समय

डॉ. सुनीता जाजोदिया (अंक: 190, अक्टूबर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

अस्पताल के वातानुकूलित कमरे में सामने टेबल पर की घड़ी को वह एकटक देख रहा था। यह वही घड़ी है जो समय बताती है। घड़ी वही रहती है किंतु समय बदल जाता है। कल इसी पलंग पर यह समय किसी और का था किंतु आज यह मेरा है। कल उसकी बहुत बड़ी सर्जरी होने वाली है। पत्नी पास ही सोफ़े पर बैठी झपकी ले रही थी। कमरे में बेटा बड़ी बेचैनी से चहलक़दमी कर रहा था। विज़िटिंग टाइम में शायद बेटियाँ और दामाद भी आ जाएँ। 

कहने को आज उसके पास पैसा, परिवार, प्रतिष्ठा सब कुछ है। मगर फिर भी आज उसके भीतर कुछ कचोट रहा था। कहीं कुछ खोखलापन था जिसके अँधेरे से वह बाहर नहीं निकल पा रहा था। तभी टेबल पर रखी  उस घड़ी में एक धुँधली सी आकृति उभरी। उसे वह आकृति कुछ जानी-पहचानी सी लगी। आकृति उससे बातें करने लगी, ”बेटा, कैसे हो? सब कुशल तो है ना? काम अच्छा चल रहा है क्या? कोई  परेशानी तो नहीं है ना? बिटिया की और कितने साल की पढ़ाई बाक़ी रही? उसके विवाह की चिंता है या नहीं? कभी-कभी इधर आते रहा करो बेटा। तुमसे कुछ देर बातें करने से तुम्हारे बूढ़े माँ-बाप की ज़िंदगी में कुछ पल सुकून के आ जाते हैं वर्ना तो अब सब कुछ बहुत सूना-सूना सा है, सब ख़त्म होने को है।“

अचानक दरवाज़ा खुलने की आवाज़ से उसकी तंद्रा टूटी। अब बेटा, बहू के साथ पलंग के नज़दीक खड़ा था। बहू पूछ रही थी, “कैसी तबियत है पापा? डाक्टर आया था क्या? नर्स ने दवाइयाँ पूरी दीं या नहीं? अब अगली सुई कितने बजे लगेगी? कल सवेरे थियेटर में ठीक सात बजे ले जाएँगे या फिर वही ग्यारह–बारह बजा कर परेशान कर देंगे? बारह बजे तो चुन्नू को स्कूल से लाना होगा।“

इन सवालों के स्वर बड़े धीमे रूप में उसके कानों में पड़ रहे थे। और अचानक घड़ी की वह आकृति अब बिल्कुल साफ़ हो गई थी। उसके होंठों ने बुदबुदाया “पिताजी”। कल वह पिताजी का समय था किंतु आज अपनत्व के वही पल तलाशता यह उसका अपना समय है।

1 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
लघुकथा
कविता
कार्यक्रम रिपोर्ट
साहित्यिक आलेख
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में