दीप्ति कुलश्रेष्ठ की रचनाधर्मिता: आलोचना कृति के संदर्भ 

01-09-2024

दीप्ति कुलश्रेष्ठ की रचनाधर्मिता: आलोचना कृति के संदर्भ 

डॉ. सुनीता जाजोदिया (अंक: 260, सितम्बर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

लोकार्पण होता है—लोगों को, इस लोक को, पूरे संसार को—सुधी पाठकों, साहित्यप्रेमियों व साहित्यकर्मियों को। केवल पुस्तक नहीं अपितु एक लेखक अर्पण करता है, सौंपता है अपनी सोच और विचारों को, अनुभवों और आकांक्षाओं को, कथा के तान-बाने में बुनकर। सृजनधर्मिता का अंतिम सोपान है लोकार्पण। इस समारोह के बाद दारोमदार है समाज का कि वे लेखक के विचारों को आत्मसात कर बदलाव की राह पर अग्रसर हों, सुधार की वह दिशा पकड़े जैसा कि लेखक ने अपनी रचनाओं में इंगित किया है। साहित्य समाज का दर्पण है, सच ही तो है। हम दर्पण में अपनी छवि रोज़ देखते हैं, एक दिन में अनेक बार देखते हैं। हम सिर्फ़ छवि देखकर ही नहीं रह जाते बल्कि अपने-आप को सँवारते भी हैं, मेकअप और पहनावे की कमियों को दूर करके। हर रचना समाज की छवि होती है और आलोचक उस समाज की छवि की ख़ूबसूरती और बदसूरती को समीक्षा के द्वारा उजागर करता है। लेखन और आलोचना मेरा मानना है कि कोडिंग और डिकोडिंग की प्रक्रिया है। एक रचना के गूढ़ संदेश को ग्रहण कर समाज के सम्मुख प्रस्तुत करता है एक आलोचक। और आलोचना कृति इसका एक ख़ूबसूरत दस्तावेज़ ही तो होती है। यह लोकार्पित कृति ‘कथाकार दीप्ति कुलश्रेष्ठ: सृजन के विविध आयाम’ क़लम की धनी एवं धुरंधर संवेदनशील कथाकारा दीप्ति जी के तीन दशकों के निरंतर सृजनशीलता के विविध आयामों को समेटे हुए है। एक कथाकार के रचना-कर्म को एक पुस्तक में समेटा नहीं जा सकता, उसकी कृतियों की मीमांसा के लिए एक नहीं अनेक शोध ग्रंथों की आवश्यकता होगी। 

तमाम नकारात्मक स्थितियों-परिस्थितियों मान‌सिकताओं के बीच वे सकारात्मकता की वो महीन रेखा ढूँढ़ ही लेती हैं जिससे जीवन और समाज दोनों को दिशा दी जा सकती है . . . और जब वे बोलती हैं तो वह किसी न किसी रूप में हमारे सामने जीवन-दर्शन के रूप में उपस्थित हो जाता है। (पृ. 9, कथाकार दीप्ति . . .) संपादक डॉक्टर कौशलनाथ उपाध्याय के ये शब्द लेखिका दीप्ति जी के गहन जीवन दर्शन को प्रकट करते हुए उनके सकारात्मक सोच और चिंतन को हमारे समक्ष रखते हैं। 

लेखक की रचना हमसे सीधे संवाद करती है, प्रश्न भी करती है तो समाधान भी वही खोजती है। कहानी-उपन्यासों की कथा का फलक एक प्रयोगशाला की भाँति है जिसमें कथा-पात्रों के मन की क्रिया-प्रतिक्रियाओं, सामाजिक परिस्थितियों व परिवेश का गहन वैज्ञानिक-विश्लेषण होता है। विश्लेषण के बाद परिणाम भी मिलता है-सूत्र और सिद्धांतों के रूप में अर्थात्‌ सामाजिक दशा और दिशा के बोध के रूप में।

कौशलनाथ जी लेखिका रचनाधर्मिता को रेखांकित करते हुए कहते हैं, “दीप्तिजी के लेखन की एक उल्लेखनीय विशेषता है कि वे रचनाओं के माध्यम से हस्तक्षेप करती दिखाई देती हैं।” (पृ. 9, कथाकार . . .) यह हस्तक्षेप कुछ और नहीं दीप्ति जी की विशेषता अथवा सफलता है क्योंकि लेखक अपने भीतर उमड़ती-घुमडती भावनाओं और विचारों के उद्वेलन को अभिव्यक्त करता है सामाजिक सरोकार के वास्ते, उसका सरोकार है उस सामाजिक व्यवहार और व्यवस्था से जिसमें वह जीता है, भोगता है और पीड़ित होता है। इस व्यवस्था से विशेष प्रभावित होता है एक मन, एक व्यक्ति का मन, वह स्त्री हो या पुरुष। 

यदि समाज का व्यष्टिरूप रोगी और अस्वस्थ है, मनोविकार ग्रस्त और असंतुलित है तो स्वस्थ व सुंदर समष्टिरूप की आशा करना व्यर्थ है। दीप्ति जी का लेखन माइक्रो लेवल के लिए है ताकि मैक्रो की एक सुंदर तस्वीर प्राप्त हो सके। 

आपके प्रसिद्ध उपन्यास ‘भीतर कही कुछ है जो’ एवं ‘बौराए प्रतिबिंब’ में व्यष्टि की चिंता है, चिंतन है और यह चिंतन लैंगिक भेदभाव से ऊपर उठकर स्वस्थ व्यक्तित्व विकास के लिए है क्योंकि यही एक विकसित समाज का दृढ़ आधार है। ‘बौराए प्रतिबिंब’ एक ऐसा ही उपन्यास है जिस‌में अस्वस्थ एवं असंतुलित मानसिकता वाले पति एवं ससुराल वालों से प्रेम व अपनापन, मान व सम्मान पाने की अभिलाषा करने वाली नीना मनोविक्षिप्त तक हो जाती है पर वह उनसे वह हासिल नहीं कर पाती है जो उसका अधिकार है, एक पत्नी और बहू होने के नाते भी और इनसे ऊपर और एक मानवी होने के नाते। दीप्ति जी नीना की व्यथा-कथा कह कर ही नहीं थमती, अपितु पुरुषों के स्वस्थ व्यक्तित्व विकास की राह भी दिखाती है। नारी-यातनाओं-प्रताड़नाओं के मूल में स्थित मनोसामाजिक परिवेश को कारण बिंदु बताती हैं दिव्यांश के इन प्रश्नों में, “जो अलगाव उन्हें मिलता रहा, एक तरह शोषण भी होता रहा और ऐसे होते चले जाने से पर्सनैल्टी की जैसी शेपिंग हुई वह आपके सामने है। आप उसे कैसे सुधार सकेंगी? कैसे वह सब पाएँगी जो आप पाना चाहती हैं।” (पृ. 149 कथाकार . . .) भीतर कहीं कुछ है . . . की पितृछाँव तले स्वाभिमानी व स्वतंत्र चेता की स्वामिनी मीनल पिता के जाने के बाद ‘बने बनाए चौखटों में कसकर’ जीवन-साथी के रूप में किसी को चुनने के लिए तैयार नहीं होती। जाति-पांति और सामाजिक हैसियत के मेल के बनिस्बत वह पैरवी करती है मानसिक समरसता की, विवाह की सफलता के लिए। पिता के जीवनदर्शन को आत्मसात कर जीवन-दिशा पाने वाली मीनल संघर्षों की राह में आगे बढ़कर अपने जीवन का स्वतंत्र निर्णय लेती है किन्तु बौराए प्रतिबिंब की नीना में विवाह-सबंधी निर्णय की परतंत्रता स्वरूप जो टूटन शुरू होती है वह ससुराल में चरम-सीमा पर पहुँचकर उसे मनोविक्षिप्त कर देती है। पिता-पुरुष वर्ग का प्रतिनिधित्व तो करता ही है, साथ ही वह दुनियादारी से परे एक अबोध बालिका दीप्तिजी जैसी बेटियों की ऐसी मेंटल शेपिंग मेंटल नरिशमेंट करता है कि आज वह एक संवेदनशील स्त्री एवं सशक्त कथाकार के रूप में हमारे सामने हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि ‘पितृग्रंथि’ और ‘इमोशनल नीड’ आपके उपन्यासों का केंद्रीय विषय बन गए हैं।

वे स्त्री-पुरुष संबंधों को देह की सामाजिक जटिलता नहीं अपितु 'मानस' की सरस, पावन एवं समतल भूमि पर खड़े देखना चाहती हैं। तमाम संघर्षों और पीड़ाओं के बीच एक सकारात्मक भाव है आपके समस्त रचनाकर्म का केंद्रीय भाव है, जो दीप्ति जी के अंतर्मन का भी प्रबल भाव है जो उनकी लेखनी को धार भी देता है और ताक़त भी। और वो लिखती हैं कि . . . “तुम्हारी खिड़की के बाहर एक चिड़िया हमेशा चहकती है . . . शायद वह तुम्हें कोई प्यारा गीत सुनाना चाहती है—ज़िन्दगी से भरा, ख़ुशी से भरा।” (पृ. 30 कथाकार . . .) बस आवश्यकता है खिड़की खुली रखने की, आत्म-विश्वास और आत्म-चेतना की। जीवन के गीत गाने वाली इस चिड़िया में दीप्ति जी का स्पष्ट बिंब है। 

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