कहीं कुछ अटका हुआ

15-02-2025

कहीं कुछ अटका हुआ

विभांशु दिव्याल (अंक: 271, फरवरी द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

मेज़ पर कोई फ़ाइल नहीं थी, सामने की कुर्सी पर कोई मुलाक़ाती नहीं था। ऐसा बहुत कम होता था। पर जब भी ऐसा होता था, उसे आत्ममुग्ध होने का पूरा अवसर मिलता था। अपने प्रभाव और पद को महसूसने में भी एक नशा होता है, जिसकी तरंग दिल-दिमाग़ को हवा में उठाये रखती है। अपने आस-पास के तमाम लोगों से काफ़ी ऊपर हवा में उठे रहना उसे भला प्रतीत होता था। ऐसे समय ही उसकी कुछ और ऊपर उठने की आकांक्षा फन निकालती थी। और वह ऊँचाई तक ले जानेवाली सीढ़ियों के बारे में सोचने लगता था। उसका सोचना न तो केवल सोचना होता था, न निरर्थक। उसके सोच से प्रायः कोई ठोस योजना पैदा होती थी और शीघ्र ही वह पाता था कि उसकी योजना उसके लिए सीढ़ी बन गयी है। वह कुछ और ऊपर उठ जाता था, कुछ और लोग उससे नीचे हो जाते थे। तब वह दुहरा सुख भोगता था—अपने ऊपर उठे होने का सुख, दूसरों के अपने से नीचे होने का सुख। इस समय वह इसी दुहरी सुखानुभूति से गुज़र रहा था। 

फोन टिनटिनाया! आवाज़ बहुत धीमी थी। ऑफ़िस के अपने एक्सचेंज से नियंत्रित, गोया उसके अफ़सरी रोब-दाब के आगे फोन को भी घनघनाने की इजाज़त न हो। अपने आप से बाहर निकलने का मन नहीं हो रहा था, पर फोन सचिवालय से भी हो सकता था। फिर कुमारी रमणिका गुलाटी . . . इस ख़्याल के साथ ही उसने चोगा उठा लिया। उधर की आवाज़ को पहचानते ही वह चहका, “शैतान को याद करो, और शैतान हाज़िर! भई मैं तुम्हें ही याद कर रहा था . . . हाँ आज ऑफ़िस के बाद ठीक है . . . तुम्हें पिक-अप कर लूँगा श्रीमती जी से? तुम क्या आज पहली बार मेरे साथ होगी, श्रीमती जी से तो कुछ न कुछ कह ही दूँगा, ओक्के।”

क्या चीज़ है रमणिका गुलाटी भी! अच्छे-अच्छे उसकी दोस्ती के लिए तरसते हैं, और रमणिका गुलाटी को उसके बिना चैन नहीं पड़ता। सच तो यह है कि उसे भी रमणिका गुलाटी की संगत बहुत रास आती है। रिटायर्ड फ़ौजी अफ़सर की बेहद ख़ूबसूरत, धड़ल्लेदार बेटी रमणिका गुलाटी! यहाँ भी वह दुहरा सुख भोगता है—एक ख़ूबसूरत, जवान लड़की की संगत का सुख, और ख़ूबसूरत जवान लड़की को उसकी बग़ल में देखकर दूसरों के दिल में कुलाँचती ईर्ष्या का सुख। 

अब तक वह बहुत अच्छी तरह जान गया है कि कौन-सी चीज़ उसे दूसरों की नज़र में रुत्बेदार बनाती है, और कौन-सी इस रुत्बे को कम करती है। उसे स्वयं याद नहीं आता कि किताबों में वर्णित किसी आदमी की प्रगति के दार्शनिक सिद्धान्तों से उसने कब मुक्ति पा ली थी। तरक़्क़ी का व्यावहारिक दर्शन बिल्कुल भिन्न होता है, जो आदमी को अपनी महत्त्वाकांक्षा और आस-पास के लोगों और स्थितियों के अनुसार स्वयं गढ़ना पड़ता है। उसे अपने आप पर गर्व होता है कि वह अपने निजी दर्शन का पंडित है। जिनसे उसने सीखा है, आज वे उससे सीख सकते हैं। वरना एक-एक साल में दो-दो प्रोन्नतियाँ लेना और साथ ही उच्चाधिकारियों की नाक का बाल बने रहना! वह अच्छी तरह जानता है कि बड़े-से-बड़े व्यक्ति से लेकर छोटे-से-छोटे व्यक्ति का अपने लिए किस तरह इस्तेमाल करना चाहिए। इस्तेमाल की यह कला हर एक को नहीं आती . . . 

फोन फिर टिनटिनाया! क्या फिर रमणिका गुलाटी? 

उसने चोग़ा उठा लिया। पर इस बार दूसरी ओर मीनाक्षी थी। 

उसके बोलने से पहले ही मीनाक्षी बोलने लगी, “सुनो, तुम्हारी तरफ़ का कोई गँवेड़ा आया है। यहाँ बैठा तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है।” मीनाक्षी की आवाज़ खीझ भरी थी। 

“तुमने कहा नहीं, इतवार को आये . . . “

“काफ़ी समझाया कि साहब के पास और दिनों मिलने का वक़्त नहीं रहता, पर वह अड़ गया, कहता है, काफ़ी दूर से आया हूँ। आज रात की गाड़ी से वापस जाना है, मिलकर ही जाऊँगा। ऐसे आराम से बैठ गया है जैसे यह उसके बाप-दादों का घर हो . . . गेट मैन को भी उसने डपट दिया। समझ में नहीं आता कैसे-कैसे मिलनेवाले आते हैं तुम्हारे! अब तुम्हीं सँभालो इसे आकर . . . “

“किस गाँव से आया है, पूछा क्या? और काम क्या है? सुनो, कोई छोटा-मोटा काम हो तो पूछ लो, कहना हो जायेगा। बाद में आकर मिले। आज मुझे भी लौटने में देर हो जायेगी ऑफ़िस के बाद एक सरकारी काम से ही बाहर निकलना है . . . “

“किसी काम से बाद में जाना।” मीनाक्षी की झुँझलाहट और भी प्रखर हो गयी, “पहले अपने इस ख़ास मेहमान से आकर निपट लो . . . काम-धाम मैंने सब पूछा, पर कहता है कि मिलना है बस! बहुत घिसा हुआ बुड्ढा है . . .”

“तुमने नाम पूछा क्या, किस जगह से आया है?” 

“क्या पूछती, वह तो बस . . .”

“प्लीज़ मीनू, एक बार और बात करो। जल्दी आ सकता तो मैं ही बात कर लेता पर मुझे देर हो जायेगी . . . बात करके मुझे फिर फोन करना, प्लीज़ . . .”

उधर से चोग़ा रखे जाने की आवाज़ आयी। 

ये गाँव के लोग! वह ख़ुद झुँझलाया। न जाने कैसी-कैसी रिश्तेदारी और जान-पहचान की डोर पकड़ कर आ टपकेंगे फिर उससे अपेक्षा करेंगे कि सारे निजी और सरकारी काम छोड़कर उनकी टहल में जुट जाये। कभी-कभी तो सिपाही स्तर के काम के लिए आ खड़े होंगे, और चाहेंगे कि सैकड़ों मील दूर के थाने में ख़ुद जाकर उनकी सिफ़ारिश करूँ। 

बेवुक़ूफ़! 

प्रशासनिक सेवा में नया-नया आया था तब प्रायः ऐसे लोगों के लिए भागदौड़ करता रहता था। पैसा भी अपना ख़र्च करता था। और समय भी। एक तो इसके पीछे उसका ख़ुद का उत्साह रहता था, दूसरे, माँ की ज़िद। लेकिन मीनाक्षी के घर में आते ही ढर्रे-ढाँचे में बदलाव शुरू हो गया था। सच तो यह है कि आज वह जो कुछ है, मीनाक्षी की बदौलत ही वरना कितने ही आई.ए.एस. अधिकारी कुर्सियों पर बैठे मक्खियाँ मारा करते हैं। मीनाक्षी और उसके पिता ने ही उसे समय और आदमी की क़ीमत समझायी थी। यह भी सच है कि मीनाक्षी से शादी का फ़ैसला उसने दुविधापूर्ण मनःस्थिति में किया था। उसकी दुविधा थी सविता राना। सविता ही नहीं वह स्वयं भी उससे भावनात्मक रूप से जुड़ा रहा था। विद्यालय के साथी थे, परन्तु उनके बीच मैत्री पनपी थी विद्यालय के बाहर। दोनों ही चाहते थे कि यह मैत्री स्थायी आधार पा ले, कि तभी उसका चयन प्रशासनिक सेवा में हो गया था। नियुक्ति के चंद महीने बाद ही उसके वरिष्ठ अधिकारी ने अपनी बेटी से विवाह का प्रस्ताव उसके आगे रखा तो सविता राना का ख़्याल बाधा बनकर आ खड़ा हुआ। सविता राना तब तक उसकी माँ से भी काफ़ी घुलमिल गयी थी। फिर भी उसने तमाम सोच-विचार के बाद फ़ैसला अपने वरिष्ठ अधिकारी के पक्ष में किया, यद्यपि माँ सविता के ही पक्ष में थीं। अपने उस ठोस व्यावहारिक फ़ैसले पर वह अभी भी स्वयं को शाबाशी देता है . . . शुरू-शुरू में वह कभी-कभी सविता को लेकर भावुक हो उठता था, परन्तु मीनाक्षी के पिता के संपर्क ने उसे जो सबसे बड़ा मंत्र दिया था, वह यही था कि अगर इस दुनिया की छाती पर पैर रखकर चलना है तो ज़िन्दगी की छोटी से छोटी बात का फ़ैसला दिमाग़ से करो, दिल से नहीं। युवावस्था की यह भावुकता अब न जाने कहाँ छूट गयी थी सविता राना की ही तरह। 

अब आलतू-फ़ालतू लोगों को वह सहज ही टाल देता है। उस तक तो कम ही लोग पहुँच पाते हैं, पहले तो मीनाक्षी ही निपट लेती है। मीनाक्षी को ऐसे लोग बिल्कुल भी पसंद नहीं जो सिर्फ़ उसका वक़्त बर्बाद करते हैं, और ख़ुद उसके किसी काम नहीं आ सकते। यहाँ तक कि सम्बन्ध बनाने के लिए किसे घर पर दावत देनी है, और किसके घर जाना है, यह मीनाक्षी ही तय करती है। माँ जब थीं, तब अवश्य थोड़ी दिक़्क़त पैदा हो जाती थी कि वे कभी-कभी अवांछित व्यक्तियों को भी प्रमुखता देने का आग्रह करने लगती थीं, पर माँ के बाद घोड़ों की रास पूरी तरह मीनाक्षी ने ही थाम ली थी। और अब तो वह स्वयं भी . . . जैसे यही कुमारी रमणिका गुलाटी . . . मीनाक्षी को कहाँ मालूम कि . . . और जो कुछ मालूम भी है, उसे स्वयं मीनाक्षी भी उसके अफ़सरी रोबदाब के लिए ज़रूरी समझती है . . . पर यह बुड्ढा कौन आ टपका है जिसे मीनाक्षी नहीं सँभाल पायी . . .? 

फोन की घंटी! 

उधर मीनाक्षी ही थी। उसने पूछा, “हाँ, क्या हुआ?” 

“मैंने उससे कहा था कि साहब रात को लौटेंगे।” मीनाक्षी की आवाज़ आयी, “तो वह बोला, कोई बात नहीं इंतज़ार कर लूँगा। अजीब सिरफिरा बुड्ढा है! और सुनो, वह छक्कीगढ़ी से आया है, नाम है, रामेश्वर . . .”

छक्कीगढ़ी से रामेश्वर। और स्मृतियों की तेज़ कौंध के साथ मुँह से निकला, “रामेसुर कक्का?” 

“क्या कह रहे हो?” उधर मीनाक्षी की समझ में नहीं आया कि उसने क्या कहा है। वह बोला, “देखो, ऐसा करो, उन्हें बैठने को कहो? मैं जल्दी आने की कोशिश करूँगा?” तभी उसने कुछ सोचा और फिर बोला, “सुनो, मैं तुम्हें थोड़ी देर में फोन करूँगा। और सुनो, उन्हें चाय-वाय पिला देना, हाँ।” उधर से फोन कट गया, एकाएक उसे ध्यान आया कि रामेसुर कक्का चाय नहीं पीते। तो क्या दुबारा फोन करके मीनाक्षी से कहे कि उन्हें चाय नहीं शर्बत या लस्सी बनाकर पिलाये . . . पर मीनाक्षी के तेवरों का ध्यान करके दुबारा फोन करने का विचार त्याग दिया। 

रामेसुर कक्का, बचपन और कैशोर्य की यादों का एक सैलाब! मन हुआ कि तुरन्त उनसे जाकर मिले! लेकिन इस तरह की भावुक व्यग्रता उसके स्वभाव से निकल गयी थी। इधर रमणिका गुलाटी . . . उसने सोचा कि रमणिका को फोन पर कहे, वह कुछ देर लगाकर आयेगा। अगर रमणिका इंतज़ार कर सके तो इसी बीच वह घर जाकर कक्का से भेंट कर ले। यहाँ से सीधा रमणिका के पास गया तो न जाने घर पहुँचने में कितनी देर लगे। क्षणांश को यह बात भी मन में आयी कि रमणिका से आज की मुलाक़ात को स्थगित कर दे, परन्तु इस मुलाक़ात का लोभ इतना बड़ा था कि जितनी तेज़ी से यह बात आयी थी उतनी ही तेज़ी से निकल भी गयी। उसने चोग़ा उठाया और आपरेटर को रमणिका का नंबर दे दिया। 

उधर रमणिका ने नहीं, किसी और ने फोन उठाया। शायद नौकर था उसका। उसने बिना अधिक बात किये सिर्फ़ संदेश दिया रमणिका के लिए कि वह जैसे ही आये तुरन्त उसे फोन करे . . . फिर रमणिका के फोन का इंतज़ार, और रामेसुर कक्का से मुलाक़ात करने की उत्कंठा। 

क्यों आये होंगे रामेसुर कक्का? क्या काम पड़ गया उनको? थाने-तहसील का कोई काम या रुपयों की ज़रूरत? कितने वर्ष गुज़र गये कक्का को देखे हुए! आख़िरी बार कब देखा था, उनको, उसने याद करने की कोशिश की, पर याद नहीं आया। एक बात ज़रूर याद आयी, उसकी नौकरी की लम्बी अवधि में कक्का उसके पास पहली बार मिलने आये थे . . . उसने मन ही मन संकल्प किया कि कक्का चाहे जिस भी काम से आये हों, वह उनकी मदद अवश्य करेगा, मीनाक्षी की असहमति के बावजूद। अगर उन्हें हज़ार-पाँच सौ की ज़रूरत होगी, तो भी देने से नहीं हिचकेगा। चाहे ये काम मीनाक्षी से छिपाकर करना पड़े या उसकी नाराज़गी सहकर . . . उसे लगा, वह फिर बचकानी भावुकता से घिर रहा है पर इस बार वह इस बचकानी भावुकता को झटका नहीं दे सका। वह अपने कैशोर्य को नहीं झटक सकता था। वह अपने बचपन को नहीं झटक सकता था। उन हाथों को नहीं झटक सकता था जिन्होंने बाप की मृत देह पर पछाड़ खाती माँ की बग़ल से उठाकर उसे सबल संरक्षकत्व का आशीष दे दिया था . . . और ये हाथ रामेसुर कक्का के थे। 

अल्प बीमारी के बाद अकाल मौत हुई थी उसके पिता की। यौवन और वैधव्य, तिस पर पति की चौखट पर एक भी ऐसा मर्द हाथ नहीं जो माँ को सहारा दे सकता या उनकी रक्षा-ढाल बन सकता। चचेरे मामा ने प्रस्ताव रखा था कि वे अपने खेत-पौहार बेचकर पीहर में रहने लगें। तब रामेसुर कक्का ने माँ के सामने खड़े होकर कहा था, “भौजी घर की देहरी मत उजाड़ना। अपनी चौखट लाख बुरी सही, अपनी ही होती है। यहीं रहकर अपने खेत-खिरान देख, और छोरे को पाल-पोस। रही घर-बाहर की देखभाल, तो इस लायक तो ये रामेसुर है। और कोई कर्जा न सही पर दयाशंकर की बालपन की यारी का कर्जा तो मुझे चुकाना है।”

यह बात तो उसे माँ ने तब बतायी थी जब वह समझदार हो गया था और यह कहते हुए बतायी थी, “रामेसुर लाला की बात नहीं मानती तो भगवान जाने हमारी क्या गत होती। तेरे मामा की नीयत में खोट था। वह तो रामेसुर से दुश्मनी मानने लगा था . . . सगों से ज़्यादा निभायी रामेसुर लाला ने। तुझे तो छाती से लगाये रहते थे . . .”

रामेसुर कक्का की छाती से लगे रहना तो उसे याद नहीं आता था। पर और बहुत-सी बातें थीं जिन्हें भूल भी नहीं पाता था। स्कूल जाता तो रामेसुर कक्का छोड़ने जाते थे। एक हाथ में उसका हाथ और दूसरे में उसकी पट्टी। स्कूल छूटता था तो कक्का बाहर इंतज़ार करते मिलते थे। रास्ते में कक्का उसे कहानियाँ सुनाते थे। कभी रामायण की, कभी महाभारत की तो कभी उस समय के नायकों की। गांधी-सुभाष का नाम पहली बार उसने रामेसुर कक्का के मुँह से ही सुना था। पर जैसे ही उसे पूरन की छाबड़ी नज़र आ जाती थी, वह मचल उठता था। वहाँ से तभी हटता था जब उसकी जेबें रेबड़ियों से भर जाती थीं। कभी-कभी माँ डाँटती थी तो रामेसुर कक्का के पीछे खड़े होकर मनचाही सुरक्षा पा लेता था। माँ कहती थी, “इसे इतना सर मत चढ़ाओ लाला, बिगड़ जायेगा?” 

कक्का तब उससे ही पूछते थे, “क्यों रे, तू बिगड़ जायेगा क्या?” 

वह रटा रटाया जवाब देता था, “मैं बिगड़ूँगा थोड़े ही। मैं तो बड़ा आदमी बनूँगा।”

कक्का हँसकर माँ से कहते, “देखा भौजी, आख़िर है न मेरे यार का बेटा। एक दिन नाम न कमाये तो कहना।”

कक्का की बातें सुन-सुन कर उसे लगता था कि दिन-रात अपना बस्ता खोलकर बैठा रहे। उसे आज अपना लटकाने वाला वह बस्ता अपने उसी रंग में दिखलाई पड़ रहा था, जिस रंग में कक्का उसके लिए ख़रीद कर लाये थे . . . 

चपरासी ने दरवाज़ा खोला और एक विज़िटिंग कार्ड उसकी ओर बढ़ा दिया। किसी से मिलने का मन नहीं हो रहा था, फिर भी उसने संकेत किया कि आगंतुक को अन्दर भेज दिया जाय . . . आधिकारिक काम में वह ढिलाई नहीं बरतता। यह भी उसकी सफलता के मूल मंत्रों में से एक है। 

एक के बाद एक, उसने तीन लोगों को निपटाया। दो फोन भी निपटाये। रमणिका का फोन अभी तक नहीं आया था। ऑफ़िस छूटने में आधा घंटा ही रह गया था। और उधर घर पर रामेसुर कक्का . . . पता नहीं मीनाक्षी ने शर्बत-पानी के लिए पूछा भी होगा या नहीं। उसकी नज़र में तो वे भी एक ‘गवेड़ा’ हैं। मीनाक्षी ने यह शब्द स्वतः ही निर्मित किया था, उन लोगों के लिए जो गाँव-देहात से आते थे और उसकी नज़र में किसी मर्ज़ की दवा नहीं थे . . . बाद में वह स्वयं भी तो मीनाक्षी की ही दृष्टि से देखने और परखने लगा था। माँ का नाम लेकर कोई नाते-रिश्तेदार आ भी जाता था तो वह उसका परिचय तक टाल जाता था। अपने रिश्तेदारों में वह अपने श्वसुर-सालों के नाम ही लेता था जो कहीं न कहीं प्रभाव-पद हासिल किए हुए थे और जिनका नाम लेकर स्वयं उसको भी बड़प्पन मिलता था। रामेसुर कक्का के नाम के साथ कोई बड़प्पन नहीं जुड़ा था, पर . . . कक्का के कंधों पर चढ़ा हुआ देखा उसने अपने आपको। 

बरसात के दिनों में नाला उमड़ने लगता था तो क़स्बे के स्कूल तक पहुँचने का रास्ता ही रुक जाता था। कक्का गाँव से नाले तक आते थे, उसे कंधे पर बिठाकर कमर-कमर पानी में चल, नाला पार करते थे। उसे उतारते हुए हिदायत देते थे, “तू पार मत करना, मैं छुट्टी से पहले पहुँच लूँगा।” और ऐसा कभी नहीं हुआ था कि स्कूल से लौटकर नाला पार करने के लिए उसे कक्का का इंतज़ार करना पड़ा हो। कई बार तो कक्का उसे कीकर के वृक्ष के नीचे अपने कपड़े सुखाते हुए मिले थे। बरसात होने लगती थी तो वह स्कूल में ही रुक कर पानी बन्द होने का इंतज़ार करता था, पर कक्का बोरा सर पर डाल भीगते हुए नाले पर आ जाते थे कि कहीं वह स्कूल से चल न दिया हो . . . कक्का मदद न करते तो कितना कठिन होता उसके लिए पढ़ना! 

दसवीं की परीक्षा उसने प्रथम श्रेणी में पास की थी तो कक्का ने गाँव भर में बताशे बाँटे थे। माँ ने कहा था, “लाला, बहुत हुई पढ़ाई, अब इसे किसी काम धंधे पर बिठा दो।”

“कैसी बात करती है भौजी,” रामेसुर कक्का माँ को डाँटते हुए बोले थे, “छोरे की ज़िन्दगी बरबाद करेगी तू!”

“पर शहर की पढ़ाई का ख़र्चा कहाँ से निकलेगा?” 

“भौजी, ऐसी बात फिर मत निकालना मुँह से।” कक्का का कंठ अवरुद्ध हो गया था, “ऊपर वाले ने रामेसुर को किसी लायक़ तो बनाया नहीं, पर बिटुआ की पढ़ाई रामेसुर के जीते जी नहीं रुकेगा . . .”

कक्का के बिटुआ ने निश्चिंत होकर कॉलेज में दाख़िला भी लिया था, और छात्रवास में भी रहा था, पर उसे आज तक नहीं मालूम कि कक्का हर महीने किस तरह एक निश्चित राशि के साथ घी-आटे की व्यवस्था करते थे। जाते समय दस-पाँच जेब ख़र्च के लिए ऊपर से दे जाते थे . . . आज वही कक्का वर्षों बाद उससे मिलने आये थे। उसने फिर अपने संकल्प को दुहराया, कक्का रुपये-पैसे की मदद माँगने आये होंगे तो उन्हें निराश नहीं लौटने देगा . . . 

फोन की घंटी! 

रमणिका की आवाज़ सुनाई पड़ी तो संतोष हुआ। बोला, “सुनो, घंटा-आधा घंटा देर से आऊँ तो परेशानी नहीं होगी? . . . नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, दरअसल मेरे गाँव का एक आदमी काफ़ी देर से घर पर बैठा हुआ है . . . मीनाक्षी दो बार फोन कर चुकी है . . . बस, मैं तुम्हारे फोन का ही इंतज़ार कर रहा था, अभी दो मिनिट में यहाँ से निकलता हूँ, फिर तुरन्त . . . नहीं, नहीं, ज़्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा . . . अजी, कौन बेवुक़ूफ़ भँवरा होगा जो फूल को इंतज़ार कराये . . .” उधर से हँसी की आवाज़ आयी तो उसने भी साथ दिया। 

घर की ओर कार दौड़ाते हुए वह एक ख़्याल से ख़ुशी निकाल रहा था। जिस व्यक्ति ने आपके लिए कभी कुछ किया हो, बाद में उसी के लिए कुछ कर पाने की क्षमता पा लेना भी कितना सुखद होता है। आज वह इस स्थिति में है कि रामेसुर कक्का को किसी भी परेशानी के विरुद्ध संरक्षण दे सके। उसका प्रभाव सिर्फ़ उसकी अधिकार-सीमा में आने वाले क्षेत्रों तक सीमित नहीं है। दूसरों के अधिकार क्षेत्रों में भी ख़ासा दख़ल है उसका, और सत्तापक्ष के तमाम प्रभावशाली लोगों पर दबदबा भी। फिर रामेसुर कक्का के काम का आकार होगा भी कितना बड़ा। कक्का के लिए तो तहसील स्तर का संरक्षण भी बड़ी चीज़ होगी अनायास उसे कक्का का एक अन्य रूप याद हो आया . . . 

क़स्बे के स्कूल में पढ़ते समय वह अपने काम से काम रखने वाला जीव था घर से स्कूल, स्कूल से घर! लड़कों की उस टोली से वह हमेशा बचकर निकलता था जो आये दिन स्कूल और स्कूल से बाहर कोई न कोई तूफ़ान खड़ा किये रहती थी—कभी किसी से मारपीट, कभी पैसे-पेन इत्यादि की छीना-झपटी। वह इन लड़कों से डरता था। इनमें से कोई कुछ कह भी देता था तो वह अनसुनी कर निकल जाता था। इस डर के पीछे अपने बिन-बाप का होने का अहसास काफ़ी तीव्र होता था। 

वे लड़के शायद कक्षा में होने वाली उसकी प्रशंसा से चिढ़ते थे। आये दिन उसे तंग करने की जुगत भिड़ाये रखते थे। छींटाकशी और छोटी-मोटी धक्का-मुक्की की तो उसने कभी परवाह नहीं की थी, पर उस दिन एक लड़के ने टँगड़ी मार कर उसे गिराया तो वह मुँह के बल गिरा, और चेहरा लहूलुहान! 

इस घटना को भी उसने माँ और कक्का से छिपाना चाहा, पर नहीं छिपा सका। जब कक्का ने दम-दिलासा देकर पूछना शुरू किया तो उसने रो-रो कर सब कुछ बता दिया और अगले दिन तो स्कूल में हंगामा बरपा हो गया। कक्का सर से एक बालिश्त ऊपर की अपनी तेल पिलायी लाठी लेकर स्कूल जा पहुँचे थे। वह जिस-जिस लड़के की ओर इशारा करता गया था, कक्का ने उस उस को लाठी से रोक कर एक ही डाँट में मुर्गा बना दिया था, “बनो मुर्गा, नहीं तो एक-एक का खोपड़ा तरबूजे-सा खिला दूँगा।” फिर उन्होंने हैडमास्टर और उन लड़कों के बाप-दादों के नाम अपनी दहाड़ती आवाज़ में जो भरे-भरे वाक्य निकालने शुरू किये तो आधा क़स्बा स्कूल पर आ जुटा था। काफ़ी मान-मनौवल के बाद टले थे कक्का, वह भी खुली चुनौती हवा में उछाल कर अगर किसी की अम्मा ने दूध पिलाया है तो मेरे आगे बिटुआ को हाथ लगाकर देखे। आगे से किसी लड़के ने कुछ कहा, तो उस लड़के की नहीं, लड़के के बाप की गर्दन मसक दूँगा फिर कैसी टोली, कैसी छेड़छाड़! उस दिन से उसके दिल से डर जो निकला, तो दुबारा कभी पैदा ही नहीं हुआ। कितना सघन, कितना भरापूरा संरक्षण दिया था रामेसुर कक्का ने। वैसा ही कुछ वह कक्का के लिए कर सके . . . 

उसकी गाड़ी देखकर गेट मैन ने फाटक खोल दिया। 

हाँ, रामेसुर कक्का ही थे, बूढ़ी दृष्टि से गाड़ी की ओर देखते हुए। वे वहीं बाहर बैंच पर बैठे थे जहाँ उससे मिलने आनेवाले सामान्य व्यक्ति बैठा करते थे। वे कुछ अधलेटे थे, पर उसे देखकर सीधे बैठ गये थे। 

गाड़ी से उतरा तो मन हो आया कि सबसे पहले कक्का के पास पहुँच कर उनके चरण स्पर्श करे, पर तभी मीनाक्षी बिटिया का हाथ थामे बाहर निकल आयी। इधर ‘पापा’ कहकर रिंकी उसकी ओर लपकी, उधर बहुत पहले कभी मीनाक्षी द्वारा कहा गया एक वाक्य उसके ज़ेहन से आ टकराया, “तुम जानते हो, इन लोगों के बीच तुम अपनी सारी पर्सनैलिटी लूज़ कर देते हो।” उसका साहस नहीं हुआ कि मीनाक्षी के सामने ही कक्का के पैरों पर झुके। वह बोल ही सका, “पाँव लागूँ कक्का।”

“जीते रहो बिटुआ,” कक्का ने हाथ उठाकर आशीष उचारा। बिटुआ! कोई अदृश्य-अमूर्त पुलक भीतर तक व्याप गयी। पर फिर उसे नहीं सूझा कि क्या कहे। उसकी नज़र अपनी पत्नी की ओर घूमी। वह किंचित आश्चर्य से उसे ही घूर रही थी। परन्तु शीघ्र ही वह नज़र कक्का की ओर लौट आयी। एक दृश्य आँखों में उभरा—मीनाक्षी सर पर पल्लू लेकर कक्का के पैर छू रही है, और कक्का उसके सर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दे रहे हैं। पर यह दृश्य पलांश में तिरोहित हो गया। वह बोला, “अन्दर चलिए कक्का, अन्दर बैठेंगे . . .”

कक्का उठे तो उनके पैर लड़खड़ा गये। उसने झट से उनकी बाँह थाम कर सहारा दिया। वे बोले, “कोई बात नहीं है, बैठे-बैठे पैर अकड़ गया।” वे सीधे खड़े हो गये। 

“आइए।” उसने हाथ से उन्हें अपने साथ आने का संकेत दिया।

“ये बुड्ढा कौन है, पापा?” रिंकी के अशिष्टतापूर्ण प्रश्न ने उसके और रामेसुर कक्का के बीच के फ़ासले को बेबाक नंगा कर दिया। 

उसने तिलमिला कर मीनाक्षी की ओर देखा तो उसके भी चेहरे पर रंग आ-जा रहे थे जैसे एक गंवेड़ा को अपने ड्राइंगरूम में ले जाकर वह गृह मालिकिन की शान में गुस्ताख़ी कर रहा हो। पर कक्का ने रिंकी के सर पर हाथ रख दिया था।

“हम तेरे बाबा हैं बिटिया।” वे सहज भाव से मुस्कुरा रहे थे, “तेरे पापा के गाँव से आए हैं!”

“रिंकी, तुम इधर आओ मेरे पास!” मीनाक्षी ने अपना ग़ुस्सा रिंकी पर उतारा। “होम-वर्क कर लिया तुमने? चलो, अपनी स्टडी में जाओ।” रिंकी उसका हाथ छोड़कर चुपचाप चली गयी। 

ड्राइंगरूम में घुसने से पहले कक्का ने अपने जूते बाहर ही उतार दिये। उसने देखा कि मीनाक्षी की नज़र कक्का के फटे जूतों पर होती हुई उस तक आ रही है। 

कक्का की दृष्टि ड्राइंगरूम की भव्यता में भटक गयी थी। वह असमंजस में पड़ गया कि अब क्या करे? मीनाक्षी को क्या परिचय दे कक्का का? गाँव के संस्कार-संस्कृति का बहुत कुछ उसे अभी भी याद था। तब कक्का से ही कैसे कहे कि मीनाक्षी उनकी बहू है। इस क्षण तुरन्त निर्णय लेकर तत्काल क्रियान्वयन करने वाला उसका ‘अफ़सर’ उसे छोड़कर कहीं चला गया था। वह कक्का से बात करने का कोई सूत्र नहीं पकड़ पा रहा था, और कक्का भी चुप बैठे थे। कक्का से आने की वजह पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था वह। क्या सोच रहे होंगे कक्का? . . . वह अपनी पत्नी से बोला, “सोहन से बोल दो ज़रा, एक गिलास लस्सी बना दे!”

लस्सी का नाम सुनकर कक्का ने उसकी ओर देखा, जैसे कह रहे हों, तुझे याद है कि रामेसुर को लस्सी ख़ूब भाती है। पल-भर के लिए कक्का की आँखों में उसने एक चमक-सी देखी। 

“भौजी के जाने की ख़बर बहुत देर से लगी,” आख़िर कक्का बोले। उसने महसूस किया, कक्का इसके अलावा भी कुछ कह रहे हैं कि बिटुआ, तूने भौजी के मरने की ख़बर तक नहीं दी। वह तो ख़बर करना चाहता था, परन्तु मीनाक्षी ने ही मना कर दिया था, “माँ जी तो चली ही गयीं, अब बेकार की भीड़ बढ़ाकर क्या होगा . . . गाँव के लोग आयेंगे तो उनको रहने-ठहरने की भी दिक़्क़त होगी। तुम्हारे सर्किल के लोग आयेंगे तो . . .”
तब उसे मीनाक्षी की सलाह ही ठीक लगी थी। 

वह रामेसुर कक्का को माँ की मृत्यु से पहले ही बुलाना चाहता था, पर बुलाने का मसला आजकल पर टलता रहा था। मृत्यु-शैया पर पड़ी माँ की एकमात्र चाह थी कि वह रामेसुर लाला से मिल ले, और एक बार अपना गाँव देख ले। वह चाहता था कि माँ की ये इच्छाएँ पूरी कर दे, पर वह अनुमान नहीं लगा सका था कि वे इस तरह अचानक चल बसेंगी। वह तो डॉक्टरों की बातों पर भरोसा किये बैठा रहा था . . . अब रामेसुर कक्का से क्या कहे कि माँ की मौत की ख़बर उन तक क्यों नहीं पहुँची! 

“रतीराम का छोरा तेरे पास आया होगा, उसी ने बताया था,” कक्का की आवाज़ में उनकी पीड़ा उतर आयी थी, “आखिरी वक़्त में भौजी को देख नहीं पाया।”

यही पीड़ा लेकर माँ चली गयी थी, सोचते ही एक अपराध भाव उसे घेरने लगा। वह सफाई-सी देता हुआ बोला, “माँ तो इस तरह चली गयी, कि हम कुछ सोच-समझ ही नहीं सके। मैं तो बाहर था, यहाँ मीनाक्षी और उसके घरवालों ने ही सब किया . . .” आधे सच-आधे झूठ के सहारे उसने स्वयं को जवाबदेही से उबारना चाहा, परन्तु लगा, कक्का की बूढ़ी आँखें मर्म भेद कर उसे पढ़ रही हैं। 

कक्का ने स्वयं ही बात बदली, “बहू बच्चों के संग गाँव आ कभी . . . पुरखों के थान तो मंदिर सरीखे होते हैं। भौजी कहती थी, बिटुआ का ब्याह गाँव से ही रचाएँगी . . . पर अब बहू को पुरखों की भूमि के दर्शन ही करा दे।”

उसे लगा जैसे कक्का कह रहे हैं, तूने अपनी शादी की भी ख़बर नहीं दी . . . माँ ने टेर-टेर कर कहा था, “और न सही, पर रामेसुर लाला के बिना बरात कैसे चढ़ेगी? चार दिन पहले लाला को यहाँ आना चाहिए।” माँ अन्त तक इसी धोखे में रही थीं कि रामेसुर कक्का ख़बर पाने के बावजूद नहीं आये। माँ को यह बताने की तो हिम्मत ही नहीं हुई थी कि वर पक्ष और वधू पक्ष का सारा प्रबन्ध मीनाक्षी के पिता देख रहे थे और दोनों ही पक्षों के मेहमान भी सिर्फ़ वे लोग थे जो उनकी पद-प्रतिष्ठा के पैमाने पर खरे उतरते थे। उसकी अपनी हैसियत उन दिनों ज़िन्दगी के व्यावहारिक दर्शन के प्राथमिक विद्यार्थी की थी। अतः कहता भी क्या। मीनाक्षी के पिता उससे कहते थे—अगर तुम सफलता चाहते हो, तो गाँव तो गाँव, अपनी सगी माँ के मामले में भी सेंटीमेंटल होने से बचना . . . 

उसे चुप देखकर कक्का फिर बोले, “यह मत सोचना कि गाँव में तेरे खेत-खिरान नहीं हैं। जब तक मैं ज़िन्दा हूँ . . .” वे कुछ कहते-कहते रुक गये। 

पता नहीं कक्का क्या कहना चाहते थे, पर उसे झटके के साथ याद आया कि इससे पूर्व कक्का कब आये थे। खेत बिकने के बाद, ख़रीदार से पैसे लेकर माँ को देने आये थे वे . . . 

अपनी नियुक्ति के तुरन्त बाद वह माँ को लेने गाँव जा पहुँचा था। माँ गाँव से चलने लगी थी तो सभी की आँखों में आँसू छलछला रहे थे। जब माँ की हिचकियाँ नहीं थमी थीं तो रामेसुर कक्का बोले थे, “अपने सपूत बेटे का राज भोगने जा रही है भौजी। हँसी-ख़ुशी जा . . . हमसे क्या जन्म ज़िन्दगी बिछड़ रही है? तेरे घर-खेत सब यहीं है। इन्हें देखने तो आती ही रहेगी . . .” कहते-कहते स्वयं कक्का की आँखें भर आयी थीं। वे उससे बोले थे, “अपनी माँ को तकलीफ़ मत होने देना बेटा। दयाशंकर के बाद सारी ज़िन्दगी तेरी आस पर काटी है भौजी ने।”

चलते समय स्वयं उसकी आँखें भी भर आयी थीं। उसने झुक कर असीम श्रद्धा से कक्का के पैर छुए थे। कक्का ने चलते-चलते भरोसा दिलाया था कि घर-खेत की उन्हें चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं। वे सब सँभालते रहेंगे। यह भरोसा तो कक्का न भी कहते तब भी उन्हें था। वैसे भी सारी खेती कक्का ही सँभाल रहे थे। उसे कभी पता ही नहीं रहा था कि कब बुवाई हुई और कब कटाई। 

जब मीनाक्षी के पिता ने इस भरोसे को तोड़ने की कोशिश की थी, तो माँ तो तिलमिला गयी थी, स्वयं उसे भी बहुत बुरा लगा था। उन्होंने सलाह दी थी, “यहाँ शहर में इस समय इतना अच्छा फ़्लैट मिल रहा है। खेत बेचकर ले लो। न तुम्हें गाँव में रहना है, न खेती करनी है . . . और उस आदमी का ही क्या भरोसा जो गाँव में तुम्हारे खेत देख रहा है . . .

“उसकी नीयत ख़राब हो गयी तो एक अलग झंझट।”

माँ सुनते ही वहाँ से उठ गयी थी, और उसने कहा था, “वो आदमी ऐसा नहीं है . . .” पर खेत बेच कर फ़्लैट ले लेने की बात उसे भी पसंद आ गयी थी। 

माँ किसी भी तरह राज़ी नहीं थी कि खेत बेचे जाएँ, पर उसे तो उसकी ज़िद के आगे झुकना पड़ा था। मीनाक्षी के पिता की रुचि यह थी कि उनकी बेटी ससुराल में अपने ख़ुद के घर में प्रवेश करे। 

उसने माँ से कहा था कि वे स्वयं गाँव जाकर खेतों के बिकने की बात चलायें पर माँ गाँव जाने को तैयार नहीं हुई। तब उसने रामेसुर कक्का को पत्र लिख दिया था। पत्र पाते ही कक्का चले आये थे। माँ से बोले, “तेरे खेत, तेरा हक भौजी, पर दयाशंकर की निशानी . . .”

माँ ने उन्हें बात पूरी नहीं करने दी, “नहीं लाला, बिटुआ यहाँ मकान ख़रीदेगा। खेत तो बिकवा ही दो।”

उसे आश्चर्य हुआ था कि जो माँ खेत बिकने का लगातार विरोध कर रही थी, उसने कक्का को अपनी बात भी पूरी नहीं करने दी थी। कक्का लौट गये थे। उन्होंने ही खेत का ग्राहक जुटाया था। उन्होंने ही सौदा पक्का किया था। ख़रीद-फ़रोख़्त की क़ानूनी औपचारिकता पूरी होने के बाद कक्का ने पैसे माँ के हाथ पर रख दिये थे . . . 

माँ के हाथ भी काँपने लगे थे, और आवाज़ भी। बोली थी, “अच्छा हुआ खेत बिक गये लाला, तुम्हें और कब तक बाँधे रखती। बहुत कसाला किया तुमने . . .” और वह फूट कर रो पड़ी थी। 

“भौजी,” कक्का रुँधे कंठ में बोले थे, “खेत बिक गये, पर ये मत सोचना कि तेरा देहरी-द्वार मिट गया। जब तक मैं ज़िन्दा हूँ, सब तेरा है। तेरा असली घर तो वहीं है। आती-जाती रहना . . .” कक्का अँगोछे से अपनी आँखें पोंछने लगे थे। 

माँ का रोना और तेज़ हो गया था। 

फिर कक्का भी नहीं बोल पाये थे। 

उस दिन कक्का पूरे वाक्य बोले थे, पर आज कहते-कहते रुक गये थे। शायद कक्का ने भी वह फ़ासला भाँप लिया था . . . 

सोहन लस्सी का गिलास ले आया। उसने स्वयं ट्रे में से उठाकर गिलास कक्का को दे दिया। कक्का ने एक ही साँस में गिलास ख़ाली कर वापस उसकी ओर बढ़ा दिया। यह भक्का की पुरानी आदत है। शर्बत हो या लस्सी, कक्का धीरे-धीरे नहीं पीते। 
उनके बीच फिर चुप्पी आ गयी थी। शायद कक्का अब अपने आने का असली मंतव्य प्रकट करें। एकाएक माँ और कक्का की पुरानी स्मृतियों के बीच से रमणिका गुलाटी का चेहरा उभर आया। रमणिका इंतज़ार कर रही होगी उसने घड़ी देखी। 

उसका घड़ी देखना कक्का ने भी देखा, और मीनाक्षी ने भी।

“तुम्हें अभी जाना है न!” मीनाक्षी बोली। 

मीनाक्षी ने यह बात उसे कम, कक्का को ज़्यादा सुनायी है, उसने साफ़-साफ़ महसूस किया। अच्छा नहीं लगा। पर कुछ कह भी नहीं सका। बोला, “हाँ, थोड़ी देर से चला जाऊँगा।” फिर कक्का से बोला, “आज तो आप रुकेंगे न?” 

उसे उम्मीद थी कि इस सवाल के उत्तर में कक्का के आने का मक़सद पता लग जायेगा। कक्का बोले, “रुकना कैसा, खेती-किसानी में कहाँ फ़ुर्सत मिलती है, तू तो जानता है। आज ही निकल जाऊँगा।”

उसे परेशानी होने लगी, कि कक्का असली बात पर क्यों नहीं आ रहे हैं। उसने उसी बात को निकालने की गरज से पूछा, “गाँव में सब ठीक-ठाक है न?” 

“गाँव का क्या ठीक, क्या ख़राब! न सावन सूखे, न भादों हरे। सब ठीक ही चल रहा है,” कक्का पल-भर रुककर बोले, “गाँव वालों की छाती बढ़ जाती है, कि दयाशंकर का बेटा सपूत निकला, गाँव का नाम रोशन किया . . . दयाशंकर की आत्मा को भी संतोष मिलता होगा . . .” कक्का की आँखों में नमी उतर आयी, शायद अपने मित्र की याद से। 

स्वयं उसके मन पर कहीं कुछ अलग से घट रहा था, अपने पिता का नाम सुनकर। न जाने कितने वर्षों बाद वह अपने स्वर्गीय पिता का नाम सुन रहा था। पहले भी कभी सुना होगा तो कक्का के मुँह से ही सुना होगा . . . पर कक्का के आने का मक़सद! उसे रमणिका गुलाटी का प्रतीक्षारत बेचैन चेहरा नज़र आने लगा . . . 

कक्का एकाएक उठ खड़े हुए! इधर-उधर नज़र घुमाते हुए बोले, “बिटिया कहाँ है, ज़रा बुलाना उसे।”

उसने मीनाक्षी से न कहकर सोहन से कहा, “रिंकी को बुलाना यहाँ।”

कक्का बोले, “दीनानाथ के बेटे की बारात आयी थी, अदमेदपुर! वह ज़िद करके लिवा लाया। मैंने सोचा, तेरा घर वहाँ से बीसेक मील है तो तेरी खैर-खबर भी लेता आऊँगा।”

रिंकी उसके पास आकर खड़ी हो गयी। 

कक्का ने अपना हाथ फतूरी की जेब में डाला और कुछ मुड़े-तुड़े नोट बाहर निकाल लिए। पाँच का एक साफ़-सुथरा नोट अलग करके बाक़ी वापस जेब में रख दिये। फिर उन्होंने रिंकी के हाथ को अपने हाथ में लेकर वह पाँच का नोट उसकी मुट्ठी में कस दिया, “भगवान तुझे लम्बी उमर दे . . .!” 

रिंकी कभी उसकी ओर देखती थी, कभी कक्का की ओर। रिंकी को हिदायत थी कि वह किसी से कोई चीज़ या पैसा न ले। वह लेती भी नहीं थी। पर न जाने क्यों, वह कक्का से इंकार नहीं कर सकी थी। 

कक्का ड्राइंगरूम से बाहर आकर अपने जूते पहनने लगे। तो क्या जा रहे हैं कक्का? बिना अपनी कोई बात कहे ही!! 

संदेह की गुंजाइश नहीं रही। कक्का सचमुच जा रहे थे। पल-भर को उसे राहत-सी महसूस हुई कि कक्का ने उसे किसी झमेले में नहीं डाला था। वह बोला, “आपको स्टेशन जाना है। चलिए मैं छोड़े देता हूँ।”

“अरे कहाँ! है कित्ती दूर। पैदल निकल जाऊँगा,” कक्का जूते पहन कर खड़े हो गये थे। 

एक बार फिर उसका मन हुआ कि कक्का के पैर छुए, पर मीनाक्षी पास ही खड़ी थी। वह बोला, “पाँव लागू, कक्का।”

“जीते रहो, भगवान और तरक़्क़ी दे!” कक्का आशीष उचार कर धीरे-धीरे गेट से बाहर निकल गये। 

थोड़ी ही देर बाद वह गाड़ी निकाल कर सड़क पर आ गया। रमणिका गुलाटी को अपने साथ लेने के लिए। पर रमणिका गुलाटी से मिलने जाने की ख़ुशी का रंग उतना चटक नहीं रहा था जितना कि प्रायः रहा करता था। उसे अपनी छाती में कहीं कुछ अटका हुआ लग रहा था, जो निकाले नहीं निकल रहा था। 
 

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