अंकों का अंतरराष्ट्रीय सफ़र: भारतीय उद्भव और वैश्विक पहचान
विजय नगरकर
आज हम जिन अंकों का प्रयोग अपने दैनिक जीवन में गणनाओं, मापनों और अनगिनत अन्य कार्यों के लिए करते हैं, वे वास्तव में भारत की एक अमूल्य देन हैं। इन अंकों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर “इंडो-अरेबिक अंक” (Indo-Arabic numerals) या “हिन्दू-अरबी अंक” के रूप में जाना जाता है। अरब जगत में इन्हें “हिंदसा” (अंक) कहा जाता है, जो सीधे तौर पर उनके भारतीय स्रोत की ओर इशारा करता है। विडंबना यह है कि भारत में ही कई लोग इन्हें भूलवश “अंग्रेजी अंक” कह देते हैं, जो कि एक ऐतिहासिक और तथ्यात्मक त्रुटि है।
भारतीय अंक प्रणाली: एक क्रांतिकारी आविष्कार
प्राचीन भारत में गणना के लिए विभिन्न प्रणालियाँ प्रचलित थीं, लेकिन जिस प्रणाली ने विश्व को प्रभावित किया, वह थी दशमलव आधारित स्थानीय मान वाली अंक प्रणाली। इस प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषताएँ थीं:
• दस संकेतों का प्रयोग:
शून्य (0) से लेकर नौ (9) तक, केवल दस संकेतों का प्रयोग करके किसी भी बड़ी से बड़ी संख्या को लिखा जा सकता है।
• स्थानीय मान (Place Value):
किसी अंक का मान उसके स्थान के आधार पर परिवर्तित होता है। उदाहरण के लिए, संख्या 222 में प्रत्येक ‘2’ का मान अलग-अलग (इकाई, दहाई, सैकड़ा) है।
• शून्य की संकल्पना:
शून्य का आविष्कार, जो कि भारतीय गणित की सबसे महत्त्वपूर्ण खोजों में से एक है, इस अंक प्रणाली का आधार स्तंभ है। शून्य न केवल एक अंक के रूप में महत्त्व रखता है, बल्कि स्थानीय मान प्रणाली को पूर्णता भी प्रदान करता है। इसके बिना बड़ी संख्याओं को लिखना और गणितीय गणनाएँ करना अत्यंत जटिल होता।
इन विशेषताओं ने भारतीय अंक प्रणाली को तत्कालीन विश्व की अन्य गणना प्रणालियों की तुलना में कहीं अधिक सरल, सक्षम और वैज्ञानिक बना दिया।
भारत से अरब जगत तक का सफ़र
भारतीय अंक प्रणाली का ज्ञान सबसे पहले अरब व्यापारियों और विद्वानों के माध्यम से मध्य पूर्व तक पहुँचा। 7वीं और 8वीं शताब्दी के दौरान, जब अरब जगत ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में तेज़ी से प्रगति कर रहा था, भारतीय गणित और खगोल विज्ञान की कई महत्त्वपूर्ण रचनाओं का अरबी में अनुवाद किया गया।
प्रसिद्ध अरब गणितज्ञ अल-ख्वारिज़्मी (Al-Khwarizmi) (लगभग 780-850 ई.) ने अपनी पुस्तक “किताब अल-जम् वल-तफ़रीक़ बि-हिसाब अल-हिन्द” (भारतीय गणना के अनुसार जोड़ना और घटाना) में इस भारतीय अंक प्रणाली का विस्तृत वर्णन किया। इसी पुस्तक के माध्यम से यह प्रणाली अरब जगत में लोकप्रिय हुई और इसे “हिसाब अल-हिन्द” या “हिंदसा” के नाम से जाना जाने लगा, जो स्पष्ट रूप से इसके भारतीय मूल को दर्शाता है। अरब विद्वानों ने न केवल इस प्रणाली को अपनाया बल्कि इसमें कुछ सुधार भी किए और इसे और अधिक परिष्कृत बनाया।
अरब जगत से यूरोप तक की यात्रा
मध्य युग में, अरब जगत और यूरोप के बीच व्यापारिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के माध्यम से यह उन्नत अंक प्रणाली यूरोप पहुँची। स्पेन, जो उस समय अरब शासन के अधीन था, इस ज्ञान के यूरोप में प्रवेश का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बना।
यूरोपीय विद्वानों ने अरबी भाषा में लिखित गणितीय ग्रंथों का लैटिन में अनुवाद करना शुरू किया। फाइबोनैचि (Fibonacci), जिनका वास्तविक नाम लियोनार्डो पिसानो था, एक इतालवी गणितज्ञ थे जिन्होंने 13वीं शताब्दी की शुरूआत में अपनी पुस्तक “लिबर अबासी” (Liber Abaci-गणना की पुस्तक) में इस “भारतीय विधि” (Modus Indorum) का परिचय करवाया। प्रारंभ में यूरोप में रोमन अंक प्रणाली प्रचलित थी, जो जटिल गणनाओं के लिए अनुपयुक्त थी। भारतीय अंकों की सरलता और प्रभावशीलता के कारण धीरे-धीरे यूरोपीय विद्वानों और व्यापारियों ने इसे अपनाना शुरू कर दिया।
चूँकि यह ज्ञान यूरोप को अरबों के माध्यम से प्राप्त हुआ था, इसलिए यूरोप में इन अंकों को “अरबी अंक” (Arabic Numerals) कहा जाने लगा। यह नामकरण उनके तात्कालिक स्रोत को इंगित करता था, न कि उनके वास्तविक मूल उद्गम को।
“अँग्रेज़ी अंक” का भ्रम क्यों?
भारत में इन अंकों को “अँग्रेज़ी अंक” कहने का भ्रम संभवतः ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान उत्पन्न हुआ। अँग्रेज़ों ने अपने शासनकाल में इसी अंतरराष्ट्रीय अंक प्रणाली का उपयोग किया, जो उस समय तक यूरोप में व्यापक रूप से स्थापित हो चुकी थी। चूँकि यह प्रणाली अँग्रेज़ों द्वारा प्रशासनिक और शैक्षिक कार्यों में प्रयोग की जा रही थी, आम भारतीय जनमानस में यह धारणा बन गई कि ये अंक अँग्रेज़ों की देन हैं। यह एक स्वाभाविक, यद्यपि ग़लत, निष्कर्ष था। वास्तविकता यह है कि अँग्रेज़ स्वयं इन अंकों को भारत और अरब जगत से प्राप्त ज्ञान के यूरोपीय संस्करण के रूप में प्रयोग कर रहे थे।
अंतरराष्ट्रीय मान्यता और हमारा दायित्व
आज यही अंक प्रणाली संपूर्ण विश्व में मानक के रूप में स्वीकृत है। विज्ञान, प्रौद्योगिकी, वाणिज्य, शिक्षा और दैनिक जीवन के हर क्षेत्र में इन्हीं अंकों का प्रयोग होता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन्हें “इंडो-अरेबिक अंक प्रणाली” या “हिन्दू-अरबी अंक प्रणाली” के रूप में जाना जाता है, जो इसके दोहरे ऐतिहासिक मार्ग—भारत में उद्भव और अरब जगत के माध्यम से यूरोप तक प्रसार को सही ढंग से प्रतिबिंबित करता है।
यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि हम भारतीय अपनी इस महान विरासत को पहचानें और इस पर गर्व करें। यह भ्रम कि ये “अँग्रेज़ी अंक” हैं, न केवल हमारी ऐतिहासिक अज्ञानता को दर्शाता है, बल्कि हमारे पूर्वजों के उस बौद्धिक कौशल को भी कम आँकता है जिसने विश्व को गणना की इतनी सरल और शक्तिशाली प्रणाली प्रदान की।
अगली बार जब आप इन अंकों का प्रयोग करें, तो स्मरण रखें कि आप एक ऐसी प्रणाली का उपयोग कर रहे हैं जिसकी जड़ें आपकी अपनी भूमि में हैं—एक ऐसी प्रणाली जिसने विश्व को देखने और समझने का तरीक़ा बदल दिया। यह भारतीय प्रतिभा का एक ऐसा उपहार है जो आज भी वैश्विक प्रगति का अभिन्न अंग है। आइए, इस सत्य को जानें, समझें और इसका प्रसार करें।
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