तंत्र
विभांशु दिव्याल
कभी-कभी मेरे सोच के घोड़े बेलगाम हो जाते हैं जैसे इस समय हो गए हैं, जबकि मैं इस शानदार विश्रामगृह में ठहरा हुआ हूँ और मेरा पी. ए. बाहर बैठे तमाम लोगों को मेरी एवज़ में निपटा रहा है। इन बेलगाम हुए घोड़ों को लगाम लगाने के लिए मुझे अपने भीतर अपने ही विरुद्ध तर्कों की दीवारें चिननी पड़ती हैं, ये दीवारें प्रायः बहुत कमज़ोर होती हैं परन्तु बेलगाम घोड़े इनके पास आकर थम जाते हैं।
इस समय भी मैं अपने भीतर तर्क की दीवारें चिन रहा हूँ, परन्तु ये बेलगाम घोड़े सध नहीं रहे हैं। पास में ही है वह थापौली गाँव, जहाँ मैं पैदा हुआ था। माँ के गर्भ से नहीं, पतूकी की लाश से पैदा हुआ था। मैं थापौली गाँव में, जहाँ मेरे सोच के बेलगाम हुए घोड़े मुझे बार-बार ले जाकर पटक रहे हैं। मैं हवा में मुट्ठियाँ उछाल उछाल कर चिल्ला रहा हूँ—‘पतूकी पर हुए अत्याचार का हिसाब करेंगे! पतूकी की मौत का बदला लेंगे!’
“सर, वह हेडमास्टर आ गया है,” मेरा पी. ए. विश्राम-गृह के दरवाज़े पर नमूदार हुआ है जो मुझसे कह रहा है, “सर, वह हेडमास्टर आ गया है।”
मैं पी. ए. की आँखों में देख रहा हूँ, उसकी आँखों में चमक है—शिकार को देख कर झपट पड़ने को आतुर किसी तेंदुए की आँखों की चमक। इस चमक को मैं पहचानने लगा हूँ। पहले मुझे अपने पी. ए. की आँखों की इस चमक से डर लगता था। अब नहीं लगता। मैं देखता हूँ कि अब मेरी वजह से मेरे मातहतों में डर पैदा हो जाता है। वे मेरी उपस्थिति में बहुत सतर्क रहते हैं, बहुत ही चाक-चौबन्द। मुझे अचानक अपने बीच पा कर वे हड़बड़ा जाते हैं। उनकी यह हड़बड़ी मुझे सुकून देती है। मुझे अपने अस्तित्व के भारीपन का अहसास कराती है।
मेरा पी. ए. विश्रामगृह के दरवाज़े पर खड़ा है। खड़े होने की उसकी मुद्रा बता रही है कि सब कुछ निरापद है। मुझे मात्र हलका-सा संकेत करना है। फिर वह हेडमास्टर अन्दर आयेगा जो कुछ देर पहले मुझसे मिलने आया था, “सर, मेरा स्कूल इस इलाक़े का अकेला अच्छा स्कूल है सर। हुज़ूर, आपके पास वक़्त नहीं है, नहीं तो मैं हुज़ूर को स्कूल दिखाने ले चलता। जगह की प्रॉब्लम है सर, मैं पंचायत में बात रख चुका हूँ। आपकी कृपा हो जाये सर, तो इलाक़े में बहुत बड़ा काम हो जाये हुज़ूर। हुज़ूर, आप हमारे इलाक़े के देवता माने जाते हैं सर।”
हेडमास्टर चाहता है कि मैं उसके स्कूल के लिए जगह दिलाने में मदद कर दूँ। हेडमास्टर को यह सही जानकारी है कि शिक्षा मन्त्री मेरे अच्छे मित्र हैं। वह चाहता है कि मैं शिक्षा मन्त्री से कह कर उसके स्कूल के लिए अनुदान स्वीकृत करा दूँ। वह चाहता है कि उसके स्कूल के वार्षिकोत्सव पर मैं शिक्षा मन्त्री के साथ उपस्थित होकर स्कूल और इलाक़े का गौरव बढ़ाऊँ, “आप आयेंगे सर, तो हमारा गौरव बढ़ेगा हुज़ूर . . . स्कूल के बारे में मैं नहीं बता पा रहा हूँ सर। मेरे स्कूल की मास्टरनी बता देगी। वह आपको डिटेल में समझा देगी हुज़ूर . . .।”
वह हेडमास्टर दोबारा आया है। मेरे पी. ए. की आँखें बता रही हैं कि हेडमास्टर अकेला नहीं आया है। मास्टरनी को साथ लेकर आया है। पी. ए. की आँखें बता रही हैं कि मैं वट वृक्ष हो गया हूँ। लोग मेरी छाया में आकर रुकना चाहते हैं। मगर पास में ही था थापौली गाँव, जहाँ वट वृक्ष की जड़ें जमी हैं। वहीं उगा हूँ मैं। क्या नाम था पतूकी के भाई का? नाम मुझे याद नहीं आ रहा।
♦ ♦ ♦
पतूकी का वह भाई पथराया हुआ अपनी बहन की लाश के पास खड़ा है। लाश वह जंगल से उठाकर लाया है, जंगल के एक खंदक से। पतूकी घर से निकली थी तो साबुत थी। चलती थी तो धरती उसकी चाल की लय पर डोलने लगती थी। वही पतूकी हर जगह से फूटी पड़ी है। घर से निकली थी तो कपड़ों में थी पतूकी, अब चिथड़ों में है। चिथड़े उन घावों और खरोंचों को ढक नहीं पा रहे हैं जो उसकी देह पर हैं। ये निशान आदमी के नाखूनों के हैं। नहीं, तेंदुओं के आदमखोर पंजों के हैं। नहीं, आदमी की वहशियत के हैं। नहीं, तेंदुओं के नाखूनों के हैं। नाखून धँसे हुए हैं पतूकी की देह में। पतूकी का भाई देख रहा है। पूरी भीड़ देख रही है। मैं भी देख रहा हूँ। बलत्कृत लड़की की मृत देह देख रहा हूँ मैं भी। मुट्ठियाँ भिंच रही हैं मेरी। अन्दर से आग-सी फूट रही है। मैं चीखने लगा हूँ, “पतूकी पर हुए अत्याचार का बदला लेंगे।”
पतूकी की लाश को देखते हुए लोग मुझे देखने लगे हैं।
“पतूकी के हत्यारों को सज़ा देंगे।”
देखने वालों में सुगबुगाहट पैदा हुई है।
“अपराधियों को माफ़ नहीं करेंगे,” मैंने हवा में मुट्ठी उछाली है। लोग फुसफुसाने लगे हैं।
“पतूकी की मौत को बेकार नहीं जाने देंगे,” मैंने दोनों मुट्ठियाँ हवा में उछाली हैं।
“नहीं जाने देंगे,” एक आवाज़ आयी है।
“पतूकी की मौत का बदला लेंगे।”
“लेंगे लेंगे लेंगे” कई आवाज़ें उठी हैं।
“पतूकी की मौत का बदला!”
“लेंगे . . . लेंगे . . . लेंगे . . . लेंगे . . . लेंगे . . .” आवाज़ें बढ़ती जा रही हैं।
कुछ लोग इन आवाज़ों से घबरा कर अलग हो गये हैं। जो बचे हैं, उनका स्वर समवेत है। स्वर की समवेत गूँज दूर तक जा रही है। जो मुट्ठियाँ हवा में उछल रही हैं, वे ख़ाली नहीं उछल रही हैं। आक्रोश का जो ज्वार थरथरा रहा है, वह नपुंसक नहीं है . . . और सबसे आगे मैं हूँ।
प्रशासन के कानों में पड़ी उँगलियाँ काँपने लगी हैं। हालात की मार से टूटी कमर वाले मर्दों के घरों की कच्ची दीवारों के पार से जवान औरतों को खींच ले जाकर, फाड़कर लाश खंदकों में फेंक देने की पुरानी आदत वाले तेंदुए एकाएक अपनी माँदों में चौकन्ने हो उठे हैं। उनकी सुरक्षित माँदों की ओर पहली बार कोई हाथ बढ़ रहा है।
इस समय मेरे चारों ओर विश्रामगृह की सुरक्षित दीवारें हैं। इस इलाक़े में पहले यह विश्रामगृह नहीं था। मेरे जैसे लोगों की सुविधा के लिए भूतपूर्व ज़मींदार घराने के एक वर्तमान उद्योगपति ने इसे निर्मित कराया है। मैं इस विश्रामगृह के शानदार कमरे में ठहरा हुआ हूँ और दरवाज़े पर खड़ा पी. ए. मेरे इशारे की प्रतीक्षा कर रहा है। बाहर एक स्कूल का हेडमास्टर अपने स्कूल की मास्टरनी को लेकर आया है। मास्टरनी मुझे समझायेगी। मास्टरनी को मुझे क्या समझाना है, यह बात मेरा पी. ए. हेडमास्टर को पहले ही समझा चुका है। पता नहीं, वह मास्टरनी है भी या नहीं। लोग न जाने किन-किन रिश्तों से बाँध कर लड़कियों को लाते हैं मेरे पास।
. . . मेरे सोच के बेलगाम घोड़े। मैं उन्हें विश्रामगृह में बन्द करना चाहता हूँ। बाहर हेडमास्टर प्रतीक्षा कर रहा है।
“वो . . . ” मैं कुछ कहना चाहता हूँ, मगर मेरा पी. ए. अच्छी तरह समझ गया है कि मैं क्या कहना चाहता हूँ।
“हाँ, वे लोग चले गये हैं। पुलिस ने उन्हें खदेड़ दिया है,” पी. ए. उन लोगों के बारे में बता रहा है जो मेरे यहाँ आने पर विरोध प्रकट करने के लिए काले झंडे लेकर आ गए थे—‘सरकार के पिट्ठू वापस जाओ! सेठों के चमचे वापस जाओ! लुटेरों के नेता वापस जाओ!’
और वहाँ है थापौली गाँव का ज़िला मुख्यालय, जहाँ पतूकी की हत्या के सम्बन्ध में जाँच के लिए आया है एक मन्त्री, जहाँ बाहर खड़ा है लोगों का हुजूम और मैं आग फूँक रहा हूँ—“हत्यारी सरकार के प्रतिनिधि!”
“हाय! हाय!”
“पतूकी के हत्यारों को . . .”
“फाँसी दो! फाँसी दो!”
“गरीबों को जो बचा न सके . . .”
“वह सरकार निकम्मी है।”
“जो सरकार निकम्मी है . . .”
“वह सरकार बदलनी है!”
मेरे हाथ में काला झंडा है। मेरे साथ आये लोगों के हाथों में काले झंडे है। लोग माँग कर रहे हैं कि पतूकी की लाश पर अन्य कमज़ोर लाशों की तरह धूल न डाल दी जाये। मैं पूरी ईमानदारी से चाहता हूँ कि अपराधियों को सज़ा मिले। मैं चाहता हूँ कि अपराधियों से साँठ-गाँठ रखने वाले अधिकारियों को सज़ा मिले। मैं चाहता हूँ कि जनता के बीच से उठ कर सत्ता तक पहुँचने वाले राजनेता, धनपतियों, अफ़सरों और गुंडों के पक्षधर न रह कर जनता के पक्षधर रहें।
मेरा पी. ए. चन्द मिनटों के लिए अनुपस्थित रह कर फिर कमरे के दरवाज़े पर उपस्थित हो गया है, “अब कोई मुलाकाती नहीं है, सर। हेड-मास्टर भी चला गया है। सुबह आयेगा।”
हेडमास्टर चला गया है। मैं अब जानने लगा हूँ कि हेडमास्टर इसी तरह चले जाते हैं, मगर उनके साथ आयी हुई मास्टरनियाँ मुझे समझाने के लिए रुक जाती हैं। यह बात मैं तब नहीं समझता था जब एक बार पी. ए. ने कहा था, “सर, वो चीनी मिल वाले सज्जन आये हैं।”
♦ ♦ ♦
चीनी मिल वाले सज्जन मेरे पास बैठ कर देर तक अपनी परेशानियाँ मुझे बताते रहे थे कि किस तरह उन्होंने नई मशीनें लगाने की योजना तैयार की है और किस तरह लालफीताशाही उनकी राष्ट्रहितकारी योजना को क्रियान्वित नहीं होने दे रही। जब उनकी योजना स्वीकृत हो जाएगी, तभी सरकारी ऋण राशि उन तक पहुँच पाएगी। वे सज्जन मुझसे बहुत प्रभावित थे। मेरे प्रभाव की वजह से ही वे पार्टी कोष में ख़ासा दान देने को तैयार थे। मेरे व्यक्तिगत चुनाव कोष के लिए भी गुप्तदान देना चाहते थे। मुझे उनकी योजना में कोई बेईमानी नज़र नहीं आयी थी। मैंने उन्हें हर सम्भव सहायता का आश्वासन दिया था।
यही सज्जन एक बार फिर आए थे, तो पी. ए. ने कहा था, “सर, वो चीनी मिल वाले सज्जन आये हैं। उनके साथ उनकी भतीजी भी आयी हैं। उन्हें ज़रूरी काम से बाहर जाना है। हो सकता है, देर से लौटें, या नहीं भी लौट पायें। वे चाहते हैं कि भतीजी यहीं रुक जाये?”
डाकबंगले के एक बड़े कमरे में अपना दरबार समाप्त कर बैठा हुआ हूँ मैं। पी. ए. कह रहा है, “भतीजी यहीं रुक जाये?”
“हाँ-हाँ, किसी कमरे में इंतज़ाम कर दो,” मैंने कहा है, लेकिन मन में कहीं भतीजी को क़रीब से देखने की इच्छा प्रबल हो उठी है।
पी. ए. कह रहा है, “सर, अलग कमरा ठीक नहीं है। अकेली लड़की है। आपके कमरे में ही इंतज़ाम कराये देता हूँ।”
मैं मौन रह गया हूँ, जैसे प्रायः उस समय रह जाता हूँ, जब मेरे अन्दर के किसी बिन्दु से विरोध उठ रहा होता है, और मैं इस विरोध को महत्त्व नहीं देना चाहता। कभी यह विरोध प्रबल होता था और मैं दब जाता था। लेकिन अब मैं प्रबल होता हूँ, विरोध दब जाता है।
मेरे मौन से उत्साहित होकर पी. ए. उस भतीजी का प्रबन्ध मेरे कमरे में कर गया है। मैं असमंजस की स्थिति में अपने कमरे में आयी भतीजी को देख रहा हूँ। यकायक मुझे आभास होता है, वह मुझसे कुछ अपेक्षा कर रही है। मगर क्या? उसके लिए जिस पलंग पर बिस्तर लगाया गया है, वह उस पर न बैठकर खड़ी रह गयी है। मगर क्यों? मैं उसकी परेशानी को समझने के लिए उसकी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखता हूँ, और वह मुस्कराने लगी है। मगर किसलिए?
उस रात के सुबह में बदलने तक मुझे अपने सारे सवालों के जवाब मिल गए हैं। मुझे एक नये स्वाद का पता लग चुका है। मेरा पी. ए. मुस्कुराता हुआ कमरे में आया है। जब भी मुझे किसी नये स्वाद का पता लगता है, मेरा पी. ए. इसी तरह मुस्कुराता हुआ कमरे में घुसता है।
अब, जब कि मैं विश्रामगृह के शानदार कमरे में ठहरा हुआ हूँ, मेरा पी. ए. मुझसे कह रहा है, “सर, वो हेडमास्टर चला गया है, सुबह आएगा।” मतलब यह कि अकेली मास्टरनी रह गयी है, जो मेरे कमरे में आने के लिए बाहर बैठी है। पी. ए. मेरा संकेत चाहता है। मैं मौन रह गया हूँ। मेरा पी. ए. मेरे इस मौन का अर्थ जानता है। और मैं भी जानता हूँ कि वह मास्टरनी को अन्दर लाने से पहले मेरे आगे छोटी टेबल लगायेगा। उस पर गिलास रखेगा। भुने हुए काजू रखेगा। तली हुई मछली रखेगा। सलाद रखेगा। बर्फ़ रखेगा। फिर महँगी शराब की बोतल लाकर रखेगा। पहला पैग मेरे लिए वही बनायेगा। पैग ख़ाली होने तक इन्तज़ार करेगा। तब फिर अपनी जेब से या अपने हाथ में लगी हुई फ़ाइल में से कुछ काग़ज़ निकाल कर मेरे सामने प्रस्तुत कर देगा—मेरे हस्ताक्षरों के लिए। मैं जानता हूँ, मेरे ये हस्ताक्षर मेरे पी. ए. की समृद्धि में वृद्धि करेंगे, साथ ही मेरे व्यक्तिगत कोष में भी।
तमाम काग़ज़ातों पर हस्ताक्षर करा चुकने के बाद पी. ए. उस बाहर बैठी मास्टरनी को अन्दर ले आयेगा। कैसी होगी इस बार यह मास्टरनी? मैं मास्टरनी के चेहरे की तस्वीर दिमाग़ में बनाता हूँ कि सोच के घोड़े बिदक जाते हैं . . . ” मैं थापौली में हूँ। नहीं, थापौली से निकल कर ज़िला मुख्यालय के भवन के बाहर जहाँ मैंने पतूकी के भाई को आमरण अनशन पर बिठा रखा है। क्या नाम था उसका? नाम याद नहीं आ रहा।
मैं मुख्यालय के आगे भाषण कर रहा हूँ—‘जब तक पतूकी के हत्यारे गिरफ़्तार नहीं हो जाते, हम संघर्ष जारी रखेंगे। पतूकी का भाई आमरण अनशन पर बैठा रहेगा।’ पतूकी का भाई! क्या नाम था उसका? नाम याद नहीं आ रहा। मगर आन्दोलन फैल रहा है। चन्द दिनों तक ज़िला स्तर के नेता बोल रहे हैं, फिर प्रदेश स्तर के, और कुछ दिनों बाद एकाध राष्ट्र स्तर का नेता। असर होता है। इलाक़े का थानेदार मुअत्तल होता है। पतूकी के हत्यारों के घर कुड़क होते हैं। पुलिस हत्यारों के पीछे लग जाती है।
मैं अपनी जीत पर ख़ुश हूँ। अन्दर एक विश्वास पैदा हो रहा है कि मैं दबे-कुचले लोगों के लिए कुछ कर सकता हूँ। पतूकी को लेकर कर रहा हूँ। आगे भी करता रहूँगा। असहाय लोगों पर होते अत्याचारों का विरोध करता रहूँगा—निरन्तर, बिना रुके हुए।
जिस दिन पतूकी के हत्यारे गिरफ़्तार होते हैं, उसके अगले दिन मेरी भी चर्चा है अख़बारों में। उसके अगले दिन कई लोग मुझसे मिलते हैं, मुझे बधाई देते हैं, मेरी प्रशंसा करते हैं, इन लोगों में कई राजनीति के सक्रिय खिलाड़ी हैं जिनके नाम मैं प्रायः सुना करता हूँ।
मेरे पी. ए. ने कुछ काग़ज़ मेरे आगे रख दिए हैं। हस्ताक्षर कर चुकने के बाद मैं सिर ऊपर उठाता हूँ। पी. ए. कह रहा है, “सर, आज उस थानेदार के मामले को लेकर गुप्ता जी फिर आये थे।”
गुप्ता जी इस थानेदार के मामले को लेकर मेरे पास पहले भी आ चुके हैं। और इससे बहुत पहले मेरे दूसरे चुनाव के समय आये थे।
गुप्ता जी अपने घर दावत पर बुला कर मुझसे कह रहे हैं, “आप तो प्रतिभाशाली हैं, बाबू सा'ब! आपका सिक्का तो अच्छे-अच्छे मानने लगे हैं। आप बहुत आगे जायेंगे। मैं तो आपको बहुत पसन्द करता हूँ। मैं हर तरह से आपकी मदद करूँगा। एक बात ध्यान रखिए बाबू सा'ब, यह सिधाई का ज़माना नहीं है। आप अपने आस-पास से बेख़बर रहे तो लोग आपको उखाड़ फेंकेंगे। आपको अपने चारों तरफ़ देखकर चलना पड़ेगा आप बेफ़िक्र होकर चुनाव लड़िये बाबू सा'ब, आपकी पूरी मदद करूँगा।”
मेरे अपने अनुभव भी मुझे यही बता रहे हैं कि गुप्ता जी ठीक कह रहे हैं। कुछ बेवुक़ूफ़ों के विरोध और झूठी आलोचना के कारण मैं वापस नहीं लौट सकता। वापस नहीं लौटना तो जमे रहना है। जमे रहना है तो गुप्ता जी की सहायता स्वीकार करनी ही है। मुझे कोई बुराई नज़र नहीं आती इसमें।
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पी. ए. कह रहा है, “सर उस थानेदार के मामले को लेकर गुप्ता जी फिर आये थे।”
गुप्ता जी चाहते हैं कि थानेदार पर कोई आँच न आये। थानेदार ने जिन लोगों के निकल भागने में मदद की है, वे गुप्ता जी के अपने आदमी हैं, उनके अपने ढंग के, अपने व्यापार के सक्रिय अंग। गुप्ता जी के गोदामों, कारख़ानों की सुरक्षा का भार अपने कंधों पर ढोते गुप्ता जी के अपने आदमी। चन्द ऐसे आदमियों को गिरफ़्तारी से पूर्व चुपचाप निकाल देने के कारण एक सिरफिरे अख़बार ने बावेला खड़ा किया है थानेदार के ख़िलाफ़। उस थानेदार के ख़िलाफ़ जिसे अपने आदमियों की सुरक्षा के बदले में गुप्ता जी से पूरी सुरक्षा की गारंटी मिली हुई है। गुप्ता जी चाहते हैं कि उस थानेदार के विरुद्ध कोई कार्रवाई न होने दूँ। इस समय मैं गुप्ता जी का विरोध करने की स्थिति में नहीं हूँ। गुप्ता जी की मदद मेरी ज़रूरत है।
अपनी ही ज़रूरत के विरुद्ध होना महज़ मूर्खता है। मैं सोच रहा हूँ कि गुप्ता जी के ख़ास आदमी इस थानेदार को कैसे बचाऊँ? सोचूँगा कोई तरकीब। मैं अपने पी. ए. से कह रहा हूँ, “राजधानी पहुँच कर मुझे याद दिलाना। कोई-न-कोई रास्ता निकालूँगा।”
पी. ए. के चेहरे पर संतुष्टि का जो भाव आया है, उसे देख कर लगता है जैसे स्वयं उसको कुछ मिल गया हो। उसने काग़ज़ समेट कर फ़ाइल में सहेज लिए हैं। वह बाहर जाने के लिए उठ खड़ा हुआ है। मैंने अपने सामने रखी प्लेट में से मछली का एक टुकड़ा उठा कर अपने मुँह में रख लिया है। शराब का एक घूँट लिया है।
पी. ए. बाहर चला गया है। अब वह आयेगा तो मास्टरनी साथ होगी। यह मास्टरनी मुझे अपने स्कूल की समस्याएँ समझायेगी। स्कूल की नहीं, अपने हेडमास्टर की। जी होता है, ठहाका लगा कर हँसूँ। कैसे-कैसे बेवुक़ूफ़ लोग हैं दुनिया में! पहले ऐसे लोगों में से किसी से हमदर्दी होती थी, किसी पर क्रोध आता था। अब सिर्फ़ हँसी आती है। मास्टरनी अन्दर आने वाली ही होगी।
सोच के घोड़े फिर बेक़ाबू होने लगे हैं। मैं उन्हें अपने सामने रखे गिलास में डुबो कर नियंत्रित करना चाहता हूँ, मगर वे फिर कुदान मारकर थापौली पहुँच गए हैं। थापौली से निकल कर ज़िला मुख्यालय पहुँच गए हैं। वे दो प्रभावशाली व्यक्ति मुझे समझा रहे हैं—‘आप हमारी पार्टी में आ जाइए, जिस तरह के आपके विचार हैं, वही तो हम सोशलिस्ट चाहते हैं। समाजवादी समाज की रचना ही तो हमारा लक्ष्य है। आप साथ आएँगे तो दल को आप जैसे प्रतिभाशाली साथी मिलेंगे। आपको अपने साथ काम करने को कार्यकर्ता मिलेंगे . . . बल्कि हम तो चाहते हैं कि आने वाले चुनाव में आप हमारी पार्टी के टिकट पर लड़ें।’
मुझे लगता है, वे ठीक कह रहे हैं। मेरे जैसा तेज़ और श्रेष्ठ नेता उन्हें मिलेगा और मुझे उनके कार्यकर्ता। तब जनता के बीच काम करने में अधिक सहूलियत रहेगी। मेरी आवाज़ व्यापक स्तर पर सुनी जाएगी। मैं दमन और अत्याचार का विरोध अच्छी तरह कर सकूँगा। मुझे उनकी बात मान लेनी चाहिए।
पी. ए. अन्दर आया है। उसके साथ है मास्टरनी। सुता हुआ चेहरा। बुझी-सी आँखें। शरीर में ढीलापन। सारे व्यक्तित्व में अजीब-सी उदासी। फिर भी कहीं-न-कहीं आकर्षण शेष रह गया है। तभी उसे मेरे पास भेजा गया है। पी. ए. ने मास्टरनी को मेरे पास वाले सोफ़े पर बैठने का इशारा किया है। वह सकुचाई-सी बैठ गयी है। कैसा है इस लड़की का यह संकोच? खेली-खाई नहीं लगती। शायद इसका कारण यह ग्रामीण इलाक़ा रहा हो . . . शहर का कोई सितारा होटल होता तो लड़की बेझिझक होती।
“तुम पढ़ाती हो?” मैंने लड़की से पूछा है।
“जी . .ऽऽ ई . . .” लड़की हड़बड़ा-सी गयी है।
दरअसल मेरा इस क़िस्म का प्रारंभिक वार्तालाप लड़की को और स्वयं अपने-आपको सहज बनाने के लिए होता है।
“घर में कौन-कौन हैं?”
“माँ है, बस।”
“तुम्हें कितने रुपये देता है हेडमास्टर?”
“जी, साठ रुपये।”
“पढ़वाने के अलावा तुमसे और क्या काम करवाता है वह?” मैंने बेशर्मी से पूछा है। मेरी यह बेशर्मी अपने अन्दर से उठी किसी हल्की-सी आवाज़ को सख़्ती से दबाने के लिए होती है।
मगर लड़की सकपका गयी है।
“तुम्हें यहाँ क्या करना है, तुम्हें मालूम है?”
लड़की और अधिक सकपका गयी है।
लड़की का यह सकपकाना मुझे असहज बना रहा है। एकाएक मैं उठ कर टहलने लगा हूँ। मेरा यह टहलना असंतुलित हो उठे अपने आपको सँभालने के लिए है ताकि अपने निरापद कमरे में बैठी इस अकेली लड़की से सहज पुरुषवत व्यवहार कर सकूँ। वैसे मैं प्रायः सहज ही रहता हूँ। मैं स्वीकार कर चुका हूँ कि पत्नी के रहते हुए भी निरंतर अन्य औरतों के माध्यम से तमाम तनावों और परेशानियों से कुछ देर को मुक्ति पा लेने से मेरी कोई नैतिकता खंडित नहीं होती। राजनीति की अपनी अलग नैतिकता है। दूध के धुले बने रहिए, आप पर कीचड़ उछालती रहेगी। कीचड़ में डूबे रहिए। आपको दूध का धुला साबित करने वालों की एक पूरी जमात आपके आगे-पीछे घूमती रहेगी। सिद्धान्ततः अब मुझे अपनी किसी बदनामी का भय नहीं लगता। लेकिन यहाँ थापौली गाँव के पास के इस विश्रामगृह में बैठी यह सामान्य-सी लड़की मुझे असहज बना रही है।
मैं विश्रामगृह के कमरे में टहल रहा हूँ, मगर थापौली पहुँच गया हूँ। नहीं, थापौली के ज़िला मुख्यालय। नहीं, सोशलिस्टों की सहायता में चुनाव जीत कर विधानसभा में। विरोध पक्ष की सीट पर, प्रदेश की राजधानी में।
आमना-सामना होने पर गृहमंत्री कह रहे हैं—‘भई, तुम्हारी प्रतिभा की सराहना करनी पड़ेगी। तुम्हारी बात में वज़न रहता है, हम उन्हें यों ही नहीं उड़ा सकते। लेकिन क्या करें? सरकार में रहते थोड़ी अलग स्थिति बनती है। तुमने अपने इलाक़े की समस्याओं को लेकर ज़ोरदार दलीलें दी हैं, मगर ये समस्याएँ केवल तुम्हारे इलाक़े की नहीं हैं। सारे देश की हैं। यहाँ तो लोग अपनी समस्याओं को लेकर लड़ते हैं। क्षेत्र की समस्याओं की बात कौन करे? तुम्हारे जैसे दम-खमवाले सही क़िस्म के कुछ नौजवान हमारे साथ आयें तो सरकारी स्तर पर बहुत-सी समस्याओं से निपटा जा सकता है।’
मैं गृहमंत्री की बात पर ग़ौर करता हूँ—गृह मंत्री द्वारा किये गये संकेत पर। विरोधी सीट पर बैठ कर आदमी अपंग रहता है। इलाक़े का थानेदार तक बात नहीं सुनता। ट्रेजरी बेंच की स्थिति ही भिन्न होती है। जब सामने वाला जानता है कि कहने वाले आदमी के पीछे सत्ता की ताक़त है तो वह आपकी उपेक्षा नहीं कर सकता। वह जानता है कि आपके मामले में ढील या हरामख़ोरी उसके लिए मुसीबत बन सकती है। वह तुरन्त आपके कहे अनुसार गतिशील हो उठता है। मुझे लगता है कि मैं जो कुछ करना चाहता हूँ, जिन लोगों के लिए लड़ना चाहता हूँ। जिनका अगुआ बन कर मैं आगे बढ़ा हूँ, उनका भला सरकार के साथ रह कर ही किया जा सकता है।
सोफ़े पर बैठी गाँव के स्कूल की मास्टरनी, मेरे कमरे में मौजूद यह अकेली लड़की कुछ और सिमट गयी है। इसके इस तरह सिमटने का कोई भी कारण हो सकता है। मगर मैं आश्वस्त हूँ कि यह लड़की अच्छी तरह जानती है, उसे यहाँ क्यों लाया गया है। इसलिए मेरे असहज होने की कोई वजह नहीं है।
वैसे भी मैं, प्रान्तीय सत्ता का एक ख़ास स्तंभ, ज़रा ज़रा-सी बातों पर विचलित नहीं होता। प्रान्तीय स्तर पर तमाम फेर-बदल की बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी मेरी होती है। राजनीतिक क्षेत्रों में मेरी भूमिका को अहमियत दी जाती है। मेरी राजनीतिक सूझ-बूझ का मुख्यमंत्री से लेकर दिल्ली तक के कई वरिष्ठ नेता लोहा मानते हैं। कल ही मुझे अपने प्रदेश की कई ज़िला इकाइयों की रिपोर्ट तैयार कर केन्द्रीय नेतृत्व को भेजनी है।
रिपोर्ट तैयार करते वक़्त मुझे बहुत सावधानी बरतनी होती है। अपना प्रभाव क्षेत्र बनाने की बात तो सर्वोपरि रहती ही है, साथ-ही-साथ केन्द्रीय नेताओं का रुख़ भी समझना पड़ता है। जिन लोगों के बारे में रिपोर्ट तैयार करनी होती है, उनके प्रभाव और शक्ति का मूल्यांकन करना होता है। यह देखना होता है, उनकी शक्ति पार्टी और मेरी व्यक्तिगत शक्ति में कितना इज़ाफ़ा कर सकती है या फिर कितना घटा सकती है। राजनीति में कोई ग़लत नहीं होता। ग़लत सिर्फ़ वह होता है, जो कमज़ोर होता है। मुझे अपनी रिपोर्ट इन्हीं कमज़ोरों के ख़िलाफ़ तैयार करनी होती है। मेरा काम सिर्फ़ इतना होता है कि मैं इन कमज़ोरों की सही पहचान कर सकूँ। इस काम में मुझे महारत हासिल है। मेरी सफलता के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है।
इस समय जब मैं लंबे अर्से बाद अपने ही इलाक़े के विश्रामगृह के आरामदेह कमरे में टहल रहा हूँ तो मेरे असहज होने का कोई कारण नहीं। फिर भी मैं असहज हो रहा हूँ। पास में ही है वह थापौली गाँव, जहाँ पतूकी रहती थी, जो बाद में लाश में तब्दील हो गयी थी। पतूकी का भाई रहता था, जो आमरण अनशन पर बैठा था, जिसका नाम मैं इस समय याद कर रहा हूँ, मगर याद नहीं आ रहा। इतना याद आ रहा है कि वह एक बार मेरे पास आया था। शायद उसकी ज़मीन को लेकर कोई झगड़ा था। वह मेरी मदद चाहता था। मैंने मदद का वादा किया था। यह ध्यान नहीं रहा कि मैं उसकी मदद कर पाया था या नहीं। शायद वह दोबारा आया ही नहीं मेरे पास। क्या नाम था उसका? नाम याद नहीं आ रहा।
मेरे सामने शराब का गिलास है। पास के सोफ़े पर सहमी-सिमटी लड़की बैठी है। मैं इन दोनों उत्तेजनाओं में शेष सब डुबो देना चाहता हूँ। लड़की का इस तरह सिमटना अन्य कई पेशेवर लड़कियों के खुलेपन की तुलना में मुझे कहीं अधिक अपनी ओर खींच रहा है। गिलास की तरलता मेरी नसों में सनसनाने लगी है। मैंने लड़की को उठकर अपने क़रीब आने का इशारा किया है। मगर वह अपनी जगह से उठ नहीं रही है। तब मैंने ही उठ कर उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया है। उसने ज़रा भी प्रतिरोध नहीं किया है। लेकिन, यह जानते हुए भी कि वह यहाँ क्यों आयी है, वह कुछ हड़बड़ा गयी है। मैं चाहता हूँ कि लड़की सहज हो जाये। मैंने महज़ पूछने के लिए पूछा है, “तुम्हारा बाप क्या करता है?”
“आपको बताया था, बाप नहीं है।”
मुझे याद आया, उसने कहा था, घर में सिर्फ़ माँ है।
“बाप को क्या हुआ?”
“पिताजी ने पहले कुछ बड़े लोगों को गिरफ़्तार कराया था, इसलिए वे रंजिश मानते थे। उन्होंने हमारे खेत दबा लिये थे। पिताजी ने कहा-सुनी की तो लाठियों से पीट डाला। अंदरूनी चोटें आयी थीं। उसी में मर गये।”
“कौन-सा गाँव है तुम्हारा?”
“थापौली।”
“थापौली!” इस बार मैं हड़बड़ा गया हूँ।
लड़की की आँखें मुझे भेद रही हैं।
“तुम्हारे बाप का नाम क्या था?”
“बसेसर।”
“बसेसर!” सोच के बेलगाम घोड़े पिछले पैरों पर खड़े हो ज़ोर से हिनहिनाये हैं। बसेसर! पतूकी के भाई का नाम! अब मुझे याद आ रहा है। बसेसर ही था पतूकी के भाई का नाम। मेरा हाथ काँपने को होता है, मगर मैंने अपना यह काँपता हुआ हाथ लड़की की कलाई पर ज़ोर से कस दिया है। लड़की बुरी तरह सहम गयी है। शायद मेरे भीतर का ख़ौफ़नाक तेंदुआ उसे नज़र आ गया है।