चिंता
डॉ. सुनीता जाजोदियाऑटो रिक्शा स्टार्ट करते ही ड्राइवर ने उससे पूछा, "ऑटो तक आपको छोड़ने वाले क्या आपके पिताजी थे?"
सुखद आश्चर्य से भर कर जवाब में मैंने प्रश्न किया, "हाँ, मगर क्या तुम उन्हें पहले से जानते हो? क्या उन्होंने कभी तुम्हारे ऑटो की सवारी की है? क्या तुम इसी इलाक़े से हो?"
मेरे इतने सारे प्रश्नों के जवाब में उसने कहा, "नहीं मैडम, ना तो मैं इस इलाक़े का हूँ और ना ही कभी उन्होंने मेरे ऑटो की सवारी की है। मैडम,आप ही बताइए एक अकेली औरत को रात आठ बजे ऑटो में बिठाकर नंबर नोट करने वाला एक पिता के अलावा और कौन हो सकता है?" आरती ने अपने दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डाला मगर उसे याद ही नहीं है कि शादी के सत्रह सालों में कभी अरुण ने इस प्रकार नंबर नोट किया हो जबकि घर एवं बच्चों के अनेक कामों को पूरे करने के लिए ऑटो अथवा टैक्सी से उसे अक़्सर अकेले जाना पड़ता है व कई बार घर पहुँचने में देर-सबेर भी हो जाती थी।
ऑटो की तेज़ रफ़्तार के साथ उसके विचार भी तेज़ गति से दौड़ने लगे कि आख़िर क्यों एक बेटी के पिता की चिंता आजीवन कभी ख़त्म नहीं होती।
2 टिप्पणियाँ
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सच है ! माता पिता कभी भी कर्तव्य से मुक्त नहीं हो सकते । जब तक प्राण है,, संतान के लिए तड़पते ही रहेंगे , चिन्ता करते ही रहेंगे ।
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बहुत बढ़िया
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