चक्र

डॉ. परमजीत ओबराय (अंक: 260, सितम्बर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

वर्षा के दिन देख सहसा . . .
कुछ कीट पतंगे, 
मन हो जाता है व्यग्र। 

 

सोचकर यह . . .
कि हम भी थे, 
कभी उन जैसे।
  
आज हमें है—
घृणा उनसे, 
कभी उन्हें भी—
होती होगी हमसे, 
जब वे थे मनुष्य। 
 
घृणा का यह चक्र . . .
दिन प्रतिदिन, 
होता—
जा रहा है, 
वक्र। 

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