आतंक

डॉ. सुनीता जाजोदिया (अंक: 202, अप्रैल प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

बारिश के तेज़ होते हर झोंकों के साथ दिवाकर के विचार भी तेज़ी से दौड़ने लगते। “कितनी देर हो गई। रश्मि अभी तक नहीं आई। उसे ऑटो रिक्शा या टैक्सी मिली होगी कि नहीं? मिल गई तो न जाने वो ड्राइवर कैसा हो? इतनी रात में, इतनी तेज़ बारिश में वह उसे सुरक्षित घर तक पहुँचा तो देगा न?” बार-बार वह कलाई घड़ी देखता। “बरसात में जगह-जगह पानी भरने से ट्रैफ़िक भी तो बुरे हाल जाम हो जाता है। ये कैसा शहर है? विकास की गति भी यहाँ बारिश के ट्रैफ़िक की तरह सुस्त है। कहने को तो यह महानगर शिक्षा एवं तकनीकी क्षेत्र में अग्रणी माना जाता है। फिर सड़कों पर इस तकनीकी विकास की झलक क्यों नहीं दिखाई देती? ज़रा सी बारिश क्या हुई कि सिग्नल ख़राब, सड़कों में गड्ढ़े और पुलों के नीचे दो फीट पानी जम जाएगा। ऐसे में ज़रा सी दूर भी नहीं जा सकते और रश्मि तो दूसरी छोर पर स्थित बी। नगर गई है। रात के इस समय यहाँ आने के लिए साधन मिलना भी बहुत मुश्किल है और इस बरसात में . . .। पता नहीं रश्मि को कोई साधन मिला भी या नहीं? उद्विग्न होकर वह बार-बार फ़ोन मिलाता, वहाँ से उसके बंद होने की सूचना मिलने के बावजूद। आज सवेरे ही तो रश्मि का मोबाइल अचानक बंद हो गया था। अब कैसे संपर्क करे उससे वह? 

“पापा, फुलके बना दूँ। खाना खा लो आप,” रिचा बिटिया ने पास आकर धीरे से कहा। 

“ऊँह. . . हाँ . . . नहीं . . . कुछ देर बाद . . .”

“खा लीजिए पापा। आपको शूगर है . . . ज़्यादा देर भूखा रहना ठीक नहीं है।”

“बस थोड़ी देर और . . . फिर खा लूँगा।”

ड्राइंग रूम से आती टीवी की आवाज़ों से वह समझ गया कि रिचा फिर से टीवी के सामने सोफ़े पर धँस गई है। पिछले दिनों टीवी पर चौबीसों घंटे चलने वाली सामूहिक बलात्कार की ब्रेकिंग न्यूज़ सुनकर उसके बाद रश्मि और रिचा के साथ होने वाली बहस इस तेज़ बारिश में अब जब-जब उसके दिमाग़ में कौंधती है, उसकी बेचैनी तीव्र हो जाती है। आए दिन महिलाओं के साथ होने वाले दुराचार की ख़बरों से उनके बीच छिड़ने वाली बहस में दिवाकर का मानना था कि इन बढ़ते मामलों के पीछे लड़कियों की स्वच्छंद मानसिकता है जिसमें वे परंपरागत मूल्यों को धता बताकर डेटिंग और डिस्को जाती हैं, देर रात तक बाहर रहती हैं। आज़ाद विचारों की आजकल की लड़कियों ने अपनी एक ऐसी इमेज बना ली है कि वे “उपलब्ध” हैं। उनके छोटे और भड़काऊ कपड़ों से आसानी से लड़के इस संदेश को ग्रहण करते हैं और फिर जो घटता है उसे भला कौन रोक सकता है, ये तो मानवीय प्रकृति है . . .

इस पर कॉलेज के प्रथम वर्ष में पढ़ रही रिचा तल्ख़ी से कहती, “हाँ पापा, पर तभी तो आँकड़े कहते हैं कि छोटे फ्रॉक पहनने वाली लड़कियों के साथ ही ज़्यादा दुष्कर्म होता है। एक, दो, तीन बरस से दस बरस तक की लड़कियाँ . . . यहाँ तक कि आठ-दस महीने तक की दुधमुँहीं बच्चियाँ भी। इसमें भी इन बच्चियों का ही दोष है? है ना? उस घिनौनी मानसिकता का क्या जो केवल वासना भरी हो? यह मानवीय प्रकृति नहीं सिर्फ़ और सिर्फ़ पाशविक प्रवृत्ति है पौरुष शक्ति प्रदर्शन की।” रश्मि भी धीरे से कहती, “आजकल संयम, नियम की बातें केवल औरतों के लिए ही रह गई हैं। पुरुष तो जैसे इनसे परे हैं—क्या यह भी एक कारण नहीं है?” 

रश्मि की कड़वाहट मानों उसे पुरुष की भोगी एवं कामुक प्रवृत्ति का उलाहना दे रही थी। और इस प्रश्न के साथ बहस के बीच में ही वह उठ खड़ा होता था। फिर आज वह इतना परेशान क्यों है? एक-एक पल में उसकी चिंता का भार बढ़ता ही जा रहा था। उसे इस पल अपनी माँ की याद आई जो ठीक कहा करती थी, “सबसे पहले बुरा सोच कर कौन भयभीत होता है—अपने।” हाँ, वह भी तो अपनी रश्मि की सुरक्षा के बारे में सोचकर व्याकुल हो रहा था, डर रहा था। हर रोज़ दुराचार की ख़बरें जब आती हैं, तब शायद ऐसी ही परिस्थितियाँ होती होगी। अधढके-छोटे कपड़ों में एक अकेली स्त्री, रात के अँधेरे में पैदल चलते हुए, मुख्य सड़क पर, या फिर अँधेरी गलियाँ पार करते हुए, या फिर ऑटो में हों या कैब में या अपनी कार में, सुनसान इलाक़ों में . . .। मन के भीतर का शैतान जाग जाता होगा। रश्मि जैसी आकर्षक एवं स्मार्ट महिला—वह भी इस तेज़ बारिश में, अकेली। छोटे कटे बाल, बिन बाँहों के लंबे कुर्त्ते और टाँगों से सटी लेगिंग में जैसे उसकी बयालीस की उम्र कहीं छिप जाती थी। फिर वह स्वतः ही सांत्वना देने लगा कि रश्मि उम्र के उस पड़ाव को पार कर चुकी है जब ऐसी घटनाएँ घटती हों . . . पर समाचार की सुर्ख़ियाँ तो कहती हैं कि तो 64 वर्ष की उम्र में भी . . . “हे भगवान। मेरा दिल बैठा जा रहा है। मेरी रश्मि को सलामत घर पहुँचा दे आज।” उसके होंठ प्रार्थना में बुदबुदाने लगे। वह सोचने लगा उसने रश्मि को अकेले जाने से मना क्यों नहीं किया या वह स्वयं उसे लेने क्यों नहीं चला गया? जैसा कि सवेरे रश्मि ने बताया था साहित्यिक संगोष्ठी चार बजे ख़त्म होनी तय थी। पाँच बजे वहाँ से कुछ दूरी पर स्थित “सिटी हेल्थ सेंटर” में एक घंटे की फ़िटनेस थेरेपी के बाद हिसाब से साढ़े छ:-सात बजे तक रश्मि को घर पहुँच जाना चाहिए था। ऑफ़िस से लौटने के बाद पिछले डेढ़ घंटे से दिवाकर के लिए समय बिताना कितना भारी पड़ रहा है। ऐसा तो नहीं कि रश्मि पहली बार घर से बाहर निकली हो। अक़्सर रश्मि सामाजिक एवं साहित्यिक कार्यक्रमों के लिए अकेली ही ऑटो या टैक्सी से सफ़र करती है। फिर आज वह क्यों इतना व्याकुल हो रहा है? क्योंकि . . . क्योंकि . . . मोबाइल . . . मोबाइल फ़ोन, रश्मि का मोबाइल फ़ोन जिसने आज सवेरे ही अचानक काम करना बंद कर दिया था। 

“इस साले मोबाइल को आज ही मरना था, सुबह से डेड हो रखा है, वर्ना आजकल तो मोबाइल भी एक बॉडीगार्ड की तरह रक्षा करते हैं।” यदि उस ड्राइवर के पास चाकू-छुरा भी हुआ तो . . .? आंतकित दिवाकर के विचारों के घोड़े फिर दौड़ने लगे थे। अँधेरी गलियों में अकेली रश्मि . . . क्या उसे कोई मदद मिलेगी? वैसे भी शहरों में आजकल लोग तमाशाबीन बने रहते हैं, इसीलिए आजकल दिनदहाड़े, सरेआम कैसे-कैसी वारदातें होती हैं . . . और वह निर्भया . . . उसके साथ तो उसका दोस्त भी था, और आज दिसंबर की 16 तारीख़ ही तो है . . .” इस बार बारिश के तेज़ झोंके से वह सिर से पाँव तक बुरी तरह काँप गया था। “ठीक ही तो कहती है रिचा। छोटे कपड़े पहनने से भी ज़्यादा ख़तरनाक है कामुक मानसिकता। अनियंत्रित, संयमहीन मानसिकता जिससे इंसान अपने आपे से बाहर होकर हैवान बन जाता है। वह भी तो अपने दोस्तों की बातों में आकर दोष केवल लड़कियों में ही ढूँढ़ने चला था। किन्तु आज जब अपने पर कुछ वैसी ही बीत रही है तो बुराई उसे सबसे ज़्यादा मर्दों में नज़र आने लगी है जो शक्ति और अहंकार में चूर होकर उत्तेजना को क़ाबू में नहीं रख पाता है और घिनौना अपराध . . .”

रिचा ने फिर कमरे में झाँक कर कहा, “ओह। पापा डोंट वरी, ममा आ जाएँगी कुछ ही देर में। खाना तो खा लो आप। नहीं तो ममा मुझपर ही बरसेंगी।” 

“नहीं . . . अभी नहीं . . . बस तुम्हारी मम्मा आ जाये,” कहकर वह फिर से खिड़की से एकटक उस रास्ते को देखने लगा जो सोसाइटी के मुख्य फाटक तक जाता था। 

तभी घंटी बजी। उसका दिल उछलने लगा। वह तेज़ी से ड्राइंग रूम में जा पहुँचा। अपनी रश्मि को सलामत सामने देख गहरी साँस लेते हुए उसने कहा, “ठीक कहती हो तुम, संयम ज़रूरी है।” रश्मि कुछ समझ नहीं सकी और प्रश्‍नवाचक नज़रों से प्रसन्नता से चमक रहे दिवाकर के चेहरे को निहारने लगी।

“खाना लगा दो, रिचा बिटिया,” कहते हुए उसने टीवी बंद कर दिया जिसमें “निर्भया” पर विशेष बहस जारी थी। 

2 टिप्पणियाँ

  • समसामयिक विषय पर बढ़िया कहानी

  • 19 Mar, 2022 12:08 PM

    बहुत सुंदर कहानी । बधाई सुनीता जी । दिवाकर की मन:स्थिति का जीवंत शब्द चित्र खींचा है आपने । सच ही है आज ऐसी ही स्थितियों में जी रहे हैं हम । बहुत सजीव हो गया है वर्णन । बहुत बहुत बधाई

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