मेघा

डॉ. सुनीता जाजोदिया (अंक: 267, दिसंबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

घनघोर वेदना में घुमड़, आसमान में छा जाती हूँ 
कहने को क़िस्से अपने, बिजली बन तड़प जाती हूँ। 
 
पीकर धरा का भीषण ताप, श्यामल हो जाती हूँ
बरसा कर अमृतधारा, उज्जवल हो जाती हूँ। 
 
प्रकृति है मेरी आत्मजा, सजाने उसे छलक जाती हूँ
पेड़ पौधे नाती दुलारे, प्यार से भिगोने बरस जाती हूँ। 
 
विरह में तड़पने वालों को, मिलन का संदेशा दे जाती हूँ 
मन के दग्ध मरुधर को, भावों से सरसा जाती हूँ। 

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