मराठी दीपावली अंक की कहानी: ‘मासिक मनोरंजन’ का उदय और महिलाओं का सशक्तिकरण
विजय नगरकरमराठी साहित्य की दुनिया में दीपावली अंक एक अनोखी परंपरा का प्रतीक हैं। यह न केवल त्योहार की रौनक़ बढ़ाते हैं, बल्कि साहित्यिक उत्सव का रूप भी धारण कर लेते हैं। फराल, फटाकों और मिठाइयों के बीच ये अंक मराठी पाठकों के लिए एक बौद्धिक भोज का काम करते हैं, जहाँ कहानियाँ, कविताएँ, निबंध और सामाजिक विमर्श एक साथ उमड़ आते हैं। इस परंपरा की नींव रखने का श्रेय जाता है ‘मासिक मनोरंजन’ पत्रिका को, जिसके संस्थापक काशिनाथ रघुनाथ आजगावकर (जिन्हें बाद में ‘मित्र’ के नाम से जाना गया) ने न केवल मराठी साहित्य को नई दिशा दी, बल्कि महिलाओं के सशक्तिकरण को भी एक साहित्यिक मंच प्रदान किया।
काशिनाथ रघुनाथ मित्र: एक सुधारवादी साहित्यकार
काशिनाथ रघुनाथ आजगावकर का जन्म 1871 में हुआ था। वे मूल रूप से रत्नागिरी ज़िले के आजगाव गाँव के निवासी थे, लेकिन 1893 में मुंबई आकर उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा शुरू की। मुंबई की चहल-पहल भरी ज़िन्दगी ने उन्हें नई प्रेरणा दी। यहाँ वे बाबासाहेब कुलकर्णी जैसे समर्थकों से मिले, जिनकी मदद से उन्होंने साहित्यिक क्षेत्र में क़दम रखा। काशिनाथ पर सुधारवादी विचारों का गहरा प्रभाव था। वे मानते थे कि साहित्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि समाज सुधार का माध्यम भी होना चाहिए। विशेष रूप से, महिलाओं की शिक्षा और जागरूकता पर उनका विशेष बल था। वे चाहते थे कि महिलाएँ न केवल पढ़ें-लिखें, बल्कि परिवार, स्वास्थ्य और स्वयं के अधिकारों के प्रति सजग हों।
बंगाली साहित्य के प्रति उनका प्रेम इतना गहरा था कि उन्होंने अपना मूल उपनाम ‘आजगावकर’ त्यागकर ‘मित्र’ अपना लिया, जो बंगाली भाषा में ‘मित्र’ (मित्र) का अर्थ रखता है। यह बदलाव उनके सांस्कृतिक लगाव को दर्शाता है। काशिनाथ ने बंगाली भाषा सीखी और रवींद्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय जैसे लेखकों के कार्यों का अनुवाद किया। 1913 में टैगोर को नोबेल पुरस्कार मिलने के आसपास ही शरतचंद्र के उपन्यास मराठी पाठकों को मोहित कर रहे थे। काशिनाथ स्वयं, साथ ही विष्णुसीताराम गुर्जर (वि। सी। गुर्जर) और बालकृष्ण विष्णु वरेरकर (भा। वि। वरेरकर) ने बंगाली साहित्य को मराठी में उतारा, जिससे मराठी कहानी और उपन्यास लेखन में नई ताज़गी आई।
‘मासिक मनोरंजन’ की स्थापना: एक क्रांतिकारी क़दम
1895 में, बाबासाहेब कुलकर्णी की सहायता से काशिनाथ ने मुंबई से ‘मासिक मनोरंजन’ का प्रकाशन शुरू किया। यह मराठी साहित्य का पहला ऐसा मासिक पत्रिका थी, जो पाश्चात्य ललित पत्रिकाओं का अनुकरण करते हुए सभी विधाओं—कविता, कहानी, निबंध, अनुवाद—को एक छत के नीचे लाया।
पत्रिका का उद्देश्य स्पष्ट था: “पाश्चात्य (ललित) मासिकांचे अनुकरण करून त्यांची सर्व प्रकारची बरोबरी करण्याचे ध्येय।
(इसका लक्ष्य पश्चिमी (सुरुचिपूर्ण ललित) पत्रिकाओं का अनुकरण करना और सभी मामलों में उनके बराबर होना है)
“शुरू में यह सामान्य मासिक था, लेकिन काशिनाथ की दूरदृष्टि ने इसे महिलाओं-केंद्रित बना दिया। पत्रिका का नारा मनुस्मृति से लिया गया था: “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः” (जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं)।
काशिनाथ महिलाओं को सीधे संबोधित करते हुए लिखते: “प्रिय बहनों, क्या आप अपनी शिक्षित बहनों को ‘मनोरंजन’ की सिफ़ारिश करेंगी? क्या आप अपनी सहेलियों से ‘मनोरंजन’ को प्रोत्साहन देंगी? ‘मनोरंजन’ आपके उपकार नहीं भूलेगा।” वे आगे कहते, “कुल-स्त्रियों के लेखों को उचित प्रोत्साहन दिया जाएगा। हमारी स्त्री-समाज में लेखक-स्त्रियाँ तैयार हों, ऐसी ‘मनोरंजन’ की मन से इच्छा है।”
इस अपील ने न केवल पाठक वर्ग को बढ़ाया, बल्कि कई महिलाओं को लेखन के लिए प्रेरित किया। पत्रिका में बंगाली प्रभाव स्पष्ट दिखता था—दिवाकर कृष्ण, कैप्टन गोविंद गणपत लिमये जैसे समकालीन कथाकारों की रचनाओं में बंगाली शैली की झलक मिलती है। अनूदित कहानियाँ और उपन्यास पाठकों को आकर्षित करते, जिससे पत्रिका जल्द ही लोकप्रिय हो गई।
बंगाली साहित्य का जादू: मराठी लेखन पर प्रभाव
उस दौर में बंगाली साहित्य एक क्रांति का प्रतीक था। टैगोर की कविताओं की गहराई और शरतचंद्र की सामाजिक यथार्थवादी कहानियाँ मराठी बुद्धिजीवियों को प्रभावित कर रही थीं। काशिनाथ और उनके सहयोगियों ने इसे मराठी में पहुँचाया।
‘मासिक मनोरंजन’ में प्रकाशित अनुवादों ने मराठी कहानी को भावुकता, सामाजिक टिप्पणी और मनोवैज्ञानिक गहराई प्रदान की। उदाहरणस्वरूप, गुर्जर और वरेरकर के अनुवाद मराठी पाठकों के बीच बंगाली साहित्य का द्वार खोलने वाले साबित हुए। यह प्रभाव इतना गहरा था कि मराठी कथाकारों की शैली में बंगाली रंग झलकने लगा। पत्रिका ने साहित्य को केवल मनोरंजन से ऊपर उठाकर सामाजिक जागरूकता का माध्यम बनाया।
दीपावली अंक की शुरूआत: 1909 का ऐतिहासिक क़दम
‘मासिक मनोरंजन’ की असली पहचान बनी 1909 में, जब काशिनाथ ने पहला मराठी दीपावली अंक प्रकाशित किया। यह मराठी साहित्य का प्रथम दिवाली विशेषांक था, जो ‘मनोरंजन वार्षिक’ के नाम से जाना गया। उस समय लंदन यात्रा के दौरान काशिनाथ को यह विचार आया कि दीपावली जैसे पर्व पर एक विशेषांक साहित्यिक उत्सव का रूप ले सकता है। इस अंक में विज्ञापन, कहानियाँ, कविताएँ और सामाजिक लेख थे, जो पाठकों को आकर्षित करने में सफल रहे। यह परंपरा इतनी लोकप्रिय हुई कि आज भी मराठी दिवाली अंकों की शताब्दी मनाई जाती है। 2009 में इसकी शताब्दी पर विशेष चर्चाएँ हुईं, जो इसकी विरासत को रेखांकित करती हैं।
हालाँकि, काशिनाथ की असामयिक मृत्यु 1920 में कैंसर से हो गई, जिसके बाद पत्रिका ने दस साल तक संघर्ष किया। 1925 से 1935 तक यह आर्थिक कठिनाइयों से जूझती रही और अंततः 1935 में बंद हो गई। फिर भी, इसकी दीपावली अंकों ने अन्य पत्रिकाओं जैसे ‘मौज’ को प्रेरित किया।
विरासत: महिलाओं और साहित्य का सेतु
‘मासिक मनोरंजन’ केवल एक पत्रिका नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का दर्पण था। काशिनाथ के प्रयासों से मराठी साहित्य में महिलाओं की आवाज़ बुलंद हुई। उन्होंने साबित किया कि साहित्य लिंग-निरपेक्ष हो सकता है, लेकिन महिलाओं के लिए समर्पित होना चाहिए। आज जब हम दीपावली अंकों को पढ़ते हैं, तो कहीं न कहीं ‘मनोरंजन’ की वो अपील गूँजती है—सिफ़ारिश करने को, प्रोत्साहन देने को। यह कहानी न केवल मराठी साहित्य के इतिहास का एक अध्याय है, बल्कि भारतीय महिलाओं के सशक्तिकरण की प्रेरणा भी। दीपावली की रोशनी में यह अंक हमें याद दिलाते हैं कि साहित्य त्योहारों को अमर बना देता है।
मराठी साहित्य में अन्य दिवाली अंक: एक समृद्ध परंपरा
मराठी साहित्य की दुनिया में दिवाली अंक केवल एक साहित्यिक परंपरा नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक उत्सव का अभिन्न अंग हैं। 1909 में काशिनाथ रघुनाथ मित्र के ‘मासिक मनोरंजन’ द्वारा शुरू हुए इस सफ़र ने मराठी पाठकों को न केवल कहानियों-कविताओं का भंडार दिया, बल्कि सामाजिक चेतना भी जगाई।
आज महाराष्ट्र में प्रतिवर्ष लगभग 800 से अधिक दिवाली अंक प्रकाशित होते हैं, जो साहित्य से लेकर आरोग्य, पाककला, ज्योतिष और पर्यावरण जैसे विविध विषयों पर आधारित होते हैं। ये अंक न केवल साहित्यकारों को नई पहचान देते हैं, बल्कि वाचक संस्कृति को भी मज़बूत बनाते हैं।
परंपरा का विस्तार: 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक अंक
‘मनोरंजन’ की सफलता ने अन्य प्रकाशकों को प्रेरित किया। 1914 में ही ‘मनोरंजन’ ने ‘वसंत’ अंक की शुरूआत की, जो ललित साहित्य को समर्पित था। यह अंक दीपावली के साथ-साथ वसंत ऋतु का भी प्रतीक बन गया। इसी दौर में ‘मौज’ (1919 में शुरू) ने दिवाली अंकों को हास्य और व्यंग्य का रंग दिया। ‘मौज’ के संपादक वि। स। खांडेकर और बाद में अन्य लेखकों ने इसमें सामाजिक मुद्दों पर हल्के-फुल्के लेखों से पाठकों को बाँधा। ‘हंस’ (1920 के दशक में) ने रहस्यकथाओं और रोमांचक कहानियों को बढ़ावा दिया, जबकि ‘अक्षर’ (1930 के आसपास) ने गंभीर साहित्य को जगह दी। ये अंक ‘मनोरंजन’ के बाद के दौर में मराठी लघुकथा और निबंध को मज़बूत करने वाले साबित हुए।
इसके अलावा, ‘रत्नाकर’, ‘प्रतिभा’, ‘पारिजात’ और ‘ज्योत्स्ना’ जैसे अंक 1920-30 के दशक में उभरे। ये ‘मनोरंजन’ के विशेष अंकों के अग्रदूत थे, जहाँ लेखों का चयन और संपादन बड़ी सावधानी से किया जाता था। इनमें केशवसुत, गोविंदाग्रज और बालकवी जैसे कवियों की रचनाएँ प्रकाशित हुईं, जो मराठी काव्य को नई दिशा दे रही थीं।
स्वतंत्रता के बाद का स्वर्णिम काल: विविधता का उदय
स्वतंत्र भारत में दिवाली अंक अधिक विविध हुए। 1950-60 के दशक में ‘सप्तरंग’, ‘कीर्तन’ और ‘साधना’ जैसे अंक सामने आए, जो सामाजिक सुधारों और राष्ट्र निर्माण पर केंद्रित थे। ‘सप्तरंग’ ने रंगीन चित्रों और आधुनिक कथाओं से पाठकों को आकर्षित किया, जबकि ‘कीर्तन’ ने धार्मिक-साहित्यिक मिश्रण पेश किया। इस दौर में वृत्तपत्रों ने भी क़दम बढ़ाया—‘सकाळ’ (पुणे), ‘महाराष्ट्र टाइम्स’ (मुंबई) और ‘लोकसत्ता’ ने अपने वार्षिक दिवाली अंक शुरू किए, जो आज भी लाखों प्रतियाँ बिकती हैं। ‘सकाळ’ के अंक में अरविंद गोखले, जयवंत दळवी और ग। दि। माडगुळकर जैसे लेखकों की रचनाएँ होती थीं, जो मे-जून में ही तैयार की जाती थीं।
‘दीपावली’ (1960 के दशक से) ने बाल-साहित्य को बढ़ावा दिया, जबकि ‘श्री सर्वोत्तम’ (1970 के बाद) ने चित्रों और कविताओं से सजा अंक पेश किया। 2022 में ‘श्री सर्वोत्तम’ को अखिल भारतीय मराठी प्रकाशक संघ का पुरस्कार मिला, जो इसकी गुणवत्ता का प्रमाण है। इसी तरह, ‘शब्दालय’ (2024 अंक) ने मराठी भाषा को ‘अभिजात’ दर्जा मिलने का जश्न मनाया, जिसमें कथाएँ, कविताएँ और वैचारिक लेख शामिल थे।
आधुनिक युग: विषय-विशिष्ट अंक और चुनौतियाँ
आज के दौर में दिवाली अंक केवल साहित्य तक सीमित नहीं। 2013 में लगभग 1200 अंक रजिस्टर हुए, जिनमें से 400 से अधिक प्रकाशित हुए। इनमें ‘आवाज़’ (समाजकल्याण पर), ‘छात्रप्रबोधन’ (शिक्षा पर), ‘किशोर’ (युवा मुद्दों पर), ‘बाल-कुमार’ (बच्चों के लिए), ‘शतायुषी’ (आरोग्य पर) और ‘ग्रहांकित’ (ज्योतिष पर) जैसे लोकप्रिय अंक शामिल हैं। ये अंक मुंबई-पुणे से 50% प्रकाशित होते हैं। प्रकाशक जैसे मेजेस्टिक बुक डेपो, रसिक साहित्य और शब्द प्रकाशन योजनाएँ चलाते हैं, जो वाचकों को सस्ते दामों पर अंक उपलब्ध कराती हैं।
हालाँकि, चुनौतियाँ भी हैं। अरुणा ढेरे जैसे आलोचकों का मानना है कि साहित्य का प्रभाव कम हो रहा है— विज्ञापन और हल्के विषय हावी हो गए हैं। 2024 में भी ‘इतर दिवाळी अंक’ श्रेणी में विचारशील लेख, कथाएँ और सृजनशीलता वाले अंक उपलब्ध हैं, लेकिन बढ़ते मूल्य और साहित्य की कमी की शिकायतें हैं। फिर भी, पुरस्कार जैसे विशेष आंतरराष्ट्रीय विनाशुल्क खुली मराठी दिवाळी अंक स्पर्धा (जयसिंगपुर में) गुणवत्ता को प्रोत्साहित करती हैं। ‘वयम्’ जैसे अंकों को म। सा। प। और को। म। सा। प। जैसे संस्थाओं से पुरस्कार मिले हैं।
विरासत और भविष्य: साहित्यिक फराल का महत्त्व
मराठी दिवाली अंक 115 वर्षों से साहित्य उत्सव का रूप लेते हैं, जो करोड़ों पाठकों तक पहुँचते हैं। ‘मौज-हंस-अक्षर-दीपावली’ की चार अंकों ने इस परंपरा को मज़बूत किया, और आज ऑडियो-विजुअल अंक डिजिटल युग में इसे जीवित रख रहे हैं। ये अंक न केवल फराल-फटाकों के साथ आनंद दोगुना करते हैं, बल्कि लेखकों को नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा देते हैं। दीपावली की रोशनी में ये अंक हमें याद दिलाते हैं कि साहित्य त्योहारों को अमर बनाता है।
दीपावली के अवसर पर मिठाई के साथ ज्ञान मनोरंजन और जीवन का विविध रँगी साहित्य पढ़ने से आनंद बढ़ जाता है।
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