लोकतंत्र

विजय नगरकर (अंक: 215, अक्टूबर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

मूल लेखक: हेरंब कुलकर्णी (मराठी)
मराठी से हिन्दी अनुवाद: विजय नगरकर

 

उस क्रूर रियासतदार के ज़ुल्म से ज़िलों में सभी किसान त्रस्त थे। फ़सल काटकर चुराने वाले उनके गुंडे, बहू-बेटियों को सताने वाले उनके मवाली लोगों से आम जनता परेशान थी। 

जनता ने बग़ावत की। राज्य में मतदान हुआ। रियासतदार लोकतंत्र की राह से गुज़र कर चुनाव जीत गया। 

अब उनके गुंडे खेती से फ़सल काटकर चुराते नहीं, बल्कि किसान स्वयं उनके दफ़्तर जाकर कर अदा करने लगे हैं। वे अब बहू-बेटियों को उठाकर नहीं ले जाते हैं, बल्कि उन्हें नक्सली मानकर बाक़ायदा रात भर जेल में बंदी बनाकर उन पर बलात्कार किया जाता है। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

स्मृति लेख
आप-बीती
पुस्तक चर्चा
लघुकथा
साहित्यिक आलेख
काम की बात
पुस्तक समीक्षा
कविता
अनूदित कविता
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
सांस्कृतिक आलेख
रचना समीक्षा
अनूदित आलेख
हास्य-व्यंग्य कविता
विडियो
ऑडियो