दर्पण
डॉ. सुनीता जाजोदियादीवारों में लगे, लकड़पट्ट में जड़े
तुम में मैं नित साँझ-सवेरे
देखूँ प्रतिबिंब अपना
त्वचा और मांसलता का
रंग-रूप और नैन-नक़्श का
हाव-भाव और कदकाठी का।
निहारती-दुलारती प्रतिदिन इसे
नाना परिधानों और प्रसाधनों से
केश विन्यास और आभूषणों से
सजा-सँवार बनाती आकर्षक
प्रथम उद्घोषक हैं ये मेरी
हस्ती और हैसियत के।
अंधकार में अक्स ना उभरता
बिंब वास्ते रोशनी के मोहताज
स्वयं प्रकाश का तुममें अभाव
अतः बहुत सतही हो तुम
सच्चे मुखड़े और मुखौटों में
भेद करने की क़ुव्वत नहीं तुममें॥
1 टिप्पणियाँ
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दर्पण में वही प्रतिबिंबित होता है जो इसके सामने आ जाता है । दर्पण स्वयं प्रकाशित भले न हो लेकिन कुछ इससे छिपा नहीं है । अंधेरे में भले ही न दिखे लेकिन जो भी इसके सामने आता है उसका चेहरा सामने आ जाता है उसके सभी भेद खुल जाते है । सामने मुखड़ा हो या मुखौटा, बिना पूर्वाग्रह के दिखा देता है ।जो है जैसा है । यह बहुत बड़ा गुण है जो ग्रहण करने योग्य है । बहुत बधाई
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