शरीर घट में
डॉ. परमजीत ओबरायशरीर घट में –
आत्मारूपी यात्री का डेरा,
यात्री जब चाहे चला जाए–
उसका न कोई बसेरा,
घूम सर्व विश्व सागर में–
मिला उसे न कहीं सवेरा।
जन्म सवेरा–
जवानी दोपहर,
शाम संध्या–
रात बुढ़ापा जान,
लगे सब ओर अँधेरा–
इन सबका ज्ञान है तुझे,
ऐ मानव!
फिर भी मन न फिरा तेरा।
भेदभाव और मायाजाल में–
बीत रहा जीवन तेरा,
मनुष्य जन्म नहीं मिलना आसान–
जान सब,
अनजान बना रहा तू–
मन में चिंताओं का घेरा।
अज्ञान धुँध में न दिखता तुझे–
कोई सपना सुंदर सुनहला,
कितने क्षण आए जागने के तेरे–
सदा तूने है जिनसे मुख मोड़ा।
इस झूठ और माया की दुनिया में–
जीवन भर करता रहा तू,
मेरा मेरा।
अंत समय जब आएगा–
रह जाएगा यहाँ सब तेरा,
याद रख सदा–
जाना पड़गा ईश द्वार में,
खाली और अकेला।
इस क्षणभंगुर शरीर से–
करता रहा तू मोह बहुतेरा,
पंच तत्वों का जो बना–
था उसे सत्य मान तू बहुत खेला।
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