बदलाव

डॉ. सुनीता जाजोदिया (अंक: 244, जनवरी प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

“पापा, आपको कल की तारीख़ याद है ना?” 

“हाँ, कल पच्चीस तारीख़ है।”

” सिर्फ़ पच्चीस? पच्च्चीऽऽस दिसंबर है पापा, कल तो क्रिसमस है!”

“हाँ तो . . .?” अतुल ने जूते की लेस बाँधते हुए कहा। 

“आपको याद है ना मुझे गिफ़्ट देना है।”

“गिफ़्ट! किसलिए? अभी पिछले महीने ही तो तुम्हारा बर्थडे मनाया था,” अतुल ने परी को चिढ़ाते हुए कहा। 

“क्या पापा, भूल गए क्रिसमस पर सांता क्लॉस बच्चों को गिफ़्ट देता है और आप ही तो मेरे सांता क्लॉस हो। आपने मेरा गिफ़्ट ख़रीद लिया होगा और नहीं ख़रीदा है तो आज ज़रूर ख़रीद लेना। और हाँ पिछली बार की तरह इस बार पेन मत लाना। पार्टी में पहनने के लिए मुझे अच्छी घड़ी चाहिए, प्लीज़ पापा, इस बार रोसगोल्ड वॉच।”

“ओके माई, परी,” यह कहकर परी के गाल थपथपाते हुए लैपटॉप लेकर अतुल ऑफ़िस के लिए रवाना हो गया। 

वहीं डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर बैठकर अख़बार पढ़ रहे वीरेश्वर अपने बेटे और दस वर्षीय पोती परी के बीच इस वार्तालाप को सुन रहे थे। पिछले पाँच-छह वर्षों से घर में वे क्रिसमस-ट्री सजाने और गिफ़्ट देने का एक नया चलन देख रहे थे। अपने तीज-त्योहार तो ठीक से मनाते नहीं और आजकल ईसाइयों का त्योहार क्रिसमस मनाने का अजीब-सा चलन उनकी समझ से परे था। कुछ कहो तो परी ही बोल पड़ती है, “दादू, आप भी किस ज़माने की बातें करते हो। होली-दिवाली मेरे ग़ैर हिंदू दोस्त भी मनाते हैं तो वैसे ही हमें भी तो क्रिसमस मनाना चाहिए।”

वीरेश्वर कट्टरपंथी नहीं किन्तु आजकल केवल फ़ेसबुक पर पोस्ट करने के लिए क्रिसमस-ट्री सजाकर उसके साथ सेल्फ़ी खींचते हैं और गिफ़्ट लेते-देते हैं। यह दिखावे की भौतिक संस्कृति उन्हें बिल्कुल भी रास नहीं आती है। तभी रसोई से बाहर निकल कर नेहाली ने पानी के गिलास संग शुगर की दवा थमाते हुए उनसे कहा, “दवा ले लो पापा, थोड़ी देर में नाश्ता बन जाएगा।”

“बेटे, आज तुम्हें देर हो गई दफ़्तर के लिए।”

“पापा, आज मेरे दफ़्तर में शनिवार की छुट्टी है।”

“ओह . . . हाँ, आजकल कुछ याद नहीं रहता है . . .”

दवा लेकर फिर अख़बार में नज़रें गड़ा ली थी उन्होंने। 

बचपन से ही अपनी लाडो बिटिया की हर फ़रमाइश और ज़िद पूरी करने वाले वह नेहाली के युवा होने पर बड़ी शिद्दत से उसके लिए जीवन-साथी की तलाश में जुट गए थे। अभी-अभी परी और अतुल के बीच की बातें सुनकर उनके मन के किसी कोने में यह इच्छा पैदा हुई कि काश वे भी सांता क्लॉस की तरह अपनी बिटिया को गिफ़्ट में एक अच्छा जीवन साथी दे पाते। 

नेहाली के विवाह के हाथ पीले करने के लिए सुयोग्य वर की तलाश में पिछले छह बरसों में वीरेश्वर ने एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया था। तीस की उम्र पार कर चुकी नेहाली का मोटापा दहेज़ में मोटी रक़म माँगने का कारण बन गया था। ऊपर से उसका साँवला रंग नीम चढ़ा करेला हो गया था। और फलस्वरूप आज भी उनकी इस खोज को विराम नहीं मिला है। 

बचपन से गोल-मटोल नेहाली बड़ी होकर भी उतनी ही गोल-मटोल बनी रही तो पत्नी को चिंता सताने लगी थी। इस मोटापे के कारण रिश्ता तय करने में होने वाली अड़चन को भाँप कर उनकी पत्नी ने वज़न नियंत्रित करने के लिए सबेरे पौने घंटे की सैर और शाम को अपार्टमेंट के जिम में वर्कआउट करने को नेहाली की दिनचर्या में अनिवार्य रूप से शामिल कर दिया था। किन्तु परिणाम वही ढाक के तीन पात। जब तक नियमितता बनी रहती, कुछ वज़न घटता था, किन्तु जैसे ही यह बंद होती वही पुराना वज़न। दहेज़ की बढ़ती माँग ने वीरेश्वर को पूरी तरह तोड़ दिया था। पीएफ़ के रुपए और कुछ क़र्ज़ लेकर मध्यम वर्गीय वीरेश्वर ने इकलौती बेटी की शादी में पंद्रह लाख रुपए ख़र्च करने की तैयारी की थी। एमबीए में गोल्ड मेडलिस्ट अपनी बेटी पर उन्हें बड़ा गर्व था। बेटी को उच्च शिक्षित कर अपने पैरों पर खड़ा कर उन्हें लगता था कि पिता होने के नाते उन्होंने अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी का बख़ूबी निर्वाह किया है। पोस्ट ग्रेजुएट बेटी की शिक्षा से मेल खाता पोस्ट ग्रेजुएट दामाद ढूँढ़ने वो निकले तो उन्हें पता चला कि वह उनकी पहुँच के बाहर था क्योंकि उसके लिए कम से कम बीस लाख की दहेज़ की माँग थी। भरसक प्रयास करने के बावजूद बात कहीं भी नहीं बन रही थी। बेटी के मोटापे और साँवले रंग ने उनकी हैसियत और दामाद पाने में पाँच लाख रुपयों की स्थायी दूरी खड़ी कर दी थी। अब उन्हें ऐसे वर की तलाश थी जो बिना दहेज़ लिए विवाह के लिए तैयार हो। इसके लिए ऑनलाइन वेबसाइटों पर उन्होंने अपनी खोज तेज़ कर दी थी। वहाँ भी लंबाई–चौड़ाई। वज़न, रंग-रूप के मापदंडों ने पीछा नहीं छोड़ा था। और तो और किसी को घरेलू चाहिए थी तो किसी को नौकरी पेशा। शहर, कंपनी, और पैकेज की भी कैसी-कैसी शर्तें थी! कोई तलाक़शुदा था तो कोई बच्चे का बाप और ऊपर से विश्वसनीयता का भी सवाल था। 

दो बरस पहले ट्रैवल कंपनी में नेहाली जब असिस्टेंट मैनेजर बन गई और उसे अच्छा पैकेज मिलने लगा तो उनकी उम्मीद फिर से जागी थी। किन्तु नई-नई माँगों ने उनके हौसले फिर से पस्त कर दिए थे। किसी को ग्रैंड रिसेप्शन चाहिए था तो किसी को रिसोर्ट वेडिंग। विवाह न होकर जैसे एक दिखावा ही रह गया हो। कहाँ गई वो पवित्रता जिसमें दो ज़िंदगियों का महत्त्व होता था। उन्होंने सुमन से शादी की थी दोहरे बदन की होने के बावजूद क्योंकि वे सूरत में नहीं सीरत में विश्वास रखते थे। सच में सुमन ने अपने गुणों से उनके दांपत्य जीवन को हर प्रकार से सुखदायी बनाया था। ऊँची दुकान फीके पकवान की तर्ज़ पर आजकल महँगी और ख़र्चीली शादियों में मिलने वाले धोखों और असफलताओं से भी वे भीतर तक आतंकित थे। 

और अब हालत यह हो गई थी कि नेहाली ने विवाह करने से साफ़-साफ़ इंकार कर दिया था। 

नेहाली ने कहा था, “रंग-रूप और पैसों को महत्त्व देने वाला क्षुद्र इंसान वैसे भी मेरी भावनाओं और ख़ुशियों की क़द्र नहीं कर सकेगा इसलिए पापा अब आप मेरी शादी की चिंता करना बंद करें। मुझे अपने पैरों पर खड़ा कर आपने एक बेटी के लिए किया जाने वाला सबसे बड़ा कर्त्तव्य पूरा किया है, इसका पुण्य एक कन्यादान से भी कई गुना अधिक है। अगर आप इस तर्क पर सोचने लग जाओगे तो आपके दिल का बोझ हल्का हो जाएगा। परिवर्तन संसार का नियम है, यह आप ही ने तो सिखाया है ना पापा, फिर क्यों नहीं आप अपनी रूढ़िवादी सोच बदल देते?” 

कमाऊ-कुँवारी बेटी के विवाह का बोझ दिल से उतारकर नेहाली के कहे अनुसार धीरे-धारे वे स्वयं को ढाल रहे थे। मित्र, पड़ोसी व रिश्तेदार अक़्सर अब जब नेहाली के विवाह की झूठी चिंता व्यक्त करते तो वे फिर से परेशान हो जाते थे। 

“पापा, आप फिर से पुरानी सोच में डूब गए हो क्या?” 

“न . . . नहीं . . . नहीं . . .” हकलाते हुए उन्होंने कहा। 

“तो फिर आपका नाश्ता ठंडा क्यों हो गया?” 

तभी परी ने नेहाली के गले में अपनी बाँहें डाल झूलते हुए पूछा, “बुआ, आपके सांता कल आपको गिफ़्ट में क्या देंगे?” 

“नई सोच,” नेहाली ने कहा तो परी ताली बजाकर उछलने लगी। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
लघुकथा
कविता
कार्यक्रम रिपोर्ट
साहित्यिक आलेख
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में