जलधारा

डॉ. सुनीता जाजोदिया (अंक: 190, अक्टूबर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

शिखर से उतर, पत्थरों से गुज़र कर
चट्टानों को तराश, अठखेलियाँ कर
कल कल नाद संग अविराम झरने वाली
ऊर्जस्विनी धारा हूँ मैं।
 
सघन हिमखंड को प्रवाह से अपने काट
दुष्कर बाधाएँ मिटा, राहें नित अनोखी बना
इठलाती-बलखाती बहने वाली अलबेली
तेजस्विनी धारा हूँ मैं ।
 
घाट पर मेरे गूँजे सूफ़ी-संतों की वाणी
सदियों पुरानी सभ्यता की अमर कहानी
ज़िंदगी के मेले और आस्था के गोतों में
युगों की अंतर्धारा हूँ मैं।
 
क्षेत्र-प्रांत, जात-पांत से मेरा न कोई वास्ता
खींचो ना राजनीति की लकीरें सीने पर मेरे
धर्म-संप्रदाय के गलियारों से मुक्त स्वतंत्रता की
ओजस्विनी धारा हूँ मैं।
 
संगम है मेरा स्वभाव,समर्पण का अप्रतिम अन्तर्भाव
मानवता को जिलाने वाली, एकता का अमृत पिलाने वाली
राष्ट्रीय चेतना की ज्योतिर्मयी मनोभूमि की
अखंड जलधारा हूँ मैं॥

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
लघुकथा
कविता
कार्यक्रम रिपोर्ट
साहित्यिक आलेख
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में