घृणा

डॉ. परमजीत ओबराय (अंक: 261, सितम्बर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

घृणा रूपी ज़हर
फैलता जा रहा, 
मानव में—
दिन प्रतिदिन। 
 
उगलकर ज़हर स्वयं
स्वस्थ नहीं, 
होना चाह रहा—
मानव। 
 
स्वार्थ की गंध
भरी उसमें ठूँसकर, 
परमार्थ रह गया
ज्यों—
उससे बिछुड़कर। 
 
कमियाँ देखनी
दूसरों में, 
हो गया—
काम उसका। 
 
गुणों को रख दिया—
उसने, 
धरा का धरा।
 
किंचित कर—
मानव यह चिंतन, 
कैसे? 
सफल होगा जीवन।
 
शरण ले
उस ईश की नित्य, 
ताकि धो सके—
तू पाप, 
अपने मन के। 

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