माँ–बाप

01-12-2021

माँ–बाप

डॉ. परमजीत ओबराय (अंक: 194, दिसंबर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

जिसने जन्म दिया–
वे सदा नहीं रहते, 
 
जिसने चलना सिखाया–
आज स्वयं, 
चल नहीं ठीक से पाते। 
 
बोलना जिन्होंने सिखाया–
अब ठीक से बोल नहीं पाते, 
 
काम करने सिखाए–
जिन्होंने अब वे, 
असहाय हैं दिखते। 
 
देने वाले हमें छत्र छाया–
आज स्वयं छाया हैं ढूँढ़ते, 

जीवन रोशन करने वाले, 
अब ठीक से न स्वयं देख पाते। 
 
अत्यंत स्नेह देने वाले, 
आज स्नेह न ख़ुद पाते। 
 
हे मानव!
ये माँ–बाप हैं–
जो हमारे अनंत गुनाहों को, 
बच्चा समझ हैं हमें माफ़ करते। 
 
ये हैं वह बहार जो–
जाने पर लाख बुलाएँ, 
पर लौट कर न आते। 
 
यही हैं जो–
मरणासन्न तक हैं दुआएँ देते, 
 
मुँह फेर हम उनसे–
मोबाइल पर रहते, 
 
मरने पर श्मशान पहुँचाने–
हम देर न लगाते। 
 
कोई नहीं करता–
इन जैसा प्यार, 
 
स्वयं भूखे रह जो–
देते हम पर सब वार। 
 
धीरे जब इन्द्रियाँ–
लगती हैं जाने, 
 
तब मानव–
अपने माँ–बाप का दर्द जाने। 
 
देख ले इन्हें जी भर के, 
क्योंकि–
नहीं आते ये एक बार जाके।

3 टिप्पणियाँ

  • 28 Nov, 2021 02:30 PM

    Thx

  • 28 Nov, 2021 09:43 AM

    मानवीय संवेदनाओं को झकझोरती कविता...सचमुच जीवंत रचना है । शब्दों का यथापूर्ण प्रयोग...एक एक शब्द मन को उद्वेलित करती हुई। धन्यवाद..!!

  • 28 Nov, 2021 09:08 AM

    Excellent

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