नाड़ा

विजय नगरकर (अंक: 195, दिसंबर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

चुनाव का मौसम था। सत्ता और विपक्ष के नेताओं की कसौटी थी। एक को सत्ता फिर एक बार सँभालनी थी, तो दूसरे को सत्ता की कुर्सी छीननी थी। प्रजातंत्र में दोनों को समान अवसर मिल रहे थे, कभी धूप कभी छाँव। दोनों ने सत्ता की क़ुलफ़ी का बारी-बारी से स्वाद चख लिया था। 

प्रचार सभा की चर्चा और रंगत बढ़ रही थी। एक बार अजब ग़ज़ब बात हुई। भाषण करते समय भ्रष्टाचार की बात निकली और नेता ने कहा, "उनके पाजामे का नाड़ा हमारे पास है।"

पत्रकारों ने छेड़ा, "यह नाड़ा आप कब खींचने जा रहे हैं?" 

मीडिया में नाड़े की बात चलने लगी, टीवी पर नेताओं, राजनीति विद्वानों की टिप्पणियों से प्रचार का आकाश गूँजने लगा। दोनों पार्टियों में झड़पें होनी लगीं। 

यह सब सुनकर जनता में अद्भुत चेतना जागृत होने लगी। इंक़िलाब ज़िंदाबाद, वंदे मातरम्‌, मेरा देश महान जैसी घोषणाएँ बढ़ने लगी। 

चुनाव के पूर्व दोनों पार्टियों ने नाड़ा खींच लिया। सारे उत्सुक थे कि अब कौन नंगा होगा? 

मतदान हुआ, एक पार्टी सत्ता पे आयी, दूसरी पार्टी विरोधी बेंच पर बैठ गयी। 

तब दर्शन हुआ कि जनता के पाजामे का नाड़ा ग़ायब था। नंगा होने से बचने के लिए अब बेचारी जनता एक हाथ में नाड़ा और दूसरे हाथ से अपना परिवार सँभाल रही है। 

अब जनता की उस नाड़े की खींचतान दोनों पार्टियों में चल रही है। जनता अगले चुनाव की प्रतीक्षा कर रही है। 

2 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

स्मृति लेख
आप-बीती
पुस्तक चर्चा
लघुकथा
साहित्यिक आलेख
काम की बात
पुस्तक समीक्षा
कविता
अनूदित कविता
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
सांस्कृतिक आलेख
रचना समीक्षा
अनूदित आलेख
हास्य-व्यंग्य कविता
विडियो
ऑडियो