चक्र
डॉ. परमजीत ओबराय
वर्षा के दिन देख सहसा . . .
कुछ कीट पतंगे,
मन हो जाता है व्यग्र।
सोचकर यह . . .
कि हम भी थे,
कभी उन जैसे।
आज हमें है—
घृणा उनसे,
कभी उन्हें भी—
होती होगी हमसे,
जब वे थे मनुष्य।
घृणा का यह चक्र . . .
दिन प्रतिदिन,
होता—
जा रहा है,
वक्र।
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