संत चरित्रकार संत कवि महिपति
विजय नगरकरमराठी संत कवि व संत चरित्रकार महिपति ने उत्तर भारत और महाराष्ट्र के अनेक संतों का परिचय ‘भक्तविजय‘ मराठी ग्रंथ द्वारा प्रदान किया है। जिसका सभी दक्षिण भारतीय भाषाओं में ‘श्री महाभक्त विजयम‘ द्वारा अनूदित होकर प्रसारित हुआ है। उत्तर भारतीय भक्ति परंपरा को दक्षिण भारत में जोड़ने का महान कार्य संत महिपति ने किया है। इसी भक्तविजय ग्रंथ का परिचय अँग्रेज़ी भाषा में अनुवाद द्वारा विश्व में प्रसारित हुआ है।
वैष्णव भागवत धर्म प्रचारक और पंढरपुर के भगवान विठ्ठल के परम भक्त संत महिपति ने भारत के अनेक तीर्थ स्थलों की यात्रा करके श्रमपूर्वक अनेक संतों का चरित्र संकलित किया। उसे आसान मराठी भाषा में प्रस्तुत किया। संत चरित्र लिखकर उन्होंने ईश्वर भक्ति से भी सर्वोच्च महत्त्व संतों के कार्य को प्रदान किया।
संत महिपति परिचय
महाराष्ट्र में अहमदनगर ज़िले में ताहराबाद गाँव 17वीं शताब्दी में ताहिर खान नाम के एक मुघल सरदार का क्षेत्र था।
इसी गाँव में श्री दादोपंत कांबले जो ऋग्वेदी वशिष्ठ गोत्री ब्राह्मण, गाँव के कुलकर्णी और ग्रामजोशी थे, जिनके परिवार में संत महिपति का जन्म 1637 (1715 ई.) में हुआ था।
संत महिपति की शिक्षा-दीक्षा ताहराबाद के समीप तांभेरे गाँव के श्री मोरोबा तांभेरकर के घर हुई थी। संस्कृत भाषा का ज्ञान अच्छा था लेकिन मराठी भाषा के प्रति विशेष लगाव था।
विठ्ठल भक्त महिपति सोलह वर्ष की आयु से ताहराबाद के कुलकर्णी और जोशी के पद का कार्यभार सँभालने लगे। लेकिन उनका विशेष ध्यान आध्यात्मिक साहित्य साधनों पर केंद्रित रहा।
एक बार जब उनके द्वार पर मुस्लिम सरदार आए तो महाराज भगवान विट्ठल की पूजा में लीन थे। उन्हें आदेश दिया गया कि वे गाँव की चावड़ी कार्यालय अपना दफ़्तर, हिसाब-किताब लेकर तुरंत आएँ। इस आदेश से संत महिपति नाराज़ हुए। उन्हें लगा कि वह सरकारी सेवा किस काम की जो मुझे विठ्ठल भक्ति से वंचित रखे। आत्मग्लानी से तुरंत उसी समय उन्होंने अपनी क़लम और चोपड़ी मुस्लिम सरदार के चरणों में रख दी। मुग़ल शाही की सेवा से त्यागपत्र सौंप दिया। घोषणा कर दी कि उनके परिवार का कोई भी सदस्य विदेशी सत्ता का दास नहीं बनेगा।
उनकी पत्नी का नाम सरस्वतीबाई था। उसने दो पुत्रों को जन्म दिया, विट्ठल और नारायण।
विट्ठल बुवा पेशवा दरबारी गायक थे और एक अन्य पुत्र नारायण कवि मोरोपंत के मित्र थे।
नाभादास कृत भक्तमाल से प्रेरणा
नाभादास का ‘भक्तमाल‘ बहुत प्रसिद्ध हिन्दी ग्रंथ है। नाभादास का प्रसिद्ध ग्रंथ ‘भक्तमाल‘ संवत् 1642 के बाद बना और संवत् 1769 में ‘प्रियादास‘ जी ने उसकी टीका लिखी। इस ग्रंथ में 200 भक्तों के चमत्कारपूर्ण चरित्र 316 छप्पयों में लिखे गए हैं। इन चरित्रों में संतों का पूर्ण जीवनवृत्त नहीं है, केवल भक्ति की महिमासूचक बातें दी गई हैं। इनका मुख्य उद्देश्य भक्तों के प्रति जनता में पूज्यबुद्धि का प्रचार जान पड़ता है।
संत महिपति बुवा ताहराबादकर ने नाभादास जी की रचनाओं को पढ़कर उनसे प्रेरित होकर मराठी ग्रंथ ‘भक्तविजय‘ की रचना 1762 में पूर्ण की।
ग्वाल्हेर (ग्वालियर) में महिपतिनाथ ढोली बुवा मठ है। 17 वीं शताब्दी में संत महिपति ने ग्वाल्हेर (ग्वालियर) यात्रा की थी। ग्वाल्हेर (ग्वालियर) के मराठा राजा सिंधिया के ऐतिहासिक काग़ज़ातों में संत महिपति का उल्लेख मिल सकता है। इंदौर के होलकर शाही दरबार में संत महिपति परिवार के सदस्य सरदार पळशीकर मंत्री थे।
संत महिपति ने उत्तर भारत के कई स्थानों में तीर्थयात्रा की थी। जब वे ग्वालियर गए तब उन्होंने भक्तमाल पाठ ग्वालियर भाषा में सुना। भक्तमाल में उत्तर भारत के कई संतों का परिचय दिया गया है। “भक्त विजय” ग्रंथ की लोकप्रियता के कारण महाराष्ट्र के सभी मंदिरों में भक्त विजय का पाठ होने लगा।
विश्व भक्ति साहित्य में “भक्त विजय”
अमेरिकन ईसाई धर्म प्रचारक जस्टिन एबॉट ने उनके भक्तविजय ग्रंथ का अँग्रेज़ी में अनुवाद किया जो विश्व प्रसिद्ध पुस्तक ‘स्टोरीज़ ऑफ़ इंडियन सेंट्स‘ नाम से प्रसिद्ध है।
ऑक्सफोर्ड प्रेस ने 1919 को सी. ए. किनकैड की ”Tales of the Saints of Pandharpur ” में संत महिपति की रचनाओं पर विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया है।
विश्व प्रसिद्ध वर्ड कैट आइडेंटिटीज (WordCat Identities) OCLC में संत महिपति पर लिखित पुस्तकों की गणना और कैटलॉग रखा गया है। जिसके अनुसार 196 प्रकाशकों ने विभिन्न भाषाओं में 69 टाइटल प्रकाशित हुए है जो विश्व के 906 पुस्तकालयों में उपलब्ध है।
जनसाधारण की आम भाषा
उनकी रचना में भक्ति, प्रेम और ज्ञान का अद्भुत संगम था। प्रेम, सद्भावना, अहिंसा का तत्व भरा हुआ था। आसान सरल मराठी भाषा में संतों का चरित्र प्रस्तुत करने की शैली से कई विदेशी लेखकों के लिए भक्तविजय ग्रंथ का अनुवाद करना आसान हो गया। महिपति द्वारा मराठी भाषा में किया गया भक्ति साहित्य बहुत ही उत्कृष्ट है।
संत कवि महिपति ने भारत के प्रमुख संतों का चरित्र एकत्रित करके मराठी में ‘भक्तिविजय‘ तथा ‘संतलिलामृत‘ ग्रंथों में संकलित किया है। उनकी रचनाओं के अभंग वे एकतारी लेकर पैरों में घुंगरू लगाकर सुस्वर स्वयं गाते थे। भजन कीर्तन में यह उनकी शैली आम भक्तों में अत्यंत लोकप्रिय हुई थी। भाषा, साहित्य, अध्यात्म के साथ स्वर संगीत का मिलाप अद्भुत था।
महाराष्ट्र के अहमदनगर ज़िले के राहूरी तहसिल स्थित ताहराबाद उनकी कर्मभूमि है। ताहराबाद में उन्होंने विठ्ठल भगवान का मंदिर स्थापित किया और ताहराबाद से पंढरपुर तक पैदल तीर्थ यात्रा करने लगे जिसे महाराष्ट्र में वारी कहा जाता है। जो पैदल पंढरपुर तीर्थ यात्रा करते है उन्हें मराठी में वारकरी कहा जाता है।
ग्रंथ संपदा
संत महिपति ने निम्नलिखित ग्रंथों की रचना की है:
श्रीभक्तविजय ( 1684 )
श्रीकथासरामृत (1687)
श्रीसंतलीलामृत (1689)
श्रीभक्तलीलामृत ( 1696)
श्रीसंतविजय (अपूर्ण)
श्रीपंढरी महात्म्य
श्रीअनंत व्रतकथा
श्रीदत्तात्रेय जन्म
श्रीतुलसी महात्म्य
श्रीगणेशपुराण (अपूर्ण)
श्रीपांडुरंग स्तोत्र
श्रीमुक्ताभरणव्रत
श्रीऋषीपंचमी व्रत
अपराध निवेदन स्तोत्र
कुछ अभंग और पद रचनाएँ:
इन ग्रंथों में मराठी पद्य रचनाओं की संख्या चालीस हज़ार के क़रीब है। ‘महाराष्ट्र कवि चरित्रकार‘ ग्रंथ के लेखक श्री. ज. र. आजगावकर ने संत महिपति द्वारा रचित सुप्रसिद्ध संतों का चरित्र का वर्णन निम्नानुसार है:
श्री नामदेव चरित्र अभंग ६२
श्री हरिपाळ चरित्र अभंग ५८
श्री कमाल चरित्र अभंग ६७
श्री नरसी मेहता चरित्र अभंग ५२
श्री राका कुंभार चरित्र अभंग ४७
श्री जगमित्र नागा चरित्र अभंग ६३
श्री माणकोजे बोधले चरित्र अभंग ६७
श्री संतोबा पवार चरित्र अभंग १०२
श्री चोखामेळा चरित्र अभंग ४७
‘श्री भक्तलीलामृत‘ इस ग्रंथ में पदों की संख्या १०७९४ है।
बहुभाषिक संत महिपति
मराठी संत चरित्रकार श्री महिपति बहुभाषिक थे, उन्हें मराठी, हिंदी, संस्कृत, कन्नड़ भाषा का ज्ञान था।
संत कबीर की रचनाओं का परिचय देते समय उन्होंने हिंदी को ‘हिंदुस्तानी‘ और ‘देशभाषा‘ संबोधित किया है।
“कबीर बोलिले हिंदुस्थानी॥देशभाषा आपुली॥२३॥ ऐसे संत प्रेमळ जनीं॥ ज्यांचे ग्रंथ ऐकतां श्रवणीं॥ अज्ञानी होती अति ज्ञानी॥ नवल करणी अद्भुत”॥२४॥
(संत महीपति कृत श्री भक्तिविजय ग्रंथ)
मराठी कवि मोरोपंत ने संत महिपति के कार्य पर कविता लिखी है।
मान्यता है कि संत महिपति के स्वप्न में संत तुकाराम ने दीक्षा देकर कहा था:
"मैंने अपने जीवनकाल में नामदेव के अभंगों की रचना का शेष कार्य पूरा किया, आप संतों और भक्तों के चरित्र का वर्णन कीजिए।”
संत तुकाराम के आशीर्वाद से महीपति में काव्य-चेतना जाग्रत हुई। उन्होंने गुरु संत तुकाराम की वंदना में कहा:
जो भक्तिनाथ बैराग्यपुतळा। ज्याचे अंगी अनंत कळा॥
तो सदगुरु तुकाराम आम्हांसी जोडला।
स्वप्नी दिधला उपदेश॥
(भक्तिलीलामृत अध्याय १-२०)
संत महीपति कृत भक्त विजय ग्रंथ का अनुवाद अनेक भाषाओं में उपलब्ध है।
आचार्य विनय मोहन शर्मा जी ने अपने पुस्तक ‘हिंदी को मराठी संतों की देन के लेखक‘ (प्रकाशन वर्ष 1957) में संत महिपति के बारे में लिखा है:
“मराठी सन्तों की हिन्दी के प्रति सहज ममता रही है। मध्य-युग से लेकर आजतक लगातार मराठी सन्त कीर्तन-भजन के अवसर पर मराठी अभंगों और पदों के साथ एक-दो हिन्दी-पद गाते आ रहे हैं। जो मराठी सन्त कवि-प्रतिभा सम्पन्न रहे हैं, उन्होंने मराठी के साथ हिन्दी-पदों की स्वयं रचना की है और जो केवल कीर्तनकार रहे हैं, उनकी मराठी अभंगों आदि के साथ किसी प्रसिद्ध हिन्दी सन्त के पद गाने की परिपाटी रही है। सन्तों ने प्रान्त या भाषा-भेद को कभी स्वीकार नहीं किया। महाराष्ट्र के सन्त महिपति ने ईसा की १८ वीं शताब्दी में ‘भक्त-विजय‘ नामक सन्त-चरित्र-ग्रन्थ लिखा है जिसमें मराठी के ही नहीं, हिन्दी के सन्तों का भी उल्लासपूर्ण पूर्ण गुणगान है।”
Swami Dayananda Saraswati‘s on Sant Mahipati
“Stories from Mahapati‘s Sri Bhaktavijayam are that of men and women who transformed themselves through living a prayerful life and by doing what was called for in situations they faced. The lives of the bhaktas are informed by the Vedic vision that the world we confront is a manifestation of Ishvara and this includes our body-mind-sense complex. The world around us, our abilities, our resources are all given. The more awareness one has of Ishvara as the giver and the given, the more prayerful one is.”
संतों का कार्य निश्चित रूप से समाज में बहुत महत्त्वपूर्ण है। समय-समय पर उन्होंने ईश्वर के प्रति अपनी भक्ति और दिव्य जीवन के दर्शन को उपदेश, ओवी, अभंग के माध्यम से व्यक्त किया है। प्राचीन मराठी साहित्य में संतों की परंपरा का अध्ययन करते समय संत महिपति महाराज द्वारा लिखित ‘भक्ति विजय‘ और ‘संतालीलामृत‘ ग्रंथों पर निर्भर रहना पड़ता है।
महाराज हर साल पंढरपुर यात्रा को पैदल चलने से नहीं चूकते थे।
संत चरित्र
संतों की संगति, तुकाराम के आशीर्वाद और प्राकृत मराठी भाषा प्रेम के कारण महाराज ने महाराष्ट्र के बाहर के 116 और महाराष्ट्र के 168 संतों की जीवनी लिखकर प्राचीन मराठी भक्ति साहित्य को समृद्ध किया है।
संत चरित्र लिखने की भूमिका स्पष्ट करते हुए संत महिपति ने लिखा है:
“संतांची चरित्रे संपूर्ण! एकदाची ना कळती जाण!!
तेव्हा जी झाली आठवण! ती चरित्रे लिहून ठेविली!!”
अर्थात् संतों का संपूर्ण चरित्र एक बार समझना आसान नहीं है। इसलिए जब भी मुझे संतों की याद आयी, तभी उनका चरित्र लिखा है।
संत महिपति ने संत के चरित्र का वर्णन करते हुए संत कबीर की रचनाओं का अध्ययन किया था। उन्होंने तत्कालीन हिंदी भाषा को ‘हिंदुस्तानी‘ कहा और इसे अपनी देसी भाषा बताया। महाराज बहुभाषी थे, वे मराठी संस्कृत, हिंदी, कन्नड़ और अन्य भारतीय भाषाओं से परिचित थे। उन्होंने संत का चरित्र लिखने से पहले भारत में कई तीर्थ स्थलों का भ्रमण किया था। फलस्वरूप उनकी रचनाओं का अनुवाद भारत के अनेक भाषाओं में तथा अन्तर्राष्ट्रीय भाषाओं में हुआ है। जिसके अनेक संदर्भ साहित्य में उपलब्ध हैं।
संत तुकाराम का आशीर्वाद
तुकाराम महाराज के समकालीन संत महिपति बुवा संत तुकाराम को अपना गुरु मानते थे। संत ज्ञानेश्वर ने आम लोगों की बोली भाषा में गीता का ज्ञान ज्ञानेश्वरी अर्थात् सटीक भावार्थ दीपिका ग्रंथ के माध्यम से भक्ति गंगा प्रवाहित करने का महान कार्य किया था।
महिपति बुवा ने ज्ञानेश्वर, तुकाराम, नामदेव और एकनाथ के पदचिन्हों पर चलते हुए भक्तिमार्ग को प्रशस्त किया।
अठारहवीं शताब्दी में ग्रामीण जनता में ईश्वर भक्ति जगाने के लिए, संत चरित्र की रचना सरल आसान प्राकृत मराठी भाषा में प्रवचन और संत काव्य के रूप में प्रस्तुत किया।
सामाजिक भूमिका का निर्वहन करते हुए संत महिपति ने अपने जीवन काल में उत्पन्न हर सूखे के दौरान अपने घर का धन, धान्य भूखे ग़रीबों को बाँट दिया था। जिसके कारण वे भक्त मंडली और तत्कालीन पेशवा दरबार में लोकप्रिय हुए।
संत साहित्य के विद्वान स्वरा चिंढेरे कहते हैं कि “संत महिपति कृत रचनाओं का दूरगामी सर्वत्र प्रभाव कई सौ वर्षों से ग्रामीण महाराष्ट्र के लोगों पर रहा। उनके सात्विक संस्कार संपन्न ग्रंथों की प्रतिष्ठा कल तक सार्वभौमिक थी। महिपति के इस ऋण स्वीकार किया जाना चाहिए।”
महाराज हर साल पंढरपुर, आलंदी यात्रा सहित पूरे भारत की यात्रा करते थे। उत्तर भारत के मीरा, कबीर, सूरदास, नरसी मेहता के साथ-साथ महाराष्ट्र के नामदेव, तुकाराम, रामदास जैसे संतों के चरित्रों को उनके प्राचीन साहित्य का अध्ययन कर बड़ी मेहनत से संकलित कर मराठी में प्रस्तुत करने का महान कार्य किया है।
संत महिपति कृत भक्ति साहित्य का अभ्यास, संशोधन महाराष्ट्र के संत अभ्यासक श्री वि.वा. राजवाडे, श्री रा.चि. ढेरे, श्री भा. ग. सुर्वे, श्री प्र. रा. भांडारकर, श्री वि.ल. भावे, सौ. उषाताई देशमुख, श्री सुरेश जोशी ने किया है। उनकी रचनाओं को महाराष्ट्र के विश्वविद्यालयों में प्राचीन भक्ति साहित्य के नाते पढ़ाया जाता है। उनकी रचनाओं पर पुणे, औरंगाबाद, कोल्हापुर विद्यापीठों में पीएच. डी. प्रबंध के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
उत्तर भारत के संतों के कार्यों को ‘श्री महा भक्तविजयम्‘ के नाम से सभी दक्षिणी भाषाओं में आम लोगों तक पहुँचाया गया है। संत महिपति ने हिंदवी स्वराज्य के लिए युवा शक्ति के निर्माण में बहुत अच्छा काम किया था।
संत जयदेव, तुलसीदास, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ, ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम, नामदेव, जनाबाई, गोरा कुंभार, चोखामेला, कबीर, रोहिदास, नरसी मेहता, रामदास, सेना, मीराबाई, भानुदास आदि संतों के जीवन कार्यों का परिचय “भक्त विजय” में दिया गया हैं।
भक्त विजय का लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया है। यह एक अमूल्य पुस्तक है जो लाखों भक्तों को प्रेरित करती है। यह अभी भी भारत के कई मंदिरों में हरिकथा के जाप और जप के लिए प्रतिदिन पढ़ा जाता है।
महाराष्ट्र के अनेक भक्त और प्रवचनकार, कीर्तनकार संत महिपति के प्रति आदर भाव व्यक्त करने वार्षिक उत्सव आषाढ़ी एकादश के दिन आज भी उनके गाँव ताहराबाद स्थित उनके द्वारा स्थापित विठ्ठल मंदिरवाड़ा में एकत्रित होते हैं।
ग्वालियर की लेखिका समीक्षा तेलंग के अनुसार महिपति नाथ महाराज के अनुयायी और उनकी गादी चलाने वाले मठ ग्वालियर में भी तीन सौ साल से इस परंपरा के पोषक और संवाहक हैं। ढोली बुआ महाराज मठ ग्वालियर में स्थापित अपने कीर्तन के लिए जग प्रसिद्ध है। उनके कीर्तन का गुण नाथ संप्रदाय के भजनों, ओलियों से ढोल के साथ होता है। ग्वालियर में आज भी यह परंपरा चल रही है। तानसेन समारोह के शुभारंभ में ढोली बुआ को ही प्रथम स्थान मिलता है जहाँ तानसेन मक़बरे पर महिपति नाथ के कीर्तन की परंपरा है।
संत महिपति बुवा एक संत चरित्र लेखक थे लेकिन उन्होंने मधुर संगीत पर संत चरित्र गाया और भक्तों को उपदेश दिया। इस विषय पर एक अँग्रेज़ी लेख ऑक्सफोर्ड रेफरेंस सर्विस के तहत प्रकाशित हुआ है।
संत महिपति महाराज मानते थे कि ज्ञान प्राप्त करने के लिए, पर्यटन और भारतीय संस्कृति का गहन ज्ञान प्राप्त करना तथा कई भाषा परिवारों के संतों, विद्वानों के संपर्क में रहने की आवश्यकता है। एक सच्चा संत सभी भाषाओं का मित्र होता है। यह निश्चित है कि ज्ञान, भक्ति और सामाजिक विकास तभी होगा जब सभी लोग भाषा भेदभाव और जातिगत भेदभाव को त्याग देंगे।
महिपति बुवा का स्वर्गवास श्रावण कृष्ण द्वादशी, 1712 (1790 ई.) में 75 वर्ष की आयु में हो गया। उनका पुश्तैनी घर ताहराबाद में अभी भी खड़ा है। यहाँ उनका विट्ठल का मंदिर भी है। पास ही उनकी समाधि का वृंदावन भी है।
संदर्भ:
1) भक्त विजय, गीताप्रेस, गोरखपुर
2) Stories of Indian Saints: Translation of Mahipati‘s Marathi Bhaktavijaya
By Justin Edwards Abbott, Narhar R. Godbole
3) Tales of the Saints of Pandharpur
Author - C. A. Kincaid
Publisher - Alpha Editions, 2019
ISBN 9353898455, 9789353898458
4) संत महीपति कृत ग्रंथ ‘श्री भक्तविजय‘
प्रकाशक
सरस्वती ग्रंथ भांडार, पुणे 2
5) " Tales of the Saints of Pandharpur "
लेखक - सी.ए. किनकैड
ऑक्सफोर्ड प्रेस 1919
6) सचित्र संत महिपति ताहराबादकर
लेखक - विजय नगरकर
प्रकाशक - बुक मीडिया, पाँडिचेरी 2020