हर कोई चाहे

01-04-2025

हर कोई चाहे

डॉ. परमजीत ओबराय (अंक: 274, अप्रैल प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

हर कोई चाहे एकाकीपन, 
वृद्धावस्था, तरुणावस्था हो या बचपन। 
सम्बन्धों से ऊब गए या—
बने ही नहीं सम्बन्ध। 
तारों की—
स्वप्निल दुनिया के, 
हो गए अब तार—तार। 
स्वार्थी हैं सब—
हुआ भावनाओं का, 
 न सत्कार। 
बढ़ने लगे अब—
आगे-आगे, 
भलाई का हो गया—
जैसे कुछ तिरस्कार। 
करें सदा—
सम्मान सभी का, 
न तोड़ें कभी—
दिल किसी का। 
होगी सहानुभूति—
यदि मन में, 
होंगे पूर्ण—
स्वप्न हम सबके। 
त्यागें गर काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार, 
होगी तभी—
सफलता की, 
विशेष नैया यह पार। 
तोड़ें सब भिन्नताएँ—
अलग-अलग रूप, 
जो जीत की राह में—
लगते बहुत कुरूप। 
डर है जिसे ईश—
का क्षण भर, 
वही जाएगा—
इस भवसागर से तर। 
दूर करें—
अपनी सब कमियाँ, 
चमकेंगी तभी—
सफल राह की गलियाँ। 

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