया है।
“ऐसा लगता तो नहीं कहती है कल सुबह ही चली जाएगी। मुझे तो उस पर तरस आने लगा है।” सुनीरा की आवाज़ आकंठ सहानुभूति है, “आप उससे कुछ कहना नहीं।”
“तो क्या तुम मुझे जानवर समझती हो,” वे एकदम झुँझला उठे।
“आप इतने असहज क्यों हो गये हैं? अगर वो किसी मतलब से आयी होगी तो मालूम हो ही जाएगा। फ़ालतू में इतने परेशान क्यों होते हैं?”
“तुम नहीं समझतीं . . .” फिर वे स्वयं ही नहीं समझ सके कि जो उनके अन्दर था, उसे किस तरह किसी को समझाया जा सकता था। वह सब कुछ तो जैसे मात्र अनुभूति के स्तर पर था जिसकी शब्दों में व्याख्या सम्भव नहीं थी। लेकिन सुनीरा क्या सचमुच उनके मानसिक उद्वेलन को नहीं समझ रही? जबकि सुनीरा से कुछ भी छुपा नहीं था।
“आप नहा-धो लीजिए, फिर खाना लगाती हूँ। और आप चाय तो नहीं पिएँगे?”
उन्हें सुनीरा का इस तरह पूछना निहायत असंगत लगा? वह जानती है कि शाम को क्लिनिक से लौटकर वे खाना ही खाते हैं, उससे पहले कुछ नहीं लेते। पर तत्क्षण वे समझ गये कि सुनीरा उस लड़की के लिए चाय बनाने जा रही है, इसलिए ही उनसे . . . फिर उन्हें लगा कि उन्हें एक कप गर्म चाय की ज़रूरत है। वे बोले, “पी लूँगा . . .”
सुनीरा ने उन्हें कुछ हैरत से देखा, मगर बिना कुछ बोले मुड़ गयी। फिर एकाएक पलटी और बोली, “आप यहाँ क्यों खड़े रह गये, वहीं बैठक में बैठिए न चलकर।”
वे कपड़े बदल चुकने के बावजूद अन्दर ही खड़े रह गये थे। अन्यथा आदतन सोफ़े की पुश्त से पीठ टिकाकर कुछ देर आराम से बैठते थे, तब नहाने जाते थे। यह अजीब स्थिति थी कि वे स्वयं अपनी बैठक में जाने से कतरा रहे थे। डर-संकोच तो यहाँ आते समय उस लड़की को होना चाहिए था, वे क्यों . . . वह भी अपने ही घर में। इस तर्क में उन्होंने अपनी असहजता पर क़ाबू पाने की कोशिश की और बैठक की ओर चल पड़े।
लड़की उन्हें बैठक में आया देख सकपकाकर खड़ी हो गयी। एक झलक में ही उन्होंने देख लिया कि लड़की के चेहरे पर उनसे अधिक असहजता थी। लड़की की घबराहट देखकर एक क्रूर क़िस्म का परितोष मिला उन्हें, शायद वैसा ही जैसा अपने पिता को बाहर से वापस लौटाकर मिला था।
लड़की कभी उनकी ओर देखती थी, और कभी उनसे दृष्टि बचाकर इधर-उधर देखने लगती थी, शायद अत्यधिक घबराहट के कारण ही। अपने मॉड पहनावे के बावजूद उसके चेहरे पर शिशुवत भोलापन था। सुन्दर चेहरे पर बड़ी-बड़ी आँखें, और स्याह आँखों में घबराहट की झाँइयाँ। उनकी सहज मानवीयताजन्य करुणा सुगबुगाती कि उनका अपना शैशव आँखों के आगे आ खड़ा हुआ। लगा, उनकी माँ से और उनसे उनके बहुत से अधिकार छीनने में इस लड़की की भी साझेदारी है।
माँ और पिताजी के बीच का रिश्ता एक बारगी ही टूटकर हमेशा-हमेशा के लिए टूट गया होता, और वे एक झटके में ही माँ के पाले में खड़े रह गये होते तो क्षति का अहसास शायद इतना उग्र नहीं होता और न शायद उनके भीतर नफ़रत और ग़ुस्से की इतनी परतें तहा गयी होतीं। वह रिश्ता तो उनके शैशव से लेकर कैशोर्य तक माह-दर-माह, साल-दर-साल टूटा था।
पिता के बारे में उनकी प्राथमिक शिशु चेतना यही थी कि पिता कई-कई दिन बाद घर आते हैं। जब भी घर आते हैं उनके आगे ढेर सारे खिलौने, फल-बिस्कुट उड़ेल देते हैं, उन्हें कन्धे पर बिठा लेते हैं, और कन्धे पर बिठाए-बिठाए ही घर-बाहर के कई चक्कर लगा आते हैं, उनके साथ गेंद-बल्ला खेलते हैं, दौड़ते-भागते हैं, और कभी-कभी उन्हें ज़ोर-ज़ोर से हवा में उछालने लगते हैं। पिता जाने लगते हैं तो वे भी उनके साथ जाने के लिए मचलने लगते हैं। माँ की तमाम फुसलाहटों के बीच उनका मचलना नहीं रुकता। पिताजी उनसे छुपकर निकल जाते हैं। और वे कई-कई दिन तक माँ से पूछते रहते हैं—माँ पिताजी कब आएँगे?
“अरे, आप लोग खड़े क्यों है?”
सुनीरा चाय ले आयी थी। वे प्रकृतस्थ हुए। वे स्वयं भी खड़े रह गये थे, अगर वह लड़की उन्हें देखकर खड़ी हुई तो बैठी ही नहीं थी।
“तुम तो बैठो!” सुनीरा ने लड़की से साग्रह कहा। उसने चाय की ट्रे टेबल पर रख दी थी।
सुनीरा ने चाय का कप लड़की की ओर बढ़ा दिया। कप पकड़ते हुए लड़की का हाथ काँपता-सा लगा। स्वयं उनके भीतर भी न जाने कितना-कुछ डूब-उतराने लगा था। उन्हें लगा कि इस लड़की के सामने बैठे रहकर वे अपनी सायास सहजता को अधिक देर तक टिकाए नहीं रख पाएँगे . . .
“तुम पढ़ रही हो अभी?”
“जी।”
“दिल्ली में ही न?”
“जी।”
“किस क्लास में?”
“बी.ए. का पहला साल है।”
वे उठने लगे थे, परन्तु सुनीरा के सवालों ने उनकी अपनी उत्सुकता को कुरेद दिया। फिर वे एक सजग श्रोता की तरह बैठे रह गये।
सुनीरा को संवाद आगे बढ़ाने में बाधा महसूस हो रही थी। शायद उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि आगे क्या पूछे। अल्प चुप्पी के बाद वह बोली, “तुम्हारी माँ कैसी हैं?”
“जी!” लड़की ने अजीब-सी दृष्टि से सुनीरा को देखा।
“तुम्हारी मम्मी ठीक हैं?”
“जी वे तो . . . पिछले साल उनकी डेथ . . .”
“ओह, सॉरी! दरअसल . . .!” सुनीरा चुप हो गयी।
शायद लड़की की दृष्टि का मतलब यही था ‘आपको नहीं मालूम।’ मगर उन लोगों को मालूम होने की बात तो कहीं से भी पैदा नहीं होती थी। उन्होंने तो न जाने कब के सारे सूचना स्रोत तोड़ दिये थे। वे तो उस औरत के बारे में एक शब्द भी नहीं सुनना चाहते थे। भूले-भटके कभी कोई उनके पिता या उस पतुरिया का ज़िक्र छेड़ बैठता था तो वे बेलिहाज डाँटकर अगले को चुप करा देते थे। पर इस समय उस पतुरिया की मृत्यु की सूचना को उन्होंने किस स्तर पर ग्रहण किया है, वे स्वयं तय नहीं कर पाये। वे इतने बर्बर तो नहीं हैं कि किसी की मौत को अपनी प्रसन्नता की वजह बन जाने दें। लेकिन यह लड़की अब किसके पास रहती है?
सुनीरा कुछ पल के लिए मौन हो गयी, निश्चित ही उस शोक समाचार के प्रति सम्वेदना प्रकट करने के लिए। फिर बोली, “अब तुम किसके पास मेरा मतलब और कौन-कौन हैं घर में?”
“जया दीदी थीं, वे अमेरिका चली गयीं।”
“अमेरिका।”
“जी जीजाजी वहीं हैं। अभी छह महीने पहले ही शादी हुई है उनकी।”
इधर ‘जया’ नाम उनके सोच में अटक गया था। ‘जया’, बिल्कुल उनके नाम ‘जय’ की तर्ज़ पर! उनका नाम पिता ने ही रखा था, जया नाम भी ज़रूर पिता ने ही रखा होगा! और इस लड़की का नाम?
“अरे मैं तो तुम्हारा नाम पूछना ही भूल गयी,” सुनीरा अपनी ग़लती स्वीकारती-सी बोली।
“जी, विजया!”
जया और विजया! अगर उनकी अपनी बहनें होतीं तो शायद यही नाम होते उनके। या उनका भाई होता तो शायद उसका नाम विजयेन्द्र ही होता . . . विजया ने अचानक उनकी ओर देखा। दृष्टि मिली। फिर झट से उसने आँखें झुका लीं। अगर वह एक क्षण और उनसे दृष्टि मिलाए रखती तो शायद वे भी यही करते।
”तो तुम दिल्ली में अकेली रहती हो? मेरा मतलब, घर में . . . दिल्ली में तुम्हारा घर है न?”
“जी, घर तो किराए पर उठा दिया है। मैं होस्टल में रह रही हूँ . . .”
“घर होते हुए होस्टल में क्यों?”
“घर में कई प्रॉब्लम होती हैं, अकेले रहने से। सारा घर सँभालना . . .”
“हाँ, वह तो है।”
विजया ने ख़ाली कप टेबल पर रख दिया था। कप उनका भी ख़ाली हो चुका था, लेकिन वे उसे अभी तक हाथ में लिये हुए थे। उन्होंने कप टेबल पर रखा तो सुनीरा बोली, “आप नहा-धो लें, मैं खाना लगाती हूँ।”
“हूँ!” उनके मुँह से मात्र इतना ही निकला।
“तुम भी नहा लो,” सुनीरा विजया से बोली, “सफ़र की थकान उतर जाएगी।”
“जी।”
“आप उठिए ना,” सुनीरा ने फिर उनसे कहा।
“मेरे कपड़े।”
“वह सब बाथरूम में हैं।” सुनीरा ने उनकी ओर देखा। उसकी दृष्टि उन्हें एक बार फिर अपनी असहजता का अहसास करा गयी।
वे समझ गये कि कपड़ों के बारे में पूछना निहायत ही बेतुका था।
नहाने के बाद पहनने के कपड़े उनकी पत्नी हमेशा उनके आने से पहले ही बाथरूम में रख देती थी। वे उठे और बाथरूम की ओर चल पड़े।
शावर की धार और पतुरिया की मृत्यु की सूचना के नीचे भी उनके भीतर होते विस्फोट ठण्डे नहीं हो रहे थे। पिता और उस पतुरिया के प्रति नफ़रत का बारूद जो वर्षों तक इकट्ठा हुआ था, अभी भी पूरी तरह क्षमता विहीन नहीं हुआ था। हर विस्फोट में से कोई दृश्य उगकर उनकी आँखों में कौंध जाता था। उन्हें याद नहीं कि पिता की प्रतीक्षा की ललक उनके अन्दर से कब ख़त्म हो गयी थी। ख़त्म हुई भी थी या नहीं पर पिता लम्बे अन्तरालों पर आने लगे थे, और पिता आते थे तो वे उनके द्वारा लायी गयी भेंट वस्तुओं की ओर न देखकर, माँ की बग़ल में खड़े हो जाते थे कि वे भी पिता से वही सब करें जो माँ कहती थी। वे कह नहीं पाते थे मगर माँ के कथन को जैसे उनका मौन समर्थन मिला होता था। यह उनकी शुरूआती समझ थी, या समझ की शुरूआत, पर उन्हें लगता था, माँ ठीक वही कह रही है जो वे कहना चाहते थे, “तुम ये टीन-काठ लेकर किसे बहलाने आते हो? कोई भूखा नहीं बैठा यहाँ तुम्हारी इस सौग़ात का!”
“मैं तेरे लिए नहीं, अपने बेटे के लिए लाया हूँ,” पिता कुछ तेज़ आवाज़ में बोलते थे तो माँ की आवाज़ और भी उग्र हो जाती थी, “बेटा है तुम्हारा, उसके लिए ये लोह-लंगड़ लाकर धरम पूरा हो जाता है तुम्हारा। उसे नहीं चाहिए ये उपहार!”
माँ तब उनकी बाँह थाम लेती थी और रोती-बिलखती पूछती थी, “बोल, तुझे चाहिए ये सब, बोल चाहिए!”
और वे पिता की ओर शिकायती नज़र से देखते हुए माँ से सट जाते थे। उनके अन्दर पिता द्वारा लायी गयी वस्तुओं के लिए मोह जागता था किन्तु वे जबर्दस्ती उसे दबाकर पिता की ओर ग़ुस्सैल नज़रें जमाए रहते थे। वे समझ गये थे कि उनका मौन पिता को पूरी तरह परास्त कर देता है।
“मेरे और अपने बीच बेटे को क्यों घसीटती है?”
“तुम मेरे और अपने बीच जाने किस-किस पतुरिया को घसीटते रहते हो, मैं अपने बेटे को भी न घसीटूँ। मेरा तो यही एक सहारा है। तुम उसे भी मुझसे छीन लेना चाहते हो?” माँ कहतीं तो उनका मन माँ के लिए गहरी हमदर्दी से भर जाता।
ऐसे ही किसी प्रसंग में पिता ने कहा था, “मैं क्या अपने बेटे से भी मिलने नहीं आ सकता?”
“बेटे से मिलने से तुम्हें कौन रोकता है? आदमी की तरह घर में रहो। अपने औरत-बच्चे को छोड़कर कौन आदमी इधर-उधर मुँह मारता है? कौन अपना घर छोड़कर तुम्हारी तरह गैल-घाट घूमता है? तुम्हें तो यह घर काटता है।”
“घर नहीं काटता, तू काटती है!” और उस दिन पिता पिछली बारों की तरह बिना रुके, बिना पानी पिये वापस लौट गये थे।
“आप नहा लिये कि नहीं!” सुनीरा की आवाज़ ने उन्हें चेताया।
वे पानी की फुहार में खड़े थे। अन्दर सूखी-गीली बारूद चिटचिटा रही थी। क्यों चली आयी यह लड़की उनकी मानसिक शान्ति भंग करने?
वे तौलिए से अपना शरीर सुखाने लगे।
दुबारा वे बैठक में आये तो विजया बाथरूम में जा चुकी थी।
सुनीरा सब्ज़ी की टोकरी बैठक में ही ले आयी थी, और सब्ज़ी काट रही थी। उसका चेहरा किसी अपरिचित भाव से विगलित हो रहा था।
उन्होंने पूछा, “तुम्हें क्या हुआ?”
“मुझे, मुझे क्या हुआ!” सुनीरा ने उनकी ओर देखा तो उसकी आँखों में कुछ अधिक ही नमी तिरती लगी।
वे बोले, “कुछ असली इरादा मालूम पड़ा उसके यहाँ आने का?”
“मैं क्या पूछू उससे? आप ही पूछिए न! मुझे तो उसने कोई नई बात बताई नहीं।”
“तुमसे और क्या बात करती रही?”
“बच्चों के बारे में पूछ रही थी।”
“क्या बताया तुमने?”
“बताती क्या, यही बताया कि रूही मामा के यहाँ गयी है, और रोमी कॉलेज के टूर में गया है। और क्या।”
“अच्छा हुआ बच्चे घर में नहीं हैं।”
सुनीरा ने सिर्फ़ उनकी ओर देखा, कोई जवाब नहीं दिया।
वे बोले, “कोई न कोई वजह ज़रूर होगी, वरना इतने दिनों बाद क्यों आती . . .”
“बता रही थी, पहले भी कई बार आना चाहा था। एक बार तो दोनों बहनें बिना बताए यहाँ आने लगीं थी, पर ऐनवक़्त पर उनकी माँ को पता लग गया, तो नहीं आ सकी। उनकी माँ नहीं चाहती थी कि वे यहाँ आएँ। उसे डर था कि . . .”
“क्या डर था?”
“यही डर था कि आप डाँट कर भगा देंगे।”
“वह औरत इतनी समझदार तो थी,” उनके अन्दर का ज़हर फिर बाहर फूटा। उस पतुरिया को इतना डर तो बना ही रहना था।
जिस दिन उन्होंने पिता को दरवाज़े से वापस लौटाया था, पिता अकेले नहीं थे। वह पतुरिया उनके साथ थी। उन्होंने पिता पर तो सिर्फ़ ग़ुस्सा ही निकाला था, पर उस पतुरिया को गालियों की बौछार से छलनी कर दिया था, “ये पतुरिया इस घर में नहीं आ सकती। इसने माँ का सारा सुख चैन लूट लिया। हमारा सब कुछ डस गयी। अब क्या लेने आयी है यहाँ . . .”
उस दिन उन्होंने ख़ालिस अपनी माँ की शब्दावली का इस्तेमाल किया था। माँ उस समय घर पर नहीं थीं। मन्दिर में कथा सुनने गयी थीं। जब लौटी थी तो उन्होंने पिता और उस पतुरिया को खरी-खोटी सुनाकर बाहर से ही लौटा देने की अपनी शौर्य गाथा सुनाई थी। सुनकर माँ के चेहरे पर जो कुछ बना-बिगड़ा था, उससे उन्होंने यही अर्थ लगाया था कि माँ को अच्छा ही लगा है।
“कल जा रही है न यह लड़की?” इस प्रश्न के साथ ही जैसे उन्होंने उन दोनों को दरवाज़े से वापस लौटा देने की वर्षों पहले की उस कड़ी को आज इस लड़की से जोड़ दिया था।
“जा रही है,” सुनीरा की आवाज़ बेहद ठण्डी थी, जैसे उसे यह बात जबरन कहनी पड़ रही हो, “कह रही थी, अगर अभी कोई बस मिल जाती तो . . .”
“देखो, मैं भी आदमी हूँ। तमीज़, तहज़ीब मैं भी जानता हूँ, पर मैं यह . . . न मेरा उसकी माँ के साथ कोई रिश्ता था, न बाप के साथ। मैं . . . मैं तकलीफ़ फिर से नहीं झेलना चाहता।”
“लेकिन आप मुझसे क्यों कह रहे हैं यह सब! मैं तो कुछ कह ही नहीं रही हूँ।”
“पर तुम . . .” उनकी बात अधूरी रह गयी।
विजया बैठक के दरवाज़े पर ठिठक गयी थी।
“अरे, वहाँ क्यों रुक गयी! आओ, निकल आओ!” सुनीरा के चेहरे की क्षणांश पूर्व की ठंडक एक चटख मुस्कुराहट के नीचे दब गयी।
तो क्या विजया ने वह सब सुन लिया था, या सिर्फ़ आख़िरी वाक्य पर ही वहाँ आकर खड़ी हुई थी? उन्होंने विजया की ओर देखा तो उसकी भावविहीन भंगिमा से कोई अनुमान नहीं लगा पाए। सुन भी लिया हो तो उनकी बला से! उनके ऊपर क्या फ़र्क़ पड़ता है?
सुनीरा अब कटहल छील रही थी।
“लाइए, मैं छील दूँ।” विजया ने हाथ आगे बढ़ाया।
“अरे नहीं, तुम बैठो। दो मिनट का काम है। बच्चे होते हैं, तो काम दिखाई देता है। इधर तो मैंने नौकरों की भी छुट्टी कर रखी है . . . तुम्हें कटहल अच्छा तो लगता है न?”
“जी।”
“कभी बनाया है?”
“जी, पापा को बहुत अच्छा लगता था। मैं तो बहुत छोटी थी, फिर भी दीदी के साथ बनाने बैठ जाती थी। पापा भी हमारे पास बैठ जाते थे . . .” एकाएक वह चुप हो गयी।
उन्हें लगा क्षणभर को विजया उनकी उपस्थिति को बिसरा गयी थी, तभी उसकी आवाज़ में उत्साह छलक आया था। अब फिर उसे पर सकपकाहाट तारी हो गयी थी।
विजया के इस बदलाव को सुनीरा ने भी लक्ष्य किया था, शायद इसीलिए वह बोली, “अच्छी बात है, आज तुम्हीं सब्ज़ी बनाना। देखें, कितनी स्वादिष्ट बनेगी,” सुनीरा की इस अपनत्वभरी अनौपचारिकता से विजया की सकपकाहट छँटती-सी लगी। लेकिन उन्हें अपनी पत्नी का यह खुला व्यवहार अच्छा नहीं लगा।
“होस्टल में रह कर तो तुम्हारा खाना बनाने का अभ्यास छूट गया होगा न?”
“नहीं, मैं तो कभी-कभी होस्टल के मैस में जाकर . . .”
“महाराजिन का हाथ बँटा देती हो।”
सुनीरा की टिप्पणी पर विजया के कपोलों पर महीन-सी मुस्कुराहट बिछ गयी। उन्हें इस मुस्कुराहट में कुलीन क़िस्म की शालीनता का आभास मिला। लगा, कमरे में हल्का उजास भर गया हो। विजया ने एक उड़ती-सी दृष्टि उन पर डाली, और उन्हें अपनी ओर देखता पाकर गर्दन घुमा ली। फिर उसकी दृष्टि धीरे-धीरे बैठक में घूमने लगी, गोया उसका उनकी ओर देखना बैठक की सज्जा-वस्तुओं पर दृष्टिपात करने का ही हिस्सा रहा हो!
उन्होंने देखा, विजया माँ के तैलचित्र को देखे जा रही थी। वह सुनीरा से बोली, “ये बड़ी माँ की तस्वीर है न?”
बड़ी माँ। सुनीरा ने चौंक कर उस लड़की की ओर देखा, और स्वयं उन्हें लगा, जैसे यह शब्द उनके ध्यान प्रवाह के आगे एक बजनी चट्टान की तरह छपाक से गिरा है।
“हाँ, उन्हीं की है।” सुनीरा अभी भी विजया को विस्मय और अविश्वास की दृष्टि से देखे जा रही थी।
सुनीरा की प्रतिक्रिया उसकी आँखों में उतर आयी थी, और उन्हें साफ़-साफ़ दिख भी रही थी। किन्तु उनकी अपनी प्रतिक्रिया इतनी जटिल और उलझी हुई थी कि चेहरा या आँखें उसे जस-का-तस बाहर नहीं दिखा सकते थे। बस वे इतना स्पष्ट महसूस कर रहे थे कि वे यह शब्द सुनने को तैयार नहीं थे।
इस लड़की को क्या अधिकार कि उनकी माँ के प्रति इतना आदर-सम्मान दिखाए! उस पतु . . . लेकिन पतुरिया शब्द जीभ की तरह दाँतों के बीच आकर कट गया।
“मैं सब्ज़ी चढ़ाकर आती हूँ,” सुनीरा बोली।
विजया झटके से उठ खड़ी हुई, “जी मैं भी साथ चलती हूँ।”
इस तरह उठने के पीछे, अपने साथ उसके अकेले रह जाने की बोझिल स्थिति से बचने की हड़बड़ाहट उन्होंने साफ़-साफ़ देखी।
विजया खाना बनने तक रसोईघर में सुनीरा के साथ ही बनी रही। उन दोनों की बातचीत की अस्पष्ट ध्वनियाँ उन तक आती रहीं। कानों को उस दिशा में समाधिस्थ कर देने के बावजूद वे साफ़-साफ़ कुछ नहीं सुन पा रहे थे। मन हुआ कि उठें, और रसोईघर से लगकर बातचीत सुनें। पर वे अपने गरिमागत व्यवहार की शालीनता का अतिक्रमण करने का साहस नहीं जुटा सके।
अपने तक पहुँचती ध्वनियों में उन्हें द्विपक्षीय आत्मीयता के गहराते जाने की प्रतीति हो रही थी। उन्हें अपनी पत्नी पर ग़ुस्सा भी आ रहा था। इसे क्या ज़रूरत है उस लड़की से इतनी अन्तरंगता प्रकट करने की—उस पतुरिया की लड़की से? पर इस बार ‘पतुरिया’ शब्द जैसे अपनी सारी उग्रता ही खो बैठा था।
खाने की मेज़ पर बैठे तो रसोईघर की आत्मीयता भरी आवाज़ें एक असहज मौन के नीचे दब गयीं। बैठक में सुनीरा और विजया के बीच उनकी उपस्थिति में जो औपचारिक बातचीत हो रही थी, वह भी अब बन्द थी। केवल डोंगों, प्लेटों और चम्मच-चपातियों की आवाज़ें ही खाने की मेज़ से उठ रही थीं। जब कोई भी आवाज़ नहीं होती थी तो उन्हें अपने भीतर से तेज़ शोर उठता महसूस होता था। यह शोर उनके मस्तिष्क की शिराओं में पहुँचकर जबर्दस्त मरोड़े देने लगता था।
वे दोनों भी उन्हीं की जैसी मनःस्थिति से गुज़र रही हैं, उन्होंने सोचा उन्हें लग रहा था, मेज़ पर खाने की औपचारिकता बेहद रस्मी ढंग से पूरी की जा रही थी। सुनीरा से घर-बाहर की उनकी सारी बातें खाने की मेज़ पर ही होती थीं, परन्तु आज अभी तक उनके बीच एक भी सार्थक वाक्य का आदान-प्रदान नहीं हुआ था। खाना कुछ पहले ही ख़त्म कर वे उठ खड़े हुए। फिर बाहर आकर लॉन में टहलने लगे।
‘बड़ी माँ’ शब्द अभी भी उन्हें बेचैन किए जा रहा था। और यह बेचैनी उन्हें अपने बच्चों के पास ले जा रही थी . . .
यह संयोग ही था कि रूही और रौनी नहीं थे, वरना वे क्या कैफ़ियत देते इस लड़की की? अगर वे भी इसके मुँह से अपनी दादी के लिए ‘बड़ी माँ’ सम्बोधन सुनते तो न जाने कितना कुछ जानने की जिज्ञासा उनकी आँखों में उमड़ती। तब क्या करते वे? उन्होंने एक बार फिर शुक्र मनाया कि बच्चे घर में नहीं थे। पर सुनीरा उस लड़की के प्रति इतनी सदय क्यों हो उठी है? मन हुआ कि सुनीरा को ज़ोरों से लताड़ें। मगर किस बहाने से? वे देर तक टहलते रहे मगर उन्हें कोई बहाना नहीं सूझा। उन्हें अब थकान महसूस हो रही थी। हालाँकि नींद नहीं आ रही थी, फिर भी बिस्तर पर जा लेटने की इच्छा हो रही थी।
वे ही मिली-जुली आत्मीयता भरी ध्वनियाँ अब उनके सोने के कमरे से आ रही थीं। वे बाहर ही खड़े होकर बातचीत सुनते कि अन्दर मौन छा गया। शायद पदचाप ने उन लोगों को बाहर उनकी उपस्थिति का अहसास करा दिया था। उन्हें बाहर ठहरना ओछापन लगा, और वे अन्दर प्रवेश कर गये।
सुनीरा ने विजया का बिस्तर भी इसी कमरे में लगा दिया था। एक बार फिर तीव्र इच्छा हुई कि सुनीरा को ज़ोरों से डाँटें। क्या इस लड़की को किसी दूसरे कमरे में नहीं सुलाया जा सकता था? अगर यह लड़की अकेली नहीं सो सकती थी तो सुनीरा ही सोने के लिए दूसरे कमरे में चली जाती, तब कम से कम वे तो चैन की नींद सोते . . . पर इनमें से किसी भी कारण के लिए सुनीरा को डाँटा नहीं जा सकता था। वे स्लिपर उतार कर अपने बिस्तर पर लेट गये। आँखें बन्द कर लीं। कमरे में तीन-तीन जागे हुए लोगों के बावजूद पूरी तरह निस्तब्धता व्याप्त थी . . .
अचानक ही उनकी नींद टूटी। और जगने के साथ ही उनकी प्रथम अनुभूति थी कि कमरे में निस्तब्धता नहीं, बातचीत की अनुगूँज भरी हुई है। इस अनुगूँज ने ही उनके अवचेतन को थाप दे-दे कर चैतन्य कर दिया था।
“तो तुम्हारे यहाँ हम लोगों की बातचीत होती थी?” सुनीरा की आवाज़ धीमी थी, मगर एक-एक शब्द इतना स्पष्ट था कि उनकी नींद की बची-खुची ख़ुमारी के आर-पार फूट गया। उनकी हर इन्द्रिय चौकन्नी होकर विजया के उत्तर के लिए तैयार हो गयी थी।
“जी, अक्सर आप लोगों की बातचीत होती थी। पापा आप लोगों को बहुत याद करते थे।”
“मुझे भी?”
“जी।”
“पापा को मालूम थी हमारी शादी की बात?”
“जी, यहाँ पापा के एक दोस्त रहते थे। वो हमारे यहाँ आते थे तो आप लोगों की बात बताते थे।”
“तुम्हारी मम्मी को बुरा नहीं लगता था?”
“नहीं, वे तो ख़ुद आप लोगों से मिलना चाहती थीं, पर डरती थीं कि . . .” विजया चुप हो गयी।
इस चुप्पी ने उसकी बात को कहीं अधिक सीधे तरीक़े से उन तक पहुँचाया–मम्मी डरती थीं कि वे मम्मी को बेइज़्ज़त करेंगे, गाली-गलौज करेंगे, लताड़ेंगे . . . विजया ने शायद ये ही शब्द होंठों के बीच रोक लिए थे।
वह बोली, “पापा जब बीमार थे, तब भाई साहब को और आपको बहुत याद किया था। वे आपको एक बार देखना चाहते थे। दीदी ने लैटर भी लिखा था, पर शायद यहाँ मिला नहीं . . .”
उफ़! वे अन्दर ही अन्दर तिलमिला गये। यह लड़की सोचती है कि पत्र मिलता तो वे दौड़े चले आते। या सुनीरा को उसकी उस क्रूरता के अहसास से बचाना चाहती है कि पत्र मिला, और फिर भी वह अपने बीमार श्वसुर को देखने नहीं आयी। इच्छा हुई कि चीख कर कहें, हाँ वह पत्र मिला था, और उसके बाद वह तार भी, पर मैं क्यों आता, सुनीरा क्यों आती? किस लिए? उस व्यक्ति के साथ मेरा कौन-सा सम्बन्ध शेष रह गया था जिसके लिए मैं वहाँ जाता? अब उनकी नींद पूरी तरह उड़ गयी थी। पर वे अपने सोये रहने का उनका भ्रम नहीं तोड़ना चाहते थे। उनकी जिज्ञासा हर दूसरे ख़्याल पर हावी हो गयी थी। उन्हें अफ़सोस हुआ कि वे सोये ही क्यों? इस बीच इन दोनों के बीच न जाने कितनी कुछ बातें हुई होगी!
“एक बात पूछूँ?” सुनीरा बोली।
“जी।”
उनकी जिज्ञासा फिर तन गयी। ऐसा क्या पूछना चाहती है सुनीरा?
“पापा तुम्हें बहुत प्यार करते थे?” सुनीरा ने पूछा।
कैसा सवाल है यह? क्या जानना चाहती है सुनीरा?
विजया बोली, “पापा हमें बहुत प्यार करते थे। हमें बहुत अच्छा लगता था उनके साथ। पापा के साथ जितना खुलापन महसूस होता था, उतना तो अपनी फ़्रेन्ड्स के साथ भी नहीं होता था। पापा को जब भी वक़्त मिलता था, वे हमारे साथ खेलने बैठ जाते थे। हम पैसों से रमी खेलते थे, फ़्लैश खेलते थे तो पापा हमसे बच्चों की तरह झगड़ा करते थे। कभी तो ताश छिपाकर बेइमानी भी कर जाते थे। हमारा ख़ूब झगड़ा होता था पापा से,” विजया का गला भर आया। फिर उसकी हल्की-हल्की सिसकियाँ सुनाई पड़ने लगीं!
“अरे, यह क्या! मैंने तुम्हारा मन दुखा दिया।”
सिसकियाँ कुछ और तेज़ हो गयीं। इन सिसकियों के बीच से फिर एक कालखंड निकलकर उनके समक्ष खड़ा हो गया . . .
उस दिन पापा उन्हें तीन मील दूर नदी पर ले गये थे, साइकिल पर बिठाकर।
वह दिन बन्धनविहीन उन्मुक्तता का उनका एक मनचाहा दिन था। वे बगुलों, तुतवारियों, टिटहरियों को पकड़ने दौड़ते थे, नदी में कूदते थे, और पास आए मछलियों के झुण्ड को देखकर बाहर भागते थे। पिता उस दिन उनके साथ हम उम्र बच्चे की तरह खेलते रहे थे। जितनी बार उन्होंने पिता के ऊपर रेत फेंका था, पिता ने उतनी ही बार उन्हें उठा-उठाकर नदी में फेंका था। वे पिता की पकड़ से बचने के लिए भागते थे, और पिता उनकी रेत की मार से बचने के लिए। मौक़ा मिलते ही वे पिता पर पानी उछालने लगते थे और पिता उन पर। पर सारे खेल के दौरान पिता ने उन्हें नदी में एक निश्चित दूरी से आगे नहीं जाने दिया था। पिता ने जब वापस चलने के लिए कहा था, तो वे ज़िद करने लगे थे कि अभी और खेलेंगे। उसके बाद पिता तभी चले थे जब स्वयं उन्होंने चलने के लिए कहा था।
उस दिन उन्हें सर्दी का असर हो गया था। माँ ने लौटते ही पिता को इतनी देर लगाकर आने और बेटे को इतनी देर तक भूखा-प्यासा रखने का उलाहना दिया था। उन्होंने कहा कि उन्हें भूख नहीं लगी तो माँ ने उन्हें भी झिड़क दिया था। फिर जब रात को खाँसी उठने लगी थी तो माँ ने उन्हें बीमार करने का दोष भी पिता पर मढ़ दिया था। वे न जाने क्या-क्या बड़बड़ाती रही थीं। तब शायद पिता इस अपराध बोध के कारण ही चुप रहे होंगे कि उनके कारण बच्चे की तबियत बिगड़ गयी थी। किन्तु उन्हें माँ का बड़बड़ाना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा था। बल्कि वे उस दिन माँ के पास से उठकर पिता के पास सोने की ज़िद करने लगे थे। उन्हें अच्छी तरह याद था, तब माँ ने उन्हें सो जाने के लिए चाँटा मारने की धमकी दी थी। लेकिन इस धमकी के बावजूद वे पिता के पास ही जाकर सोए थे।
अचानक ही उन्हें लगा, पिता के प्रति उनका आक्रोश सिर्फ़ माँ के कारण ही नहीं था। पिता के दूर चले जाने से, उनका अपना एक बड़ा सुख छिन गया था, बरगद की घनी छाया के नीचे निश्चित होकर मनमाना खेलने जैसा उछाह भरा सुख। शायद इसीलिए वे पिता को माफ़ नहीं कर सके। पिता ने उनका दाय दूसरों को दे दिया था—जया, विजया को।
विजया की सिसकियाँ थम गयी थीं। कमरे में फिर चुप्पी व्याप गयी थी।
“भाभी जी, बड़ी माँ हमारी बात करती थीं कभी?” विजया ने पूछा। उसका यह सवाल निश्चित रूप से सुनीरा के इसी तरह के सवाल की प्रतिक्रिया में था।
“नहीं।”
नहीं! मुनीरा झूठ बोल रही है। बड़ी माँ जिस तरह याद करती थीं, उसे सुनीरा बता नहीं सकती। इसीलिए झूठ बोल रही है। दिन में कई-कई बार कोसने निकालना, और हर छोटी-बड़ी परेशानी का ज़िम्मेदार पिता और उस पतुरिया को ठहराना भी तो याद करना ही था। पर इस तरह याद करने को विजया के सामने कैसे कहे? फिर उन्हें लगा, सुनीरा ने झूठ बोल कर उनकी रक्षा की है। सच बोल देती तो उनकी माँ को ‘बड़ी माँ’ कहने वाली उस लड़की के आगे वे बहुत बौने हो जाते। और इस लड़की के साथ-साथ वह भी बहुत बड़ी हो जाती वह औरत, इस लड़की की माँ। ‘पतुरिया’ शब्द उनके सोच पर बहुत भारी हो गया था। “भाभी जी, बड़ी माँ और पापा में झगड़ा क्यों हुआ, आपको पता है?”
विजया के इस सवाल ने उनकी चेतना को हर छोर पर तान दिया।
इस सवाल का क्या जवाब देगी सुनीरा? उनसे पूछा गया होता तो वे ही क्या उत्तर देते?
“तुमने अपने पापा से नहीं पूछा?” सुनीरा ने प्रतिप्रश्न किया।
“हम अक्सर पापा से पूछते थे, पर पापा इस सवाल पर हमेशा चुप हो जाते थे। हम ज़्यादा ज़िद इसलिए नहीं करते थे कि पापा का मन दुखेगा।
“पर आपको तो पता होगा न भाभी जी?”
“तुम्हारी बड़ी अम्मा का स्वभाव ही ऐसा था।” सुनीरा ने धीमे से कहा।
यह कैसा जवाब है सुनीरा का! क्या सुनीरा पिता को दोषी नहीं मानती? या सिर्फ़ इस लड़की के कारण उसका आक्षेप उनकी माँ की ओर जा रहा है? मगर सुनीरा के कहने की शैली में उन्हें किसी भी प्रकार के बनावटीपन का आभास नहीं हुआ। तो क्या सचमुच माँ का स्वभाव? पर वे माँ को किसी भी आरोप के कठघरे में खड़ा नहीं कर सकते थे, और न सहन ही कर सकते थे कि कोई अन्य माँ पर आरोप लगाए। फिर भले ही वह उनकी पत्नी ही क्यों न हो। लेकिन माँ के प्रति सघन श्रद्धा भक्ति के बावजूद वे इस समय इस सच को नहीं झुठला पा रहे थे कि जब तक माँ जीवित रहीं, पत्नी और माँ के सम्बन्धों के बीच सन्तुलन सेतु बनाए रखने के लिए अपनी समझदारी और सहनशीलता को उन्हें यातना की हदों तक कसौटी पर चढ़ाए रखना पड़ा था।
माँ के बोल-व्यवहार में भी कुछ अप्रिय जैसा हो सकता है, इसका अहसास पहली बार उन्हें शादी के बाद ही हुआ था, जब सुनीरा ने माँ की सत्ता के प्रति दबे-दबे स्वर में असन्तोष प्रकट किया था। शादी के तीसरे दिन जब सुनीरा बाल सुखाने छत पर चली गयी थी तो माँ ने उसे लताड़ डाला था तुझे तेरी माँ ने इतना भी नहीं सिखाया कि नयी बहू के तौर-तरीक्रे क्या होते हैं! तुझे घर में पैर रखने की देर नहीं हुई, और तू बेशर्मों की तरह सर खोल कर छत पर जा चढ़ी।
सुनीरा ने आँखों में आँसू भर कर कहा था, “मुझे ध्यान ही नहीं आया था कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। हम लोग अपने यहाँ छत पर ही बाल सुखाते थे।”
माँ को सुनीरा के हँसने-बोलने, पहनने-ओढ़ने तक पर आपत्ति हो जाती थी। इन बातों को लेकर वे अक्सर सुनीरा को टोक दिया करती थीं। सुनीरा बोलती नहीं थी, परन्तु भीतर-ही-भीतर क्षुब्ध हो जाती थी।
वह घटना उन्हें अभी भी याद थी। मामाजी आये हुए थे। सुनीरा बिना पूरा मुँह ढँके उनके लिए चाय नाश्ता बैठक में ले गयी थी। माँ ने इसी बात पर उसे डाँट-फटकार दिया था कि उसे बड़ों के सामने आने तक का शऊर नहीं है।
दरअसल सुनीरा जिस परिवार से आयी थी, उसमें इस क़िस्म की पर्दादारी समाप्त हो गयी थी। लेकिन सुनीरा इस कारण अधिक आहत हुई थी कि माँ ने उसे मामाजी के सामने ही लताड़ दिया था। उस दिन वह पहली बार उन पर बिफर पड़ी थी, “अगर मुझे मालूम होता, आपके यहाँ मुझे यह सब देखने-सुनने को मिलेगा, तो मैं एक क्लर्क से शादी करना ज़्यादा पसन्द करती . . . क्या बद्तमीजी कर रही हूँ मैं आपके घर में? मुझसे क्यों इस तरह का व्यवहार किया जाता है? माँ जी मुझे क्यों बार-बार बेइज़्ज़त करती हैं?” सुनीरा रोने लगी थी।
उन्हें लगता था कि सुनीरा के प्रति यह माँ की ज़्यादती है, किन्तु वे माँ से कुछ कह नहीं पाते थे। माँ को सुनीरा से एक बड़ी शिकायत यह भी थी कि वह तीज-त्यौहार, व्रत-अनुष्ठानों का ध्यान नहीं रखती थी, और न उठकर पूजा-पाठ करती थी।
जब उन्होंने इन सबको लेकर ज़िद न करने के लिए माँ से कहा था, तो सुबह जल्दी माँ रोने लगी थी, “तुझे मैंने पाल-पोसकर इसी दिन के लिए बड़ा किया था? तेरा बाप तो तुझे छोड़कर भाग गया था। मैंने ही कसाले कर-करके तुझे पढ़ाया-लिखाया, डॉक्टर बनाया, और तू कल आई का ग़ुलाम हो गया। वो तेरे कान भरती है, तू मान लेता है। मैं कौन उसके बुरे के लिए उसके भले की ही बात करती हूँ। घर की मान-मर्यादा, रीति-नहीं चलाएगी तो कोई बाहर का चलाएगा . . .?”
वे माँ को कुछ नहीं समझा सके थे। लेकिन सुनीरा ने समझदारी दिखाई थी। वह अपनी मर्ज़ी के विरुद्ध बहुत से ऐसे काम करने लगी थी जिन्हें माँ चाहती थीं। सुबह उठकर माँ के कमरे में बने उनके मन्दिर में सर नवाना, ऐसा ही एक काम था। अगर सुनीरा के अन्दर यह समझदारी नहीं होता तो कितना कठिन होता . . .
उन्हें दीपा सोनकर भी याद हो आई। दीपा सोनकर, उनकी अंतरंग। उनके साथ ही पढ़ती थी। उससे शादी करने की इच्छा उन्होंने माँ के सामने प्रकट की थी तो माँ ने जाति, धर्म और अपने कुल की रीति-नीति पर न जाने कितना कुछ कह डाला था। तब हमेशा की तरह इस मामले में भी उन्होंने माँ की इच्छा के आगे हथियार डाल दिये थे।
उन्हें सुनीरा से कभी कोई शिकायत नहीं हुई, फिर भी मन में एक फाँस तो चुभ कर रह ही गयी थी। अगर सुनीरा जैसी थी वैसी नहीं होती तो? या सुनीरा और उनके बीच कोई दरार पैदा हो गयी होती तो? तब क्या वे माँ को उसका कारण नहीं मानते? इस ख़्याल से जुड़कर एक-दूसरा ख़्याल उनके अन्दर रेंग गया। तो क्या पिता की मनीषा भी माँ के कारण बाधित हो उठी थी? पिता के दूसरी औरत से सम्बन्ध के कारण माँ का घर टूटा था, या माँ के घर से टूट कर पिता दूसरी औरत से सम्बन्धित हुए थे? माँ क्यों पिता को बाँध कर नहीं रख सकीं? अगर माँ ने पिता को सम्भाल लिया होता तो पिता उनसे ही क्यों दूर होते? उन्हें अपने सर में दर्द-सा महसूस होने लगा। उफ़, क्या ऊलजुलूल सोचे जा रहे थे वे।
“अब आगे क्या विचार है तुम्हारा?”
सुनीरा की आवाज़ उनके कानों से टकराई। ध्यानच्युति के कारण उन दोनों के वार्तालाप का कुछ अंश उनकी पकड़ से छूट गया था। अब फिर उनके कान विजया का उत्तर सुनने के लिए सतर्क थे। मगर सुनीरा ने किस सिलसिले में पूछा है यह सवाल?
“जी, दीदी ने लिखा है, मैं भी वहीं आ जाऊँ।”
विजया ने वाक्य पूरा कर दिया था, किन्तु उन्हें लगा, बात पूरी नहीं हुई है।
“तुम जाओगी?”
“सोचती हूँ, चली जाऊँ?”
“घर का क्या करोगी?”
“जी, घर बेच देंगे।”
विजया की आवाज़ विचलित हुई-सी लगी।
“घर पापा ने बनवाया था?”
“नहीं, मम्मी ने डी.डी.ए. से लिया था। उन्होंने अपने पी.एफ़. से पैसा लेकर अलाटमेंट लिया था।”
“मम्मी सर्विस करती थीं?”
“जी, कम्यूनिकेशन मिनिस्ट्री में यू.डी.सी. थी।”
“और पापा?”
“पापा तो फ़्रीलांसिंग करते थे। पहले एक प्राइवेट कम्पनी में नौकरी की थी, फिर छोड़ दी।”
“पापा तो सरकारी नौकरी में थे?”
“वो तो बहुत पहले थे। पापा की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उनका ट्रांसफ़र कर दिया था। हम लोगों को छोड़कर पापा घर से दूर नहीं जाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने सर्विस ही ‘रिज़ाइन’ कर दी।”
माँ की शिकायतों में एक यह भी थी। माँ कहती थीं कि पिताजी ने जानबूझकर बाहर तबादला कराया है, ताकि वे बाहर रहकर गुलछर्रे उड़ा सकें। वे एक दिन उनके सामने ही पिता पर बरसी थीं, “लोग तो अपने घर-गाँव के लिए तबादला करवाते हैं, और तुम अपने घर-गाँव से दूर भाग रहे हो। मुझे पता है, तुमने जानबूझकर दूर तबादला करवाया है।”
“हाँ, हाँ जानबूझकर करवाया है। मैं कुछ दिन चैन से बिताना चाहता हूँ,” क्या बेचैनी रही होगी पिता की?
“तुम्हारी मम्मी को बुरा नहीं लगता था?”
“किसका?”
“यही कि पापा नौकरी नहीं करते थे।”
“नहीं, ऐसा तो कुछ भी नहीं था। उन लोगों के बीच बहुत अच्छी अन्डरस्टैंडिंग थी। पापा कुछ-कुछ ‘आर्टिस्टिक’ नेचर के थे। उन्होंने घर इतनी अच्छी तरह सजाया था कि . . .”
उन्हें फिर विजया की सिसकियाँ सुनाई पड़ने लगीं।
“पापा बहुत याद आते हैं तुम्हें?”
“बहुत याद आते हैं . . . मैंने उनके कमरे का ताला लगा कर रखा है। उसे किराये पर नहीं चढ़ाया . . . मैं घर नहीं बेचूँगी। मैं तो दिल्ली छोड़ना नहीं चाहती . . . पर अब . . . अकेले रहती हूँ तो पापा बहुत याद आते हैं . . . मम्मी भी याद आती हैं। दीदी थीं तब तो . . . अब अकेले . . . दीदी ने तो तभी साथ चलने को कहा था पर . . .”
विजया की सिसकियाँ कुछ और तेज़ हो गयीं।
सुनीरा ने उनके कन्धे पर हाथ रखकर हिलाया तो उनकी नींद खुली।
रोशनदान के बाहर धूप का आभास हुआ। वे आदतन पाँच बजे नहीं उठ सके थे। नींद अभी भी पूरी नहीं हुई थी। सर भारी हो रहा था।
“विजया जा रही है,” सुनीरा बोली।
तो वे क्या करें! वे नहीं समझे कि सुनीरा यह बात उन्हें जगाकर क्यों कह रही है। “आप उसे स्कूटर से बस स्टैंड तक छोड़ दीजिए, या रिक्शा बुलवा दीजिए।”
“क्लिनिक की चाबी लेने नहीं आया कोई अभी?” उन्होंने पूछा। उनकी मंशा यह थी कि कम्पाउडर या चपरासी कोई आये तो विजया को उसके साथ बस स्टैंड भेज दें।
“आज तो इतवार है, सभी देर से आएँगे।”
आज इतवार होने की बात उनके दिमाग़ से ही निकल गयी थी।
इतवार को वे देर से क्लिनिक खोलते थे और दोपहर बाद बन्द कर दिया करते थे। वे बोले, “ठीक है, मैं छोड़ दूँगा।”
वे उठकर बाथरूम की ओर चल दिए। सुनीरा और विजया की रात की बातें उन्हें तरतीब-बेतरतीब याद आने लगी। वह याद आज बार-बार उन्हें उनके बचपन की ओर ले जा रही थी, बचपन के उन दिनों की ओर जिनमें पिता शामिल थे।
उन्होंने स्कूटर निकालकर बाहर खड़ा किया तो विजया के बोल सुनाई पड़े, “यहाँ आकर मैंने ग़लती की है न भाभी जी?”
सुनीरा को कोई उत्तर उन्हें सुनाई नहीं दिया। उन्होंने देखा, सुनीरा का चेहरा अजीब-सा हो रहा था। उन्हें अपनी ओर देखता पाकर सुनीरा ने विजया को स्कूटर की ओर इशारा कर दिया।
उन्होंने स्कूटर स्टार्ट किया तो विजया चुपचाप पीछे आकर बैठ गयी।
सड़क पर दौड़ता हुआ स्कूटर न जाने क्यों उन्हें बहुत तेज़ दौड़ता हुआ लग रहा था। पिछली शाम जब वे विजया को लेकर घर जा रहे थे, तब भी उन्हें ऐसा ही लग रहा था। तब मना रहे थे कि घर दूर और दूर होता जाए। पर आज क्यों . . . उनके अन्दर तीव्रता से कुछ उमड़ने लगा था। लेकिन यह वर्षों से जमा हुआ ज़हर नहीं था, कुछ ऐसा था जो इस ज़हर की छाती फाड़कर बाहर आना चाह रहा था।
बस अड्डा आ गया था।
विजया को यहाँ से आगरा तक बस से जाना था, और आगरा से दिल्ली के लिए उसे ट्रेन पकड़नी थी। उनका मन हुआ कि वे विजया को आगरा तक स्कूटर से पहुँचा दें। पर विजया स्कूटर से उतर पड़ी थी। उन्हें विजया की दूर से आती-सी आवाज़ सुनाई पड़ी, “आप लौट जाएँ, मैं अब चली जाऊँगी।”
वे चैतन्य हुए। उन्होंने स्कूटर एक और खड़ा किया और बोले, “तुम यहीं रुको, मैं टिकट लेकर आता हूँ।”
“आगरा की टिकट चाहिए डॉक्टर सा'ब,” पास खड़े एक लड़के ने कहा, “लाइए, मैं ला देता हूँ।”
वे क़स्बे के प्रसिद्ध डॉक्टर थे। अधिकांश लोग उन्हें पहचानते थे, सम्मान देते थे। इससे पहले कि विजया अपना पर्स खोलती, उन्होंने पैसे निकालकर उस लड़के की ओर बढ़ा दिये। लड़का टिकट लेने चला गया।
अब वे स्कूटर उठाएँ, और वापस चल पड़ें। वह लड़का टिकट लाकर विजया को दे देगा। वे कह देंगे तो बस में बिठाने में भी मदद कर देगा। तो वे चलें . . . मगर उनके क़दम स्कूटर की ओर नहीं उठे। वहीं जम से गए। फिर जैसे उनके समूचे आत्म नियंत्रण के विरुद्ध वह सवाल उनके होंठों से फूटा, “तुमने अपनी भाभी को अपना दिल्ली का पता दे दिया है न!”
“जी!” विजया ने अचकचा कर उनकी ओर देखा।
“मैं दिल्ली आया तो तुम्हारे पास आऊँगा।”
“आप!” विजया की आँखों में आश्चर्य था, “आप . . . आप सचमुच आएँगे भैया!” अब उसकी आँखों में मोटे-मोटे आँसू तैर आये थे।
“ये टिकट डॉक्टर साब!” लड़का टिकट उनकी ओर बढ़ाता हुआ बोला, “बस वो खड़ी है नीम के पेड़ के पास।”
उन्होंने टिकट हाथ में पकड़ा तो एक-दूसरा सवाल उनके होंठों से फूट पड़ा, “तुम सिर्फ़ एक दिन के लिए यहाँ आयी थीं?”
विजया अब उनकी ओर न देखकर ज़मीन की ओर देख रही थी।
“तुम्हारी तो अभी छुट्टियाँ होगी न! तुम अपने भतीजे-भतीजी से भी तो नहीं मिली हो। मैं रूही को बुलाने के लिए आज ही किसी को भेज दूँगा।
“रोमी भी तीन-चार दिन में आ जाएगा।”
विजया की पिछली रात से भी अधिक तेज़ सिसकियाँ सुनाई पड़ीं।
उन्हें लगा, अगर वे शीघ्र ही घर नहीं लौटे तो आस-पास का सब कुछ भूलकर वे भी विजया के कन्धे पर सर रखकर रो पड़ेंगे। पिता की मृत्यु का तार वे जैसे आज ही पढ़ पाये थे।
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