नींद की आवाज़
विजय नगरकर
एक बार मैं अपने एक परिचित के घर गया था। काका सो रहे थे। घर का छोटा बच्चा कार्टून देख रहा था। टीवी की आवाज़ बहुत ज़ोर से थी।
मैंने राजू से कहा, “राजू, टीवी की आवाज़ कम कर दे, काका सो रहे हैं।”
राजू ने मेरी बात नहीं सुनी। वह ज़ोर से शो देखता रहा।
मुझे ग़ुस्सा आया। मैंने रिमोट लिया और आवाज़ कम कर दी।
जैसे ही मैंने आवाज़ कम की, काका की नींद खुल गई।
काका ग़ुस्से से उठे और राजू को डाँटने लगे, ”मूर्ख, समझता नहीं है कि मैं सो रहा हूँ?” राजू ज़ोर से रोने लगा।
मैंने काका से कहा, “काका, इसीलिए मैंने आवाज़ कम की थी।”
अब काका मुझसे ग़ुस्से से देखते हुए बोले, “किस लिए आवाज़ कम की, मेरी नींद तुमने ही तोड़ दी।” काका की आवाज़ बढ़ गई थी।
मैं आश्चर्यचकित था। राजू हँस रहा था।
काका बोले, “अरे, मुझे तो इसी ज़ोर के आवाज़ में नींद आती है।”
घर के बाहर किसी शादी की बारात में डीजे पर बेहूदा फ़िल्मी गाने पर जवान लड़के थिरक रहे थे।
यह सब बहुत अजीब था, लेकिन यह हक़ीक़त है।
मुझे कमल हसन की “पुष्पक” फ़िल्म याद आ गयी। ग़रीब होने पर “पुष्पक” का नायक एक सिनेमाघर के पास छोटे कमरे में रहता है। फ़िल्म का क्लाइमेक्स एक भयंकर लड़ाई में होता है। वह लड़ाई ख़त्म होते ही नायक को नींद आ जाती है। कुछ दिनों बाद वह अमीर हो जाता है। सिनेमाघर से दूर उपनगर में आरामदायक भव्य घर में रहता है। लेकिन नींद नहीं आती। वह वापस उस सिनेमाघर जाता है। वहाँ फ़िल्म के क्लाइमेक्स वाली लड़ाई का आवाज़ टेप करता है। घर आकर रात को टेप रिकॉर्डर पर लड़ाई का रोमांच सुनता है और सो जाता है।
आज हम इतने विविध उच्च आवाज़ों में जी रहे हैं कि मंद मधुर स्वर को भूल गए हैं। मेरा यह मंद स्वर टीवी की आवाज़, राजू का रोना, काका के ग़ुस्से का स्वर, बाहर वाहनों की आवाज़ाही, किसी कार्यक्रम का डीजे का कर्ण कर्कश आवाज़, फ़िल्मी गाने, भजनों के ऊँचे स्वर में दब गए गया था।