प्रेमिका, समुद्र और वह लड़की
विभांशु दिव्याल
बार-बार तट से टकराकर वापस लौट जाती लहरों को अपनी दृष्टि में भरने की वह असफल कोशिश कर रहा था। कल भी वह देर तक इसी समुद्र तट पर और इसी स्थान पर बैठा रहा था। लहरों के सम्मोहन में डूबकर बहुत कुछ भूलने की कोशिश करता रहा था। लेकिन जितनी कोशिश वह भूलने की करता उतनी ही तीव्रता के साथ वह चिरपरिचित चेहरा लहरों पर संतरण करता हुआ उसके क़रीब आ पहुँचता था। जिस काल खण्ड को स्वयं से काटने के प्रयास में उसने आगरा से बम्बई तक की छलाँग लगा दी थी, वह जैसा का तैसा उससे चिपका चला आया था। प्रायः लहरों के मोहक पाश में बँध सारी दीन-दुनिया बिसराकर असीम सागरीय विस्तार को समर्पित हो जाने वाला मन इस बार बछड़े की तरह कुदान भर रहा था। कल भी ऐसा ही हुआ था। आज भी ऐसा हो रहा था।
अपने छोटे शहर से चलते समय सोचा था, महानगरीय व्यस्तता में स्वयं को डुबाकर उस अवांछित स्थिति की तल्ख़ी से छुटकारा पा लेगा। उसे कुछ भी याद नहीं आयेगा। लेकिन अभी तक वह कुछ भी नहीं भुला पाया था। पिछली बार जब उसने बम्बई की यात्रा की थी तो रास्ते की दृश्यावली मन को बाँध लेती थी। वह पहाड़ियों और घाटियों के सम्मोहन में बँधा आत्मविस्मृत हो जाता था। उसकी रूह जंगल, झरनों की भव्य प्राकृतिक वीथिका में भटक जाती थी। तभी वापस आती थी जब किसी स्टेशन पर ट्रेन रुकने लगती थी। फेरीवालों की कर्कश आवाज़ें और उतरने-चढ़नेवाले यात्रियों की चीख-पुकार उसकी भटकी हुई रूह को जबरन उसके पास छोड़ जाती थीं। परन्तु पिंजड़ा खुलते ही उड़ जाने को आतुर पक्षी के मानिन्द उसकी रूह ट्रेन के स्टेशन छोड़ते ही पेड़ों की फुनगियों पर ठहरी हुई शाम की धूप में घुलमिल जाती थी। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ था। पेड़ों की फुनगियों पर वह चेहरा पहले से ही विराजमान मिलता। वह चेहरा उसके दिल व दिमाग़ पर हावी हो जाता, शेष सब उसके पीछे छिप जाता और अब वह चेहरा समुद्र की लहरों पर फैल रहा था . . . उसकी प्रेमिका का चेहरा।
किसी के क़रीब होने के अहसास ने उसे चौंकाया।
एक लड़की उससे सिर्फ़ दो फ़ुट के फ़ासले पर आकर बैठ गयी थी। वह कब वहाँ आकर बैठ गयी थी, इसका उसे क़तई आभास नहीं हुआ था। उसने लड़की के सम्भावित साथी की तलाश में आसपास नज़र घुमाई। कोई और वहाँ नहीं था। लड़की अकेली ही थी। लड़की के इस तरह अपने इतने क़रीब बैठने पर उसे अटपटा लगा। यह लड़की उससे कुछ दूर हटकर भी तो बैठ सकती थी! उसने फिर लहरों के शोर में डूबना चाहा पर क़रीब बैठी लड़की बरबस ही उसके सोचने पर हावी होने लगी।
उसने लड़की की ओर देखा। लड़की पहले से ही उसे देख रही थी। मुस्कुरा दी। उसने चौंककर अपने आज़ू-बाज़ू देखा। कोई नहीं था। लड़की की मुस्कुराहट उसी के लिए थी। क्या अर्थ था इस मुस्कुराहट का? वह अनायास ही पूछ बैठा, “आप मुझे जानती हैं?”
“जानती हूँ,” उसने अपनी मुस्कुराहट को अपने सारे चेहरे पर फैला दिया।
लड़की की यह मुस्कुराहट उसे आम लड़कियों जैसी नहीं लगी। स्वाभाविक रूप से पैदा होने के बावजूद उसका मुस्कुराना अभ्यास-प्रसूत ही अधिक लगा।
लड़की उसकी ओर थोड़ा और खिसक आई। उसने एक बार फिर पहचानने की कोशिश की कि क्या उसने इस लड़की को पहले कहीं देखा था, परन्तु दूर-दूर तक यह चेहरा उसकी स्मृति में नहीं उभरा . . . तब यह लड़की क्यों कह रही थी, ‘जानती हूँ।’
लड़की अब उसके इतने क़रीब थी कि कोई भी उन्हें सागर-तट पर बैठे या टहलते जोड़ों में से एक समझ सकता था। उसके चेहरे पर असमंजस की रेखाएँ गहरी होने लगी थीं कि तभी लड़की ने कहा, “सौ रुपये लूँगी . . .”
इस वाक्य के आख़िरी शब्द उसकी पकड़ से फिसल गये, मगर लड़की का आशय वह भली-भाँति समझ गया था। उसके आगे अनायास ही जो नाटकीय स्थिति पैदा हो गयी थी, वह उसे कल्पनातीत लगी। उसने इस तरह की लड़कियों के बारे में पढ़ा था, सुना था। यह पढ़ना-सुनना भी इतना तटस्थ क़िस्म का था कि किसी भी ऐसी लड़की के सान्निध्य का आकर्षण उसके अन्दर पैदा नहीं हुआ था। परन्तु इस समय तटस्थता का प्रश्न ही नहीं था। सच्चाई के रूप में एक लड़की उससे सटी बैठी थी और रुपये की माँग कर रही थी।
उसे अपने अन्दर की प्रतिक्रिया समझ में नहीं आयी। किसी अनायास संवेग के वशीभूत उसने अपनी जेब में हाथ डाला तो पचास-पचास के तीन नोट उँगलियों में फँसे बाहर निकल आये। दो नोट उसने लड़की की ओर बढ़ा दिये।
रुपये लेकर वह बोली, “चलो।”
“कहाँ?” उसने अनायास ही पूछा।
लड़की उसे घूरकर देखने लगी, जैसे उसने बहुत ही बचकाना सवाल किया हो। लड़की का यह घूरना उसे अहसास करा रहा था कि उसने स्वयं को कैसी बेहूदी स्थिति में फँसा लिया है। लड़की की आँखें अब भी जैसे ‘चलो’ कह रही थीं। वह किसी ख़ास निर्णय पर न पहुँच पाने की दुविधा के मध्य बोला, “चलेंगे, अभी थोड़ी देर रुको।”
डूबते सूर्य का लाल रंग क्षितिज से सिमिट रहा था। लहरों पर स्याही फैल रही थी। उसे लगा कि इस वक़्त की श्यामलता मन को छू रही है। आती हुई लहरों का आकार उनके क़रीब आने पर स्पष्ट होता था।
लड़की ने कहा, “उठो।”
लड़की की बात अनसुनी कर उसने अपनी दृष्टि सहसा समुद्र पर फैला दी। गहराती श्यामलता में घुलती-मिलती लहरों में एक बनाम आकर्षण पैदा हो गया था। मगर इस आकर्षण को उसकी प्रेमिका का चेहरा बेध रहा था, और प्रेमिका के चेहरे के क़रीब बैठी यह लड़की।
तट पर मौजूद लोग छायाकृतियों में बदल गये थे। बच्चों के साथ आए हुए परिवार लौटने लगे थे। अब या तो धुँधलके के कारण पहचान के भय से मुक्त हो उच्छृंखल हो उठे युग्म वहाँ रह गये थे, या इन युग्मों को हसरत से देखते एकाकी पुरुष।
लड़की काफ़ी देर से उससे सटी हुई बैठी थी। लड़की के देह के स्पर्श से पैदा हुए सनसनी-भरे स्पन्दन उसके शरीर में रंगने लगे थे। फिर इन स्पन्दनों के बीच से भी उसकी प्रेमिका के स्पर्श उग आये। उसने कोशिश की कि अपनी प्रेमिका के स्पर्शों की स्मृति को परे धकेल दे, मगर प्रेमिका, वह लड़की और समुद्र तीनों ही एक दूसरे में गड्डमड्ड हो गये।
जिस सम्बन्ध को वह एक लम्बे अर्से से जी रहा था तथा जिसके आसपास ही उसे अपनी ज़िन्दगी ठहरी हुई प्रतीत होती थी, उसकी निरर्थकता का अहसास बहुत तोड़ने वाला सिद्ध हुआ था। अब वह चाहता था कि उस सम्बन्ध से जुड़ा हुआ उसे कुछ भी याद न आये। पास बैठी लड़की और समुद्र की लहरें उस सम्बन्ध की यादों से उलझ तो गयी थीं, मगर उन्हें पूरी तरह दबा नहीं पा रही थीं। क्या किसी विशेष मनःस्थिति का प्रतीक था यह! उन यादों को झटकने के प्रयास में ही वह बोला, “इन लहरों के इतने क़रीब होना कितना अच्छा लगता है!”
“बोम्बे पहली बार आये हो?” लड़की काफ़ी देर बाद बोली।
“नहीं।”
“बीच पर पहली बार आये हो?”
“इस बीच पर पहली बार।”
“तभी तुमको अच्छा लगता है।”
“तुमको अच्छा नहीं लगता?”
“मुझको!” वह फिस्स से हँस पड़ी, “इसमें अच्छा लगने को क्या है?”
“फिर क्यों आती हो यहाँ?” उसने पूछा, मगर अगले ही क्षण उसे अपने सवाल की निरर्थकता का अहसास हुआ। कुछ देर पहले ही उसने सौ रुपये इस लड़की के हवाले किये थे। वह इसीलिए आती थी।
उसने सौ रुपये लड़की को क्यों दे दिये थे? अपना वह क्षणिक आवेग उसे मूर्खतापूर्ण लगने लगा। उस चेहरे से मुक्ति पाने के लिए ही वह एक और असफल प्रयास कर गया था।
“उठना नहीं क्या . . .?” लड़की की आवाज़ में झुँझलाहट थी, “अभी डंडा वर्दी वाला चक्कर लगाने लगेगा इधर . . .”
अँधेरा गहराने लगा था। इतने क़रीब बैठी लड़की का चेहरा भी धुँधला प्रतीत हो रहा था। वह बोला, “अभी थोड़ी देर और बैठो, यहाँ अच्छा लग रहा है।” वह मात्र इसलिए ही वहाँ बैठा नहीं रहना चाहता था कि उसे लहरों को देखना अच्छा लग रहा था। पास में बैठी लड़की अपने स्पर्श के ज़रिये उसके दिमाग़ तक पहुँच रही थी। समुद्र का सौन्दर्य और प्रेमिका का चेहरा, दोनों पर ही अब यह लड़की हावी हो रही थी। क्या सचमुच यह लड़की उसके भीतर से उसकी प्रेमिका के चेहरे को खुरच रही है? क्या उसका अपनी प्रेमिका के प्रति लगाव इतना उथला है कि एक अपरिचित लड़की इसमें आसानी से समा जाय? उसके इस सोच ने उसके अन्दर एक अपराध बोध जगा दिया था। वह कुछ देर और बैठकर स्वयं को इस लड़की के प्रभाव से भी मुक्त करना चाहता था, ठीक उस तरह जिस तरह वह स्वयं को प्रेमिका की स्मृति से मुक्त करने का प्रयास कर रहा था। धुँधलके से आती और फिर उसी में विलीन होती लहरों को देखना उसे अच्छा लग रहा था।
दोनों देर तक चुप रहे।
फिर लड़की ही बोली, “जगह है तुम्हारे पास?”
“है,” अब वह चौंका हुआ-सा समुद्र की लहरों के नीचे बसते जाते रोशनी के जगमगाते शहर को देखने लगा था। तटवर्ती इमारतों में रोशनी होने लगी थी। जगमगाती इमारतों की परछाइयाँ असली इमारतों से अधिक ख़ूबसूरत लग रही थीं। एक शहर समुद्र के ऊपर, एक नीचे। परछाइयाँ भी इतनी ख़ूबसूरत हो सकती हैं!
“कितना अच्छा लगता है . . .” उसने कहा।
लड़की ने कोई उत्तर नहीं दिया। मगर वह उठने के लिए व्यग्र हो रही थी।
जो कुछ वह देख रहा था, उसे किसी भी तरह अवास्तविक नहीं लग रहा था रोशनी का ख़ूबसूरत शहर . . . एक ख़्याल फिर उभर आया। जिससे वह दीवानगी की हद तक जुड़ा रहा था, अगर वही इस पल उसकी बग़ल में मौजूद होती तो . . . यह ख़ूबसूरत शहर कितना और ख़ूबसूरत हो जाता . . . लेकिन उससे तो वह भाग रहा था और उसकी बग़ल में बैठी थी वह लड़की जिसका साथ उसने सौ रुपये देकर ख़रीदा था।
लड़की ने अब उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया था। वह उठने के लिए कुड़मुड़ा रही थी।
सड़क तक आकर दोनों रुक गये। कुछ देर रुके रहे।
लड़की ने पूछा, “कहाँ चलना है?”
“कहीं भी।”
“कहीं भी क्या!” लड़की बिदकी, “तुम तो कह रहे थे तुम्हारे पास जगह है!”
“मेरे पास जगह। किस लिए? कब कहा मैंने?” वह समझ नहीं सका कि लड़की किस जगह की बात कर रही है।
लड़की को यह झूठ नागवार गुज़रा। उसने याद दिलाया कि बीच पर उसने जगह के बारे में पूछा था तो उसने 'हाँ' कह दिया था। तब उसे ध्यान आया कि बेख़ुदी में वह वैसा कुछ कह गया होगा। उसे आश्चर्य हुआ कि अपने इतने क़रीब बैठी लड़की से वह इतना निस्पृह कैसे रह सका था कि उसकी बात भी उसने ध्यान से नहीं सुनी थी। तब उसने यह भी सोचा था कि वह वास्तव में निस्पृह नहीं हुआ बल्कि निस्पृह रहने की जबरिया कोशिश करता रहा था। लड़की की बात पर ध्यान इसलिए नहीं दे पाया था कि लड़की, प्रेमिका और समुद्र तीनों ही सोच में गड्डमड्ड हो रहे थे।
लड़की के चेहरे पर बौखलाहट की रेखाएँ उभरने लगी थीं।
देखकर वह बोला, “मुझे सचमुच . . . सममुच ध्यान नहीं है कि मैं तुमसे क्या कह गया था . . . या उससे पहले कुछ पीते हैं, तब कहीं चलने की सोचेंगे।
“अच्छा रेस्टोरेंट है आस-पास?”
“पीना क्या है?” लड़की ने पूछा।
“कुछ भी।”
“आओ,” लड़की चल पड़ी।
वह लड़की के साथ चल रहा था।
लड़की जब उसे एक जनरल स्टोर के अन्दर ले जाने लगी, तो उसे असमंजस हुआ। लेकिर अन्दर आते ही वह असमंजस मिट गया। बाहर से जो मात्र जनरल स्टोर था वह अन्दर से बार भी था। वे छोटे से हॉलनुमा कमरे में पड़ी मेज़ों को पार करते हुए कोने की एक मेज़ पर बैठ गये।
“तुम ड्रिंक करती हो?” उसने पूछा।
“कभी-कभी, लेकिन इस समय सिर्फ़ बीयर लूँगी,” लड़की के चेहरे की बौखलाहट मिट गयी थी और वह पूरी तरह सामान्य नज़र आ रही थी।
बीयर की चुस्कियों के मध्य उनके बीच चुप्पी तनी रही।
यह चुप्पी और फिसलता समय लड़की को ही खले। वह बोली, “तुम इतने इत्मीनान से बैठे हो जैसे कहीं जाने की जल्दी नहीं।”
“जल्दी है भी नहीं। वैसे भी यहाँ बैठना बुरा नहीं लग रहा,” उसने अपना इत्मीनान बनाये रखते हुए कहा। उसने देखा कि हॉल की ख़ाली मेज़ें तेज़ी से भरती जा रही हैं। उसके साथ की लड़की के अलावा केवल एक लड़की और वहाँ मौजूद थी। उस दूसरी लड़की के साथ एक अधगंजा व्यक्ति बैठा था, जो लड़की के ताऊ की उम्र का नज़र आ रहा था।
उस अधगंजे व्यक्ति के साथ की लड़की की ओर उसे घूरते देख वह बोली, “क्या देख रहे हो?
“वह जोड़ा देखने लायक़ नहीं है,” उसने कहा।
“वे मियाँ-बीवी नहीं हैं।”
“तुम उन्हें जानती हो?”
“लड़की को जानती हूँ। हमारी लाइन की है,” वह मुस्करायी।
उसने महसूस किया, अब गंजे व्यक्ति के साथ वाली लड़की के बारे में बात नहीं की जा सकती। लड़की को लेकर कसा गया कोई व्यंग्य उसके साथ वाली लड़की को आहत कर सकता था और गंजे को लेकर कही गयी किसी भी बात की नोक स्वयं उसे चुभ सकती थी। उस समय उसकी और उस गंजे व्यक्ति की हैसियत एक थी—ग्राहक की।
एकाएक उसे ध्यान आया कि लड़की की भाषा और उसका उच्चारण ख़ास महानगरीय नहीं है। उसने पूछा, “तुम यहीं की रहने वाली हो?”
“नहीं, यू.पी. की! तुम भी यू.पी. के ही हो न।”
“हाँ,” उसने पूछना चाहा कि वह यहाँ क्यों चली आयी थी, मगर अपने अन्दर बैठा हुआ यह सवाल उसे निरर्थक लगा। न जाने कितने तरह के प्रलोभन हैं यहाँ। कहाँ-कहाँ से भाग-भाग कर लड़कियाँ यहाँ पहुँचती हैं। यह उन्हीं में से एक रही होगी। किसी के साथ भाग आयी होगी और वह इसे यहाँ फँसा कर रफ़ू-चक्कर हो गया होगा। उसे लगा, लड़की का साथ उसे असहज बना रहा है। वह स्वयं को कहीं बहुत कमज़ोर पा रहा था। बेकार ही गले बाँध लिया इसे।
तभी लड़की ने पूछा, “तुम बिज़नेस के लिए आये हो?”
“बिज़नेस,” वह हँसा, “मैं तुम्हें लाला नज़र आता हूँ।”
“फिर कौन काम से आये हो, फ़िल्मों के चक्कर में?”
“न, नहीं, फ़िल्मों से मेरा सिर्फ़ देखने तक का रिश्ता है।”
“फिर मस्ती करने आये हो?” लड़की की आँखें मिचीं और आँखों की कोर से लेकर कपोलों तक मुस्कान की मशीनी क़िस्म की रेखाएँ बन गयीं।
लड़की का यह प्रश्न-वाक्य उसे छिछोरे क़िस्म का लगा। वह यह भी पूछ सकती थी कि, ‘यहाँ घूमने आये हो?’ लेकिन बाज़ारू शब्दावली में पूछे गये सवाल की तल्ख़ी अधिक समय तक नहीं ठहरी। उसके पास जो लड़की बैठी थी, वह अभिजात संस्कारों वाली शिक्षित लड़की न होकर धन्धा करने वाली लड़की थी। उससे इसी प्रकार की भाषा की अपेक्षा की जा सकती थी। इस विचार के साथ ही उसने पहली बार लड़की के चेहरे पर खोजपूर्ण दृष्टि डाली। साँवले रंग को मेकअप की परत के नीचे छिपाने की भरपूर कोशिश की गयी थी। चेहरे पर खुरदरे स्थान को सही बनाने का भाव पूरी तरह उभर रहा था। तीखे नक़्शों का प्रभाव कभी ज़बरदस्त आकर्षण का कारण रहा होगा, परन्तु यह तीखापन त्वचा की कुम्लाहट के कारण भोंथरा होने लगा था। लेकिन बड़ी और . . . गहरी आँखों का आकर्षण अभी भी बना हुआ था। उसकी इन गहरी आँखों में जो चमक थी, वह उसके व्यक्तित्व की तेज़ी का प्रतीक बनी हुई थी।
लड़की ने अपना सवाल फिर दुहराया, “तुमने बताया नहीं, तुम क्यों आये हो?”
क्षणांश में ही उसने एक युग जी लिया। बहुत कुछ आँखों के आगे से ही गुज़रा। वह क्यों भाग आया था यहाँ? उसने महसूस किया कि स्वयं उसके पास ही इस 'क्यों' का कोई सटीक उत्तर नहीं है, फिर किसी अन्य को वह क्या समझाता।
लड़की ने ज़िद की, “बताओ न।”
उस लड़की का यह सवाल ऐसी लड़कियों से सम्बन्धित पढ़ी-सुनी जानकारी के सन्दर्भ में असंगत लगा। उसने सुना था, धन्धे वाली लड़कियाँ अधिक सवाल-जवाब नहीं करतीं। न वे सही परिचय बताती हैं और न ऐसी बात ही मुँह से निकालती हैं जिससे किसी के मन में उनके प्रति सन्देह पैदा हो। फिर यह क्यों इस तरह पूछ रही थी? क्या इस तरह आत्मीयता जताना भी इसके व्यवसाय का अंग है? वह बोला, “मैं शायद बता न पाऊँ, और अगर बताऊँ भी तो शायद तुम समझ न पाओ।”
“वाह, तुमने अपने आप ही समझ लिया कि मैं समझ नहीं पाऊँगी। बताओ न!”
बीयर की बोतलें ख़ाली होने को हो रही थीं। उसने पहले दोनों बोतलों को देखा, फिर बीयर के पीले रंग पर कुछ क्षण उसकी दृष्टि सधी रही। वह लड़की से बोलने के लिए शब्द तलाशने लगा। बीयर से हटाकर उसने अपनी दृष्टि लड़की के चेहरे पर टिका दी। फिर बोला, “मैं अपने आप से भाग कर यहाँ चला आया हूँ।”
लड़की ने सुना, मगर एक बार पलकें झपका कर फिर उसे ताकने लगी। निश्चित ही उसकी बात लड़की के पल्ले नहीं पड़ी थी।
वह हँस पड़ा, “नहीं समझी न। दरअसल मैं बहुत परेशान हो गया था। अपने आप में बुरी तरह उलझ गया था। मैं यह सोचकर वहाँ से भाग लिया था कि यहाँ के माहौल में उन उलझनों से छुटकारा पा लूँगा।”
“ऐसा क्या दुःख आ पड़ा? कुछ घाटे-वाटे का चक्कर हो गया था क्या? किसी ने पैसा-वैसा मार लिया?”
“क्या सारा दुःख पैसे को ही लेकर होता है? और दुःख नहीं होते?”
“होते हैं, पर पैसे का दुःख नहीं हुआ तो कोई दुःख नहीं रहता।”
“इसीलिए तो मैं कहता था कि तुम्हारी समझ में नहीं आयेगा। मेरा दुःख पैसे का नहीं मात्र एक चीज़ को महसूस करने का दुःख है। एक अहसास का, एक ख़्याल का दुख। समझीं?”
“ओ, तो यह कहो न, इश्क़-विश्क़ का चक्कर था। तुम्हें छोड़कर भाग गई क्या तुम्हारी महबूबा?” वह हँसने लगी।
लड़की की इस हँसी से उसे बाज़ारू फूहड़पन फूटता प्रतीत हुआ। उसे फिर एक बार अपने आप पर कोफ़्त हुई। उसने क्यों इस लड़की को अपने से हिलगा लिया?
उसके चेहरे के बदलाव को लड़की ने भाँप लिया। वह बोली, “भई, मेरी बात का बुरा मत मानना, मैं तो ऐसे ही आप लोगों से मज़ाक़ मारी कर देती हूँ।”
आप लोगों से उसका तात्पर्य अपने ग्राहकों से ही था। इस समय वह भी ‘आप लोगों’ में से एक था लेकिन अपने इस ख़्याल के बीच से ही उसे एक बबूला-सा उभरता लगा। वह कुछ कहने की ज़रूरत महसूस करने लगा, जैसे कहकर ही उसके अन्दर के ग़ुबार का बबूला फूटेगा। एकाएक लड़की अपनी प्रमुखता खो बैठी। प्रमुख हो गया वह सब कह देना जो उसके अन्दर फूट रहा था। उसके अन्दर एक उफान-सा उठ रहा था जिसका झाग अब दब नहीं पा रहा था। लड़की कुछ समझती है या नहीं, इससे फ़र्क़ नहीं पड़ना था। वह मात्र झाग को बाहर फेंकना चाहता था। उसने लड़की की आँखों में आँखें डालते हुए कहा, “तुमने कभी किसी से प्यार किया है?”
“प्यार!” लड़की एकाएक सकपकाई। उसकी आँखें कुछ फैलीं, फिर सिकुड़ गईं। फिर वह खिलखिलाकर हँसी और हँसी के बीच ही बोली, “यहाँ तो डेली एक-दो प्यार करना पड़ता है।”
लड़की की हँसी थमी तो फिर उसे अपनी बेवुक़ूफ़ी पर झुँझलाहट आने लगी। उसने कैसी लड़की से कैसा सवाल पूछ डाला था? लेकिन हँसने से पहले उसकी आँखें सिकुड़ क्यों गई थीं। लगा था, प्यार शब्द किसी भारी वस्तु की तरह उससे टकराया हो। लड़की का असली उत्तर उसका हँसना नहीं था। असली उत्तर शायद उसकी आँखों का एकाएक फैलकर सिकुड़ जाना था। उसकी हँसी तो जैसे किसी चीज़ को ढकने का आवरण मात्र थी।
लड़की ने फिर कहा, “तुम कहो न, क्या कहना चाहते हो। मुझे क्यों बीच में घसीटते हो? मैं बेवुक़ूफ़ नहीं हूँ, सब समझ लूँगी।”
इस बार उसे लगा, लड़की वास्तव में सब कुछ समझ लेगी। अगर न भी समझे तो भी उसे कहना ही था। एक बार कहकर वह स्वयं जानना चाहता था कि अन्दर के उस ग़ुबार को प्रकट करने के लिए उसके पास कौन से शब्द हैं।
अन्दर से उठता ग़ुबार। ज़ुबान खोलने की कोशिश। उसे लगा, वह रो पड़ेगा। मगर नहीं, वह हँस पड़ा। लड़की से बोला, “तुमने बच्चों की कहानियाँ सुनी हैं? एक राजकुमार था, परीदेश की राजकुमारी से बेहद प्यार करता था लेकिन वह कभी . . .” अपनी बात कह कर वह ख़ुद ही ज़ोरों से हँस पड़ा। जबकि लड़की उसे ताकती भर रही। अपने अन्दर टीसते द्वन्द्व को वह इस हँसी से बाहर उलीचना चाहता था, लेकिन उसका यह प्रयास पूरी तरह असफल रहा था। वह सायास हँसा था। संजीदगी उस पर अनायास छाती जा रही थी। लड़की की ओर देखे बिना ही वह बोलने लगा, “मैं एक लड़की से प्यार करता था।”
“इसमें क्या बात है। हर कोई करता है। वहाँ तुम उस लड़की से प्यार करते थे यहाँ मुझसे कर रहे हो,” लड़की ने इस बार दाँत भी चमका दिये।
यह फूहड़ हँसी उसे नागवार गुज़री। इच्छा हुई, लड़की को धक्का दे और बाहर कर दे।
लड़की उसके चेहरे पर अपनी हँसी की प्रतिक्रिया भाँप गई। वह बोली, “मेरी बात का बुरा मत मानना। मैं तो ऐसे ही मज़ाक़ कर रही थी। तुम बताओ।”
उसने मन ही मन दुहराया कि जिसे वह बता रहा है, उसका कोई महत्त्व नहीं, महत्त्व सिर्फ़ उसका है जो बताया जा रहा है। वह बताने को हुआ तो लगा शब्द साथ नहीं दे रहे हैं। वह जो कहना चाहता है, उसे कहने के लिए शब्द नहीं मिल रहे हैं। शब्दों की कंगाली उसे पहली बार इतनी महसूस हुई। फिर उसने सोचा, शब्दों की भी अपनी सीमा होती है। यह आवश्यक तो नहीं है कि मन के स्तर पर जो कुछ भी घटित हो, उसे शब्दों से बाँधा ही जा सके।
वह लड़की को अपने यहाँ भाग आने का कारण बताना चाहता था। इस कारण के अन्तर्गत उसे किसी घटना का वर्णन करना था, लेकिन उसके और उसकी प्रेमिका के मध्य कोई ऐसी घटना नहीं घटी थी जिसे वह कारण के रूप में आद्योपांत बयान कर पाता। घटना के नाम पर समूचा सम्बन्ध ही एक घटना थी। कभी-कभी कोई घटना पूरी की पूरी एक साथ नहीं घटती, वह अंश-अंश घटती है। उस घटना का कोई रूप भी नहीं बनता, केवल घटना की परिणति का रूप बनता है। वह अपना शहर छोड़ भाग खड़ा हुआ है, यह घटना नहीं, घटना की परिणति है। घटना को तो आज भी वह अपने समूचे रूप में नहीं पकड़ पा रहा है। कुछ अंश अवश्य पकड़ में आते हैं।
परिचय के तुरन्त बाद ही वह उसे विशेष महसूस हुई थी। जैसे-जैसे उसके सम्पर्क में आता गया, वैसे-वैसे उसे अपने क़रीब पाता गया। फिर वह महसूस करने लगा था कि बिना उसके उसका जीवन अधूरा है। उसकी उपस्थिति से वह अपने आपको भरा-भरा महसूस करता था, तो उसकी अनुपस्थिति में एकदम ख़ाली, सिर्फ़ उसे महसूस करने की कोशिश करता हुआ। उसे लगने लगा था कि वह उसकी ज़िन्दगी की एक आवश्यक शर्त बन गई है। वह जब भी अकेला होता तो पाता कि यह उसी को लेकर ताने-बाने बुन रहा है।
क्या वह भी उसे लेकर इसी तरह सोचती होगी! सोचती ही होगी, तभी जब वह उसे लेकर सपनों की बात करता, तो वह मन्द-मन्द मुस्कराने लगती थी। वह निहायत गोपन सम्बन्धों को लेकर कोई बात करता, वह तब भी मुस्कुराती थी। उसे लगता था जैसे उसकी प्रेमिका की यह मुस्कुराहट उसके अपने अधिकार क्षेत्र का विस्तार कर रही हो। इस अधिकार बोध के तहत जब वह उसका हाथ दबाने लगता था, वह तब भी मुस्कुराती रहती थी। तब उसे लगता, एक-दूसरे पर उनके अधिकार इतने पुष्ट हो जायेंगे कि उनके बीच दूरी बनाये रखने वाली कोई दीवार नहीं रहेगी। उसे यह सब सोचना, फिर इस सोचने में डूब जाना, किसी ख़ूबसूरत नशे जैसा लगता।
एक दिन वह कुछ देर तक उसके साथ रेस्तरां में बैठी रही थी। जब वह उठने को हुई तो उसने हाथ पकड़कर उसे फिर से वहीं बिठा दिया। वह कुछ देर और उसके साथ बैठना चाहता था।
वह बोली, “देर हो जायेगी।”
“हो जाने दो, तुम अब भी देर की चिन्ता करती हो?”
“क्यों, अब क्या हो गया?” उसने सवाल किया और फिर इस सवाल को आँखों में टाँगकर उसे देखने-सी लगी।
उसे धक्का लगा।
इस ‘अब’ की व्याख्या उसने अपने लिए की—इतने दिनों की प्रगाढ़ता और घनिष्ठ समझ के उपरान्त जबकि वे किसी भी समय अपने सम्बन्ध को आधिकारिक रूप देने के लिए सामाजिक सहमति पाने का प्रयास कर सकते थे, उसे अब अन्य वस्तुओं या स्थितियों को लेकर चिन्तित नहीं होना चाहिए था। क्या इतनी-सी बात भी वह नहीं समझती थी? क्या इसे भी बोलकर बताने की ज़रूरत थी? इतना तो उसे ख़ुद समझना चाहिए था . . .। उसके बाद वह जितनी भी देर रेस्तरां में बैठा, एक शब्द नहीं बोल पाया।
लड़की ने पूछा, “तुम अपनी प्रेमिका के बारे में बता रहे थे।”
“हाँ, मेरी प्रेमिका रेस्टोरेंट में अधिक देर तक नहीं बैठ सकती थी,” उसने कहा।
“यह भी कोई बात हुई भला,” लड़की उसे इस तरह देख रही थी जैसे किसी सिरफिरे को देख रही हो।
ऊपर से देखने पर तो उसे भी लगा था कि यह कोई बात नहीं हुई। लेकिन अन्दर कुछ न कुछ अवश्य हो गया था। घटना का एक अंश घट गया था। इसी तरह उस दिन भी एक अंश घट गया था जब उसे अपनी इस प्रेमिका के साथ कुछ एकान्त क्षण मिले थे। तब उसने अनायास ही अपने ओंठों से उसके ओंठों को महसूस करने की कोशिश कर डाली थी। और वह बेपहचानी दृष्टि से उसे देखने लगी थी, “यह क्या तरीक़ा है . . .”
“प्यार का,” उसने मज़ाक़ करना चाहा।
लेकिन उसका चेहरा काफ़ी सख़्त हो गया था, “प्यार इस तरह शरीर से नहीं मन से होता है। और तुम . . .” पता नहीं वह क्या कह कर बात पूरी करना चाहती थी, परन्तु इस बार उसके स्वर में मुलायमत नहीं थी।
उसके अन्दर क्षण-भर पहले जो रोशनी पैदा हुई थी वह झप से बुझ गई। क्या वह सचमुच ‘मन’ का मतलब समझती थी? अगर समझती तो उसकी इस कोशिश के पीछे खड़े मन को अवश्य देख लेती। वह उसकी रूह की तड़प को नहीं देख सकी थी। सिर्फ़ इतना देख सकी थी कि वह उसके शरीर से प्यार करता था . . .।
फिर उसकी कोशिश के पीछे भी ठोस वजह थी। यदा-कदा वह उसकी हथेली अपनी उँगलियों में फँसा कर अपने ओंठों तक ले जाता था। उसकी उँगलियों के पोरों पर अपने ओंठ रख देता था। तब उसकी प्रेमिका के चेहरे पर गुलाब पंखुरी-सी मुस्कुराहट आ जाती थी और आँखों में शरारत-भरी चमक। फिर वह अपनी हथेली को उसकी गिरफ़्त से मुक्त कराके थोड़ा सरककर फ़ासला बना दिया करती थी। उसे अपनी प्रेमिका का इस तरह फ़ासला बनाना मर्यादा के तहत लगता था। इस मर्यादा का सम्मान वह भी करता था। इसे लाँघने की बदनीयती भी कभी उसमें नहीं आई थी। इस पर भी वह उस पर शक कर बैठी थी।
मौक़ा देखकर कुछ दिनों के बाद उसने इस घटना के बारे में पूछा था, “तुम्हें उस दिन सचमुच बुरा लगा था?”
“नहीं तो,” कह कर वह हँसने लगी थी। उसकी हँसी से संगीत फूटता हुआ लगा था।
वह आश्चर्य से देखता रहा था। फिर स्वयं भी मुस्कराने लगा था।
इधर लड़की भी आश्चर्य से उसे देख रही थी। बोली, “और कोई बात हुई थी?”
“एक बार मैंने उसे चूमना चाहा था तो उसे अच्छा नहीं लगा था।”
“अच्छा!”
“जब मैंने उससे पूछा तो बोली कि उसे बुरा भी नहीं लगा।” उसने लड़की को बताया।
लड़की ने एक बार आँखें फैलाकर सिकोड़ी और फिस्स से हँस पड़ी, “किसी एक के भेजे में कोई गड़बड़ ज़रूर रही होगी।”
उसने महसूस किया, अगर इस लड़की के आगे उसकी व्यावसायिक बाधा नहीं होती तो वह इस समय उसका भरपूर मज़ाक़ उड़ाती।
वह एक घर की कल्पना करने लगा था—एक ख़ूबसूरत घर की। इस घर में वह होता, बीवी में बदली हुई उसकी प्रेमिका होती थी, और उन दोनों के बच्चे होते थे—बेहद शरारती, बेहद ख़ूबसूरत। उसका यह घर कभी समुद्र की शांत लहरों के पास बन जाता था, कभी किसी एकान्त बर्फ़ीली पहाड़ी पर तो कभी सतरंगे फूलों की घाटियों में बहती नदी के तट पर। फिर जैसे ही उसे गृहस्वामिनी की ज़रूरतों और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का ख़्याल आता, तो उसका यह घर किसी औद्योगिक बस्ती में पहुँच जाता जहाँ रहकर उसे अपनी रोज़ी-रोटी की व्यवस्था करनी थी।
लेकिन उसके इस घर की दीवारें एक झटके से भरभरा गयीं। उसे मालूम हुआ कि उसकी प्रेमिका के रिश्ते की बात चल रही है।
उसने पूछा था, “क्या यह सच है कि तुम्हारे रिश्ते की बात हो रही है?”
वह आँखें नीची किये चुप रही थी।
“तुम अपने पिताजी से स्पष्ट कहती क्यों नहीं?”
वह चुप रही।
“अगर चुप ही रहना था तो तुमने . . . तुमने . . .” वह कहना चाहता था कि वह ख़ूबसूरत घर बनने ही क्यों दिया? लेकिन कह नहीं सका। सोचा, वह स्वयं ही समझेगी।
वह चुप ही रही।
उस समय उसे अपनी यह शिष्ट, शालीन और ख़ूबसूरत प्रेमिका बहुत बदसूरत नज़र आयी थी। वह न तो उसे साफ़-साफ़ स्वीकार कर पा रही थी, न नकार पा रही थी, न उसका विरोध कर पा रही थी, न उसके लिए किसी अन्य का विरोध कर रही थी। ठीक है, वह उसके लिए अन्य लोगों से नहीं लड़ सकती थी, लेकिन उसे अधर में तो न लटकाये। स्पष्ट शब्दों में इन्कार करके वापस तो लौटा सकती थी। ऐसा करने में तो कोई असमर्थता नहीं थी।
एकाएक अपना यह सम्बन्ध उसे बहुत लिजलिजा लगने लगा था। वह वहाँ से भाग खड़ा हुआ था। अब चाहता था कि उसकी प्रेमिका का जो चेहरा उसका पीछा करता हुआ यहाँ तक चला आया है, उससे किसी तरह मुक्ति पाये।
लड़की ने कहा, “आगे बताओ।”
“आगे!” उसने एक लम्बी साँस ली, “अब उसकी शादी की बात कहीं और हो रही है।”
“. . . और तुम यहाँ भाग आये।” लड़की बिना आस-पास का ध्यान किये, खिलखिलाकर हँस रही थी। क़रीबी मेज़ों पर बैठे लोग उसे देखने लगे-दूसरी लड़की के साथ बैठा हुआ वह अधगंजा व्यक्ति भी।
लड़की की यह हँसी उसे बुरी नहीं लगी। उसे अपना जी हल्का लग रहा था। कहने को तो उसने कुछ भी नहीं कहा था, फिर भी अन्दर का उफान बाहर निकल गया था। इस लड़की से न तो उसे किसी प्रतिक्रिया की अपेक्षा थी, न किसी सहानुभूति की, फिर भी वह कह गया, “मैंने कहा था न, तुम्हारी समझ में कुछ नहीं आयेगा। ठीक कहा था न?”
लड़की ने उसके चेहरे पर देखा, उसकी हँसी न जाने कहाँ तिरोहित हो गयी थी। वह किसी तनाव से गुज़रती हुई लग रही थी। धीरे से बोली, “अब तो तुम्हें उस पर ग़ुस्सा आ रहा होगा।”
“उस पर नहीं, अपने आप पर,” उसने हँसने की कोशिश की, मगर हँस नहीं सका।
“तुम उसके पास जाओगे अब?”
“अब मेरे लिए वहाँ क्या है?”
“तुम्हारे लिए वहाँ कभी भी कुछ नहीं था।”
“क्या मतलब?”
“कुछ नहीं, वैसे ही . . .” वह चुप्पी मार गयी।
एकाएक उसे हॉल में घुटते धुएँ का अहसास हुआ। वह उठ खड़ा हुआ। लड़की भी उठकर खड़ी हो गयी।
दोनों फिर सड़क पर चल रहे थे। दोनों चुप थे। उसने महसूस किया कि अब यह लड़की उसके दिमाग़ पर हावी नहीं है। और उसे लड़की की ज़रूरत नहीं है। लड़की से मुक्ति पाने का ख़्याल मन में घुमड़ रहा था। लेकिन लड़की का कुछ देर पहले बोला गया वाक्य अभी भी उसे कुरेद रहा था। उसने पूछा, “तुमने वह बात क्यों कही?”
“तुम नहीं समझोगे,” लड़की ने उसी के शब्दों को उत्तर बनाकर लौटा दिया था। इस बार उसके चेहरे की सारी व्यावसायिकता ग़ायब थी। उसकी जगह मुलायम-सी मुस्कान थी। फूहड़पन नहीं था।
वह बोला, “कोशिश करो, शायद समझ जाऊँ।”
“तुमने पूछा था न, मैंने किसी से प्यार किया था। हाँ, मैंने प्यार किया था। मुझे सिर्फ़ वही दिखलायी पड़ता था। मैं उसके एक इशारे पर जान देने को तैयार रहती थी . . . जान दे भी दी उसके लिए। मेरा बाप नहीं चाहता था कि मैं उससे मिलूँ। माँ चाहती थी कि उसका साया भी मेरे ऊपर न पड़े। मैं उसे प्यार करती थी, उसकी दीवानी थी। उसके लिए सबको लात लगा दी और निकल आयी उसके साथ। प्यार करने वाली लड़की का दीन-ईमान उसका प्रेमी हो जाता है, इसका किसे होश रहता है कि देह क्या चाहती है, मन क्या माँगता है, दिमाग़ क्या चाहता है। सब एक होकर एक तरफ़ भागते हैं। समझे कुछ!” लड़की सीधे उसकी आँखों में देख रही थी।
वह सकते में आ गया। लड़की चुप हो गई थी, मगर उसका मौन ज़िन्दा भाषा की तरह अपना अर्थ पूरा कर रहा था। वह जितना समझाना चाहता था, लड़की उससे भी कहीं अधिक समझ गयी थी। क्या सचमुच उसके लिए वहाँ कभी कुछ नहीं था। इस बात को स्वीकार के स्वयं अपने आप को ही नकारने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। लेकिन वह अन्दर ही अन्दर थरथराता रहा।
लड़की की आगे की कहानी कुछ भी हो सकती थी। स्वेच्छा या विवशता से पैदा हुई कोई भी परिस्थिति उसके पेशे से जुड़ी हो सकती थी। उस परिस्थिति को उघाड़ कर उसे निहत्था करने की उसकी क़तई इच्छा नहीं हुई। मगर वह अपने आप से बार-बार कह रहा था कि इस लड़की का अंधा प्यार ही इसकी ज़िन्दगी की दुर्घटना बन गया है। इसके शरीर-व्यापार के पीछे कहीं-न-कहीं इसके प्रेमी की बेईमानी छिपी हुई है। भावनाओं के ज्वार पर दिमाग़ का नियन्त्रण तो होना ही चाहिए। पता नहीं यह ज्वार ज़िन्दगी के समुद्र की किन काली लहरों के बीच ले जाकर पटक दे।
इस क्षण उसने महसूस किया कि अपनी प्रेमिका के प्रति उसकी शिकायत उम्र नहीं रह गयी है। भावनाओं के खेल में वह सावधानी ही तो बरत रही थी।
वह दिमाग़ी नियन्त्रण के तर्क पर सोच रहा था। इस तर्क की सार्थकता और सघनता कहीं से भी खंडित नहीं हो रही थी। फिर भी वह इस ख़्याल को नहीं निकाल पा रहा था कि वह अपनी प्रेमिका में हमेशा ऐसी ही लड़की को तलाशता रहा था जिसका दीन-ईमान उसका प्रेमी हो जाता है, जिसे इसका होश नहीं रहता कि देह क्या चाहती है, मन क्या माँगता है, दिमाग़ क्या कहता है। अपने साथ की लड़की के लिए उसके मन में गहरी सहानुभूति पैदा हो गई थी। लड़की उसे अपने काफ़ी क़रीब महसूस हो रही थी, और अब वह बहुत सहज होकर उसके साथ चल रहा था।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कहानी
-
- अनुभव
- अब मत आना किन्नी
- असली कहानी
- आतंक मुक्ति
- ऊसरा
- एक अच्छा सा दिन
- एक और चेहरा
- कहीं कुछ अटका हुआ
- काला दाग़
- कीड़े
- गली के कुत्ते
- तंत्र
- तीसरा कंडोम
- नकार नृत्य
- पिंजरे में क़ैद एक चिड़िया
- पिता
- प्यार बाज़ार
- प्रतीक्षा
- प्रेमिका, समुद्र और वह लड़की
- बँधुआ
- बिरादरी
- मौक़ा
- लय
- लल्लू लाल कौ रुपैया
- लुटेरे
- वनचर
- वह अनुभव
- वे ही
- सुसाइड नोट
- सोनपरी
- स्वयं से स्वयं तक
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
- विडियो
-
- ऑडियो
-