वनचर
विभांशु दिव्याल
वैसी ही व्यस्तता और इस व्यस्तता से उपजती वैसी ही ऊब। वह अपने वर्ग की अन्य तमाम महिलाओं की तरह इन घरेलू पार्टियों में रम नहीं पाती। उसे अपने इस ख़्याल से मुक्ति नहीं मिलती कि इन पार्टियों के बीच जब और लोग ठहाके लगा रहे होते हैं, तब वह मात्र चाय का एक प्याला होती है, या फिर बीअर की एक बोतल।
ये लोग घंटे-दो घंटे बैठना चाहते हैं। वह भी इन लोगों के मध्य होती है, अपने ओहदेदार पति की सम्मानित भार्या के रूप में। लेकिन उसे महसूस होता है कि वह उन बैठे हुए लोगों का नहीं, उस शग़ल का हिस्सा है जिसे वे लोग वक़्त गुज़ारने के लिए अपनाते हैं। ऐसी बात नहीं है कि यह ख़्याल उस पर हर समय तारी रहता है, मगर जब भी तारी होता है वह स्वयं को बेहद थका हुआ पाती है। मन होता है किसी पार्क में चली जाये, या फिर किसी झील-नदी के किनारे जा बैठे, या किसी घने जंगल में घुसे और देखे-अनदेखे अनगिनत वन-पुष्पों की सुवास को साँसों के साथ भीतर उतारती रहे।
वह थकान महसूस कर रही है, मगर वे लोग आ चुके हैं। उनके हँसने की आवाज़ उसे यहाँ तक सुनाई दे रही है। हँसी भी इतनी बेजान, इतनी रस्मी हो सकती है! दो को वह पहचानती है, परन्तु तीसरा जो आया है, वह कोई मिस्टर गुप्ता है, सुधीर के ओहदे से भी बड़ा ओहदेदार।
उसे सुधीर के बाहरी चेहरे पर अतिशय विनम्रता और आदरभाव तभी नज़र आता है, जब क़द-पद में कोई उनसे भी बड़ा उनके सामने खड़ा होता है। ठीक उसी समय अपने इस पति का चेहरा उसके अन्दर जुगुप्सा पैदा करता है। पति का यह आदरभाव नक़ली होता है, बिल्कुल उसके उत्साह की तरह जो उसे इन अनचाहे मगर अनिवार्य मेहमानों के स्वागत में प्रदर्शित करना पड़ता है। उसे लगता है, वह दो ध्रुवों पर खींच दी गई है—असली थकान भीतर तक पहुँचती हुई, और नक़ली उत्साह बाहर तक बिछलता हुआ। सोचती है, वह अपने आप को पूरी तरह उस आडम्बर के प्रति समर्पित क्यों नहीं कर पाती, अपने वर्ग की अन्य महिलाओं की तरह? परन्तु क्या वे सचमुच इस आडम्बर के प्रति समर्पित होती हैं, या वे भी उसकी तरह अभिनय-पटु हो गई हैं? उसके कानों में श्रीमती सिंह की अलमस्त हँसी उभरने लगती है . . .
आवाज़ें ड्रांइगरूम से रसोईघर तक आ रही हैं। उसके अन्दर उन आवाज़ों का अर्थ पकड़ने की उत्सुकता नहीं जागती। एक ही तरह की बातें-किस जंगल की कटाई शुरू करानी है, किसको ठेका देना है . . . कौन ज़्यादा कमीशन दे रहा है . . . कौन व्यक्ति पैसा देने के मामले में विश्वसनीय है, किससे धोखे की सम्भावना हो सकती है . . .। सारी बातचीत का एक ही उद्देश्य—पैसा, और ज़्यादा पैसा। अपने यहाँ इस पैसे के फैलाव को वह बृहद से बृहत्तर होते आवास, रंगीन टीवी, वीडिओ जैसे अधुनातन आमोद संसाधन, बदलते गृहसज्जा-विन्यास, हर तीसरे वर्ष बदली जाती कार, और निरन्तर बढ़ती बैंक राशि के रूप में देखती है।
पैसा, और पैसे से जुड़ा वैभव। नाना याद आते हैं, “पैसा तो साधन है बिटिया, जीवन को सुखी बनाने का साधन। लोग इसे साध्य मान लेते हैं, बस यहीं से गड़बड़ शुरू हो जाती है। जो पैसा सुख-सुविधा के लिए होता है, हवस जागने पर वही सारे सुखों को छीन लेता है। मगर लोग इतनी छोटी-सी बात नहीं समझते। इतनी चमक-दमक खड़ी कर लेते हैं कि सारा सुख उसके नीचे दबकर रह जाता है।”
लोग इतनी छोटी-सी बात नहीं समझते, क्योंकि वे इसकी गहराई तक नहीं पहुँच पाते। एक वह है जो समझकर भी नहीं समझ पाती, न सुधीर को ही समझा पाती है। समझाने की हिम्मत ही नहीं होती। सुधीर ही समझा देते हैं, “पैसा इस ज़माने की सबसे बड़ी ताक़त है . . . यू कान्ट सरवाइव विदआउट एनफ़ मनी . . .”
वह इस ‘एनफ़’ की सीमा नहीं जानती, बस एक फ़ैलाव को जानती है जो कभी-कभी उसे विशाल अजगर की तरह समूचा निगलने को अपटता प्रतीत होता है।
“मैडम आपके सिर में दर्द है? आपका फ़ेस . . .” बहादुर उसके चेहरे से उसके सिर के दर्द का आभास पा लेता है। वह उसके चेहरे को देख रहा है, उसके हाथ प्लेटें लगाने में व्यस्त हैं, “आप कोई गोली ले लीजिए।”
“हाँ ले लूँगी।” वह कहती है, “तुम सोडा, बोतल रख आए?”
“जी, सब सामान रख दिया।”
“ओपनर? पिछली बार की तरह भूल मत जाना।”
“नहीं, मैडम, पहले ही रख दिया।”
“सलाद काट दिया?” वह फिर पूछती है। उसे टमाटर-प्याज़ वैसे ही रखे नज़र आ रहे हैं।
“अभी काटता हूँ, ये प्लेटें लगा दूँ।”
वह जानती है कि किसी भी क्षण ड्राइंगरूम से सलाद की फ़रमाइश आ सकती है। भूने हुए काजू, उबले अण्डे और तली हुई मछली के बावजूद ये लोग पीने के साथ सलाद ज़रूर चाहते हैं। वह चाकू उठाते हुए कहती है, “लाओ, प्याज़ इधर दो, मैं काटे देती हूँ।”
“मैडम आप . . .” बहादुर संकोच करता है।
“हाँ, लाओ न! वह सब्ज़ियाँ अपनी ओर खिसकाए जाने का इशारा करती है।
बहादुर ने प्याज़ उसकी ओर बढ़ा दिए है . . . वह एक प्याज़ उठा कर चाकू से छीलने लगती है कि हाथ का चाकू जहाँ का तहाँ ठहरा रह जाता है। उसकी समस्त चेतना उस ध्वनि की गिरफ़्त में है जो सहसा बाहर से उठ कर उसके कानों से टकराई है। अलगोजे का स्वर। हाँ, अलगोजे का ही! वह पहचानने में ग़लती नहीं कर रही . . .। इतने वर्षों बाद। वर्ष तेज़ आँधी के बीच पड़ी किताब के पन्नों की तरह फड़फड़ाते हैं। वह सम्मोहित-सी बोलती है, “बहादुर देखना, कौन बजा रहा है?”
“जी, मैडम।” बहादुर चलने को होता है तो उसे रोक देती है, “तुम काम करो, मैं देखती हूँ।”
वह उस मधुर ध्वनि से बँधी बाहर आती है। बँगले के गेट से बाहर देखती है। कोई नज़र नहीं आता। थोड़ा आगे बढ़ती है—गेट की ओर। ठिठक जाती है। क्या वही है यह! मगर उसके चेहरे का पार्श्व भाग ही नज़र आ रहा है। उस लम्बी कार की चालक-सीट पर बैठा हुआ है वह। अलगोजे में पूरी तरह डूबा हुआ। अलगोजे के स्वर उसके अन्दर ज़िन्दा स्पन्दन बनकर पैठ रहे हैं . . . पैठ रहे हैं . . . वर्ष लौटते हुए उस रात तक जा पहुँचे हैं . . .
वह अपने शयनकक्ष के विशाल पलंग पर अकेली पड़ी करवट बदल रही है। सुधीर को आज आ जाना था, पर नहीं आए हैं। सुधीर की यह लापरवाही नई नहीं है। अक्सर बिना कोई सूचना दिए तीन-तीन, चार-चार दिन विलम्ब कर देते हैं। शिकायत करती है तो उनका उत्तर रहता है, “फालतू तो नहीं रुका था। किसी काम के लिए बाहर निकलो तो देर हो ही जाती है। कभी मिनिस्टर नहीं मिलता-कभी सेक्रेटरी। दो-चार दिन का धैर्य तो तुम्हारे अन्दर होना ही चाहिए।”
धैर्य तो उसके अन्दर है, परन्तु अपनी उस इच्छा का क्या करे जो प्रायः उनके नैकट्य के लिए अकुला उठती है—स्पर्श, संसर्ग से परे मौलश्री की गंध की तरह, अदेह-अगोचर। वह उस अगोचर-अदेह अनुभूति के पाश में छटपटाती है कि किसी अपरिचित वाद्य का अनगढ़ स्वर रात्रि की स्तब्धता का मर्म भेदता हुआ उसके कमरे में घुस आता है। बाँसुरी से मिलता-जुलता यह स्वर किसी गहन उदासी से फूटता हुआ लगता है, उसे और अधिक उद्विग्न करता हुआ, प्राणों को ज़बर्दस्ती कसता हुआ।
उसे लगता है, इस क्षण सुधीर को उसकी साँसों के एकदम क़रीब होना चाहिए। मगर सुधीर का कोई अता-पता नहीं है। इधर यह स्वर . . . वह स्वयं को उस स्वर की जकड़ से मुक्त करते हुए पुकारती है, “बनवारी . . . बनवारी . . .!”
आँखें मलता हुआ, कच्ची नींद से जागकर आया बनवारी परेशान-सा आकर खड़ा हो जाता है, बिना बोले पूछता हुआ इतनी रात क्या हुआ?
क्यों बुलाहट हुई उसकी?
“ये कौन शोर कर रहा है इस वक़्त? देख तो।”
बनवारी बिना देखे ही बताता है, “वही गाँवड़े का छोकरा है, बहू जी!
वही बजाता है।”
“कौन, वनचर?”
“उफ, ये छोकरा!” उसका ग़ुस्सा फूटता है, “मना करो इसे!”
बनवारी चला जाता है, और तुरन्त बाद वह स्वर भी थम जाता है। स्वर थमते ही उसे लगता है, वे क्षण जैसे अन्तिम श्वास छोड़कर निर्जीव हो गए हैं। वह छटपटाती है कि वह स्वर फिर से हवा में बिखर जायें, हर खिड़की-दरवाज़े से आकर उसके कमरे में समा जाये। उस लड़के से जाकर कहे कि फिर से . . . मगर स्वयं उसने ही अभी वह ‘शोर’ बन्द कराया है। मन देर तक उम्मीद लगाता है कि वह लड़का फिर से उस वाद्य को बजाना शुरू कर दे। मगर जानती है कि वह लड़का उसकी अवज्ञा नहीं करेगा। बनवारी ने उसे डाँटते हुए कहा होगा—बन्द कर यह पी-पी, बहू जी ग़ुस्सा हो रही हैं। इस डाँट के बाद कैसा वाद्य, कैसा स्वर!
इतने वर्षों बाद वैसा ही स्वर। यह वनचर है? मगर उसका चेहरा इतना साफ़ नज़र नहीं आ रहा कि ठीक-ठीक पहचान सके। कार का खुला दरवाज़ा सामने आ रहा है, कुछ उसके लम्बे बाल। लम्बे बाल! वनचर के बाल तो बहुत छोटे थे। लेकिन इतने वर्ष! क़रीब जाकर देखे? पर उसकी पद-प्रतिष्ठा! एक साधारण ड्राइवर के पास इस तरह पहुँचना . . . वह चौंकती है . . . बहादुर उसके पीछे खड़ा है, “मैडम, साब आपको पूछते हैं।”
साब पूछते हैं। साहब की संस्कृति में शामिल है कि जब उनके मित्र आयें तो पत्नी उनकी अगवानी करे। उसे मेज़बानी बुरी नहीं लगती, मगर वह मिस्टर सिंह . . . गृह सचिवालय में है तो जैसे उसे अश्लील हँसी हँसने का विशेषाधिकार मिल गया है। वह हँसता है तो सही मछली की सी बदबू आती है। सड़ी मछली को तो वह बाहर फेंक देती है, पर मिस्टर सिंह को कैसे . . . मिस्टर सिंह भी आज के आमंत्रितों में से है। कभी-कभी उबकाई आने लगती है, परन्तु कुछ स्थितियों को निगलना जैसे मजबूरी हो।
“सलाद पहुँचा दिया?” वह बहादुर से पूछती है।
“मैडम!” बहादुर हड़बड़ाया-सा उसके हाथ की ओर देखता है।
उसका ध्यान अपने हाथों पर जाता है—प्याज़ और चाकू। वह झेंपती है। फिर दोनों वस्तुएँ बहादुर को देते हुए कहती है, “तुम सलाद बनाकर दे आओ, कहना मैडम अभी जाती है।”
सोचती है, उन लोगों के बीच ड्राइंगरूम में जाकर बैठे, मगर इस सोच के समान्तर उसके पाँव नहीं बढ़ते। अलगोजा बज रहा है। वह भूल नहीं कर रही, यह वही है, वनचर।
बड़ी-बड़ी काली आँखें, श्याम वर्ण, दूधिया दाँत और सुतवाँ नाक . . . विशिष्ट ग्रामीण शैली में कमर के गिर्द लिपटा धोतीनुमा अधोवस्त्र और बनियान। क़मीज़-कोट सभी का काम करती बंडी। उस अटपटी वेशभूषा वाले किशोर को देखकर सहसा हँस पड़ती है। सुधीर से पूछेगी कि कहाँ से पकड़ लाए हैं इस वनचर को। बाद में सुधीर बताते हैं कि उनके कार्यालय के चपरासी का दूरदराज़ का रिश्तेदार है यह लड़का। जिस गाँव का रहनेवाला है, वहाँ खेती-बाड़ी अभी तक भगवान के भरोसे चलती है। तीन साल से अकाल जैसी स्थिति है, इसलिए यहाँ नौकरी करने चला आया है। वह केवल सोचती ही नहीं, उसे पुकारने भी लगती है—‘वनचर’।
अपने इस नामकरण पर वनचर को कुछ अटपटा नहीं लगता। वह मुस्कराभर देता है।
वह सुधीर के पुराने कपड़े उलट-पुलटकर एक क़मीज़ और पैन्ट निकालती है, “ले ये कपड़े पहन।”
वनचर उन कपड़ों को हाथ में लेता है, हाथ में पकड़े-पकड़े हवा में टाँग देता है, और फिस्स से हँस पड़ता है। अपनी स्याह-शफ़्फ़ाक आँखें बचाते हुए कहता है, “बंडी-धोवती पहिनतें।”
वह आश्चर्य से घूरती है। लड़के का इस तरह हँसना, और अपनी दी हुई वस्तु का नकारा जाना उसे अपना अपमान प्रतीत हो सकता है, परन्तु नहीं होता। क्या चीज़ है इस लड़के में, जो इसे शेष सब से अलग खड़ा कर रही है? जंगल से आया है तो जंगल की गंध भी साथ ले आया है। वह डाँटती है, “यहाँ बंडी-धोवती नहीं चलतीं। अभी ये कपड़े पहिन लो, बाद में सिलवा दूँगी।”
डाँट खाकर वनचर के चेहरे की हँसी विलुप्त हो गई है। उसने कपड़े सहेज लिये हैं, पर असमंजस में है कि उनका क्या करे? वह डाँट के ही अभिनय-स्वर में फिर कहती है, “ये बंडी-धोवती आज ही उतार देना। यहाँ तेरा गाँव-जंगल नहीं है।”
वनचर क़मीज़-पैन्ट के बदले हुए विन्यास में आता है, तो देखकर उसकी हँसी रोके नहीं रुकती। वनचर का चेहरा आन्तरिक रुदन से विगलित हो रहा है, जैसे ज़बर्दस्ती उसका धर्म परिवर्तित कराया गया हो। बार-बार नीचे खिसकती पैन्ट देखकर उसे फिर हँसी आती है। फ़ालतू बेल्ट ढूँढ़ती है पर नहीं मिलती। तब एक नाड़ा उसे पकड़ाते हुए कहती है, “ले इससे पैन्ट बाँध ले।”
वही वनचर है यह।
अलगोजे का स्वर कुछ और ऊँचाई पर पहुँचकर स्थिर हो गया है। उसे लगता है वातावरण में मात्र यही एक ध्वनि शेष रह गई है। दो-तीन बच्चे लम्बी कार के पास आकर खड़े हो गए हैं। उनकी तन्मयता अलगोजे से एकस्वर हो गई है। एक बच्चा बीच में आ गया है। अब उसके चेहरे का पार्श्व भाग भी ठीक से नज़र नहीं आ रहा। बच्चा हटे, और वह अपना चेहरा इधर घुमाए। वैसे वनचर ही लग रहा है। अलगोजे पर चलती उँगलियाँ बिल्कुल वैसी ही हैं।
“मैडम, सांब बुलाते हैं,” बहादुर फिर आ गया है।
“सलाद दे दिया?” वह पूछती है।
“जी, सांब,” बहादुर एक मुस्तैद सिपाही की तरह कहता है।
बिना जाए नजात नहीं! वह ड्राइंगरूम की ओर बढ़ने लगती है कि रुक जाती है। उसने साड़ी तो बदली ही नहीं। साड़ी बदलने की इच्छा नहीं होती, मगर बिना साड़ी बदले . . . वह पलटकर अपने कमरे की ओर चल पड़ती है।
साड़ी बदलकर आती है तो अलगोजे का स्वर फिर बाँध लेता है। मगर सुधीर मित्रों के साथ उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। ऐसा क्यों होता है कि सुधीर के पास इस तरह पहुँचना कभी-कभी उसकी विवशता के क़रीब जा पहुँचता है, जबकि उसके जीवन का सर्वप्रमुख एकमात्र प्रयास सुधीर के क़रीब पहुँचने का ही रहा है। उसे क्यों लगता है कि अपने इस प्रयास के तहत वह बार-बार सुधीर से दूर छिटकती रही है? सुधीर ने अपने पास तक आने के लिए उसे जो रास्ते दिए हैं, दरअसल वे सब सुधीर से दूर पहुँचाते हैं। अब यही ड्राइंगरूम वाला रास्ता . . . वह नहीं जाएगी तो सुधीर को बुरा लगेगा, जाएगी तो लगेगा सुधीर ने उसे उन स्थूल त्वचावाले लोगों के बीच फँसाकर स्वयं से कुछ और दूर धकेल दिया है। मन-विरुद्ध अनचाहे लोगों के प्रति झूठा सम्मान प्रदर्शन वज़नी पत्थर बनकर उसके दिमाग़ पर ठहर जाता है। इस पत्थर को ज़बर्दस्ती परे खिसकाकर वह ड्राइंगरूम में घुसती है।
“आइए भाभीजी, आइए। हम तो बहुत देर से आपका इन्तज़ार कर रहे हैं,” फिर वह विद्रूप हँसी।
वह बिना देखे मिस्टर सिंह की इस हँसी को सुनती है। उसके हाथ उस व्यक्ति की ओर जुड़े हैं जो आज का विशिष्ट मेहमान है। वह व्यक्ति शालीनता से हाथ उठाकर आतिथेय अभिवादन का उत्तर देता है। वह बीअर का एक गिलास उठाकर उसकी ओर बढ़ाता है परन्तु वह अतिरिक्त शालीनता बरतते हुए इन्कार कर देती है। वह चाहती है कि उसका ध्यान इन लोगों के बीच रम जाए मगर अलगोजे के स्वर ने उसकी समस्त इच्छा-शक्ति को जैसे अपनी मज़बूत जकड़ में ले रखा है। उसे लगता है, अलगोजे का स्वर कुछ और प्रखर हो उठा है . . .।
“क्यों रे वनचर, तू यह बाँसुरी बजाता है?”
“बाँसुरी नहीं, अलगोजा!”
“अलगोजा! यह क्या होता है?”
वनचर दौड़कर अपनी कोठरी में जाता है, वह बाँसुरियों का जोड़ा उठा लाता है।
“ये तो बाँसुरियाँ हैं।”
“ये अलगोजा है, बहूजी,” अन्य नौकरों की तर्ज़ पर वनचर भी उसे बहूजी कहने लगा है।
“है तो बाँसुरी न।”
“बाँसुरी इकली होती है,” वनचर बताता है।
तब वह समझती है कि बाँसुरी का यह जोड़ा एक भिन्न वाद्य है जिसे वनचर अपनी देशज भाषा में अलगोजा बोल रहा है।
“तूने ये बजाना किससे सीखा?” उसकी उत्सुकता जागती है।
“कक्का से। कक्का बढ़िया बजाबते हैं,” कहते हुए वनचर की काली आँखें चमकती हैं। यह चमक अपने काका के प्रति उसकी श्रद्धा है।
“तू भी तो बढ़िया बजाता है,” वह कहती है।
अपनी प्रशंसा सुनकर वनचर का समूचा चेहरा खिल उठा है, एक बच्चे के मानिन्द। उसकी आँखों में ललक झिलमिला रही है जैसे कहना चाहता हो, बजाऊँ, बहूजी? लेकिन कोई संकोच है जो वह अलगोजे की ओंठों तक नहीं ले जा रहा। वह बिना बोले मन ही मन आग्रह कर रही है, बजा न वनचर मेरे सामने बजा, देखूँ तेरी उँगलियाँ दोनों बाँसुरियों पर एक साथ कैसे मचलती हैं। मगर उसकी वह मौन भाषा वनचर तक नहीं पहुँच रही है। वनचर उसे बिटर-बिटर ताके जा रहा है। वह सिर को झटकती है गो कि किसी ख़्याल को झटका हो। कहती है, “अच्छा अब गुलाब की कटिंग कर डाल, डालियाँ बहुत बड़ी हो गई हैं।”
थोड़ी देर बाद देखती है कि वनचर हाथ में कैंची लिये बैठा है। वह डाँटती है, “तुझसे कटिंग के लिए कहा था न, चुपचाप क्यों बैठा है?” फिर जो बात उसे नहीं कहनी होती है उसे ही कह जाती है, “अलगोजा बजाने को कह दूँ, तो दिनरात बजाता रहेगा।”
वनचर चुपचाप बैठा हुआ है। उसकी चुप्पी अपने प्रति लगाये गये आरोप का तीव्र प्रतिवाद कर रही है। फिर वह चुप्पी तोड़ता है, “अब नहीं बजाबेंगे।”
यह विचित्र इन्कार उसे झिंझोड़ डालता है। वह जल्दी से बोलती है, “मैं बजाने को मना कहाँ करती हूँ, पर और काम भी तो किया कर।” स्वयं उसे पता नहीं लगता है कि इतनी आत्मीयता उसकी आवाज़ में कहाँ से घुल गई है, “तुझे पैसे काम के मिलते हैं। है कि नहीं? तू काम नहीं करेगा तो बाबूजी नाराज़ नहीं होंगे। पैसे तो वे ही देते हैं।”
“काम की मनाही कहाँ करतें।”
“मनाही तो नहीं करता, पर करता भी नहीं! ये कटिंग क्यों नहीं की तूने?”
“हरी डार काटेंते पेड़ रोवतें,” वनचर इस तरह कहता है जैसे पौधों को छाँटने का काम देकर उसे बहुत बड़ी सज़ा दी गई हो।
उसे लगता है, गुलाब की डालियाँ काटने की आज्ञा स्वयं उसने अपनी इच्छा के विरुद्ध दी है। वह भी कहाँ चाहती है कि हरी डालें काटी जायें। लेकिन बँगले में इन पौधों की हेज बनाई जाती है। वह पेड़-पौधों के रोने की चिन्ता करे या हेज को बँगले के अनुरूप करने की। वह कहती है, “अच्छा तू मत कर, बनवारी कर देगा। टहनियाँ इधर-उधर बाहर निकल गई हैं, अच्छी नहीं लगतीं।”
जब बनवारी से कहने का ध्यान आता है तो बनवारी शिकायत पर उत्तर आता है, “कटिंग क्या करूँ बहूजी, आप देखिए उस गाँवड़े ने क्या कर दिया है?”
वह देखती है तो सिहर उठती है। ‘यह क्या बेवुक़ूफ़ी है’—उसे सुधीर का वाक्य याद आता है।
उसने एक बार इसी तरह टहनियों को गूँथ दिया था। उसने सोचा था, सुधीर ख़ुश होंगे। मगर सुधीर ने उस सारी मेहनत को ‘बेवुक़ूफ़ी’ से अलंकृत कर दिया था। वह क्या करे? वनचर ने गुलाब की टहनियों को इतनी कलात्मकता से गूँथा है कि हर पौधा फूलों का प्राकृतिक गुलदान जैसा प्रतीत हो रहा है। एक भी टहनी बाहर निकलकर उस गूँथ के साम्य को खंडित नहीं कर रही। मन होता है, इस कला की उसी तरह प्रशंसा करे जिस तरह उसने एक कला प्रदर्शनी में सुधीर के मित्र कलाकार की पेंटिंग की की थी। मगर उसे अपनी आवाज़ पर आश्चर्य होता है, “यह क्या बेवुक़ूफ़ी है।” उसके मुँह से सुधीर का वाक्य निकला है। वह तेज़ आवाज़ में बनवारी को आदेश देती है, “तुम इस हेज को ठीक करो। यह लड़का न जाने कैसे-कैसे फ़ालतू काम करता रहता है!”
बनवारी कटिंग कर चुकता है, तब वह वनचर के चेहरे को देखती है—उदासी आकुलता का प्रक्षेपण करता चेहरा। सहसा वह उससे आँखें नहीं मिला पाती। एक मन होता है कि उसकी आहत संवेदना को सहलाने के लिए उससे कुछ कहे, मगर उसका अपना आभिजात्य, और वह एक अदना छोकरा। क्या वही अदना छोकरा बाहर खड़ी लम्बी गाड़ी में बैठकर अलगोजा बजा रहा है? उसे सिर्फ़ अलगोजे का स्वर ही सुनाई पड़ रहा है।
“आपको यह आवाज़ पकड़ रही है मिसेज सुधीर,” मिस्टर गुप्ता कहते हैं।
“जी! . . . हाँ . . .” वह प्रकृतिस्थ होने का प्रयास करती है।
“आप जानती हैं यह क्या चीज़ बज रही है?”
वह चुप रहती है।
मिस्टर गुप्ता स्वयं ही बताते हैं, “यह अलगोजा बज रहा है।”
“अलगोजा!” मिस्टर सिंह को इस नाम पर आश्चर्य होता है।
“हाँ, इसमें दो बाँसुरियाँ एक साथ मिली होती हैं। मेरा ड्राइवर बजा रहा है। अच्छा बजा रहा है न?” गुप्ता ने सब लोगों पर समर्थनापेक्षी दृष्टि डाली है।
“वाक़ई अच्छा बजा रहा है,” सुधीर कहते हैं।
वह चौंकती है। यह सुधीर कह रहे हैं? क्या सुधीर को वाक़ई अच्छा लग रहा है? मगर सुधीर का अगला वाक्य है, “हाँ तो रतनलाल हरीचन्द्र के पक्ष में मामला तोड़ा जाय . . .” वह जानती है कि ये लोग जंगल के ठेके की ही बात कर रहे हैं। ठेका उसे ही मिलेगा जो सरकारी शर्तों के अतिरिक्त इन लोगों की निजी शर्तों का पालन करेगा। वही कमीशन . . . पैसा . . . वह जब भी सुधीर के साथ किसी जंगल में गई है तो वृक्षों की बेरहम कटाई देखकर उसका मन क्षुब्ध होता रहा है। नाना याद आते रहे हैं और ननिहाल का गाँव, वह पहाड़ी नदी, उससे लगा वह जंगल . . .
नाना की बातें अभी तक कानों में गूँजती रहती हैं—‘इन वनों से निकलकर आदमी ज़्यादा बर्बर हो गया है। देख, कितनी निष्कलुष संस्कृति है यहाँ की, सब कुछ सच ही सच, न झूठ न फ़रेब। कितनी शान्ति है यहाँ। ये विशाल वृक्ष, ये लतर-झाड़ियाँ, ये छोटे-बड़े पशु-पक्षी, गोह-सर्प, कीट-तितलियाँ।’
जंगल की संगीतमय शान्ति की गहन अनभूति अभी भी उसके मन पर उकरी हुई है। जंगल का जो सन्नाटा उसे डराता रहा है, वही प्रबलता से आकर्षित भी करता रहा है। उसी आकर्षण से बँधी-खिंची वह कभी-कभी ज़िद करके सुधीर के साथ जंगलों की ओर जाती रही है।
सुधीर कितनी सहजता से इन वन-वृक्षों की निर्मम कटाई का आदेश दे देते हैं। जंगल सुधीर की अनुभूतियों को उद्वेलित नहीं करता? झिल्ली-झींगुरों की झंकार उन्हें क्यों नहीं सुनाई पड़ती? और यह अलगोजा . . .
वह देखती है, वनचर घर में नहीं है। बाहर कूड़ा डालने गया है, मगर अभी तक नहीं लौटा। क्या कहीं अलगोजा बजाने बैठ गया? मगर अलगोजे की आवाज़ नहीं आ रही है। फिर? वह ग़ुस्से से भरी बाहर आती है। वनचर नीम के पेड़ के नीचे खड़ा ऊपर ताक रहा है। तन्मय। चेहरे पर ग़ज़ब का उल्लास।
हाथ में लगा कूड़ेदान इस उल्लास की लय पर दोलायित होता हुआ। “क्या कर रहा है तू यहाँ? उधर सारा काम पड़ा है।” वह डाँटती है। वनचर की तन्मयता टूटती है। वह जल्दी से कूड़ा फेंकता है और अन्दर चला जाता है।
लौटते हुए उत्सुकता उसे नीम के पेड़ के नीचे ले जाती है। वह पेड़ के पत्ते और शाखाओं में ऊपर देखती है—दुग्घ धवल बगुले और उनकी प्रणय केलि। उस पक्षिमिथुन को देखते जाने की ललक मन के किसी शिलाखंड से ठंडी धार-सी फूटती है। श्वेत बगुले नहीं, जैसे वह और सुधीर! कैसी है यह नैसर्गिक अनुभूति। फिर वह यकायक चैतन्य होती है। अभी उसने वनचर को डाँटा है, और वह स्वयं . . . शंकित-सी देखती है, किसी ने देखा तो नहीं। अन्दर आती है, और वनचर पर बरस पड़ती है, “तेरा काम में मन नहीं लगता! क्या कर रहा था, वहाँ पेड़ के नीचे? क्या देख रहा था? तुझे रहना हो तो ठीक से रह, वरना निकाल बाहर करूँगी यहाँ से . . .”
सकपकाया हुआ वनचर और हिंस्र होती हुई वह! क्या है यह? क्या हो जाता है उसे? वह वनचर को आँखें पोंछते हुए देखती है, तो लगता है उसका अपना ही कोई दर्द पिघलकर बाहर आना चाहता है। सोचती है, वनचर के सिर पर हाथ फिराए और उसे सारे भय-संकोच से मुक्त कर दे। पर दूसरे नौकर। क्या सोचेंगे वे?
“आप आज कहाँ खोई हुई हैं मैडम?”
वह फिर से अपने आप में लौटती है। सुधीर उसे असहज दृष्टि से देख रहे हैं। उनकी आवाज़ की झुँझलाहट और दबा हुआ ग़ुस्सा उसकी पकड़ में आता है। अपने उच्चस्थ अधिकारी की उपस्थिति उन्हें विनम्र बनाए हुए है, अन्यथा उसे डाँट भी सकते हैं। वह टेबल पर नज़र डालती है। समझ लेती है कि उन्हें ठंडी बीअर की बोतलें और चाहिए। वह उठ खड़ी होती है। “बैठिए मिसेज सुधीर, कहाँ चल दीं आप?” गुप्ता कहते हैं।
“अभी आती हूँ,” वह विनम्रता से कहती है। इस दौर के बाद उसे खाने की मेज़ भी लगानी है। देखना है, बहादुर ने क्या-क्या कर लिया है। इधर यह अलगोजा।
ड्राइंगरूम से निकलते ही दृष्टि फिर उधर ही जा टिकती है, लम्बी कार के ड्राइवर पर। अलगोजे पर लयबद्ध थिरती उँगलियाँ, और सम्मोहक स्वरों में बदलती साँसें। वह उस ओर देखते हुए आगे बढ़ती है तो बरामदे के खम्बे से टकराते-टकराते बचती है। सावधान होती है। अन्दर जाकर फ़्रिज से बोतलें निकालती है। बहादुर को बोतल पहुँचाने का निर्देश देकर, स्वयं, बरामदे में खड़ी हो जाती है। तभी वह चेहरा घूमता है। क्षणांश में सारे संशय मिट जाते हैं। दिल की एक तेज़ धड़क के साथ स्पष्ट रूप से वनचर को पहचानती है। वनचर उसे ही देख रहा है। उसकी उँगलियाँ थम गई हैं। उसकी आँखों में पहचान भी है, और आश्चर्य भी!
बहादुर आकर कहता है, “मैडम!”
वह बहादुर को आगे नहीं बोलने देती, “हाँ, आती हूँ।” कहने के साथ ही वह ड्राइंगरूम की ओर चल पड़ती है। उसका ध्यान वनचर की दृष्टि से जुड़ गया है, जिसमें उसने अपनी पहचान देखी है, और अचानक मुलाक़ात का आश्चर्य भी।
सुधीर कुछ कहें इससे पूर्व ही मिस्टर सिंह बोलता है, “भाभी जी आपके मुँह से कोई ग़ज़ल सुनने का मन हो रहा है।”
मिस्टर गुप्ता कहते हैं, “सुनाइए मिसेज सुधीर, आपके गले की काफ़ी तारीफ़ सुनी है।”
“झूठी तारीफ़ सुनी है आपने। मैं सचमुच गाना नहीं जानती।” वह इस गिजगिजी स्थिति को सचमुच टालना चाहती है। ये लोग भोंथरी संवेदनशीलता वाले लोग हैं, जो न संगीत को समझते हैं, न जिनकी संगीत में रुचि है। वह सिर्फ़ इसलिए गाए कि ये लोग उसकी फ़ालतू तारीफ़ करने का अवसर पा सकें—वाह मिसेज सुधीर बहुत अच्छा गाती हैं आप . . . अरे भाभी जी, आप तो छुपी रुस्तम निकलीं। मज़ाक़ नहीं, आप फ़िल्मों में गाएँ तो बस . . .। नक़ली हँसी, झूठी तारीफ़-आदमी की किस मजबूरी से पैदा होते हैं ये सब? मानव संस्कृति का कौन-सा पक्ष है यह? ये लोग उससे गाने की अपेक्षा रखते हैं जो गायन का क, ख, ग तक नहीं जानती, वनचर को क्यों नहीं बुलाते जो . . .। अलगोजा बन्द क्यों कर दिया है वनचर ने? वह उसे पहचान तो गया है, पर अब क्या सोच रहा होगा? वह अभी भी-उस घटना को . . .
“ये तेरी झोली में क्या भरा हुआ है?”
“टेसू के फूल हैं, बहूजी।”
“टेसू के फूल।”
“हाँ बहूजी, इनमें असली रंग होता है, सच्ची गंध होती है,” वनचर की आँखें भी किसी सच्चे अहसास से चमक रही हैं।
“कहाँ से लाया?” वह पूछती है।
“बेहड़ से तोड़े।”
“क्या करेगा इनका?”
“फागुन है बहूजी,” वनचर की आँखों की चमक और भी स्निग्ध हो गई है।
फागुन है। सुधीर बाहर गए हैं। अभी तक लौटने का कोई संदेश नहीं। बाहर रंग इतनी तेज़ गति से नहीं उड़ रहे, जितनी तेज़ गति से उसका मन उड़ रहा है। सारे शोर और हल्ले-गुल्ले के बीच वह अकेली है, जैसे झुन्ड से छूटा अबाबील-अकेला फड़फड़ाता हुआ।
एकाएक ठंडे पानी की सिहरन और टनकती हँसी। वह सराबोर हो गई है। उसकी सफ़ेद साड़ी पर टेसू का पीला रंग फैल गया है। एक भीनी-सी गंध उस रंग से उठकर दिन के किसी कोने में उजाला-सा बिखेरने लगी है। वनचर खड़ा हुआ है, ख़ाली बाल्टी लिये हुए, स्याह पुतलियों पर शान्त नृत्य करती हँसी। यकायक उसका क्रोध अंगारे की तरह चटकता है, “यह क्या किया तूने, बेवुकूफ़।” फिर चटाक की आवाज़। उसकी हथेली में जलन होने लगी है। वनचर अपने गाल पर हाथ रखे विस्फारित नेत्रों से उसे देख रहा है। हँसी का नृत्य नहीं करुण विलाप है वहाँ।
क्रोध का ज्वार उतरता है। वह वनचर की कोठरी की ओर जाती है। कोठरी ख़ाली है। वह हर जगह देखती है, वनचर कहीं नज़र नहीं आता . . .। वह फिर कोठरी में पहुँचती है। बाक़ी सब है वहाँ, मगर अलगोजा नहीं है . . .। अलगोजा सुना है उसने अब इतने वर्षों बाद।
वह मेहमानों से कहती है, “वनचर से अलगोजा सुनिए न।”
“वनचर,” सुधीर बोलते हैं। बाक़ी लोगों में भी यह नाम उत्सुकता जगा गया है, उनके चेहरे बता रहे हैं।
वह सँभलती है। सुधीर से कहती है, “आपको ध्यान है, वह लड़का, गाँव का, जो आपने रखा था। मैं उसे वनचर कहती थी . . .।”
सुधीर बदलते शहरों-बंगलों के बीच से गुज़रते हुए वनचर तक पहुँच गये हैं, “अरे हाँ, वही है यह? वह तो अचानक ही ग़ायब हो गया था।”
“आप के यहाँ काम कर चुका है?” गुप्ता को आश्चर्य होता है, “मेरे पास यह बहुत दिनों से है। मनमौजी है, पर है विश्वास का आदमी। ड्राइविंग इसे मैंने ही सिखवाई है।”
वह उठे और वनचर को बुलाए! मगर इतने विशिष्ट अतिथियों के आगे एक ड्राइवर को बुलाने के लिए उठना। वह बहादुर को आवाज़ देना ही चाहती थी कि बहादुर आकर खड़ा हो गया है। उसके हाथ में चाबियों का गुच्छा झूल रहा है। बहादुर सुधीर से सम्बोधित होता है, “साब, वो गाड़ी का ड्राइवर ये चाबी दे गया है। बोलता था तबियत ठीक नहीं है, साब को चाबी दे देना।”
“चला गया वह?” वह अकुलाकर पूछती है।
“जी, मैडम!”
उसे लगता है, वर्षों पहले का उसका चाँटा पलटकर उसी के गाल पर लगा है। वह बेसाख़्ता बुदबुदाती है, “वह कुछ भी नहीं भूला।”
मेहमान लोग उसे किंचित चकित-भ्रमित से घूर रहे हैं, मगर उसे अपने अन्दर एक अंधड़ उठता हुआ महसूस हो रहा है। वह मेहमानों की चिन्ता किए बग़ैर उठ खड़ी हुई है। हाँफती-थरथराती अपने कमरे में आ गई है। उसकी नज़र लाल रंग के संदूक पर है जो तीन सन्दूकों के नीचे रखा है।
वह एक-एक कर अपनी सामर्थ्य से कहीं अधिक वज़नी सन्दूकों को नीचे उतार देती है। लाल सन्दूक को खोल उसमें से अपनी नई-पुरानी साड़ियाँ निकाल कर जल्दी-जल्दी बाहर पटकती है। फिर वह साड़ी! सफ़ेद सिल्क की वह साड़ी उसके हाथ में है। वह साड़ी की तहें खोल डालती है। साड़ी अभी तक नई रखी है। साड़ी नहीं टेसू के फूलों का वह रंग जो अभी तक साड़ी पर मौजूद है। इतने वर्षों से उसने साड़ी को नहीं उस रंग को सहेजकर रखा है। उसके ओंठों से अस्फुट ध्वनि फूट रही है, “मुझे माफ़ कर देना वनचर, मुझे माफ़ कर देना।” एक उद्दाम वनगंध उसके चारों ओर चकफेरी मारने लगी है।